यदि आपका सवाल ये है कि फ़िल्म शिकारा क्यों देखी जाए तो इसके कई जवाब हैं: देश में 1947 के विभाजन के बाद यह लोगों का दूसरा बड़ा पलायन था, जिसमें कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरण लेनी पड़ी, इसमें पलायन का दर्द है और इसमें प्यार की सुंदरतम अभिव्यक्ति भी है. इनमें से जो भी कारण आपको छू जाता है, उसके लिए इस फ़िल्म को देखा जाना चाहिए. जानिए, क्या है इस फ़िल्म की ख़ासियत और किस विषय को यह फ़िल्म बस छू कर निकल जाती है, भारती पंडित से.
फ़िल्म: शिकारा
कलाकार: आदिल ख़ान, सादिया, प्रियांशु चटर्जी
लेखक: राहुल पंडित, अभिजात जोशी, विधु विनोद चोपड़ा
निर्देशक: विधु विनोद चोपड़ा
सिनेमैटोग्राफ़ी: रंगाराजन रामबद्रन
रन टाइम: 120 मिनट
देश में वर्ष 1947 के विभाजन के बाद यह दूसरा भीषण पलायन हुआ जिसमें क़रीब 4 लाख कश्मीरी पंडितों को अपने घर से बेघर होकर शरणार्थियों की तरह अपने ही देश के दूसरे इलाक़े में शरण लेनी पड़ी और तीस सालों में भी न तो उन्हें अपने शहर वापस जाने को मिला, न ही जम्मू में कुछ विशेष सुविधाएं. तीस साल बाद ही सही मगर यह फ़िल्म इस मुद्दे को उठाती है और बेहतरी से उठाती है. मज़े की बात यह भी लगी कि वर्ष 1990 में भी मीडिया केवल सरकार के क़ाबू में था (जो आज भी है), निजी चैनलों की भरमार नहीं थी अतः इस सबकी ख़बर ग्वालियर में रहनेवाले हम लोगों तक बस एक दिन की हेडलाइन बनकर ही आई थी, उसके बाद कोई आन्दोलन नहीं, संसद में कोई शोर-शराबा नहीं… हैरानी हो रही है न? मुझे भी बहुत हैरानी हुई थी, जब राहुल पंडित की (जो इस सारे वाक़ये के गवाह रहे और उनके परिवार को भी वहां से भागना पड़ा था) पुस्तक ‘चांद के चेहरे पर दाग़ है’ के कुछ अंश पढ़े थे और फिर इस घटना के बारे में थोड़ी जानकारी जुटाई थी. मैं भी जन्मस्थान से दो शहर बदल चुकी हूं, ग्वालियर से इंदौर और अब भोपाल, मगर अपनी मर्ज़ी से जाना और भगाए जाना, कितना फ़र्क़ है न! आप सुनहरे भविष्य के ख़्वाब सजा रहे हों और अचानक दो दिन में शहर से निकल जाने का फ़तवा जारी हो जाता है और आपकी ज़मीन-जायदाद, बाग़-बगीचे सब दूसरे के कब्ज़े में और आप शरणार्थी कैंप में और वह भी तीस साल तक.
यह फ़िल्म है शिव और शांति की एक ख़ूबसूरत प्रेम कथा, जो कश्मीर की हरियाली में जवान होती है, अपने अंजाम तक पहुंचती है और कई झंझावातों से गुज़रती है. सियासती दांव-पेंच के चलते चुनाव के ठीक पहले रैली में एक नई पार्टी के नेता मारा जाता है और फिर शुरू होता है आतंक का ज़लज़ला, जिसे सत्ता का और पकिस्तान के आतंकवादियों का दोनों का ही समर्थन प्राप्त था. शिव और शांति को उनका घर शिकारा छोड़कर, जिसे उन्होंने बड़े प्यार से खड़ा किया था, शरणार्थी कैंप में शरण लेनी पड़ती है. उनके जैसे लाखों लोगों को यही भुगतना पड़ता है. शिव का क़रीबी दोस्त लतीफ़ आतंकवादी बन जाता है, मगर शिव को वहां से निकल जाने के लिए आगाह कर देता है. शिव के पड़ोसी हाजी साहब उसके घर पर हमला करवाते हैं तो उसके दूसरे पड़ोसी जलाल वहां से निकलने में उनकी मदद करते हैं.
फ़िल्म के अधिकांश हिस्से कश्मीर में फ़िल्माए गए हैं, शरणार्थी कैंप मुम्बई में तैयार हुआ और उसमें वास्तविक शरणार्थियों को ही अभिनय के लिए लिया गया जो कि क़ाबिलेतारीफ़ है. फ़िल्म में इरशाद कामिल की इतनी सुन्दर नज़्में हैं कि मन खिल उठता है. आदिल और सादिया दोनों नए कलाकारों के शानदार अभिनय पर यह सारी फ़िल्म टिकी हुई है. फ़ोटोग्राफ़ी कमाल है. अंतिम दृश्य बेहद सुन्दर और हृदयस्पर्शी बन पड़ा है, जब तीस साल बाद ही सही, मृत्यु के द्वार पर खड़ी पत्नी को शिव ताजमहल दिखाने लेकर आता है. विधु विनोद चोपड़ा का निर्देशन बेहद उम्दा है.
यह फ़िल्म मूलतः प्रेम कथा है, जिसमें नायक-नायिका का कश्मीरी होना और उनका पलायन बाय डिफ़ॉल्ट शामिल हुआ है अतः यह फ़िल्म न तो किसी मुद्दे को उभारती है, न ही उसकी गहराई में जाती है, जो कि अपेक्षित था. बस घटनाओं को छूकर निकल जाती है. हालांकि दूसरे नज़रिए से सोचें तो इस समस्या का हल किसी के पास शायद ही हो… फिर भी इतने साल बाद इस पलायन को दिखाने की हिम्मत की है विधु ने, उसके लिए यह फ़िल्म ज़रूर देखिए और इसे देखिए शिव और शांति की बेहतरीन लव केमेस्ट्री के लिए भी.
फ़ोटो: गूगल