फ़िलॉसफ़र-कवि नरेश सक्सेना की कविताएं चीज़ों को देखने का नया नज़रिया देती हैं. इस कविता में उन्होंने शब्दों और संख्याओं के आपसी संबंध की बेहतरीन व्याख्या की है.
शब्द तो आए बहुत बाद में
संख्याएं हमारे साथ जन्म से ही हैं
गर्भ में जब
निर्माण हो रहा था हमारी हड्डियों का
रक्तकणों और कोशिकाओं का
साथ-साथ संख्याएं भी निर्मित होती जा रही थीं
एक हमारी देह की इकाई की वो संख्या है
जिसमें समाहित हैं सारी संख्याएं
दो आंखों में स्थित है दो
तीन है उंगलियों के तीन जड़ों में
हृदय के हिस्से हैं चार
और पांच का निवास
पांच उंगलियों में है
आगे की सारी संख्याओं को
देह में तलाशना बहुत मज़ेदार खेल है
नौ को तो अमर कर गए कबीर
कि नौ द्वारे का पिंजरा ता में पंछी पौन…
मुझे तो बहुत चकित करती है यह बात
कि देह की संख्याएं आठ की संख्या निर्धारित करती हैं
क्योंकि आठ तरह से ही मुड़ती है यह देह
इसीलिए तो कृष्ण कहलाते हैं अष्टावक्र
सात रंग दीखते हैं आंखों को
और जीभ छह तरह के स्वादों को पहचानती है
इसीलिए तो भोजन को कहा गया षट्रस
देखिए एक से बना कैसा प्यारा शब्द
एका
एक जो दूसरे के बिना रह नहीं सकता
जिसके बिना सम्भव नहीं थी
इस दुनिया की शुरुआत
मैंने तो शुरू में ही कही थी यह बात
कि संख्याएं शब्दों की पूर्वज हैं
शब्द तो आए बहुत बाद में
और आते ही चले जा रहे हैं
जबकी संख्याएं सबकी सब आ चुकी हैं
क्या कोई नई संख्या बता सकते हैं आप?
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