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भेड़ें और भेड़िए: कहानी प्रजातंत्र की (लेखक: हरिशंकर परसाई)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 13, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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भेड़ें और भेड़िए: कहानी प्रजातंत्र की (लेखक: हरिशंकर परसाई)
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कैसे भेड़ों ने अपनी हित-रक्षा के लिए भेड़ियों को चुना, मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने अपनी इस कहानी में हमारे पॉलिटिकल सिस्टम पर भी कटाक्ष किया है. प्रजातंत्र में नेताओं द्वारा जनता को बेवकूफ़ बनाकर अपना उल्लू सीधा करने पर धारदार प्रहार है हरिशंकर परसाई जी की यह रचना.

एक बार एक वन के पशुओं को ऐसा लगा कि वे सभ्यता के उस स्तर पर पहुंच गए हैं, जहां उन्हें एक अच्छी शासन व्यवस्था अपनानी चाहिए. और, एक मत से यह तय हो गया कि वन-प्रदेश में प्रजातंत्र की स्थापना हो. पशु-समाज में इस ‘क्रांतिकारी’ परिवर्तन से हर्ष की लहर दौड़ गई कि सुख-समृद्धि और सुरक्षा का स्वर्ण-युग अब आया और वह आया.
जिस वन-प्रदेश में हमारी कहानी ने चरण धरे हैं, उसमें भेड़ें बहुत थीं-निहायत नेक, ईमानदार, कोमल, विनयी, दयालु, निर्दोष पशु जो घास तक को फूंक-फूंककर खाता है.
भेड़ों ने सोचा कि अब हमारा भय दूर हो जाएगा. हम अपने प्रतिनिधियों से क़ानून बनवाएंगे कि कोई जीवधारी किसी को न सताए, न मारे. सब जिएं और जीने दें. शांति, स्नेह, बंधुत्व और सहयोग पर समाज आधारित हो.
इधर, भेड़ियों ने सोचा कि हमारा अब संकटकाल आया. भेड़ों की संख्या इतनी अधिक है कि पंचायत में उनका ही बहुमत होगा और अगर उन्होंने क़ानून बना दिया कि कोई पशु किसी को न मारे, तो हम खाएंगे क्या? क्या हमें घास चरना सीखना पड़ेगा?
ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ों का उल्लास बढ़ता जाता.
ज्यों-ज्यों चुनाव समीप आता, भेड़ियों का दिल बैठता जाता.
एक दिन बूढ़े सियार ने भेड़िए से कहा,‘‘मालिक, आजकल आप बड़े उदास रहते हैं.’’
हर भेड़िए के आसपास दो-चार सियार रहते ही हैं. जब भेड़िया अपना शिकार खा लेता है, तब ये सियार हड्डियों में लगे मांस को कुतरकर खाते हैं, और हड्डियां चूसते रहते हैं. ये भेड़िए के आसपास दुम हिलाते चलते हैं, उसकी सेवा करते हैं और मौके-बेमौके ‘हुआं हुआं’ चिल्लाकर उसकी जय बोलते हैं.
तो बूढ़े सियार ने बड़ी गंभीरता से पूछा,‘‘महाराज, आपके मुखचंद्र पर चिंता के मेघ क्यों छाए हैं?’’
खैर, भेड़िए ने कहा,‘‘तुझे गया मालूम नहीं है कि वन प्रदेश में नई सरकार बनने वाली है? हमारा राज तो अब गया.’’
सियार ने दांत निपोर कर कहा,‘‘हम क्या जानें महाराज. हमारे तो आप ही ‘माई-बाप’ हैं. हम तो कोई और सरकार नहीं जानते. आपका दिया खाते हैं, आपके गुन गाते हैं.’’
भेड़िए ने कहा,‘‘मगर अब समय ऐसा आ रहा है कि सूखी हड्डियां भी चबाने को नहीं मिलेंगी.’’
सियार सब जानता था, मगर जानकर भी न जानने का नाटक करना न आता, तो सियार शेर न हो गया होता.
आख़िर भेड़िए ने वन-प्रदेश की पंचायत के चुनाव की बात बूढ़े सियार को समझाई और बड़े गिरे मन से कहा,‘‘चुनाव अब पास आता जा रहा है. अब यहां से भागने के सिवा कोई चारा नहीं, पर जाएं भी कहां?’’
