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बिलाउज़: कहानी एक किशोर नौकर की (लेखक: मंटो)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
March 31, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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बिलाउज़: कहानी एक किशोर नौकर की (लेखक: मंटो)
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किशोरावस्था में हमारे शरीर में अचानक से कई बदलाव आने लगते हैं. शरीर में आनेवाले इन बदलावों का असर दिमाग़ पर भी होता है. मोमिन के शरीर में भी बदलाव आ रहे हैं. इन्हीं बदलावों की कहानी कहती है सआदत हसन मंटो की कहानी ‘बिलाउज़’.

कुछ दिनों से मोमिन बहुत बेक़रार था. उसको ऐसा महसूस होता था कि इस का वजूद कच्चा फोड़ा सा बन गया था. काम करते वक़्त, बातें करते हुए हत्ता कि सोचने पर भी उसे एक अजीब क़िस्म का दर्द महसूस होता था. ऐसा दर्द जिस को वो बयान भी करना चाहता. तो न कर सकता.
बाअज़ औक़ात बैठे-बैठे वो एक दम चौंक पड़ता. धुन्दले धुन्दले ख़यालात जो आम हालतों में बे-आवाज़ बुलबुलों की तरह पैदा हो कर मिट जाया करते हैं. मोमिन के दिमाग़ में बड़े शोर के साथ पैदा होते और शोर ही के साथ फटते थे. इस के इलावा उस के दिल-ओ-दिमाग़ के नर्म-ओ-नाज़ुक पर्दों पर हरवक़्त जैसे ख़ारदार पांव वाली च्यूंटियां सी रेंगती थीं. एक अजीब क़िस्म का खिंचाओ उस के आज़ा में पैदा हो गया था. जिस के बाइस उसे बहुत तकलीफ़ होती थी. इस तकलीफ़ की शिद्दत जब बढ़ जाती तो उसके जी में आता कि अपने आप को एक बड़े हावन में डाल दे और किसी से कहे. “मुझे कूटना शुरू कर दो.”
बावर्चीख़ाना में गर्म मसाला कूटते वक़्त जब लोहे से लोहा टकराता और धमकों से छत में एक गूंज-सी दौड़ जाती. तो मोमिन के नंगे पैरों को ये लरज़िश बहुत भली मालूम होती थी. पैरों के ज़रिए से ये लरज़िश उस की तनी हुई पिंडुलियों और रानों में दौड़ती हुई इस के दिल तक पहुंच जाती, जो तेज़ हवा में रखे हुए दिए की तरह कांपना शुरू कर देता.
मोमिन की उम्र पंद्रह बरस की थी. शायद सोलहवां भी लगा हो. उसे अपनी उम्र के मुतअल्लिक़ सही अंदाज़ा नहीं था. वो एक सेहतमंद और तंदुरुस्त लड़का था. जिस का लड़कपन तेज़ क़दमी से जवानी के मैदान की तरफ़ भाग रहा था. इसी दौड़ ने जिस से मोमिन बिलकुल ग़ाफ़िल था. इस के लहू के हर क़तरे में सनसनी पैदा कर दी थी. वो इस का मतलब समझने की कोशिश करता था. मगर नाकाम रहता था.
उस के जिस्म में कई तबदीलियां रौनुमा हो रही थीं. गर्दन जो पहले पतली थी. अब मोटी हो गई थी. उन्हों के पट्ठों में एंठन-सी पैदा हो गई थी. कंठ निकल रहा था. सीने पर गोश्त की तह मोटी हो गई थी. और अब कुछ दिनों से पिस्तानों में गोलियां सी पड़ गई थीं. जगह उभर आई थी. जैसे किसी ने एक-एक बरनटा अंदर दाख़िल कर दिया है. इन उभारों को हाथ लगाने से मोमिन को बहुत दर्द महसूस होता था. कभी-कभी काम करने के दौरान में ग़ैर इरादी तौर पर जब उस का हाथ इन गोलियों से छू जाता. तो वो तड़प उठता. क़मीज़ के मोटे और खुरदरे कपड़े से भी उस को तकलीफ़देह सरसराहट महसूस होती थी.
