सच्चा साधु होने के लिए आपको घरबार और अपनी ज़िम्मेदारियों को छोड़कर सन्यास लेने की ज़रूरत नहीं है. एक गृहस्थ भी अपने आचरण को साधुओं जैसा कर सकता है, बालगोबिन भगत इसका जीता-जागता उदाहरण थे. जीवन-मरण, रीति-कुरीति पर अपने स्पष्ट विचारों वाले बालगोबिन भगत जैसे लोग विरला ही होते हैं. रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित यह रेखाचित्र ग्रामीण जीवन का सजीव वर्णन करती है.
बालगोबिन भगत मंझोले कद के गोरे-चिट्टे आदमी थे. साठ से ऊपर के ही होंगे. बाल पक गए थे. लंबी दाढ़ी या जटाजूट तो नहीं रखते थे, किंतु हमेशा उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता. कपड़े बिलकुल कम पहनते. कमर में एक लंगोटी-मात्र और सिर में कबीरपंथियों की-सी कनफटी टोपी. जब जाड़ा आता, एक काली कमली ऊपर से ओढ़े रहते. मस्तक पर हमेशा चमकता हुआ रामानंदी चंदन, जो नाक के एक छोर से ही, औरतों के टीके की तरह, शुरू होता. गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बांधे रहते.
ऊपर की तसवीर से यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत साधु थे. नहीं, बिलकुल गृहस्थ! उनकी गृहिणी की तो मुझे याद नहीं, उनके बेटे और पतोहू को तो मैंने देखा था. थोड़ी खेतीबारी भी थी, एक अच्छा साफ़-सुथरा मकान भी था.
किंतु, खेतीबारी करते, परिवार रखते भी, बालगोबिन भगत साधु थे-साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरनेवाले. कबीर को ‘साहब’ मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते. कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते. किसी से भी दो-टूक बात करने में संकोच नहीं करते, न किसी से खामखाह झगड़ा मोल लेते. किसी की चीज़ नहीं छूते, न बिना पूछे व्यवहार में लाते. इस नियम को कभी-कभी इतनी बारीक़ी तक ले जाते कि लोगों को कुतूहल होता! कभी वह दूसरे के खेत में शौच के लिए भी नहीं बैठते! वह गृहस्थ थे; लेकिन उनकी सब चीज़ ‘साहब’ की थी. जो कुछ खेत में पैदा होता, सिर पर लादकर पहले उसे साहब के दरबार में ले जाते-जो उनके घर से चार कोस दूर पर था-एक कबीरपंथी मठ से मतलब! वह दरबार में ‘भेंट’ रूप रख लिया जाकर ‘प्रसाद’ रूप में जो उन्हें मिलता, उसे घर लाते और उसी से गुज़र चलाते!
इन सबके ऊपर, मैं तो मुग्ध था उनके मधुर गान पर-जो सदा-सर्वदा ही सुनने को मिलते. कबीर के वे सीधे-सादे पद, जो उनके कंठ से निकलकर सजीव हो उठते. आसाढ़ की रिमझिम है. समूचा गांव खेतों में उतर पड़ा है. कहीं हल चल रहे हैं; कहीं रोपनी हो रही है. धान के पानी-भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं. औरतें कलेवा लेकर मेंड़ पर बैठी हैं. आसमान बादल से घिरा; धूप का नाम नहीं. ठंडी पुरवाई चल रही. ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर-तरंग झंकार-सी कर उठी. यह क्या है-यह कौन है! यह पूछना न पड़ेगा. बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथड़े, अपने खेत में रोपनी कर रहे हैं. उनकी अंगुली एक-एक धान के पौधे को, पंक्तिबद्ध, खेत में बिठा रही है. उनका कंठ एक-एक शब्द को संगीत के जीने पर चढ़ाकर कुछ को ऊपर, स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर! बच्चे खेलते हुए झूम उठते हैं; मेंड पर खड़ी औरतों के होंठ कांप उठते हैं, वे गुनगुनाने लगती हैं; हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते हैं; रोपनी करनेवालों की अंगुलियां एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं! बालगोबिन भगत का यह संगीत है या जादू!
भादो की वह अंधेरी अधरतिया. अभी, थोड़ी ही देर पहले मुसलधार वर्षा खत्म है. बादलों की गरज, बिजली की तड़प में आपने कुछ नहीं सुना हो, किंतु अब झिल्ली की झंकार या दादुरों की टर्र-टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डुबो नहीं सकतीं. उनकी खजड़ी डिमक-डिमक बज रही है और वे गा रहे हैं-“गोदी में पियवा, चमक उठे सखिया, चिहुंक उठे ना!’’ हां, पिया तो गोद में ही है, किंतु वह समझती है, वह अकेली है, चमक उठती है, चिहुंक उठती है. उसी भरे-बादलों वाले भादो की आधी रात में उनका यह गाना अंधेरे में अकस्मात कौंध उठने वाली बिजली की तरह किसे न चौंका देता? अरे, अब सारा संसार निस्तब्धता में सोया है, बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा है, जगा रहा है! तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफ़िर जाग ज़रा!
