एक नेत्रहीन महिला की आंखों की ज्योति लौटने और दोबारा चली जाने की करुण कहानी. साथ ही कहानी यह भी बताती है कि जो होता है, अच्छा ही होता है.
मुझमें और तुममें बहुत भेद है. तुम सहस्रों दृश्य देखते हो, मैं केवल आवाज़ें सुनती हूं. पृथ्वी आकाश, बाग बगीचे, बादल, चन्द्रमा, तारे यह मेरे लिए ऐसे रहस्य हैं, जो कभी न खुलेंगे. पर्वत और खोह में मेरे निकट एक न ही भेद है और वह यह कि पर्वत के ऊपर चढ़ते समय दम फूल जाता है; खोह में उतरते समय गिरने का भय लगा रहता है. जब लोग कहते हैं, यह पर्वत कैसा सुन्दर है वह खोह कैसी भयानक है, तब मैं इन दोनों के अर्थ नहीं समझ सकती. अपने मस्तिष्क पर आत्मा की पूरी शक्ति से ज़ोर डालती हूं; परन्तु मस्तिष्क काम नहीं करता और मैं सटपटाकर रह जाती हूं. शस्यश्यामल खेतों की हरियाली, सुनील जल के स्रोतों की सुन्दरता, बच्चों की मनोहरता, पुरुष का सौन्दर्य, स्त्री का रूप लावण्य, इन्द्र-धनुष का रंग, काली घटा का जादू, चन्द्रमा की छटा, फूलों का निखार, यह समस्त शब्द मेरे निकट विस्तृत और अन्धकारमय वायुमण्डल के भिन्न-भिन्न भागों के नाम हैं. इसके सिवा मैं और कुछ न समझ सकती हूं, न समझती हूं. मैं अन्धी हूं, मेरा संसार एक अंधेरी लम्बी यात्रा है और शब्द उसके पड़ाव हैं. जिस प्रकार कहते हैं, समुद्र की तरंगें उठती हैं और बैठ जाती हैं, उसी प्रकार मेरी इस अंधेरी दुनिया में अनेक शब्द उठते हैं और मर जाते हैं. मैं शब्द को जानती हूं, शब्द को पहचानती हूं, और उन्हीं की सहायता से सौन्दर्य, जीवन और आयु का अनुमान लगाती हूं. जब मैं किसी बालक की तोतली बातें सुनती हूं और जब मेरा हृदय उन्हें पसन्द करता है, तब मैं समझ लेती हूं कि सुन्दरता इसी मीठी वाणी का नाम है. जब मैं किसी पुरुष को बातें करते पाती हूं और उसकी बातों में मुझे वह वस्तु प्रतीत होती है, जो कभी चन्द्रमा की चांदनी में और कभी शीतकाल की धूप में प्रतीत होती है, तब मैं तुरन्त जान लेती हूं कि जवानी इसी को कहते हैं. और जब मैं किसी कांपती हुई आवाज़ को और उसके अन्दर मर-मर जाते हुए शब्दों को सुनाती हूं, तब मुझे विश्वास हो जाता है कि यह मनुष्य बूढ़ा है और शनै: शनैः अपने शब्दों की तरह कांप-कांपकर ख़ुद भी मर रहा है. थोड़े ही दिनों में अपने स्वर के समान स्वयं भी मर जाएगा और संसार के लोग जिस प्रकार उसके जीवनकाल में उसकी आवाज़ की परवा नहीं करते थे, ठीक उसी प्रकार मरने के पश्चात् उसकी मृत्यु की परवा नहीं करेंगे. इतना ही नहीं, मैं क्रोध और दुःख,भय और आनन्द, प्रेम और दया, आश्चर्य और विस्मय, सब भावों को शब्द से ही पहचान लेती हूं. मैं अन्धी हूं-मेरे कान ही मेरी आंखें हैं.
***
मैं पंजाबिन हूं, परन्तु मेरा नाम बंगालिनों का-सा है. मैंने अपने सिवा किसी दूसरी पंजाबिन लड़की का नाम रजनी नहीं सुना. मेरे पिता उपन्यासों के बहुत शौक़ीन हैं. सुना है, दिन-रात पढ़ते रहते हैं. उन्होंने बंगला का उपन्यास ‘रजनी’ पढ़ा और फिर मुझे भी रजनी के नाम से पुकारने लगे. इसके पश्चात् मेरा नाम यही प्रसिद्ध हो गया. वे धनवान हैं. उन्हें रुपये-पैसे की कमी नहीं; परन्तु मेरी ओर से प्रायः चिन्तित रहते हैं. मैं भागवान के घर में आई; परन्तु अभागिन बनकर. मेरे माता-पिता मुझे देखते ही ठण्डी सांस भरकर चुप हो जाते और देर तक बैठे रहते. मैं जान लेती थी कि इस समय मेरे संसार का अन्धकार उनके हृदय के अन्दर समा गया है और उनकी आंखों के आंसू उनके गलों पर बह रहे हैं. मैं उनका दु:ख दूर करना चाहती थी; परन्तु मेरे किये कुछ होता न था और मेरो बेबसी मेरे अंधे मुख पर गरमी और लाली के रूप में प्रगट हो जाती थी.