ग़ुसलख़ाने में नहाते वक़्त या बावर्चीख़ाना में जब कोई और मौजूद न हो मोमिन अपनी क़मीज़ के बटन खोल कर उन गोलियों को ग़ौर से देखता था. हाथों से मसलता था. दर्द होता टीसें उठतीं. उस का सारा जिस्म फलों से लदे हुए पेड़ की तरह जिसे ज़ोर से हिलाया गया हो कांप कांप जाता. मगर इस के बावजूद वो इस दर्द पैदा करने वाले खेल में मशग़ूल रहता था कभी कभी ज़्यादा दबाने पर ये गोलियां पिचक जातीं और उन के मुंह से लेसदार लुआब निकल आता. उस को देख कर इस का चेहरा कान की लोवुं तक सुरख़ हो जाता. वो समझता कि उस से कोई गुनाह सरज़द हो गया है.
गुनाह और सवाब के मुतअल्लिक़ मोमिन का इल्म बहुत महदूद था. हर वो फ़ेअल जो एक इंसान दूसरे इंसानों के सामने ना कर सकता हो. उस के ख़याल के मुताबिक़ गुनाह था. चुनांचे जब शर्म के मारे उस का चेहरा कान की लो तक सुर्ख़ हो जाता. तो वो झट से अपनी क़मीज़ के बटन बंद कर लेता. कि आइन्दा ऐसी फ़ुज़ूल हरकत कभी नहीं करेगा. लेकिन इस अह्द के बावजूद दूसरे तीसरे रोज़ तख़लिए में वो फिर इस खेल में मशग़ूल हो जाता.
मोमिन से घर वाले सब ख़ुश थे. वो बड़ा मेहनती लड़का था. सब हर काम वक़्त पर कर देता था और किसी शिकायत का मौक़ा न देता था. डिप्टी साहब के यहां उसे काम करते हुए सिर्फ़ तीन महीने हुए थे लेकिन इस क़लील अर्से में उस ने घर के हर फ़र्द को अपनी मेहनतकश तबीयत से मुतअस्सिर कर लिया था. छः रुपए महीने पर वो नौकर हुआ था. मगर दूसरे महीने ही उस की तनख़्वाह में दो रुपए बढ़ा दिए गए थे. वो इस घर में बहुत ख़ुश था. इस लिए कि उस की यहां क़दर की जाती थी. मगर वो अब कुछ दिनों से वो बेक़रार था. एक अजीब क़िस्म की आवारगी उस के दिमाग़ में पैदा हो गई थी. उस का जी चाहता था कि सारा दिन बेमतलब बाज़ारों में घूमता फिरे. या किसी सुनसान मुक़ाम पर जा कर लेटा रहे.
अब काम में उस का जी नहीं लगता था. लेकिन इस बे-दिली के होते हुए भी वो काहिली नहीं बरतता था. चुनांचे यही वजह है कि घर में कोई भी उस के अंदरूनी इंतिशार से वाक़िफ़ नहीं था. रज़िया थी सौ वो दिन भर बाजा बजाने नई-नई फ़िल्मी तरज़ें सीखने और रिसाले पढ़ने में मसरूफ़ रहती थी. उस ने कभी मोमिन की निगरानी ही नहीं की थी. शकीला अलबत्ता मोमिन से इधर उधर के काम लेती थी. और कभी-कभी उसे डांटती भी थी. मगर अब कुछ दिनों से वो भी चंद बिलाउज़ों के नमूने उतारने में बे-तरह मशग़ूल थी. ये बिलाउज़ उसकी एक सहेली के थे. जिसे नई-नई तराशों के कपड़े पहनने का बहुत शौक़ था. शकीला उस से आठ बिलाउज़ मांग कर लाई थी. और काग़ज़ों पर उन के नमूने उतार रही थी. चुनांचे उसने भी कुछ दिनों से मोमिन की तरफ़ ध्यान नहीं दिया था.
