जाड़े की शाम के प्राकृतिक दृश्य की तुलना सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने एक किसान से की है. रूपकों के इस्तेमाल से यह कविता छोटी-सी कविता ख़ास बन जाती है.
आकाश का साफ़ा बांधकर
सूरज की चिलम खींचता
बैठा है पहाड़
घुटनों पर पड़ी है नदी चादर-सी
पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अंगीठी
अंधकार दूर पूर्व में
सिमटा बैठा है भेंडों के गल्ले-सा
अचानक बोला मोर
जैसे किसी ने आवाज़ दी
सुनते हो
चिलम आंधी
धुआं उठा
सूरज डूबा
अंधेरा छा गया
Illustration: Pinterest