मैं जवान हुई, तो मेरे माता-पिता की चिंता बढ़ने लगी. पहले-पहल तो मुझे उनकी चिंता का कारण मालूम न था; परन्तु थोड़े ही दिनों में सब कुछ समझ गई. वह मेरे ब्याह के लिए चिन्तित थे, सोचते थे-इस अन्धी लड़की से कौन ब्याह करने को तैयार होगा. यह चिन्ता उन्हें अन्दर-ही-अन्दर खाये जाती थी. सदैव उदास रहते थे. मुझे अपने दुर्भाग्य का पहली बार अनुभव हुआ. इससे पहले मुझे यह कल्पना तक न थी, कि विधाता ने मेरी आंखें छीनकर मुझपर कोई अत्याचार किया है. मैं अपनी अंधेरी दुनिया में प्रसन्न थी; परन्तु अब सोचती थी,क्या जो परमात्मा अन्धा कर सकता है, वह यह नहीं कर सकता कि अन्धे कभी जवान न हों, उनका शरीर कभी बढ़े-फूले. यदि यह हो जाय, तो अन्धे अपने जीवन की भयानकतर विपत्तियों से बच जायें और उन्हें अपने दुर्भाग्य पर दुःख और क्रोध प्रकट करने की आवश्यकता कभी प्रतीत न हो. मैंने अपने कमरे के दरवाजे बन्द करके, यह प्रार्थना, पता नहीं कितनी बार की; परन्तु उसे परमात्मा ने कभी स्वीकार न किया. यहां तक कि मैं परमात्मा और परमात्मा की दया दोनों से निराश हो गई और मुझे विश्वास हो गया कि परमात्मा नहीं है, और यदि है, तो अत्याचारी, बेपरवा और निठुर है; परन्तु अब यह विचार बदल गए हैं.
मैं सुन्दरी थी. मेरा मुख, मेरा रंग, मेरा आकार-सब मन को मोह लेनेवाला था. यह मेरा नहीं, मेरी सहेलियों का विचार था. मैं केवल यह जानती थी कि मेरे स्वर में मिठास है. मैं अन्धी हूं, अपनी तारीफ़ अपने मुख से करना अच्छा नहीं लगता, परन्तु अपना स्वर सुनकर मैं कभी-कभी स्वयं झूमने लग जाती थी. सुना है, हरिण अपनी कस्तूरी की सुगन्ध में प्रमत्त होकर उसे ढूंढ़ता-फिरता है. मैं भी अपने स्वर की सुन्दरता पर, यदि उसे सुन्दर कहा जा सकता हो, मोहित थी. मैं उसे छूना, हाथों से पकड़ना, हृदय से लगाना चाहती थी; परन्तु मेरी यह मनोकामना न पूरी हो सकती थी, न होती थी. मैं सुन्दरी थी. मेरा स्वर मीठा था. परन्तु अन्धी की सुन्दरता देखने वाला कोई न था. यह विचार मेरी अपेक्षा मेरे माता-पिता के लिये अधिक दुःखदायी था. जब कभी अकेले होते, मेरे दुर्भाग्य की चर्चा छिड़ जाती. कहते यह उत्पन्न ही क्यों हुई, और जो हुई थी, तो बचपन ही में मर जाती. अब जवान हुई है, वर नहीं मिलता. रूप-रंग देखकर भूख मिटती है; परन्तु आंखों के अभाव ने काम बिगाड़ दिया. अब क्या करें, परमात्मा ही है, जो बिगड़ी बन जाए. और तो कोई उपाय नहीं है.
यह बातें सुनकर मेरे कलेजे में आग-सी लग जाती थी.
***
सायंकाल था. मैं अपने कमरे में बैठी अपने कर्मों को रो रही थी. एकाएक ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई कमरे में आ गया है. यह मेरे पिता न थे. न मां थी, न नौकर. मैं उन सबके पैरों की चाप को पहचानती थी. यह क़दम मेरे कानों के लिए नए थे. मैंने सिर का कपड़ा संभालकर पूछा-
‘कौन है?’
किसी ने उत्तर दिया,‘मैं.’
मैं चौंक पड़ी. मेरे शरीर में एक सनसनी-सी दौड़ गई. यह लाला कर्त्ताराम बैरिस्टर के सुपुत्र लाला सीताराम थे. पहले हमारे यहां प्रायः आते-जाते रहते थे. उनसे और मेरे पिताजी से बहुत प्रीति थी. घर की-सी बात थी. उनके रूप-रंग के सम्बन्ध में मैं क्या कह सकती हूं, हां उनकी आवाज़ बहुत सुकोमल और रसीली थी. वे जब बोलते थे, तब मैं तन्मय हो जाती थी. जी चाहता था, उन्हीं की बात सुनती रहूं. उनमें दिल को खींच लेने की शक्ति थी. मुझे वे दिन कभी न भूलेंगे, जब वे नेम से हमारे घर आते और केवल मेरी बातें किया करते थे. उनकी इच्छा थी और इस इच्छा को उन्होंने कई बार प्रकट भी कर दिया था कि रजनी का ब्याह जल्दी कर देना चाहिए. मेरे पिता कहते, मगर उसे ब्याहना स्वीकार कौन करेगा? यह सुनकर वे चुप हो जाते. फिर थोड़ी देर पीछे ठण्डी साँस भरते और तब उनके उठकर टहलने की आहट सुनाई देती. इस समय वे कैसे व्याकुल, कितने उदासीन होते थे, यह मैं अन्धी भी समझ जाती थी. उनकी इन सहानुभूतियों ने मेरे हृदय-पट पर कृतज्ञता का भाव अंकित कर दिया. मैं उनके आने की बाट देखती रहती थी. यदि न आते, तो उदास हो जाती थी. खाने-पीने की सुध न रहती थी. इसी तरह छः महीने निकल गए. इसके पश्चात् उन्होंने हमारे यहां आना-जाना छोड़ दिया और आज पूरे एक साल बाद आए. मैं बैठी थी, खड़ी हो गई. इस समय मेरे शरीर का रोम-रोम प्रफुल्लित हो गया. धीरे से बोली,’इतने समय तक कहां रहे?’
‘यहीं था.’
‘बड़े कठोर हो.’