डिप्टी साहब की बीवी सख़्त गीर औरत नहीं थी. घर मैं दो नौकर थे. यानी मोमिन के इलावा एक बुढ़िया भी थी. ज़्यादातर बावर्चीख़ाने का काम यही करती थी. मोमिन कभी-कभी उस का हाथ बटा दिया करता था. डिप्टी साहब की बीवी ने मुम्किन है मोमिन की मुस्तइद्दी में कोई कमी देखी हो. मगर उसने मोमिन से इस का ज़िक्र नहीं किया था. और वो इन्क़िलाब जिसमें से मोमिन का दिल-ओ-दिमाग़ और जिस्म गुज़र रहा था. उस से तो डिप्टी साहब की बीवी बिलकुल ग़ाफ़िल थी. चूंकि उसका कोई लड़का नहीं था. इसलिए वो मोमिन की ज़ेहनी और जिस्मानी तबदीलियों को नहीं समझ सकती थी और फिर मोमिन नौकर था… नौकरों के मुतअल्लिक़ कौन ग़ौर-ओ-फ़िक्र करता है? बचपन से लेकर बुढ़ापे तक वो तमाम मंज़िलें पैदल तय कर जाते हैं और आसपास के आदमियों को ख़बर तक नहीं होती.
मोमिन का भी बिलकुल यही हाल था. वो कुछ दिनों से मोड़ मुड़ता ज़िंदगी के एक ऐसे रास्ते पर आ निकला था. जो ज़्यादा लंबा तो नहीं था. मगर बेहद पुर-ख़तर था. इस रास्ते पर उस के क़दम कभी तेज़-तेज़ उठते थे. कभी हौले-हौले. वो दरअसल जानता नहीं था कि ऐसे रास्तों पर किस तरह चलना चाहिए. उन्हें जल्दी तय कर जाना चाहिए या कुछ वक़्त लेकर आहिस्ता-आहिस्ता इधर-उधर की चीज़ों का सहारा लेकर तय करना चाहिए. मोमिन के नंगे पांव के नीचे आनेवाले शबाब की गोल-गोल चिकनी बट्टियां फिसल रही थीं. वो अपना तवाज़ुन बरक़रार नहीं रख सकता था. वो बेहद मुज़्तरिब था. इसी इज़्तिराब के बाइस कई बार काम करते करते चौंककर वो ग़ैर इरादी तौर पर किसी खूंटी को दोनों हाथों से पकड़ लेता. और उस के साथ लटक जाता. फिर उस के दिल में ख़्वाहिश पैदा होती कि टांगों से पकड़ कर उसे कोई, इतना खींचे कि वो एक मुहीन तार बन जाए. ये सब बातें उस के दिमाग़ के किसी ऐसे गोशे में पैदा होती थीं कि वो ठीक तौर पर इन का मतलब नहीं समझ सकता था.
ग़ैर शऊरी तौर पर वो चाहता था कि कुछ हो… क्या हो?… बस कुछ हो. मेज़ पर करीने से चुनी हुई प्लेटें एक दम उछलना शुरू कर दें. केतली पर रखा हुआ ढकना पानी के एक ही उबाल से ऊपर को उड़ जाए. नल की जसती नाली पर दबाओ डाले. तो वो दुहरी हो जाए. और इस में से पानी का एक फ़व्वारा सा फूट निकले. उसे एक ऐसी ज़बरदस्त अंगड़ाई आए कि इस के सारे जोड़ अलाहिदा-अलाहिदा हो जाएं और एक ढीलापन पैदा हो जाए… कोई ऐसी बात वक़ूअ पज़ीर हो. जो उस ने पहले कभी न देखी हो.
मोमिन बहुत बेक़रार था.
रज़िया नई फ़िल्मी तरज़ें सीखने में मशग़ूल थी. और शकीला काग़ज़ों पर बिलाउज़ों के नमूने उतार रही थी. और जब उस ने ये काम ख़त्म कर लिया. तो वो नमूना जो उन में सबसे अच्छा था. सामने रख कर अपने लिए ऊदी साटन का बिलाउज़ बनाना शुरू किया. अब रज़िया को भी अपना बाजा और फ़िल्मी गानों की कापी छोड़कर उस की तरफ़ मुतवज्जा होना पड़ा.
