मनुष्य और जानवर में बुनियादी अंतर अक़्ल का ही होता है. मनुष्य सोच-समझ सकता है, अत: उससे हर मुद्दे पर समझदारी की अपेक्षा होती है. बहरहाल, कई बार हम मनुष्य भी अपनी समझ का इस्तेमाल किए बना किसी दूसरे की कही बातों में आकर ऐसा व्यवहार करने लगते हैं कि लगता ही नहीं है कि जानवरों में और हममें कोई ज़्यादा फ़र्क़ रह गया हो. जानेमाने गांधीवादी व समाजसेवी हिमांशु कुमार इसी बात के बारे में आपको अपने नज़रिए से बता रहे हैं कि आप किस तरह जानवरपन से मनुष्यत्व की यात्रा की शुरुआत कर सकते हैं.
यह बात सहजबोध से समझी जा सकती है कि यदि आप का जन्म हिंदू घर में हुआ तो आप हिंदू हित की बात करेंगे. आपका जन्म मुस्लिम घर में हो गया तो आप मुसलमानों के मुद्दों पर बोलेंगे.
यदि आप ऊंची जात वाले घर में पैदा हुए तो आप दलितों के मुद्दों पर अविचलित रहेंगे और अगर आपका जन्म दलित परिवार में हुआ तो आप दलित समस्याओं पर बोलेंगे.
आपका जन्म किसी बड़े शहर में हुआ है, आप वहीं पले-बढ़े हैं तो आप दंतेवाड़ा के आदिवासियों की ज़मीनें छीने जाने को विकास के लिए ज़रूरी बताएंगे और अगर आपका जन्म दंतेवाड़ा के आदिवासी के घर में हुआ तो आप नक्सलवादी कहलाएंगे.
किसी ख़ास जगह पैदा होने की वजह से आप एक ख़ास तरीक़े से सोचते हैं. कहने का मतलब ये कि आपका चिंतन स्थान सापेक्ष है और स्थान बदलते ही आपके विचार भी बदल जाएंगे.
लेकिन यह बात तो आप मानेंगे कि सत्य तो स्थान बदलने से भी कभी नहीं बदलता. सत्य हिंदू या मुसलमान, सवर्ण या दलित के घर में या फिर भारत या पाकिस्तान में भी नहीं बदलता.
अब देखिए, आपके विचार अपने जन्म के स्थान के कारण बने हैं तो आप सोचिए कि क्या उन विचारों में हर स्थान में सही सिद्ध होने का गुण है? कभी अपने ही मन में अपना स्थान बदलकर फिर सोचिए. कल्पना में ख़ुद को अपने विरोधी के स्थान पर रखकर सोचने की कोशिश कीजिए.
क्या आप हर जगह के सत्य को देख पा रहे हैं? क्या अब भी आपको लगता है आप सही थे? देखिए आपका कट्टर नज़रिया अब हल्का होने लगा है. यही मुक्ति है! यही आपके जानवरपन से मनुष्यत्व की यात्रा की शुरुआत है.
यदि आपने ऐसा कर लिया तो फिर आप जीवन का आनंद लेने के लिए तैयार हैं!
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट