हाल ही में भारत पुस्तक भंडार से आया लेखिका प्रितपाल कौर का उपन्यास साल चौरासी वर्ष 1984 में हुए सिख दंगों की पृष्ठभूमि पर आधारित है. यह उन दंगों के बीच फंसे एक परिवार के क़िरदारों की मन:स्थिति के साथ-साथ उन दंगों की विभत्सता को, उसके असर को पाठक के सामने लाता है.
पुस्तक: साल चौरासी
विधा: उपन्यास
लेखिका: प्रितपाल कौर
प्रकाशक: भारत पुस्तक भंडार
मूल्य: रु. 295
उपलब्ध: amazon.in
रेटिंग: 3/5
यदि आप उन लोगों में से हैं, जिन्होंने वर्ष 1984 के बाद जन्म लिया है या उस वक़्त बेहद छोटे थे तो उन दंगों की विभत्सता से आप शायद अनजान ही हों. वर्ष 1984 के जून के महीने में भारतीय सेना अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में घुसी, जहां खालिस्तान की मांग कर रहे चरमपंथियों ने हथियार इकट्ठा कर रखे थे. सेना और चरमपंथियों के बीच हुई गोलाबारी में स्वर्ण मंदिर को भारी नुक़सान पहुंचा. चरमपंथियों और सैनिकों के साथ-साथ आम निर्दोष लोगों की भी मौत हुई. सेना की इस कार्रवाई को ऑपरेशन ब्लूस्टार नाम दिया गया था. यह सच है कि स्वर्ण मंदिर परिसर में हुए इस पूरे वाक़ये से सिख संप्रदाय के लोगों की भावनाएं आहत हुई थीं. बावजूद इसके अधिकतर सिखों का मानना था कि यह कार्यवाही ज़रूरी थी. वहीं चरमपंथियों से सहानुभूति रखनेवाले मुट्ठीभर लोग ऐसे भी थे, जो तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इस निर्णय से बेहद नाख़ुश थे. नतीजतन उसी वर्ष 31 अक्टूबर को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही अपने दो सिख बॉडीगॉर्ड्स ने कर दी. जिसके बाद सिखों के ख़िलाफ़ देशभर में दंगे भड़क उठे. इन दंगों में तक़रीबन 3500 लोगों की मौत हुई. आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कितने ही सिख परिवार इन दंगों की ज़द में आकर तबाह हो गए होंगे.
इस पृष्ठभूमि के बाद अब बात करते हैं प्रितपाल कौर के उपन्यास की. उनका यह उपन्यास दिल्ली में रह रहे एक ऐसे सिख परिवार की कहानी है, जिनकी 17 वर्षीय बेटी दिलजीत कौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से अनजान, अपने भाई को डॉक्टर को दिखाने निकलती है और जब बस नहीं मिलती, सड़कें सुनसान दिखाई देती हैं तो उसे राहगीरों के मार्फत पता चलता है कि प्रधानमंत्री की हत्या हो गई है. डरी-सहमी वह लड़की अपने और अपने भाई की सुरक्षा को लेकर, जो भी उपाय सामने नज़र आता है, उसे आज़माती जाती है. छोटे भाई और उसे घर छोड़ने जा रहे प्रिंसिपल सोढी की भीड़ द्वारा निर्मम हत्या की साक्षी बनती है और किसी तरह ख़ुद को और भाई जान बचाती हुई एक अनजान के घर पहुंच जाती है. इस उपन्यास में दंगों के बीच माता-पिता का अपने बच्चों को सही-सलामत पाने या न पाने की चिंता है, अपने कुटुंबियों की सलामती चाहने का दर्द है, बच्चों के अपने माता-पिता से मिलने या न मिल पाने का ख़ौफ़ है, अनजान लोगों की एक-दूसरे के लिए की गई मदद है, पड़ोसियों का पड़ोसी धर्म है, एक पूरी क़ौम की दहशत है, लोगों का भाईचारा है, दोस्ती है तो अपनों की ही बेवफ़ाई के रूप में दंगों का क्रूर सच भी है. ये सभी चीज़ें एक परिवार की कथा के माध्यम से संजोने का प्रयास है. उपन्यास पाठक को बांधे रखता है और पाठक एक ही बैठक में इसे ख़त्म कर जाता है.
यह एक सुखांत उपन्यास है, लेकिन न जाने कितने सिखों के लिए ये दंगे अपनों को खो देने के बाद आजीवन दुखांत ही रहे, बावजूद इसके कि वे ख़ुद भी प्रधानमंत्री की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा की गई हत्या से हैरान थे, दुखी थे. यदि इस लिहाज से देखा जाए तो उपन्यास में दंगों से जुड़े विवरणों, कथानकों और गहराई की कमी महसूस होती है. प्रूफ़ रीडिंग से जुड़ी कुछ ग़लतियों से बचा जा सकता था. कुल मिलाकर वर्ष 1984 के सिख दंगों पर आधारित प्रितपाल कौर का यह उपन्यास ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए.