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सोलमेट: भावना शेखर की नई कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 28, 2021
in बुक क्लब
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सोलमेट: भावना शेखर की नई कहानी
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बचपन की प्यारी सहेली, जो किशोरवय होते-होते अपने प्रेमी संग भाग गई. जिससे न चाहते हुए, हिचकते हुए मिलना भी हुआ तो 32 बरस बाद. सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए, सफलता के शिखर पर खड़े होकर ऐसी भागी हुई सहेली से मिलने में हिचक अस्वाभाविक नहीं थी, लेकिन क्या हुआ जब स्नेहा अनमने मन से ही सही, अपनी बचपन की सखी माला से मिली? यही बयां करती है यह कहानी…

आज फिर फ़ोन वाइब्रेट करने के साथ उसका नाम स्क्रीन पर फ़्लैश करने लगा. पिछले पन्द्रह दिनों में यह छठवां कॉल था. मन में आया ऑटो रिजेक्ट में डाल दे, पर स्नेहा को आदत नहीं इतना निष्ठुर बनने की. रह रहकर झुंझलाहट हो रही थी कि आख़िर आनंद भैया ने उसे मेरा फ़ोन नंबर दिया ही क्यों? वह झगड़ी भी थी उनसे, पर आनंद भाई कातर होकर बोले थे कि उन्होंने बहुत कोशिश की उसे टालने की, पर वह मानी ही नहीं. स्नेहा अनुमान लगा सकती है उसने आनंद भैया पर कितना दबाव डाला होगा. बहरहाल फ़ोन बजते-बजते ख़ुद बंद हो गया.
पिछले सप्ताह मां को बताया कि माला का फ़ोन आया था तो वे चौंक गईं, त्योरियां चढ़ाकर बोलीं,‘‘अरे, बत्तीस साल बाद उसे कहां से तेरी याद आ गई और उसे तेरा नंबर दिया किसने?’‘
‘‘आनंद भैया ने, पता नहीं कैसे उसने आनंद भैया से संपर्क साध लिया!’’
‘‘उस मुए को यही काम रह गया बिना पूछे किसी का भी नंबर बांटने का…’‘ जी भर कोसा था उन्होंने आनंद भैया को.
परसों एक समारोह में दोनों बहनें मिलीं- सुमि और सपना. मिलते ही सवालों की बौछार कर दी,‘‘अरे बिट्टी! सुना है माला का फ़ोन आया था… बड़ी शातिर है ज़रूर कोई काम होगा, ऐसे भी भला कोई अचानक प्रकट होता है!’’
‘‘बाबा रे, भगवान बचाए उस आफत की पुड़िया से…. तू कहीं पिघल मत जाना, ऐसे लोगों से हाथभर दूर रहना ही भला!’‘
‘‘हां दीदी ! मुझे कोई शौक़ नहीं उससे सटने का, पूरे बत्तीस साल हो गए, मैं तो उसकी शक्ल भी भूल गई, भला हो आनंद भइया का जिन्होंने मुझे आगाह कर दिया था कि वह फ़ोन करेगी सो मैं सतर्क थी. उस दिन की सारी कॉल पीयूष से ही रिसीव करवाई और बहाना बना दिया कि मैं घर पर नहीं हूं,’‘ स्नेहा बोली .
‘‘अच्छा किया, नहीं तो फंस जाती,’‘ सपना दीदी ने टुकड़ा जोड़ा.
‘‘….और जानती हो इन्हें कह रही थी मैं उसके बचपन की बेस्ट फ्रेंड माला हूं, स्नेहा को बताएं वह ज़रूर पहचान जाएगी,’‘ एक ही सांस में स्नेहा पूरा क़िस्सा बयान कर गई.
‘‘हुंह, बड़ी आई बेस्ट फ्रेंड!’‘ सुमी दीदी ने हिकारत से मुंह बिसूरकर कहा.
‘‘देख बिट्टी! तू इतनी बड़ी वक़ील बन चुकी है तेरा नाम है, इतने बड़े-बड़े केस लड़ती है आए दिन अख़बार में तेरी तस्वीर छपती है. उगते सूरज को सब सलाम करते हैं सब अपना रसूख बनाना चाहते हैं.’‘ दोनों बहनें बुजुर्गाना नसीहत दिए जा रही थी.
‘‘लो भाई स्नेहा, तुम्हारा टिकट आ गया पर बनारस वाली फ़्लाइट में ही हो पाया, वहां से प्रयागराज बाई रोड जाना पड़ेगा… पर चिंता मत करो दो ढाई घंटे का ही सफर है.’’
लेकिन वो तो किसी और ही चिंता में फंसी थी. अब भी वह फ़ोन को ऐसे घूरे जा रही थी जैसे कोई सांप के बिल को सांप के निकल आने की आशंका से एकटक देखता है.
‘‘क्या बात है कुछ पशोपेश में हो ?’‘ अबकी पीयूष के स्वर ने उसका ध्यान भंग किया,‘‘…और किसका फ़ोन था देर तक घंटी बजती रही ?’‘
‘‘अरे कुछ नहीं, वही माला फ़ोन कर रही थी.’‘ स्नेहा की आवाज़ में बेपरवाही का पुट था.
‘‘अरे भाई , एक बार बात कर लो… बेचारी कितनी बार फ़ोन कर चुकी है.’‘
‘‘ना बाबा, बचपन की बात और थी अब मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती. ऐसी बदनाम लड़की से अब मुझे कोई वास्ता नहीं रखना है. पता नहीं क्या करती होगी किस हाल में होगी, दीदी ठीक ही कह रही थी ज़रूर कोई मतलब होगा, कहीं पैसे की ज़रूरत तो नहीं? सोचा होगा सहेली मालदार वक़ील हो गई है, चलूं कुछ झटक लूं. अब मुझे उससे कोई वास्ता नहीं रखना आख़िर मेरी इमेज का सवाल है, हर ऐरे-गैरे को भाव देने लगी तो हो गया मेरा बंटाधार, वैसे भी सब मुझे मना कर रहे हैं.’‘ स्नेहा की बातों में अभिमान और हिकारत का मिश्रित भाव था.
‘‘कहीं उसे पता तो नहीं लग गया कि तुम प्रयागराज जा रही हो, वह भी तो उसी शहर में है ना!’‘
‘‘इसीलिए तो उलझन में हूं उस शहर में पहुंचते ही उसकी मौजूदगी मुझे डिस्टर्ब करेगी, कहीं केस की जिरह में गड़बड़ा ना जाऊं.’‘
‘‘अरे, क्यों चिंता करती हो केस बहुत अच्छा जाएगा, तुम्हारा नाम सुनकर सरकारी वक़ील टेंशन में पड़ गया होगा. तुम शांत रहो और अब चलो सोने… सुबह की फ़्लाइट पकड़नी है,’‘ पीयूष ने बांह पकड़कर ज़बरन उसे उठाया वरना शायद यूं ही बैठी रहती.