कुछ उत्तर न मिला, मेरा कलेजा धड़कने लगा. ख़्याल आया, कहीं बुरा मान गए हों. मैंने क्षमा मांगनी चाही; परन्तु किसी दैवी शक्ति ने जीभ पकड़ ली. उन्होंने थोड़ी देर ठहरकर कहा,‘रजनी!’
मैंने यह शब्द उनके मुख से सैकड़ों बार सुना था, परन्तु जो बात इसमें आज थी, वह इससे पहले कभी न थी. स्वर कांप रहा था. जैसे सितार के तार हिल रहे हों. उनमें कैसी मिठास थी, कैसी मोहनी और उसके साथ मिली हुई विकलता और प्रेम. मेरी आत्मा पर मद-सा छा गया. एक क्षण के लिए मैं भूल गई कि मैं अन्धी हूं. ऐसा जान पड़ता था कि मैं आकाश में उड़ी जा रही हूं और मेरे चारों ओर कोई मधुर संगीत अलाप रहा है. यह क्षण कैसा सुखद, कैसा अमोलक था, उसे मैं आज तक नहीं भूल सकी. आठ वर्ष बीत चुके हैं. इस सुदीर्घ काल में कई अवसर ऐसे आए, जब मैंने यह अनुभव किया कि मेरी आत्मा इस आनन्द के बोझ को सहन न कर सकेगी; परन्तु यह अवसर उस एक क्षण के आनन्द के सामने तुच्छ है, जब मुझे यह ख़्याल न रहा था कि मैं अन्धी हूं, और मेरी आंखें दुनिया की बहार देखने से वंचित हैं. एकाएक मुझे स्थान, समय और अपनी अवस्था का अनुभव हुआ. मैं अपनी लज्जा के बोझ तले दब गई और आत्मा की पूरी शक्ति से केवल एक शब्द बोल सकी,‘क्यों?’
‘तुम्हारा ब्याह होगा.’
मेरा मुंह लाल हो गया, जैसे किसी ने तमाचा मार दिया हो. फिर भी साहस से बोली,‘मैं अन्धी हूं.’
‘फिर?’
‘मेरे साथ कौन ब्याह करेगा?’
अब सोचती हूं कि उस समय ये शब्द कैसे कह दिए थे. परन्तु अन्धी के लिए साहस कोई बड़ी बात नहीं. लज्जा आंखों में होती है. और वह न दूसरे को देख सकती है, न यह जान सकती है कि कोई दूसरा उसे देख रहा है. सीताराम कुछ देर चुप रहे. उनकी यह चुप्पी मेरे लिए संसार का सबसे बड़ा दण्ड था. ऐसा जान पड़ता था कि मेरे भाग्य की परीक्षा हो चुकी है और अब परिणाम निकलने को है. मेरे प्राण होंठों तक आ गए. एकाएक वे आगे बढ़े और मेरे मस्तक पर धीरे से अपना हाथ रखकर बोले,‘रजनी ! तुम्हारे साथ मैं ब्याह करूंगा.’
मेरे सिर से बोझ उतर गया. मालूम होता है, हृदय के भाव मुख पर पढ़े जा सकते हैं; क्योंकि सीताराम ने दूसरे क्षण में मुझे अपने बाहु-पाश में ले लिया और मेरा मुंह प्रेम से बार-बार चूमने लगे.
उस रात मुझे नींद न आई. उसका स्थान आनन्द ने ले लिया था. ऐसे प्रतीत होता था, मानो मैं अपनी अंधेरी दुनिया पर शासन कर रही हूं, और संसार मेरे प्रेम के अमर संगीत से भरपूर हो चुका है.
एक मास भी न बीतने पाया कि हमारा ब्याह हो गया.
***
यह मेरे जीवन का दूसरा परिच्छेद था. इस समय तक मैं शब्द-संसार में बसती थी, अब प्रेम-पथ में पांव धरे. वे मुझे चाहते थे. मेरे बिना रह न सकते थे. मेरी पूजा करते थे. प्रायः मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेते और मेरी प्रशंसा के पुल बांध देते थे. कहते-मैंने सैकड़ों युवतियां देखी हैं; परन्तु तुम-सरीखी सुन्दरी आज तक न देखी है, न देखने की सम्भावना है. मैं पहले-पहल ये बातें सुनकर अपना मुंह हाथों से छिपा लेती थी. परन्तु धीरे-धीरे यह झिझक दूर हो गई, जैसे प्रत्येक विवाहिता रमणी के लिए इस प्रकार की ठकुर-सुहातियां सुनना एक साधारण बात हो जाती है. वे मेरे लिए दर्पण का काम देते थे. मैं अपनी आंखों से नहीं, बरन अपने कानों से उनकी बातों में, अपनी प्रशंसा में, अपना रूप-रंग देखकर गर्व से झूमने लग जाती, और समझती कि मुझ-सी सौभाग्यवती स्त्रियां संसार में अधिक न होंगी. इस सौभाग्य ने मेरी कई सखियां बना दीं. मेरा आंगन हास-विलास से गूंजता रहता था; परन्तु इस हास-विलास के अन्दर, इस मधुर-संगीत के नीचे, कभी-कभी व्याकुलता का अनुभव होने लगता था, जैसे बिल्ली के गुदगुदे पैरों में तीक्ष्ण नख छिपे रहते हैं. मैंने अपनी एक-एक सखी से उसके जीवन के गुप्त रहस्य पूछे, और तब मैंने यह तत्त्व समझा कि संसार में प्रत्येक वस्तु वह नहीं, जो (दिखाई नहीं प्रत्युत) सुनाई देती है. न संसार में वह अभागा है जिसे प्रायः अभागा समझा जाता है.