शकीला हर काम बड़े एहतिमाम और चाव से करती थी. जब सीने पिरोने बैठती तो उस की नशिस्त बड़ी पुर-इत्मिनान होती थी. अपनी छोटी बहन रज़िया की तरह वो अफ़रातफ़री पसंद नहीं करती थी. एक-एक टांका सोच समझकर बड़े इत्मिनान से लगाती थी ताकि ग़लती का इमकान न रहे. पैमाइश भी उसकी बहुत सही होती थी. इसलिए कि वो पहले काग़ज़ काट कर फिर कपड़ा काटती थी. यूं वक़्त ज़्यादा सर्फ़ होता था. मगर चीज़ बिलकुल फ़िट तैयार होती थी.
शकीला भरे-भरे जिस्म की सेहतमंद लड़की थी. इसके हाथ बहुत गुदगुदे थे गोश्त भरी मख़रूती उंगलियों के आख़िर में हर जोड़ पर एक नन्हा गढ़ा था. जब वो मशीन चलाती थी ये नन्हे-नन्हे गढ़े हाथ की हरक़त से कभी-कभी ग़ायब भी हो जाते थे.
शकीला मशीन भी बड़े इत्मिनान से चलाती थी. आहिस्ता-आहिस्ता उस की दो या तीन उंगलियां बड़ी रानाई के साथ मशीन की हत्थी को घुमाती थी उस की कलाई में एक हल्का सा ख़म पैदा हो जाता था. गर्दन ज़रा उस तरफ़ को झुक जाती थी और बालों की एक लट जिसे शायद अपने लिए कोई मुस्तक़िल जगह नहीं मिलती थी नीचे फिसल आती थी. शकीला अपने काम में इस क़दर मुनहमिक रहती कि उसे हटाने या जमाने की कोशिश नहीं करती थी.
जब शकीला ऊदी साटन सामने फैला कर अपने माप का बिलाउज़ तराशने लगी तो उसे टेप की ज़रूरत महसूस हुई. क्योंकि इन का अपना टेप घिस घिसाकर अब बिलकुल टुकड़े-टुकड़े हो गया था. लोहे का ग़ज़ मौजूद था. मगर उस से कमर और सीने की पैमाइश कैसे हो सकती है. उसके अपने कई बिलाउज़ मौजूद थे मगर अब चूंकि वो पहले से कुछ मोटी हो गई थी इस लिए सारी पेमाइशें दुबारा करना चाहती थी.
क़मीज़ उतार कर उसने मोमिन को आवाज़ दी. जब वो आया तो इस से कहा. “जाओ मोमिन दौड़ कर छः नंबर से कपड़े का ग़ज़ ले आओ. कहना शकीला बीबी मांगती हैं.”
मोमिन की निगाहें शकीला की सफ़ेद बनियान के साथ टकराईं. वो कई बार शकीला बीबी को ऐसी बनियानों में देख चुका था मगर आज उसे एक क़िस्म की झिझक महसूस हुई. इस ने अपनी निगाहों का रुख़ दूसरी तरफ़ फेर लिया. और घबराहट में कहा. “कैसा गज़ बीबी जी?”
शकीला ने जवाब दिया. “कपड़े का ग़ज़… एक गज़ तो ये तुम्हारे सामने पड़ा है ये लोहे का है. एक दूसरा गज़ भी होता है जो कपड़े का बना होता है. जाओ छः नंबर में जाओ और दौड़ के उनसे ये गज़ ले आओ. कहना शकीला बीबी मांगती हैं.”