कातिक आया नहीं कि बालगोबिन भगत की प्रभातियां शुरू हुईं, जो फागुन तक चला करतीं. इन दिनों वह सबेरे ही उठते. न जाने किस वक्त जगकर वह नदी-स्नान को जाते-गांव से दो मील दूर! वहां से नहा-धोकर लौटते और गांव के बाहर ही, पोखरे के ऊंचे भिंडे पर, अपनी बंजड़ी लेकर जा बैठते और अपने गाने टेरने लगते. मैं शुरू से ही देर तक सोनेवाला हूं, किंतु, एक दिन, माघ की उस दांत किटकिटानेवाली भोर में भी, उनका संगीत मुझे पोखरे पर ले गया था. अभी आसमान के तारों के दीपक बुझे नहीं थे. हां, पूरब में लोही लग गई थी जिसकी लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था. खेत, बगीचा, घर-सब पर कुहासा छा रहा था. सारा वातावरण अजीब रहस्य से आवृत मालूम पड़ता था. उस रहस्यमय वातावरण में एक कुश की चटाई पर पूरब मुंह, काली कमली ओढ़े, बालगोबिन भगत अपनी खजड़ी लिए बैठे थे. उनके मुंह से शब्दों का तांता लगा था, उनकी अंगुलियां खजड़ी पर लगातार चल रही थीं. गाते-गाते इतने मस्त हो जाते, इतने सुरूर में आते, उत्तेजित हो उठते कि मालूम होता, खड़े हो जाएंगे. कमली तो बार-बार सिर से नीचे सरक जाती. मैं जाड़े से कंपकंपा रहा था, किंतु तारे की छांव में भी उनके मस्तक के श्रमबिंदु, जब-तब, चमक ही पड़ते.
गर्मियों में उनकी ‘संझा’ कितनी उमसभरी शाम को न शीतल करती! अपने घर के आंगन में आसन जमा बैठते. गांव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते. खंजड़ियों और करतालों की भरमार हो जाती. एक पद बालगोबिन भगत कह जाते, उनकी प्रेमी-मंडली उसे दुहराती, तिहराती. धीरे-धीरे स्वर ऊंचा होने लगता-एक निश्चित ताल, एक निश्चित गति से. उस ताल-स्वर के चढ़ाव के साथ श्रोताओं के मन भी ऊपर उठने लगते. धीरे-धीरे मन तन पर हावी हो जाता. होते-होते, एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे हैं और उनके साथ ही सबके तन और मन नृत्यशील हो उठे हैं. सारा आंगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है!
बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनका बेटा मरा. इकलौता बेटा था वह! कुछ सुस्त और बोदा-सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते. उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज़्यादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए, क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज़्यादा हकदार होते हैं. बड़ी साध से उसकी शादी कराई थी, पतोहू बड़ी ही सुभग और सुशील मिली थी. घर की पूरी प्रबंधिका बनकर भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से निवृत्त कर दिया था उसने.
उनका बेटा बीमार है, इसकी ख़बर रखने की लोगों को कहां फुरसत! किंतु मौत तो अपनी ओर सबका ध्यान खींचकर ही रहती है. हमने सुना, बालगोबिन भगत का बेटा मर गया. कुतूहलवश उनके घर गया. देखकर दंग रह गया. बेटे को आंगन में एक चटाई पर लिटाकर
एक सफ़ेद कपड़े से ढांक रखा है. वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोपते रहते, उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा दिए हैं; फूल और तुलसीदल भी. सिरहाने एक चिराग जला रखा है. और, उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं! वही पुराना
स्वर, वही पुरानी तल्लीनता. घर में पतोहू रो रही है जिसे गांव की स्त्रियां चुप कराने की कोशिश कर रही हैं. किंतु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं! हां, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते. आत्मा परमात्मा के
पास चली गई, विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात? मैं कभी-कभी सोचता, यह पागल तो नहीं हो गए. किंतु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था-वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है.
बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी. किंतु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना. इधर पतोहू रो-रोकर कहती–मैं चली जाऊंगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा, बीमार पड़े, तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा? मैं पैर पड़ती हूं, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए! लेकिन भगत का निर्णय अटल था. तू जा, नहीं तो मैं ही इस घर को छोड़कर चल दूंगा-यह थी उनकी आख़िरी दलील और इस दलील के आगे बेचारी की क्या चलती?
बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई. वह हर वर्ष गंगा-स्नान करने जाते. स्नान पर उतनी आस्था नहीं रखते, जितना संत-समागम और लोक-दर्शन पर. पैदल ही जाते. क़रीब तीस कोस पर गंगा थी. साधु को संबल लेने का क्या हक? और, गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों मांगे? अतः, घर से खाकर चलते, तो फिर घर पर ही लौटकर खाते. रास्ते भर खजड़ी बजाते, गाते जहां प्यास लगती, पानी पी लेते. चार-पांच दिन आने-जाने में लगते; किंतु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती! अब बुढ़ापा आ गया था, किंतु टेक वही जवानीवाली. इस बार लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी. खाने-पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी, थोड़ा बुखार आने लगा. किंतु नेम-व्रत तो छोड़नेवाले नहीं थे. वही दोनों जून गीत, स्नानध्यान, खेतीबारी देखना. दिन-दिन छीजने लगे. लोगों ने नहाने-धोने से मना किया, आराम करने को कहा. किंतु, हंसकर टाल देते रहे. उस दिन भी संध्या में गीत गाए, किंतु मालूम होता जैसे तागा टूट गया हो, माला का एक-एक दाना बिखरा हुआ. भोर में लोगों ने गीत नहीं सुना, जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे सिर्फ़ उनका पंजर पड़ा है!
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