सरकार कोई भी हो, भले ही उसके जनता के हित के कितने ही वादे क्यों न किए हों, एक समय बाद जनता की आवाज़ को दबाने के लिए बंदूक लेकर तैयार हो जाती है. दमन के भीषण वातावरण में भी भले ज़्यादातर लोग चुप्पी साध लें, विरोध की एकाध आवाज़ शासन की बंदूक की अवहेलना ज़रूर करती है. दशकों पहले लिखी बाबा नागार्जुन की यह कविता आज भी सच लगती है.
खड़ी हो गई चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहां-तहां दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूंठ पर बैठकर गई कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक
Illustration: Pinterest