सुबह नियत समय पर मुंबई एयरपोर्ट पहुंची. सिक्योरिटी जांच आदि औपचारिकताएं निपटा कर एक कुर्सी का रुख़ किया, चारों तरफ़ भीड़ देख कर भन्ना गई. उफ़! लोग यूं लदे पड़े हैं मानो हवाई टिकट मुफ़्त में बंट रहे हों. अपना हैंडबैग गोद में रखकर बोर्डिंग पास पर निगाह डाली, एहतियात से उसे बैग की भीतरी पॉकेट के हवाले कर दिया, अभी चालीस मिनट बाक़ी हैं थोड़ा सुस्ताने के लिहाज से आंखें मूंद ली. अचानक एक मुस्कुराता, खिलखिलाता चेहरा बंद पलकों में उभर आया. बारह-तेरह वर्ष की चमकती आंखों में दुनियाभर की शरारत की परछाइयां, खनकती आवाज़ में चुहल, जैसे कोई ज़िद्दी झरना चट्टानों पर धमाचौकड़ी को आमादा हो, दुबली-पतली काया में जहां भर का जोश और रवानी ठांठें मार रही थी- यह थी माला और ऐसा था उसका अलमस्त बचपन. कैशोर्य की दहलीज़ पर आते ही उसकी आंखें पांच वर्ष बाद की मादकता और मदहोशी के बाण चलाने लगी थी. मासूमियत को आकर्षण और अदा ने बड़ी तेज़ी से लपक लिया था. वक़्त से पहले जन्मे बच्चे सी प्री मच्योर्ड थी उसकी तरुणाई. ऐसी कोई रूप की रंभा नहीं थी, पर चौदह बसंत पार करते करते सैंकड़ों में अलग नज़र आने लगी. स्कूल आते जाते उसके कदम सड़क पर होते किंतु आंखें दो मछलियों की तरह बेताबी से इधर-उधर घूमतीं और मोहल्ले भर के लड़कों को आमंत्रित करतीं. गली नुक्कड़ गुमटी सड़क पर चलने वाले कच्ची उम्र के अच्छे और कम अच्छे लड़कों के दिल उसे देख कर धड़कने लगते.

स्नेहा और माला के घर का फ़ासला दस मिनट से ज़्यादा नहीं था. दोनों पक्की सहेलियां, अक्सर साथ आना जाना, स्कूल के बाद भी एक बार ज़रूर मुलाकात होती. कभी शाम को स्नेहा माला के घर तो कभी माला स्नेहा के घर. स्नेहा के घर में सबको उसकी मुखरता भाती. मुंह खोलती तो उसकी उन्मुक्त बातें पुरवाई के झोंके-सी माहौल को तरोताज़ा कर देतीं. देखती तो बांकी चितवन सबके मन का ताला खोल देती. स्नेहा अपनी अंतरग सखी की हरकतों और उसके लिए आहें भरने वाले लड़कों की फ़ौज से वाक़िफ़ थी पर मजाल जो कभी किसी से इस बात का खुलासा किया हो. हालांकि स्नेहा को उसकी छिछोरी हरकतें कतई पसंद न थी, दोनों के मिजाज़ और परवरिश और पारिवारिक पृष्ठभूमि में भी रात दिन का अंतर था, किंतु वह उम्र अनहद प्यार और दोस्ती निभाने की होती है सो स्नेहा ने शिद्दत से अपनी दोस्ती निभाई.
अब माला स्कूल से आते जाते हमउम्र लड़कों से मिलने भी लगी थी, ऐसे में स्नेहा अक्सर आगे बढ़ जाती. बहरहाल आज की तरह वो डेटिंग का जमाना नहीं था, छिटपुट आंख-मिचौली, जिसे बुज़ुर्गों की भाषा में कहो तो नैन मटक्का, चिट्ठियों का लेनदेन, एक-दूजे को देख लेनेभर की हसरत और ना देख पाने पर आहें भरना… बस इतने में ही बाली उमर की कहानियां बन जाती थी. बॉयफ्रेंड बन जाना तो चरित्रहीनता का सर्टिफ़िकेट था.