सियार ने कहा,‘‘मालिक, सरकस में भरती हो जाइए.’’
भेड़िए ने कहा,‘‘अरे, वहां भी शेर और रीछ को तो ले लेते हैं, पर हम इतने बदनाम हैं कि हमें वहां भी कोई नहीं पूछता.’’
‘‘तो,’’ सियार ने ख़ूब सोचकर कहा,‘‘अजायबघर में चले जाइए.’’
भेड़िए ने कहा,‘‘अरे, वहां भी जगह नहीं है, सुना है. वहां तो आदमी रखे जाने लगे हैं.’’
बूढ़ा सियार अब ध्यानमग्न हो गया. उसने एक आंख बंद की, नीचे के होंठ को ऊपर के दांत से दबाया और एकटक आकाश की तरफ़ देखने लगा. फिर बोला,‘‘बस सब समझ में आ गया. मालिक, अगर पंचायत में आप भेड़िया जाति का बहुमत हो जाए तो?’’
भेड़िया चिढ़कर बोला,‘‘कहां की आसमानी बातें करता है? अरे, हमारी जाति कुल दस फ़ीसदी है और भेड़ें तथा अन्य छोटे पशु नब्बे फ़ीसदी. भला वे हमें काहे को चुनेंगे. अरे, कहीं ज़िंदगी अपने को मौत के हाथ सौंप सकती है? मगर हां, ऐसा हो सकता तो क्या बात थी!’’
सियार बोला,‘‘आप खिन्न मत होइए सरकार. एक दिन का समय दीजिए. कल तक कोई योजना बन ही जाएगी, मगर एक बात है. आपको मेरे कहे अनुसार कार्य करना पड़ेगा.’’
मुसीबत में फंसे भेड़िए ने आख़िर सियार को अपना गुरु माना और आज्ञापालन की शपथ ली.
दूसरे दिन बूढ़ा सियार अपने तीन सियारों को लेकर आया. उनमें से उसने एक को पीले रंग में रंग दिया था, दूसरे को नीले में और तीसरे को हरे में.
भेड़िए ने देखा और पूछा,‘‘अरे ये कौन हैं?’’
बूढ़ा सियार बोला,‘‘ये भी सियार हैं सरकार, मगर रंगे सियार हैं. आपकी सेवा करेंगे. आपके चुनाव का प्रचार करेंगे.’’
भेड़िए ने शंका की,‘‘मगर इनकी बात मानेगा कौन? ये तो वैसे ही छल-कपट के लिए बदनाम हैं.’’
सियार ने भेड़िए का हाथ चूमकर कहा,‘‘बड़े भोले हैं आप सरकार! अरे मालिक, रूप-रंग बदल देने से तो सुना है आदमी तक बदल जाते हैं. फिर ये तो सियार हैं.’’
और तब, बूढ़े सियार ने भेड़िए का भी रूप बदला. मस्तक पर तिलक लगाया, गले में कंठी पहनाई और मुंह में घास के तिनके खोंस दिए. बोला,‘‘अब आप पूरे संत हो गए. अब भेड़ों की सभा में चलेंगे. मगर तीन बातों का ख़्याल रखना-अपनी हिंसक आंखों को ऊपर मत उठाना, हमेशा ज़मीन की ओर देखना और कुछ बोलना मत, नहीं तो सब पोल खुल जाएगी और वहां बहुत-सी भेड़ें आएंगी, सुंदर-सुंदर, मुलायम-मुलायम, तो कहीं किसी को तोड़ मत खाना.’’
भेड़िए ने पूछा,‘‘लेकिन ये रंगे सियार क्या करेंगे? ये किस काम आएंगे?’’
बूढ़ा सियार बोला,‘‘ये बड़े काम के हैं. आपका सारा प्रचार तो ये ही करेंगे. इन्हीं के बल पर आप चुनाव लड़ेंगे. यह पीला वाला सियार बड़ा विद्वान है, विचारक है, कवि भी है, लेखक भी. यह नीला सियार नेता और पत्रकार है. और यह हरा धर्मगुरु. बस, अब चलिए.’’