छः नंबर का फ़्लैट बिलकुल क़रीब था. मोमिन फ़ौरन ही कपड़े का ग़ज़ लेकर आगया. शकीला ने ये गज़ उस के हाथ से लिया और कहा. “यहीं ठहर जाओ. उसे अभी वापिस ले जाना.” फिर वो अपनी बहन रज़िया से मुख़ातब हुई. “इन लोगों की कोई चीज़ ज़्यादा देर अपने पास रख ली जाए तो वो बुढ़िया तक़ाज़े कर करके परेशान कर देती है… इधर आओ और ये गज़ लो और यहां से मेरा नाप लो.”
रज़िया ने शकीला की कमर और सीने का नाप लेना शुरू किया. तो उन के दरमयान कई बातें हुई. मोमिन दरवाज़े की दहलीज़ में खड़ा तकलीफ़देह ख़ामोशी से ये बातें सुनता रहा.
“रज़िया तुम गज़ को खींच कर नाप क्यों नहीं लेतीं… पिछली दफ़ा भी यही हुआ. तुमने नाप लिया और मेरे बिलाउज़ का सत्यानाश हो गया. ऊपर के हिस्सा पर अगर कपड़ा फ़िट ना आए तो इधर-उधर बग़लों में झोल पड़ जाते हैं.”
“कहां का लूं, कहां का ना लूं. तुम तो अजब मख़मसे में डाल देती हो. यहां का नाप लेना शुरू किया था तो तुम ने कहा ज़रा और नीचे कर लो… ज़रा छोटा बड़ा हो गया तो कौन-सी आफ़त आ जाएगी.”
“भई वाह… चीज़ के फ़िट होने में तो सारी ख़ूबसूरती है. सुरय्या को देखो कैसे फ़िट कपड़े पहनती है. मजाल है जो कहीं शिकन पड़े, कितने ख़ूबसूरत मालूम होते हैं ऐसे कपड़े… लो अब तुम नाप को…”
ये कह कर शकीला ने सांस के ज़रिए से अपना सीना फुलाना शुरू किया. जब अच्छी तरह फूल गया. तो सांस रोककर इसने घुट्टी घुट्टी आवाज़ में कहा. “लो अब जल्दी करो.”
जब शकीला ने सीने की हवा ख़ारिज की तो मोमिन को ऐसा महसूस हुआ. इसके अंदर के कई गुब्बारे फट गए हैं. इसने घबरा कर कहा. “गज़ लाईए बीबी जी… मैं दे आऊं.”
शकीला ने उसे झिड़क दिया. “ज़रा ठहर जाओ.”
ये कहते हुए कपड़े का ग़ज़ इसके नंगे बाज़ू से लिपट गया. जब शकीला ने उसे उतारने की कोशिश की तो मोमिन को सफ़ेद बग़ल में काले-काले बालों का एक गुच्छा नज़र आया. मोमिन की अपनी बग़लों में भी ऐसे ही बाल उग रहे थे. मगर ये गुच्छा उसे बहुत भला मालूम हुआ. एक सनसनी-सी इसके सारे बदन में दौड़ गई. एक अजीब-ओ-ग़रीब ख़्वाहिश उस के दिल में पैदा हुई. कि काले-काले बाल उस की मूंछें बन जाएं… बचपन में वो भुट्टों के काले और सुनहरे बाल निकाल कर अपनी मूंछें बनाया करता था. उन को अपने बालाई होंठ पर जमाते वक़्त जो उसे सरसराहट उसे महसूस हुआ करती थी. इसी क़िस्म की सरसराहट इस ख़्वाहिश ने उस के बालाई होंठ और नाक में पैदा कर दी.
शकीला का बाज़ू अब नीचे झुक गया था. और उसकी बग़ल छुप गई थी. मगर मोमिन अब भी काले-काले बालों का वो गुच्छा देख रहा था. इस के तसव्वुर में शकीला का बाज़ू देर तक वैसे ही उठा रहा. और बग़ल में इस के स्याह बाल झांकते रहे.
थोड़ी देर के बाद शकीला ने मोमिन को गज़ दे दिया और कहा. “जाओ, उसे वापस दे आओ. कहना बहुत बहुत शुक्रिया अदा किया है.”