उनकी बातों ने मेरे सुख-मय जीवन को और भी सुख-मय बना दिया. वे मुझसे कभी रुष्ट न होते थे, न कभी बुरा-भला कहते थे. वे इसे मनुष्यत्व से गिरा हुआ समझते थे. सोचते थे, यह मन में क्या कहेगी. मेरे नेत्रों का अभाव मेरे लिये दैवी सुख का कारण बन गया, मेरा काम स्वयं करते थे. मैं रोकती, तो कहते-इससे मुझे आनन्द मिलता है. तुम कुछ ख्याल न करो. संसार की समस्त स्त्रियां अपने पतियों को सेवा करती हैं. यदि एक पति अपनी स्त्री का थोड़ा-सा काम कर देगा, तो संसार में प्रलय न आ जाएगा. उनके पास रुपया था, कई नौकर रक्खे हुए थे; परन्तु वे जनाने में न आ सकते थे. रोटी बनाने के लिए एक मिसरानी थी, मेरा जी बहलाने के लिए एक और स्त्री; परन्तु फिर भी कई काम ऐसे होते हैं जो गृहिणी को स्वयं करने पड़ते हैं. पर मैं अन्धी थी, इसलिए ऐसे काम वे स्वयं करते थे, और उस समय ऐसे प्रसन्न होते थे, जैसे बच्चे को बढ़िया खिलौने मिल गए हों. उनकी दिलजोइयों ने मुझे उनकी पुजारिन बना दिया. मैं उनकी पूजा करने लगी. सोचती थी, ऐसे मनुष्य भी संसार में थोड़े होंगे. उन्हें मेरी क्या परवा है. चाहें, तो मुझ जैसी बीसियों ख़रीद लें. यह उनके लिए कुछ भी कठिन नहीं ; परन्तु वे फिर भी मुझे चाहते हैं, मानो मैं किसी देश की राजकुमारी हूं. मैं पहले उनसे प्रेम करती थी, फिर उनकी पूजा करने लगी. प्रेम ने श्रद्धा का रूप धारण कर लिया. मेरा जीवन न था, सुखमय स्वप्न था, जो भय, अधीरता, अशान्ति और दुःख से कभी नष्ट नहीं हुआ था. उनके प्रेम ने दैवी त्रुटि पूरी कर दी. वह मेरी अन्धकारमय सृष्टि के प्रदीप थे, उनकी बात-चीत मेरे नीरस जीवन का सरस सङ्गीत. मैं चाहती थी, वे मेरे पास से कहीं उठकर न जाएं. मैं उनके एक-एक पल, एक-एक क्षण पर अधिकार जमाना चाहती थी. जब कभी वे आने में थोड़ी-सी भी देर कर देते, तब मेरा दम घुटने लगता था, मानी कमरे से हवा निकाल दी गई हो. यह व्याकुलता कैसी जीवन-मय है, कैसी प्रेमपूर्ण? इसे साधारण लोग न समझेंगे. इसको केवल वही जान सकते हैं, जिनके हृदय को प्रेम के अन्धे देवता भगवान् कामदेव ने पुष्पों के वाण मार-मारकर घायल कर दिया हैं.
इसी प्रकार पांच वर्ष का समय, जिसे बेपरवाई और सुख के जीवन ने बहुत छोटा बना दिया था, बीत गया, और मैं एक बच्चे की मां बन गई. मेरे आनन्द का ठिकाना न था. यह बच्चा मेरी और उनकी परस्पर-प्रीति की जीवित-जाग्रत मूर्ति था, जिस पर हम दोनों जी-जान से निछावर थे. यह बच्चा-मैंने सुना-बहुत सुन्दर था. मेरी सखियां कहती थीं, तुम रजनी-रात्रि हो, तुम्हारा बेटा सूरज है. इसका रूप मन को मोह लेता है. जो देखता है, प्रसन्न हो जाता है. मैं यह सुनकर फूली न समाती. हृदय में हर्ष की तरंगे उठने लगतीं, जिस तरह किसी ने बाजे पर हाथ रख दिया हो. फिर पूछती-इसकी आंखें कैसी हैं. वे उत्तर देती-बड़ी-बड़ी. हिरन का बच्चा मालूम होता है परमेश्वर ने मां की कसर बच्चे की आंखों में निकाल दी है.
स्त्री की कई स्थितियां हैं. वह बेटी है, बहन है, स्त्री है; परन्तु जो प्रेम उसमें मां बनकर उत्पन्न होता है, उसकी उपमा इस नश्वर संसार में न मिलेगी. मुझे माता-पिता से प्रेम था; पति पर श्रद्धा. उनको देखने के लिए मैं कभी-कभी अधीर हो उठती थी; परन्तु उस अधीरता की, इस नई अधीरता के साथ कोई तुलना न थी, जो अपने बच्चे का मुख चूमते समय, उसका आंखों पर हाथ फेरते समय, उसे हृदय से लगाते समय, मेरे नारी-हृदय में उत्पन्न हो जाती थी, उस समय मैं घबराकर खड़ी हो जाती, और परमात्मा के विरुद्ध सैकड़ों शब्द मुख से निकाल देती. मैं चाहती थी, आह! नहीं बता सकती, कितना चाहती थी कि मेरी आंखें एक क्षण के लिए खुल जाएं, और मैं अपने बच्चे को एक नज़र देख लूं; परन्तु यह इच्छा पूरी न होती थी. मैं अपने दुर्भाग्य को अब अनुभव करने लगी.
***
धीरे-धीरे मेरी व्याकुलता ने उन्हें भी उदास कर दिया, जिस तरह एक घर में आग लग गई हो, तो धुआं दूसरे घर में भी पहुंच जाता है. प्रायः चिन्तित रहने लगे. वे मेरे भावों को समझ गये थे. अब उनके स्वर में वह मनोहरता न थी, न शब्दों में वह सरसता थी. बात-चीत के ढंग में भी अन्तर आ गया था. बोलते-बोलते चुप हो जाते. निस्सन्देह उस समय यदि मेरे नेत्रों से अन्धकार का पर्दा उठ जाता, तो मैं उनके पलकों पर आंसुओं की बूंदों के सिवा और कुछ न देखती. एक दिन बाहर से आए तो घबराए हुए थे. आते ही बोले,‘रजनी.’