‘‘ज़रा ठहरो,’’ भेड़िए ने बूढ़े सियार को रोका,‘‘कवि, लेखक, नेता, विचारक-ये तो सुना है बड़े अच्छे लोग होते हैं. और ये तीनों…’’
बात काटकर सियार बोला,‘‘ये तीनों सच्चे नहीं हैं, रंगे हुए हैं महाराज! अब चलिए, देर मत करिए.’’
और वे चल दिए. आगे बूढ़ा सियार था, उसके पीछे रंगे सियारों के बीच भेड़िया चल रहा था-मस्तक पर तिलक, गले में कंठी, मुख में घास के तिनके. धीरे-धीरे चल रहा था, अत्यंत गंभीरतापूर्वक, सिर झुकाए विनय की मूर्ति.
उधर एक स्थान पर सहस्रों भेड़ें इकट्ठी हो गईं थीं, उस संत के दर्शन के लिए, जिसकी चर्चा बूढ़े सियार ने फैला रखी थी.
चारों सियार भेड़िए की जय बोलते हुए भेड़ों के झुंड के पास आए.
बूढ़े सियार ने एक बार ज़ोर से संत भेड़िए की जय बोली! भेड़ों में पहले से ही यहां-वहां बैठे सियारों ने भी जयध्वनि की.
भेड़ों ने देखा तो वे बोलीं,‘‘अरे भागो, यह तो भेड़िया है.’’
तुरंत बूढ़े सियार ने उन्हें रोककर कहा,‘‘भाइयों और बहनों! अब भय मत करो. भेड़िया राजा संत हो गए हैं. उन्होंने हिंसा बिलकुल छोड़ दी है.’’
उनका ‘हृदय परिवर्तन’हो गया है. वे आज सात दिनों से घास खा रहे हैं. रात-दिन भगवान के भजन और परोपकार में लगे रहते हैं. उन्होंने अपना जीवन जीव-मात्र की सेवा में अर्पित कर दिया है. अब वे किसी का दिल नहीं दुखाते, किसी का रोम तक नहीं छूते. भेड़ों से उन्हें विशेष प्रेम है. इस जाति ने जो कष्ट सहे हैं, उनको याद करके कभी-कभी भेड़िया संत की आंखों में आंसू आ जाते हैं. उनकी अपनी भेड़िया जाति ने जो अत्याचार आप पर किए हैं उनके कारण भेड़िया संत का माथा लज्जा से जो झुका है, सो झुका ही हुआ है, परंतु अब वे शेष जीवन आपकी सेवा में लगाकर तमाम पापों का प्रायश्चित करेंगे. आज सवेरे की ही बात है कि एक मासूम भेड़ के बच्चे के पांव में कांटा लग गया, तो भेड़िया संत ने उसे दांतों से निकाला, दांतों से! पर जब वह बेचारा कष्ट से चल बसा, तो भेड़िया संत ने सम्मानपूर्वक उसकी अंत्येष्टि-क्रिया की. अब तो वे सर्वस्व त्याग चुके हैं. अब आप उनसे भय मत करें. उन्हें अपना भाई समझें. सब मिलकर बोलो संत भेड़िया जी की जय!
भेड़िया जी अभी तक उसी तरह गरदन डाले विनय की मूर्ति बने बैठे थे. बीच में कभी-कभी सामने की ओर इकट्ठी भेड़ों को देख लेते और टपकती हुई लार को गुटक जाते.