अनाउंसर की आवाज़ ने स्नेहा को अतीत से खींचकर आज के रूबरू ला खड़ा किया. बैग उठाकर वह प्रवेश द्वार के आगे कतार में लग गई. अगले दस पन्द्रह मिनट बाद फ़्लाइट में बैठी वह सीट बेल्ट बांध रही थी. खिड़की वाली सीट मिलने से काफ़ी सुकून था. इकॉनमी क्लास की तंग सीटों के बीच बैठकर सफ़र करना बड़ा दुश्वार लगता है, ख़ुद को या बाजू वाले को वॉशरूम जाना पड़े तो अच्छी-ख़ासी परेड हो जाती है. अनजान यात्रियों के बीच देह को बचाते हुए आड़ा तिरछा होकर ऐसे निकलना पड़ता है गोया किसी संकरी गुफ़ा में से गुज़र रहे हों.
रनवे पर दौड़ते हुए विमान ने हवा में जैसे ही उछाल भरी स्नेहा की यादों का पंछी भी उड़ चला क्षितिज के उस पार बाल सखी के पुराण के कुछ और पन्ने बांचने. कुछ दिन से जिस माला का नाम सुनते ही वह बिदक जाती थी, आज अपना शहर छोड़ते ही वह निर्मोही भाव काफ़ूर हो गया, जाने क्यों उसके बारे में सोचना अच्छा लग रहा था. कौन जाने जिस मंज़िल की ओर हवाई जहाज उड़ान भर रहा था वहां बैठी माला की तरंगें चुम्बक की तरह उसे अपनी ओर खींच रही थीं. स्नेहा अपनी पसंदीदा ओल्ड क्लासिक ब्लैक ऐंड वाइट फ़िल्मों को अक्सर रिवाइंड करके देखा करती. आज कुछ उसी तरह जिंदगी की चरखी घुमाकर अपने लड़कपन के मांझे को ढील देने लगी. उसने आंखें मूंद लीं और फ़्लैशबैक का स्विच ऑन करके ठीक वहीं लाकर ट्यून कर दिया, जहां छोड़ा था.

चौदह बरस की माला के इर्द-गिर्द कितने ही दीवाने भंवरों की तरह डोलते, कोई गली के नुक्कड़ तो कोई पान की गुमटी पर..; कोई दुकान पर बैठा सेल्समेन तो कोई सीटी बजाता शोहदा. पड़ोस के स्कूलों के छात्र भी रिंग मास्टर टाइप अपने किसी दोस्त की अगुवाई में टोली बनाकर स्कूल से लौटती लड़कियों का पीछा करते. मधुमक्खियों-सी लड़कियां भी हंसती खिलखिलाती मस्ती करती आगे-आगे चलतीं, जिनमें माला रानी मधुमक्खी की भूमिका में होती. स्नेहा इस ख़ुराफ़ात का हिस्सा कम ही बनती, क्योंकि वह अपनी गाड़ी से घर लौटती. उसे सहेलियों के साथ मटरगश्ती करते हुए घर आने की इजाज़त नहीं थी. लड़कपन की मासूम और मादक फंतासियों में माला को ख़ूब मज़ा आता. सब उस पर लट्टू हैं, उसे तरजीह देते हैं, यह बात मन को गुदगुदाती. भले ही उसमें ज़्यादातर सड़क छाप मजनू होते, पर उसके लिए यह टाइम पास बड़ा सम्मोहक था. उसके जीवन में यूं भी मनोरंजन और आनंद के विकल्प कम थे. पढ़ने लिखने में औसत छात्रा थी. परिवार निम्न मध्यमवर्गीय और पुरातनपंथी था. पिता की इकलौती पगार में चार-पांच भाई बहन पल रहे थे. जैसे-तैसे पढ़ाई चल रही थी. मां को चूल्हे-चौके से फ़ुर्सत कहां कि बेटी के चाल-चलन पर निगाह रखे. बहरहाल, अपनी चाल ढाल और लक्षणों के कारण माला शालीनता खोती जा रही थी, कहें तो ज़माने की निगाहों में बदनाम होती जा रही थी. युवा होते-होते उस पर चालू लड़की का ठप्पा लग गया.