मैंने धीरे से उत्तर दिया,‘जी.’
‘तुम कब अन्धी हुई थीं? मेरा विचार है, तुम जन्म से अन्धी नहीं हो.’
‘नहीं.’
‘तो तुम्हारी आंखें ख़राब हुए कितना समय हुआ?’
‘मैं उस समय तीन वर्ष की थी.’
‘तुम्हें अच्छी तरह याद है. तुम्हें विश्वास है?’
‘हां, इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं.’
उन्होंने मुझे खींचकर गले से लगा लिया और बोले,‘परमात्मा को धन्यवाद है! एक बार अन्तिम प्रयत्न करूंगा.’
आवाज़ से मालूम होता था, जैसे उनके सिर से कोई बोझ उतर गया है. मैंने उनके मुख पर हाथ फेरते हुए पूछा,‘बात क्या है?’
‘मैं चाहता हूं, तुम्हारी आंखें खुल जाएं, तुम भी संसार के अन्य जीवों के समान देखने लगो. मेरे उस समय के आनन्द का कोई अनुमान नहीं लग सकता. आह! यदि ऐसा हो जाए, तो–’
यह कहते-कहते वे अपने काल्पनिक सुख में निमग्न हो गये. थोड़ी देर के बाद फिर बोले,‘डॉक्टर कहते हैं कि जन्मान्ध के सिवा सबकी आंखें ठीक हो सकती हैं; परन्तु डॉक्टर निपुण होना चाहिए. मेरा एक मित्र अमेरिका गया था. आंखें बनाना सीख कर आया है. थोड़े ही समय में उनकी नाम की दूर-दूर तक धूम मच गई है. आज उनसे भेंट हुई. बड़े प्रेम से मिले और बलात् खींचकर अपने मकान पर ले गए. वहां बातचीत में तुम्हारा जिक्र आ गया. बोले,‘यदि जन्मान्ध नहीं, तो मैं एक महीने में ठीक कर दूंगा.’
मैं कुछ देर चुप रही और बोली,‘रहने दो, मैं अच्छी होकर क्या करूंगी.’
‘नहीं, अब मैं अपनी ओर से पूरा-पूरा प्रयत्न करूंगा.’
‘मुझे डर है कि मैं…’
‘यदि आंखें खुल गई, तो प्रसन्न हो जाओगी.’
‘और यदि प्रयत्न निष्फल गया तो फिर?’
‘भगवान का नाम लो. उसी के हाथ में सबकी लाज है. इस समय सौ से अधिक अन्धों का इलाज कर चुका है; परन्तु एक के सिवा सब उसके गुण गा रहे हैं.’
मैंने धड़कते हुए दिल की धड़कन दबाकर कहा,‘ऐसा योग्य है?’
‘योग्य क्या इस युग का धन्वन्तरि है.’
‘तो तुम्हें आशा है, मैं देखने लगूंगी?’
‘आशा की क्या बात है. मुझे तो पूरा विश्वास है, कि अब मेरा भाग्य पलटने में देर नहीं.’
मैंने बेटे को हृदय से लगा लिया, और रोने लगी. हृदय में विचार-तरंग उठने लगीं. अब वहां निराशा की शान्ति नहीं रही थी, उसका स्थान आशामयी अशान्ति ने ले लिया था. मस्तिष्क में सहस्रों विचार आ रहे थे. उनके, पुत्र के, पृथ्वी-आकाश के, फूलों के, सूरज के, चन्द्रमा-तारों के, रूप के विषय में अनुमान के घोड़े दौड़ा रही थी. सोचती थी, आंख खुल जाएं, तो एक मन्दिर बनवा दूं, तीर्थयात्रा करूं और अनाथालयों के नाम चन्दा बांध दूं. माता-पिता सुनेंगे, तो दंग रह जाएंगे, सहेलियां बधाई देने आएंगी; परन्तु इस ख़ुशी में एक बड़ा भोज देना आवश्यक हो जाएगा. उनकी कितनी उत्कण्ठा है, कि शाम को मुझे साथ लेकर बग्घी पर निकलें; परन्तु नेत्रों का दोष रास्ता रोक लेता है. यदि डॉक्टर का परिश्रम सफल हो जाए, तो हाथों के कड़े उतार दूं और उसकी पत्नी को बुलाकर रेशमी जोड़ा दूं.
मैं डॉक्टर के आने की इस तरह प्रतीक्षा करने लगी, जैसे उसके आने के साथ ही मेरी आंखें खुल जाएंगी. आशा ने मस्तिष्क को उलझन में डाल दिया था. एकाएक दरवाज़े पर किसी मोटर के आकर रुकने की आवाज़ आई. मेरी देह कांपने लगी. निराशा के विचार ने गला पकड़ लिया. इतने में वे अन्दर आ गए और बोले,‘डॉक्टर साहब आ गए हैं.’
मैंने साड़ी को सिर पर ठीक कर लिया और संभलकर हो बैठी; परन्तु हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था. डॉक्टर साहब मेरी आंखों को देखने लगे. कुछ देर सन्नाटा रहा और तब उन्होंने किलकारी मारकर कहा,‘मुझे पूरा निश्चय है, कि तुम्हारी आंखें बन जाएंगी.’