मोमिन गज़ वापस दे कर बाहर सहन में बैठ गया. उस के दिल-ओ-दिमाग़ में धुंदले-धुंदले से ख़याल पैदा हो रहे थे. देर तक वो इन का मतलब समझने की कोशिश करता रहा. जब कुछ समझ में ना आया. तो उस ने ग़ैर इरादी तौर पर अपना छोटा-सा ट्रंक खोला जिसमें उसने ईद के लिए नए कपड़े बनवा कर रखे थे.
जब ट्रंक का ढकना खुला. और नए लट्ठे की बिलाउज़ उस की नाक तक पहुंची तो इस के दिल में ख़्वाहिश पैदा हुई कि नहा धोकर और ये नए कपड़े पहन कर वो सीधा शकीला बीबी के पास जाए और उसे सलाम करे… उसकी लट्ठे की शलवार किस तरह खड़ खड़ करेगी. और उस की रूमी टोपी…
रूमी टोपी का ख़याल आते ही मोमिन की निगाहों के सामने इस का फुंदना आ गया. और फुंदना फ़ौरन ही उन काले-काले बालों के गुच्छे में तबदील हो गया. जो उसने शकीला की बग़ल में देखा था. उस ने कपड़ों के नीचे से अपनी नई रूमी टोपी निकाली और उसके नर्म और लचकीले फुंदने पर हाथ फेरना शुरू ही किया था. कि अंदर से शकीला बीबी की आवाज़ आई. “मोमिन.”
मोमिन ने टोपी ट्रंक में रखी, ढकना बंद किया. और अन्दर चला गया. जहां शकीला नमूने के मुताबिक़ ऊदी साटन के कई टुकड़े काट चुकी थी. इन चमकीले और फिसल-फिसल जाने वाले टुकड़ों को एक जगह रख कर वो मोमिन की तरफ़ मुतवज्जा हुई. “मैंने तुम्हें इतनी आवाज़ें दीं. सो गए थे क्या?”
मोमिन की ज़बान में लुकनत पैदा हो गई. “नहीं बीबी जी.”
“तो क्या कर रहे थे?”
“कुछ… कुछ भी नहीं?”
“कुछ तो ज़रूर करते होगे” शकीला ये सवाल किए जा रही थी. मगर उस का ध्यान असल में बिलाउज़ की तरफ़ था. जिसे अब उसे कच्चा करना था.
मोमिन ने खिसियानी हंसी के साथ जवाब दिया. “ट्रंक खोल कर अपने नए कपड़े देख रहा था.”
शकीला खिखलाकर हंसी. रज़िया ने भी उसका साथ दिया.
शकीला को हंसते देख कर मोमिन को एक अजीब-सी तसकीन हुई. और इस तसकीन ने उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा की कि वो कोई ऐसी मज़हकाख़ेज़ तौर पर अहमक़ाना हरकत करे जिससे शकीला को और ज़्यादा हंसने का मौक़ा मिले. चुनांचे लड़कियों की तरह झेंप कर और लहजे में शर्माहट पैदा करके उसने कहा. “बड़ी बीबी जी से पैसे लेकर में रेशमी रुमाल भी लाऊंगा.”
शकीला ने हंसते हुए इस से पूछा. “क्या करोगे इस रुमाल को?”
मोमिन ने झेंप कर जवाब दिया. “गले में बांध लूंगा बीबी जी… बड़ा अच्छा मालूम होगा.”
ये सुन कर शकीला और रज़िया दोनों देर तक हंसती रहीं.
“गले में बांधोगे तो याद रखना मैं उसी से फांसी दे दूंगी तुम्हें.” ये कह कर शकीला ने अपनी हंसी दबाने की कोशिश की. और रज़िया से कहा “कम्बख़्त ने मुझे काम ही भुला दिया. रज़िया मैंने इसे क्यों बुलाया था?”