स्नेहा शुरू से क्लास की टॉपर रही जबकि माला का पढ़ने-लिखने से दूर का नाता था पर दोनों सखियां खेल-कूद व अन्य सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में साथ साथ भाग लेती. उनकी पक्की दोस्ती का यह एक कॉमन बिंदु था. स्कूल छोड़ने तक यह दोस्ती बदस्तूर जारी रही. हमेशा की तरह अव्वल आनेवाली स्नेहा ने इस बार भी प्रथम स्थान हासिल कर शहर के नामी कॉलेज में दाखिला पा लिया, जबकि माला एक साधारण कॉलेज की छात्रा बनी. तब से दोनों की दोस्ती की गांठ ढीली पड़ने लगी. अब कभी-कभार ही उनकी मुलाक़ात होती. ग्रैजुएशन में भी स्नेहा ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया. अब वो लॉ में प्रवेश लेना चाहती थी पर इससे पहले एक अप्रिय घटना घटी. तब वो बीए के दूसरे वर्ष में थी जब एक दिन माला के माता पिता दौड़े-दौड़े स्नेहा के घर पहुंचे और बताया कि माला घर से ग़ायब है. स्नेहा समेत उसके घर के सभी लोग इस ख़बर से सन्न थे. स्नेहा के पिता उसे भेदने वाली नज़र से देख रहे थे.
‘‘बताओ कहां है माला? किसके साथ भागी है? तुम्हें ज़रूर पता है, छिपाने की कोशिश की तो सोच लो…’‘
उसके पिता के तेवर और सख़्ती ने स्नेहा को अपमान की भट्टी में झोंक दिया. उसकी कनपटियां जलने लगीं. एकबारगी लगा जैसे घर से भागी हुई लड़की वह ही हो. दोनों परिवार दिनभर उसका ब्रेनवॉश करते रहे पर कुछ हासिल ना हो सका. सचमुच इस प्रसंग से वह पूरी तरह अनजान थी. दो दिन बाद पता चला कि माला अपने किराए के घर की निचली मंज़िल पर बनी दुकान के सेल्समेन के साथ भाग गई थी और उन्नीस साल की उम्र में उसने कोर्ट में शादी कर ली थी. उसके घर में कोहराम मच गया, पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई, कोर्ट कचहरी सब हुआ. पुलिस स्टेशन में बुलाए जाने पर वह अपने प्रेमी पति के साथ आई. उसकी मांग में मुट्ठी भर सिंदूर भरा देखकर उसकी देहाती मां आग बबूला हो गई और थानेदार के टेबल पर रखा पानी का जग उसके सिर पर उंडेल कर सिंदूर को ऐसे रगड़ने लगी जैसे देह में लगी कीचड़ हो.

‘‘बदज़ात, यही करना बाक़ी था… करमजली पैदा होते ही मर क्यों नहीं गई?’‘ कहकर मां बुक्का फाड़ कर रोने लगी.
सर से पांव तक भीग गई माला का चेहरा सिंदूर की धार से लाल हो गया था. उसके पति के चेहरा फक पड़ गया. पुलिस वालों को इस अप्रत्याशित प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी. उन्होंने सख़्त स्वर में माला के घर वालों को डांट पिलाई. लड़की बालिग है और स्वेच्छा से विवाह किया है. तिलमिलाए परिवार वालों ने उससे संबंध विच्छेद कर लिया और जलते कलेजे को ठंडाने के लिए वक़्त के हवाले छोड़ दिया. यह सारी घटना कई दिन बाद माला की भाभी ने उसे सुनाई जब एकाएक उनसे बाज़ार में मुठभेड़ हुई थी. इसके बाद स्नेहा का माला के घर जाना बिल्कुल छूट गया, इस अध्याय के बाद उसकी ज़िंदगी की किताब में कितने सफ़हे जुड़े या घटे उसे नहीं पता. एक लंबी सांस खींचकर स्नेहा उन पन्नों को पढ़ने की कोशिश करने लगी जो पिछले बत्तीस सालों से बंद थे. ठीक उसी तरह जैसे किसी केस में प्राप्त दो चार सबूतों के आधार पर वह समीकरण बैठाने की कोशिश करती है, अनुमान लगाती है क्या हुआ होगा. स्नेहा नाम की किताब के पन्ने फड़फड़ा रहे थे और न्यायाधीश बना उसका मन कई तरह के काल्पनिक फ़ैसले सुना रहा था, अटकलें लगा रहा था.
‘‘ज़रूर कुछ ही दिनों में उसकी शादी टूट गई होगी.’‘
‘‘पहाड़ी नदी-सी उछृंखल थी एक जगह टिकना तो उसकी फ़ितरत थी नहीं, क्या जाने किसी दूसरे या तीसरे से दिल लगा बैठी हो…’‘
‘‘वो भी तो कोई धन्ना सेठ नहीं था बेचारा छोटी-मोटी नौकरी करने वाला…क्या कमाता होगा और कहां से इस तितली के नाज़-नखरे उठाता…’‘
‘‘इसके पास कौन-सी बड़ी डिग्रियां थीं, जो नौकरी कर लेती. ग्रैजुएशन तक तो पूरी नहीं कर पाई थी…’‘
बचपन की प्राणप्रिय सखी आज सिर्फ़ एक भागी हुई लड़की थी. जिसके लिए स्नेहा का नज़रिया पूरी तरह बदल चुका था. अपनी सहेली के विवाह का वह एक भी सकारात्मक परिणाम नहीं खोज पा रही थी. आए दिन फ़ैमिली कोर्ट में तलाक़ के मुकदमे निपटाते-निपटाते स्नेहा को प्यार मोहब्बत की बातें बचकानी और सतही लगने लगी हैं और फिर भागी हुई लड़की… जो अपने मां-बाप की ना हुई, वह किसी और की क्या होगी?