जितना सुख किसी भिखारी को यह सुनकर होता है, कि तुम्हें राज मिल जाएगा, उससे अधिक सुख मुझे डॉक्टर साहब के इस वचन से हुआ और मैंने हठात् अपने स्थान से उठकर दोनों हाथ बांधे और उमड़ते हुए हार्दिक भावों से कांपती हुई आवाज़ में कहा,‘डॉक्टर साहब! आपका यह उपकार जन्म-भर न भूलेगा.’
उस समय मेरी आवाज़ में प्रार्थना और प्रफुल्लता के वे अंश मिले हुए थे, जो केवल अपराधियों की ही आवाज़ में पाए जाते हैं. आंखों के खुल जाने की आशा ने वर्षों की शान्ति और संतोष को इस प्रकार उड़ा दिया था; जैसे किसी सेठ के आने से पहले-पहल मालिक-मकान अपने ग़रीब किरायेदार को निठुरता से बाहर निकाल देता है.
***
ऑपरेशन हुआ और बड़ी सफलता से हुआ. वे फूले न समाते थे. कहते थे, अब केवल थोड़े दिनों की बात है, तुम संसार के प्रत्येक दृश्य को देख सकोगी. मेरा सुख पहले अधूरा था, अब पूरा होगा. मुझसे कहते–तुम्हें इस समय तक पता नहीं और यदि पता है, तो तुम पूर्ण रूप से अनुभव नहीं कर सकतीं, कि आंखों का न होना, तुमपर प्रकृति का कैसा अत्याचार था. तनिक यह पट्टी खुल जाने दो, फिर पूछूंगा. एक दिन के लिए आंखें दुखने लगें और अंधेरे में बैठना पड़े, तो कलेजा घबराने लगता है. जी चाहता है, दरवाजे तोड़ कर बाहर निकल जाएं; परन्तु तुम लगातार कई वर्षो से इसी अवस्था में हो और फिर भी’
मैंने अपनी व्याकुलता से भरी हुई, प्रसन्नता को छिपाने की चेष्टा करते हुए कहा,‘तो क्या मैं देखने लगूंगी? यह आपको निश्चय है?’
‘निस्सन्देह तेरह दिन के पश्चात्.’
‘बहुत प्रसन्न हो रहे होंगे?’
‘कुछ न पूछो. मेरा एक-एक क्षण साल-साल के बराबर बीत रहा है. मैं झुंझला उठता हूं, कि यह समय शीघ्र क्यों नहीं बीत जाता. मैं तेरहवें दिन के लिए पागल हो रहा हूं.’
‘और यदि यह प्रसन्नता, यह आशा निर्मूल सिद्ध हुई, तो?’
‘यह नहीं हो सकता, यह असम्भव है.’
‘आशा प्रायः धोखे दिया करती है.’
‘परन्तु यह आशा नहीं है.’
सचमुच यह आशा नहीं थी. स्वयं मुझे भी निश्चय था, कि यह आशा नहीं है. फिर भी मैंने उनके हृदय को थाह लेने और अपने विश्वास को और दृढ़ करने के विचार से पूछा,‘क्यों?’
‘डॉक्टर ने कहा है.’
‘परन्तु डॉक्टर परमात्मा नहीं है.’
थोड़ी देर के लिए वे चुप हो गए, जैसे आनन्द की कल्पना में किसी दुःख का विचार आ जाए, और फिर मेरे दोनों हाथों को अपने हाथों में दबाकर बोले,‘डॉक्टर अपनी विद्या में अद्वितीय है. उसका वचन झूठा नहीं हो सकता. मैं इस समय ऐसा प्रसन्न हूं, जैसे किसी राजा ने इम्पीरियल बैंक के नाम चेक दे दिया हो. अब रुपया मिल जाने में कोई सन्देह नहीं है. केवल तेरहवें दिन की प्रतीक्षा है. न राजा दीवालिया हो सकता है, न डॉक्टर का वचन झूठा हो सकता है. तुम यों ही अपने सन्देह से मेरे हृदय को विकल कर रही हो.’
बारह दिन बीत गये. अब केवल एक दिन शेष था. सोचती थी, कल क्या होगा? कभी आशा हृदय की कली खिला देती थी, कभी निराशा हृदय में हलचल मचा देती थी. मैंने आंखों पर पट्टी बांधकर बारह दिन बिता दिए थे, अब एक दिन बिताना कठिन हो गया. जैसे यात्री पड़ाव के निकट पहुंचकर घबरा जाता है. उस समय उसके हृदय में कैसी उद्विग्रता होती है, कैसी अधीरता. वह घण्टों की राह मिनटों में तय करना चाहता है. बार-बार झुंझला उठता है, जैसे किसी ने कांटे चुभो दिए हों. यही दशा मेरी थी. मैं चाहती थी, यह दिन एक क्षण बनकर उड़ जाए और. मैं पट्टी आंखों से उतारकर फेंक दूं; परन्तु प्रकृति के अटल नियम को किसने बदला है. समय ने उसी प्रकार धीरे-धीरे अपने मिनटों के पैरों से चलना जारी रक्खा. उसे मेरी क्या परवा थी?
सायंकाल था. वे कचहरी से वापस आ गए और सूरजपाल को (यह मेरे बेटे का नाम है) उठाए हुए कमरे के अन्दर आए और मेरे पास बैठकर बोले,‘कल इस समय क्या होगा?’
मैंने हाथ बांधकर ऊपर की ओर सिर उठाया और कहा,‘परमात्मा दया करे.’
‘और वह अवश्य करेगा.’
जैसे ढोलक पर हाथ मारने से गूंज उत्पन्न होती है, उसी प्रकार इस वाक्य से मेरे हृदय में गूंज उत्पन्न हुई. यह गूंज कैसी प्यारी थी, कैसी आनन्दायक! इसमें दूर के ढोल का सुहावनापन था, स्वप्न-संगीत का जादू. सोचने लगी-क्या यह सम्मोहिनी निकट पहुंचकर भी ऐसी ही बनी रहेगी, क्या यह जादू जागने के पश्चात् भी स्थिर रहेगा? एकाएक उन्होंने कहा,‘कैसी गरमी है. बैठना कठिन हो गया.’