बूढ़ा सियार फिर बोला,‘‘भाइयों और बहनों, मैं भेड़िया संत से अपने मुखार विंद से आपको प्रेम और दया का संदेश देने की प्रार्थना करता पर प्रेमवश उनका हृदय भर आया है, वे गद्गद् हो गए हैं और भावातिरेक से उनका कंठ अवरुद्ध हो गया है. वे बोल नहीं सकते. अब आप इन तीनों रंगीन प्राणियों को देखिए. आप इन्हें न पहचान पाए होंगे. पहचानें भी कैसे? ये इस लोक के जीव तो हैं नहीं. ये तो स्वर्ग के देवता हैं जो हमें सदुपदेश देने के लिए पृथ्वी पर उतरे हैं. ये पीले-विचारक हैं, कवि हैं, लेखक हैं. नीले-नेता हैं और स्वर्ग के पत्रकार हैं और हरे वाले-धर्मगुरु हैं. अब कविराज आप को स्वर्ग-संगीत सुनाएंगे. हां कवि जी…’
पीले सियार को ‘हुआं-हुआं’ के सिवा कुछ और तो आता ही नहीं था. ‘हुआं-हुआं’ चिल्ला दिया. शेष सियार भी ‘हुआं-हुआं’ बोल पड़े. बूढ़े सियार ने आंख के इशारे से शेष सियारों को मना किया और चतुराई से बात को यों कहकर संभाला,‘‘भाई कवि जी तो कोरस में गीत गाते हैं. पर कुछ समझे आप लोग? कैसे समझ सकते हैं? अरे, कवि की बात सबकी समझ में आ जाए तो वह कवि काहे का? कह रहे हैं कि जैसे स्वर्ग में परमात्मा वैसे ही पृथ्वी पर भेड़िया. हे भेड़िया जी, महान! आप सर्वत्र व्याप्त हैं, सर्वशक्तिमान हैं. प्रात: आपके मस्तक पर तिलक करती है, सांझ को उषा आपका मुख चूमती है, पवन आप पर पंखा करती है, और रात्रि आपकी ही ज्योति लक्ष-लक्ष खंड होकर आकाश में तारे बनकर चमकती है.
हे-विराट! आपके… आपके चरणों में इस क्षुद्र का प्रणाम है.’’
फिर नीले रंग के सियार ने कहा,‘‘निर्बलों की रक्षा बलवान ही कर सकते हैं. भेड़ें कोमल हैं, निर्बल हैं, अपनी रक्षा नहीं कर सकतीं. भेड़िए बलवान हैं, इसलिए उनके हाथ में अपने हितों को छोड़ निश्चित हो जाओ, ये भी तुम्हारे भाई हैं. आप एक ही जाति के हो. तुम भेड़ वह भेड़िया. कितना कम अंतर है! और बेचारा भेड़िया व्यर्थ ही बदनाम कर दिया गया है कि वह भेड़ों को खाता है. अरे खाते और हैं, हड्डियां उनके द्वार पर फेंक जाते हैं. ये व्यर्थ बदनाम होते हैं. तुम लोग तो पंचायत में बोल भी नहीं पाओगे. भेड़िए बलवान होते हैं. यदि तुम पर कोई अन्याय होगा, तो डटकर लड़ेंगे. इसलिए अपने हित की रक्षा के लिए भेड़ियों को चुनकर पंचायत में भेजो. बोलो संत भेड़िया की जय.’’
फिर हरे रंग के धर्मगुरु ने उपदेश दिया,‘‘जो यहां त्याग करेगा, वह उस लोक में पाएगा. जो यहां दुःख भोगेगा, वह वहां सुख पाएगा. जो यहां राजा बनाएगा, वह वहां राजा बनेगा. जो यहां वोट देगा, वह वहां वोट पाएगा. इसलिए सब मिलकर भेड़िए को वोट दो. वे दानी हैं, परोपकारी हैं, संत हैं. मैं उनको प्रणाम करता हूं.’’
यह एक भेड़िए की कथा नहीं है, यह सब भेड़ियों की कथा है. सब जगह इस प्रकार प्रचार हो गया और भेड़ों को विश्वास हो गया कि भेड़िए से बड़ा उनका कोई हित-चिंतक और हित-रक्षक नहीं है.
और, जब पंचायत का चुनाव हुआ तो भेड़ों ने अपनी हित-रक्षा के लिए भेड़ियों को चुना.
और, पंचायत में भेड़ों के हितों की रक्षा के लिए भेड़िए प्रतिनिधि बनकर गए.
और पंचायत में भेड़ियों ने भेड़ों की भलाई के लिए पहला क़ानून यह बनाया-हर भेड़िए को सवेरे नाश्ते के लिए भेड़ का एक मुलायम बच्चा दिया जाए, दोपहर के भोजन में एक पूरी भेड़ तथा शाम को स्वास्थ्य के ख़्याल से कम खाना चाहिए, इसलिए आधी भेड़ दी जाए.

Illustration: Pinterest

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