जहाज बनारस एयरपोर्ट पर उतर चुका था. एक मात्र ट्रॉली सूटकेस को खींचते हुए उसने बाहर का रुख़ किया. एयरपोर्ट के बाहर उसके मुवक्किल द्वारा भेजी गई गाड़ी तैयार खड़ी थी. ड्राइवर के हाथ में अपने नाम की तख्ती देख वह उस ओर बढ़ गई. अभी दो घंटे का सफ़र बाक़ी है. गाड़ी में सवार होने के कुछ देर बाद ही उसे झपकी आने लगी. चिकनी कोलतार की सड़क पर गाड़ी बिना हिचकोले खाए दौड़ रही थी. स्नेहा अधलेटी मुद्रा में पसर गई, जल्द ही वो नींद के आगोश मे थी. गाड़ी प्रयागराज से बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर थी कि स्नेहा का फ़ोन घनघनाने लगा. वह हड़बड़ाकर जाग गई शायद क्लाइंट का फ़ोन होगा, स्क्रीन पर अनजान नंबर दिख रहा था, उसने फ़ोन उठाकर हेलो किया.
‘‘हेलो स्नेहा, पहुंच गई? मैं माला…’‘
‘‘…….’‘
स्नेहा स्तब्ध थी. ज़ुबान तालू से चिपक गई.
‘‘हेलो… हेलो… हेलो… स्नेहा! सुन रही हो ना…’‘
‘‘हेलो… कौन ?’‘ अकबकाकर स्नेहा पूछ बैठी.
‘‘अरे भाई, मैं हूं माला… तुम्हारी बचपन की सहेली.’‘
‘‘पर यह फ़ोन नंबर…?’‘
‘‘हां, यह मेरा दूसरा नंबर है, वो फ़ोन डिस्चार्ज हो गया इसीलिए…’‘ उसके स्वर में उल्लास झलक रहा था.
स्नेहा को काटो तो ख़ून नहीं, जैसे बचपन में आईस-पाइस खेलते हुए कोई चुपके से आकर पकड़ ले या अनजाने में धप्पा करके भाग जाय, कुछ ऐसा ही एहसास हो रहा था, लेकिन उस समय रोमांच होता था, आज तो उसे शॉक लग गया.
‘‘यह तो जोंक की तरह चिपक गई… उफ़, पीछा छुड़ाना मुश्किल है,’‘ दांत पीसते हुए वह मन ही मन भुनभुनाई. प्रत्यक्ष में बोली,‘‘माला तुम कैसी हो ? और तुमने कैसे जाना मैं प्रयागराज आई हूं ?’‘स्नेहा गुत्थी को सुलझा नहीं पा रही थी.
‘‘अरे यार, तुम जिनके केस की पैरवी करने आई हो वो मेरी ननद के देवर हैं- लोकेश. उन्हीं से पता लगा मुंबई से कोई वक़ील आ रही हैं बातों-बातों में तुम्हारा नाम निकला, मैं तो उछल पड़ी. तुम्हारा नंबर मांग कर फ़ोन मिलाया पर बात ना हो सकी, संयोग से आनंद भैया टकरा गए उनसे नंबर कंफ़र्म किया. तब से कितने फ़ोन मिलाए पर भई, तुम्हें फ़ुर्सत कहां… इतनी बड़ी वक़ील जो बन गई हो,’‘ एक ही सांस में उसने सब कह दिया.

बचपन की वाचालता गई नहीं, अभी वैसी ही है, कोई एक पूछे तो चार जवाब देने वाली.
‘‘अच्छा सुन, केस की सुनवाई तो कल है हाईकोर्ट में. लोकेश ने तेरा इंतज़ाम होटल पार्क में किया है. तू पहुंच कर फ्रेश हो जा, शाम को तुझे मेरे घर आना है. मैंने तो ज़िद की थी कि होटल-वोटल की क्या ज़रूरत, मेरे रहते मेरी सहेली होटल में रुकेगी भला, पर लोकेश माने ही नहीं. भई वो ठहरे तेरे क्लाइंट… वो क्या जाने तेरी मेरी दोस्ती को? तो चल तय रहा, शाम को पांच बजे आऊंगी तुझे लेने, बाय !’‘

स्नेहा कुछ कहती उसके पहले फ़ोन कट गया था. वह घोर असमंजस में थी, हैरान भी. पिछले दो हफ़्ते से जिससे बात करने से कतराती रही, उसके दिल-दिमाग़ में लगातार मैं ही छाई थी. यहां ना बहनों की नसीहत थी ना मां की फटकार. उसके डर को उकसाने वाला कोई पास नहीं था. माला और अपने बीच स्नेहा ने जो दीवार खड़ी की थी वो हौले से चटक गई थी.
लगभग पौन घंटे में वो होटल पहुंच चुकी थी. सामने होटल पार्क का स्टाफ़ खड़ा था, सामान लेकर वह आगे बढ़ा. रिसेप्शन पर औपचारिकताएं निपटा कर स्नेहा भी उसके पीछे चल दी. कमरे में पहुंचकर उसने लंच किया, कुछ देर आराम करने के बाद केस की फ़ाइल स्टडी करने लगी. ठीक शाम पांच बजे डोरबेल बजी. दरवाज़ा खोला तो सामने माला खड़ी थी. वैसे ही दुबली-पतली, पर रुखा झड़ा हुआ चेहरा. देखते ही चहक कर स्नेहा से लिपट गई. स्नेहा मूर्तिवत खड़ी रही, बचपन की गलबहियों पर औपचारिकता का खोल चढ़ा था, जिससे अभी तक वह बाहर नहीं निकल पाई थी.