मैंने पंखे की रस्सी पकड़ ली और कहा,‘पंखा करूं?’ कमरे में गरमी कोई इतनी अधिक न थी; परन्तु वे बाहर से आए थे, इस लिए उनका दम घुटने लगा. क्रोध से बोले,‘पंखा-कुली कहां गया. मैं मार-मार कर उसका दम निकाल दूंगा.’
‘चलो, जाने दो, बेचारा सारा दिन पंखा खींचता रहता है. थककर ज़रा बाहर चला गया होगा. खिड़को क्यों न खोल दूं, सूरज भी घबरा रहा है.’
यह सुनकर वह उछल पड़े, जैसे किसी जेबकतरे ने उनको जेब में हाथ डाल दिया हो, बोले,’क्या कहती हो, खिड़की खोल दूं. तुम्हें मालूम नहीं कि डॉक्टर ने कितना सावधान रहने को कहा है.’
‘परन्तु अब तो सायंकाल हो चुका है. कितने बजे होंगे?’
‘साढ़े छः बज चुके हैं.’
‘तो अब क्या हर्ज़ है? थोड़ी-सी खिड़की खोल दो, मेरी आंखों पर पट्टी बंधी है.
उन्होंने बहुत कहा; पर मैंने एक न सुनी और उठकर खिड़की खोल दी. सूरज ने तालियां बजाई और खिलखिलाकर हंसने लगा. उसकी हंसी देखने के लिए मैं अधीर हो गई; परन्तु आंखों पर पट्टी बंधी थी.
इतने में सूरज खिड़की पर चढ़ गया और खेलने लगा. वह इस समय बहुत ही प्रसन्न था. पंछियों की नाई चहकता था. उसे कोई विचार, कोई भय, कोई चिन्ता न थी.
‘सूरज, शीशा छोड़ दो, टूट जाएगा.’
परन्तु सूरज ने अनसुना कर दिया ओर शीशे के सामने खड़ा होकर अपना मुंह देखने लगा. एकाएक उसने (मैंने पीछे सुना था) शीशे में इस तरह मुंह बनाकर देखा कि वे सहसा चिल्ला उठे,‘ज़रा देखना.’
मुझे अपनी अवस्था का विचार न रहा. मैं भूल गई कि यह समय बड़ा विकट है मैं अन्धी हूं, मुझे एक दिन के लिए सन्तोष करना चाहिए. इस समय की थोड़ी-सी असावधानी मेरे सारे जीवन को नाश कर देगी और फिर मेरी आंखों को कोई शक्ति किसी उपाय से भी न खोल सकेगी, यह विचार न रहा मैं पागल हो गई. मेरी ऐसी अवस्था आज तक कभी न हुई थी. मेरे हाथ मेरे बस में न रहे. उन्होंने पट्टी को उतारकर भूमि पर फेंक दिया और मैंने आंखें खोली.
मैं देख सकती थी. मैंने एक ही दृष्टि में उनको, बेटे को और खिड़की में से दिखाई देनेवाले बाहर के बाग़ के एक भाग को देखा, और ख़ुशी से चिल्ला उठी,‘मैंने तुमको देख लिया.’
उन्होंने आश्चर्य, भय और प्रसन्नता की मिली-जुली दृष्टि से मेरी ओर देखा; परन्तु अभी मेरी आंखें उनकी आंखों से मिलने न पाई थीं, कि चारों ओर फिर अन्धकार छा गया और मेरी अंधेरी दुनिया ने उनकी प्यारी-प्यारी सूरतों को फिर अपने अन्दर छिपा लिया. मैंने ठण्डी आह भरी और पछाड़ खाकर गिर पड़ी. बैंक से रुपया मिल गया था और समय से पहले; परन्तु मेरी असावधानी ने उसे पानी में गिरा गिरा दिया.
अब मेरे लिए कोई आशा न थी. मैंने उसके द्वार अपने हाथों से बन्द कर लिए थे. कई दिन तक रोती रही. वे मुझे धीरज देते थे. कहते थे, न सही, तुम जीती रहो, इसी प्रकार निभ जाएगी; परन्तु इन धीरज की बातों से मुझको संतोष न होता था, उलटा मेरे घावों पर नोन छिड़क जाता था. मेरा विचार था कि एक बार आंखें खुल जाने से मैं प्रसन्न हो जाऊंगी, यह झूठ सिद्ध हुआ. एक क्षण की दृष्टि से अपने दुर्भाग्य का दुःखमय अनुभव हो जाता है. इसका अनुमोदन हो गया.
***
कहते हैं, प्रत्येक काली घटा के गिर्द सफ़ेदधारी होती है. मेरी विपत्ति अपने साथ एक ज्योति लाई. यह आशा की ज्योति न थी, जो कभी बढ़ती है, कभी घट जाती है. यह नैराश्य विश्वास की ज्योति थी, जो सदा बढ़ती है, घटती नहीं. मैं पति और पुत्र दोनों को देख चुकी थी. सुना है, फूल सुन्दर होते हैं. यदि यह सच है, तो मैं कह सकती हूं कि मैंने क्षण-मात्र की दृष्टि में दो अति सुन्दर फूल देखे हैं और उनसे अच्छी वस्तु देखना मेरे लिए सम्भव नहीं. वे आज भी मेरी अन्धकार-मयी सृष्टि में उसी प्रकार हरे-भरे और प्रफुल्लित हैं. उनकी सूरतें मेरे हृदय-पट पर अंकित हो चुकी हैं और संसार की कोई शक्ति, कोई वस्तु, कोई सत्ता उन्हें न मिटाती है. यदि मैं अधिक मनुष्य देख लेती, तो कदाचित् मुझे कभी-कभी उनका विचार आ जाता और वे भी मेरे हृदय की चित्रशाला में थोड़े-प्ले स्थान पर अंकित हो जाते. अथवा उनके चेहरों पर मेरे पति और पुत्र के चेहरों की रूप रेखाएं अस्त-व्यस्त हो जातीं; परन्तु अब यह आशंका नहीं रही. मैंने बाहर की ओर से आंख बन्द करके उन दो सुन्दर मूर्त्तियों को अपने हृदय में अमर जीवन दे दिया है.