किसी तरह शब्दों को बटोर कर बोली,’‘आओ माला ! बैठो, कॉफ़ी मंगाती हूं.’‘
‘‘नहीं नहीं , कॉफ़ी मेरे घर चलकर पिएंगे… नीचे कैब खड़ी है, बस तू चल.’‘
‘‘इसका मतलब बेचारी के पास गाड़ी नहीं है…’’ यह सोचते हुए स्नेहा ने पर्स उठाया और उसके साथ बाहर का रुख़ किया.
‘‘अब प्रयागराज आई है तो तुझे यूं थोड़े ही जाने दूंगी, एक शाम तो संगम पर गुज़ारनी ही होगी फिर आनंद भवन, जवाहर प्लैनेटेरियम, चंद्रशेखर आज़ाद पार्क, खुसरो बाग और यहां का म्यूज़ियम दिखाने मैं खुद लेकर जाऊंगी. माना तू मुंबई जैसे शहर में रहती है, लेकिन हमारा शहर भी कुछ कम नहीं. याद करेगी यहां की इमारतें और बाज़ार. यहां की कचौड़ी, रबड़ी, चाट और फिर तुझे पान भी खिलाऊंगी. दस तरह के पान मिलते हैं यहां और कुल्हड़ वाली चाय पी के तो तुझे नशा आ जाएगा.’‘
‘‘इस बार तो बस एक ही दिन के लिए आई हूं, फिर कभी…’‘ तटस्थ भाव से स्नेहा बोली.

सरपट दौड़ती गाड़ी के साथ लगातार माला की कमेंट्री चलती रही, जिसमें स्नेहा को ख़ास रुचि नहीं थी. उसका दिमाग़ तो दूसरी ही उहापोह में फंसा था. हवाई सफ़र में क्या क्या अटकलें लगाती रही. जिसे उच्छृंखल नदी, फूल-फूल मंडराने वाली तितली और जाने क्या-क्या समझा वह तो एक ही ठौर पर टिक गई. जिससे पल्लू बांधा उसी के पास ठहर गई. अभी बताया दो बेटे हैं, मैंने तो क्या क्या सोचा था यह तो पक्की गृहस्थन निकली. उसने कनखियों से पास बैठी माला को देखा, उसके चेहरे पर एक सुकून और तृप्ति का भाव था.
बरसों बाद माला के घर जा रही है, ख़ाली हाथ जाना ठीक नहीं. एक मिठाई का डिब्बा ख़रीद लूं यह सोचकर वो बाहर का जायजा लेने लगी. कोई स्वीट्स शॉप दिखे तो कैब रुकवा कर मिठाई पैक करवा लूं…. पर छोडो, मुझे कौन सी रिश्तेदारी गांठनी है. अबके गए जाने कभी मिलेंगे भी या नहीं. फिर मुझे कौन-सा इसके घर दो-चार घंटे बैठना है, कोई डिनर पर तो जा नहीं रही एक प्याला चाय ही तो पिलाएगी. काहे के लिए हज़ार-पांच सौ ख़र्च करने! बेचारी किराए के घर में रहती होगी, मेरे स्टैंडर्ड की क्रॉकरी तक नहीं होगी. मैं ठहरी विला में रहने वाली, फ़ाइव स्टार होटलों में घूमने वाली…’‘ आत्ममुग्धता की ऊंची इमारत के टॉप फ़्लोर पर खड़ी स्नेहा को माला ज़मीन पर रेंगते कीड़े-मकोड़ों सी दिखने लगी. बाहर मिठाई की कितनी ही आलीशान दुकानें गुज़र गईं, पर स्नेहा की निगाहें अपने ही दर्प से चुंधिया रही थी. उसने बड़े इत्मीनान से दुकानों को गुज़र जाने दिया.

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बड़ी सड़क छोड़कर गाड़ी एक संकरी लेन की ओर मुड़ गई लगभग आधा किलोमीटर आगे जाने पर एक अपार्टमेंट के आगे रुकी. दरवाज़ा खोल कर स्नेहा बाहर आई, यह एक मध्यमवर्गीय इलाका था. अपार्टमेंट के दूसरे फ़्लोर पर माला का फ़्लैट था. लिफ़्ट से ऊपर पहुंचकर माला ने पर्स से मास्टर-की निकाली और दरवाज़ा खोलकर बड़ी आत्मीयता से स्नेहा को भीतर ले गई.
‘‘स्नेहा, यही है मेरा छोटा सा आशियाना, तू बैठ, मैं अभी आई,’‘ कहकर वो भीतर चली गई.
स्नेहा ने कौतुहल से निगाह घुमाई. यह टू बीएचके फ़्लैट बड़े करीने से सजा था. साफ़-सुथरा और सुरुचिपूर्ण. हर कोने में गृहिणी की कलात्मक रुचि की छाप देख वो हैरान थी, माला कब से इतनी सुघड़ हो गई सोचते हुए पास पड़े सोफ़े पर बैठ गई. तभी माला व्हीलचेयर ठेलती हुई कमरे में दाख़िल हुई.
‘‘स्नेहा! यह है मेरे पति अश्विनी, और अश्विनी देखो यह है मेरी सबसे प्यारी सहेली स्नेहा.’‘
अभिवादन की मुद्रा में स्नेहा के हाथ जुड़ गए, वह अचरज में थी. उसके कुछ पूछने से पहले ही माला ने कहा,‘‘हैरान मत हो ये पिछले दस साल से इसी कुर्सी पर बैठे हैं.’‘
इतनी गम्भीर बात को माला इतने हल्के-फुल्के अंदाज़ में कैसे कह सकती है!

‘‘अश्विनी तुम मेरी सहेली से बातें करो मैं फ़टाफ़ट कॉफ़ी बना कर लाती हूं.’‘ माला लपक कर रसोई घर की ओर चली गई.
‘‘आपके तो माला इतने गुण गाती है कि बिना बताए ही मैं आपको पहचान लेता. अपने स्कूल के एल्बम में आपके फोटो भी मुझे दिखा चुकी है. आपका चेहरा ज़्यादा नहीं बदला है.’‘
‘‘यह सब… यह सब कैसे हुआ?’’ स्नेहा ने हकलाते हुए पूछा.
‘‘कुछ सालों से ब्लड प्रेशर हाई रहने लगा था. बस एक दिन स्ट्रोक लगा और मैं इस कुर्सी पर आ बैठा. तीन साल तो हालत बेहद ख़राब रही, पूरा बायां शरीर और ज़ुबान जड़ हो गई थी. लंबी फ़िज़ियोथेरैपी और माला की देखभाल ने मुझे ज़िंदा रखा, फिर धीरे-धीरे जीभ में हरकत पैदा हुई, लड़खड़ाती ज़ुबान साफ़ हुई, मैं बोलने लगा, हाथ भी ठीक हो गया पर डॉक्टर कहते हैं चल नहीं सकूंगा, दाएं पैर पर शरीर का बोझ डालना घातक होगा, इसलिए व्हीलचेयर पर ही बैठा रहता हूं.’‘
‘‘अपनी ही सुनाते रहोगे या मेरी सहेली का हाल-चाल भी पूछोगे !’‘एक बड़ी-सी ट्रे में स्नेक्स की ढेर सारी प्लेटें लिए माला ने प्रवेश किया.
‘‘बस कॉफ़ी लेकर आती हूं, तुम लोग शुरू करो,’‘ कहकर वह फिर से फुर्र हो गई.
स्नेहा अश्विनी की बातें सुनकर हतप्रभ थी. समझ नहीं आ रहा था क्या कहे, वो लज़ीज़ स्नैक्स सेलदी ट्रे को ताकने लगी.
‘‘अरे, तुमने अभी तक शुरू नहीं किया…’‘ मेज पर कॉफ़ी रखते हुए माला बोली और चटपट एक छोटी प्लेट में मिठाई, नमकीन, तले हुए काजू और पनीर पकौड़ा सजा कर स्नेहा के हाथ में थमा दिया.

स्नेहा एक काजू लेकर कुतरने लगी पर जी कैसा तो हो रहा था, हलक में जैसे कुछ फंस गया हो. खाने की तीव्र अनिच्छा हो रही है!
‘‘जानती हो स्नेहा, इनसे शादी के बाद मेरे ससुराल वालों ने भी मुझे नहीं स्वीकारा. इनकी मामूली-सी नौकरी में किसी तरह हम एक छोटी-सी कोठरी में कई साल रहे. इस बीच दो बेटे आ गए. ख़र्च ज़्यादा, आमदनी कम. मैंने कुछ ट्यूशनें पकड़ ली, एक स्कूल में नौकरी की, दुकानों से ऑर्डर लेकर साड़ियों के फ़ॉल लगाए, टिफ़िन सर्विस शुरू की. दोनों ने मिलकर कितनी ही तरह से आमदनी का जुगाड़ किया. बच्चों को पढ़ाया, बचत की, किसी तरह यह फ़्लैट ख़रीदा. अभी बड़ा बेटा बी ए भी नहीं कर पाया था कि इन्हें स्ट्रोक लग गया. तब ससुराल वालों का दिल पसीजा और मेरे यहां आना-जाना शुरू किया. बड़ा बेटा सौरभ पढ़ने में बहुत तेज़ था उसे स्कॉलरशिप मिली और लंदन से मैनेजमेंट करने का मौक़ा. मेरा बेटा बिल्कुल श्रवण कुमार है, उसने अपने पापा की बीमारी और छोटे भाई की पढ़ाई का सारा ज़िम्मा उठाया. वहीं उसकी नौकरी लग गई, अब तो छोटा भी नौकरी करने लगा है. छह महीने पहले सौरभ इंडिया आया था शादी करके चला गया.’‘

‘‘ओह, बेटे की शादी हो गई है!’‘ पहली बार स्नेहा के स्वर में उल्लास था.
‘‘हां तो और क्या, मेरी शादी भी तो उन्नीस बरस में हुई बच्चे भी जल्दी हो गए और देखो मैं बन गई सास’‘ माला का ठहाका ड्रॉइंग रूम में गूंज उठा.
‘‘बहू अपने मायके गई है, अभी वीसा नहीं मिला है. होती तो तुमसे मिलवाती… बहू क्या मेरी बेटी है,’‘ उसकी आवाज़ में ममत्व की मिश्री घुली थी.