कुछ समय के बाद नगर में चेचक फूट पड़ी. सूरजपाल रोके न रुकता था. दौड़-दौड़कर बाहर चला जाता था. वे कहते थे, इसे बाहर न निकलने दो, यह मेरे जीवन का आधार है, यदि इसे कुछ हो गया, तो मेरा जीवन नष्ट हो जाएगा; परन्तु बच्चे के पैरों में जंजीर किसने डाली है. वह नौकरों की आंखें बचाकर निकल जाता और कई-कई घण्टे लड़कों के साथ खेलता रहता था. अन्त में उसे भी इस रोग ने जकड़ लिया. वे घबरा गए, जैसे उन पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा हो. दिन-रात पास बैठे रहते. उन्होंने कचहरी जाना छोड़ दिया था. कहते थे–परमात्मा करे, मैं इस मुकदमे में जीत जाऊं. मैं और कुछ नहीं चाहता, मेरा बच्चा बच जाय. जिस प्रकार हिरन अपने बच्चे को बचाने के लिये स्वयं अपने आप को मृत्यु के मुंह में दे देता है, उसी प्रकार उन्होंने सूरजपाल की खातिर अपना जीवन ख़तरे में डाल दिया. हर समय उसके साथ लेटे रहते थे. परिणाम यह हुआ कि सूरज पाल की सेवा-शुश्रूषा करते-करते आप भी बीमार हो गए. अब मेरे व्याकुल हृदय में तूफ़ान उठने लगे. मेरे पास केवल फूल थे. और उन दोनों को, प्रकृति का निर्दयी हाथ, तोड़ने के पीछे पड़ा था; परन्तु मैंने अपनी जान लड़ा दी, और अपने दिखाई देनेवाले समान दिन-रात को उनकी सेवा में एक कर दिया. और परमात्मा ने मुझ अबला के परिश्रम को सफल किया–दोनों नीरोग हो गए.
मेरे आनन्द का ठिकाना न था. आंगन में उछलती फिरती थी, जैसे किसी का डूबा हुआ धन मिल जाए. उन्होंने आकर कृतज्ञता के भाव से मेरा हाथ अपने निर्बल हाथ में लिया और धीरे से कहा,‘तुमने हमें मृत्यु के मुख से खींचा है, नहीं तो.’
मैंने उनके मुंह पर हाथ रख दिया और कहा,‘बस, इसके आगे एक शब्द भी न कहो. मेरे कान यह सुनने की शक्ति नहीं रखते.’
वे चुप हो गये; परन्तु थोड़ी देर के बाद मुझे मालूम हुआ कि वे रो रहे हैं. मेरे हाथ पर पानी की दो गरम बूंदें टपकीं.
‘क्यों, रोते क्यों हो? अब तो कोई ख़तरा नहीं.’
यह सुनकर वह सिसकियां भर-भरकर रोने लगे. मैं उनके गले से लिपट गई, जिस प्रकार सूरजपाल मेरे गले से लिपट जाया करता है. मैंने पूछा,‘तुम बताओ, तुम क्यों रो रहे हो? मेरा कलेजा फट जाएगा.’
उन्होंने उत्तर देने की चेष्टा की; परन्तु उनके प्रत्येक शब्द को उनकी लगातार सिसकियों ने इस प्रकार निगल लिया, जिस प्रकार किसी अन्धी लड़की को नेत्र-कल्पनाओं को व्याकुलता निगल जाती है. वे रो रहे थे. जब दुःख का बोझ हलका हुआ और उनकी जिह्वा को बोलने की शक्ति प्राप्त हुई, तब उन्होंने मेरा हाथ अपने मुंह पर रख लिया और रुक-रुककर कहा,‘यदि तुम देख सकतीं, तो तुम्हें ऐसा दृश्य दिखाई देता कि तुम मूर्च्छित हो जातीं.’
मैं कुछ समझ न सकी, मस्तिष्क पर जोर देते हुए बोली,‘तुम्हारा क्या अभिप्राय है. साफ़-साफ़ कहो.’
‘मेरी और तुम्हारे सूरजपाल की सूरत ऐसी बदल गई है कि देखकर डर लगता है.’
यह कहकर वह चुप हो गये.
मैं बैठी थी, खड़ी हो गई और चिल्लाकर बोली,‘परन्तु मेरी आंखों में जो तुम्हारी सूरतें समा चुकी हैं, उन्हें कौन बदल सकता है. संसार की आंखों में तुम बदल जाओ; परन्तु मेरी आंखों में तुम सदा वैसे ही सुन्दर, वैसे ही मनोहर हो. मैं सोचती थी, परमात्मा ने दूसरी बार मेरी आंखें छीन कर मुझ पर अन्याय किया है; परन्तु आज मालूम हुआ कि इस अन्याय के परदे में उसकी अपार दया छिपी थी.’
यह कहकर मैंने उनके गले में भुजाएं डाल दी और उनके बालों में धीरे-धीरे अपनी अंगुलियां फेरने लगी.
इस समय मेरे अंधेरी दुनिया में ऐसा प्रकाश था, जो बयान नहीं किया जा सकता.
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