जैसे-जैसे माला के जीवन और घर परिवार की परतें खुल रही थीं, स्नेहा शर्मिंदगी के गह्वर में धंसती जा रही थी. उसे लग रहा था जैसे वह एक जोहड़ में आ गिरी है. उसकी देह कीचड़ में सनी है और माला साफ़-उजले कपड़े पहने दूर एक अटारी पर खड़ी मुस्कुरा रही है. अचानक बहुत ऊंचा हो गया है उसका क़द और उसे देखने की जुगत में स्नेहा की गर्दन मचक गई है. माला ने शोकेस में बंद ऐल्बम निकाला और उत्साहित होकर अपनी बहू का फ़ोटो दिखाने लगी. बहू की सुंदर सलोनी छवि देख स्नेहा मोहित हो गई. उसके मन पर पड़ी एक एक गिरह खुल रही थी. बलात् ताले में बंद किया गया आह्लाद छलकने को आमादा था.

‘‘अब चलती हूं माला!’‘कहकर पुलकित मन से वह उठी तभी दरवाज़े की घंटी बजी.
‘‘लगता है गौरव आ गया, मैंने कहा था सुबह कि आज जल्दी आना’‘ दरवाजा खोलते हुए माला
बोली.
‘‘गौरव, यह है तुम्हारी स्नेहा मौसी !’‘वह बांका नौजवान स्नेहा के पैरों में झुक गया.
‘‘स्नेहा, अब तुम्हें खाना खाए बग़ैर ना जाने दूंगी और गौरव भी कह रहा था कि मौसी से तुम्हारी
बचपन की शरारतें सुनूंगा.’‘
‘‘नहीं माला अब खाना फिर कभी… जाकर कल के केस की तैयारी भी करनी है… और बेटा, तुम्हारी मां तो ब्यूटी क्वीन थी… पूरे स्कूल की एपी सेंटर…’‘ गौरव से मुख़ातिब होकर वह बोली.
‘‘… और मौसी, मां के हज़ारों दीवाने भी थे पापा कहते हैं. क्या यह सच है? मुझे तो लगता है दोनों एक-दूसरे की तारीफ़ों के झूठे पुल बांधते रहते हैं, लैला मजनू जो ठहरे.’‘
यह हंसमुख युवक बिल्कुल अपनी मां का प्रतिरूप लग रहा था, कितनी जल्दी स्नेहा मौसी से घुलमिल गया.
‘‘बहुत अच्छा लगा माला तुमसे और तुम्हारे परिवार से मिलकर. चलती हूं अश्विनी जी, नमस्कार!’‘ स्नेहा की आवाज में तरलता थी.
‘‘आप कैसे जाएंगी ?’‘अश्विनी पूछ बैठा.
‘‘मैं मौसी को छोड़ने जाऊंगा,’‘ माला कुछ कहती उसके पहले ही गौरव ने घोषणा कर दी.
‘‘नहीं बेटा, तुम थक गए होंगे आराम करो, मैं कैब ले लूंगी!’‘
‘‘नहीं मौसी , मैं आपको गाड़ी से छोडूंगा,’‘ वह हाथ में चाबी घुमाते हुए बोला.
‘‘तब तो मैं भी साथ चलती हूं रास्ते में अपनी प्यारी सहेली से कुछ और बातें कर लूंगी…’‘ माला चहकते हुए बोली और चलते-चलते एक गिफ़्ट पैक स्नेहा को थमा दिया. स्नेहा संकोच से मरी जा रही थी.
‘‘नहीं, नहीं अब यह क्या…’‘ कहते हुए वह दो क़दम पीछे हट गई.
‘‘अरे, कुछ नहीं. बेटे की शादी हुई है तो मौसी को सौगात नहीं मिलेगी क्या? रख ले, मेरी सोलमेट है तू, यह तो छोटी-सी गिफ़्ट है. मेरी जान भी मांगे तो हाज़िर है, मेरी जान!’‘ कहकर उसने स्नेहा को अपनी बाहों में भींच लिया.
माला के स्पर्श ने कैसा दबाव डाला कि स्नेहा के मन की बंद संदूकची खुल गई और बरसों पुरानी प्रेम की धार हहरा के फूट पड़ी. उसकी आंखें सजल हो उठीं.

‘‘माला, तू मुंबई आना. तुझे मां और दीदी से मिलवाना है और पीयूष से भी.’‘
‘‘हां, हां ज़रूर आऊंगी. तुझे भी बार-बार प्रयागराज आना होगा, बत्तीस बरसों का हिसाब बकाया है.’‘
‘‘मां ! आप और मौसी दोनों पीछे ही बैठिए, आराम से गप्पें मारिए.’‘

ड्राइविंग सीट पर बैठते हुए गौरव ने कहा. दोनों मुस्कुराते हुए पीछे बैठ गईं. रास्तेभर उनकी बतकहियों से गाड़ी भीगती रही. होटल उतरकर स्नेहा ने विदा की मुद्रा में हाथ हिला दिया और जाती हुई गाड़ी को अनुराग से देर तक निहारती रही.
अपने कमरे में पहुंचकर माला का दिया गिफ़्ट पैक खोला उसमें गुलाबी रंग की पशमीना सिल्क की साड़ी थी. दोनों हाथों में लेकर साड़ी को वह अपने गालों से सहलाने लगी, माला के प्यार की रेशमी गंध उसके मन पर तारी थी. गाल पर साड़ी छुआती हुई स्नेहा मन ही मन बुदबुदाती रही माला के शब्द- सोलमेट!


फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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