रज़िया ने जवाब ना दिया. और वो नई फ़िल्मी तर्ज़ गुनगुनाना शुरू की जो वो दो रोज़ से सीख रही थी. इस दौरान में शकीला को ख़ुद ही याद आ गया. कि इस ने मोमिन को क्यों बुलाया था. “देखो मोमिन. मैं तुम्हें ये बनियान उतार कर देती हूं. दवाइयों की दुकान के पास जो एक दुकान नई खुली है ना, वही जहां तुम उस दिन मेरे साथ गए थे. वहां जाओ और पूछ के आओ कि ऐसी छः बनियानों का वो क्या लेगा… कहना हम पूरी छः लेंगे. इस लिए कुछ रियायत ज़रूर करे… समझ लिया ना?”
मोमिन ने जवाब दिया. “जी हां.”
“अब तुम परे हट जाओ.”
मोमिन बाहर निकल कर दरवाज़े की ओट में हो गया. चंद लम्हात के बाद बनियान इसके क़दमों के पास आकर गिरा और अंदर से शकीला की आवाज़ आई. “कहना हम इसी क़िस्म, इसी डिज़ाइन की बिलकुल यही चीज़ लेंगे. फ़र्क़ नहीं होना चाहिए.”
मोमिन ने “बहुत अच्छा” कह कर बनियान उठा लिया. जो पसीने के बाइस कुछ-कुछ गीला हो रहा था. जैसे किसी ने भाप पर रख कर फ़ौरन ही हटा लिया हो. बदन की बिलाउज़ भी उस में बसी हुई थी. मीठी-मीठी गर्मी भी थी. ये तमाम चीज़ें उस को बहुत भली मालूम हुईं.
वो इस बनियान को जो बिल्ली के बच्चे की तरह मुलायम था. अपने हाथों में मसलता बाहर चला गया. जब भाव-वाव दरयाफ़्त करके बाज़ार से वापिस आया तो शकीला बिलाउज़ की सिलाई शुरू कर चुकी थी. इस स्याही माइल साटन के बिलाउज़ की जो मोमिन की रूमी टोपी के फुंदने से कहीं ज़्यादा चमकीली और लचकदार थी.
ये बिलाउज़ शायद ईद के लिए तैयार किया जा रहा था. क्योंकि ईद अब बिलकुल क़रीब आ गई थी. मोमिन को एक दिन में कई बार बुलाया गया. धागा लाने के लिए, इस्त्री निकालने के लिए. सूई टूटी तो नई सूई लाने के लिए. शाम के क़रीब जब शकीला ने दूसरे रोज़ पर बाक़ी काम उठा दिया तो धागे के टुकड़े और ऊदी साटन की बेकार कुतरें उठाने के लिए भी उसे बुलाया गया. मोमिन ने अच्छी तरह जगह साफ़ कर दी. बाक़ी सब चीज़ें उठा कर बाहर फेंक दीं. मगर ऊदी साटन की चमकदार कुतरें अपनी जेब में रख लीं… बिलकुल बेमतलब क्योंकि उसे मालूम नहीं था कि वो उन को क्या करेगा?
दूसरे रोज़ उस ने जेब से कुतरें निकालीं और अलग बैठ कर उन के धागे अलग करने शुरू कर दिए. देर तक वो इस खेल में मशग़ूल रहा. धागे के छोटे-बड़े टुकड़ों का एक गुच्छा-सा बन गया उसको हाथ में लेकर वो दबाता रहा, मसलता रहा… लेकिन उसके तसव्वुर में शकीला की वही बग़ल थी. जिसमें उसने काले-काले बालों का छोटा-सा गुच्छा देखा था.
उस दिन भी उसे शकीला ने उसे कई बार बुलाया… काली साटन के बिलाउज़ की हर शक्ल उसकी निगाहों के सामने आती रही. पहले जब उसे कच्चा किया गया था तो इस पर सफ़ेद धागे के बड़े-बड़े टांके जा-ब-जा फैले हुए थे. फिर इस पर इस्त्री की गई. जिससे सब शिकनें दूर हो गईं. और चमक भी दो बाला हो गई. इसके बाद कच्ची हालत ही में शकीला ने उसे पहना रज़िया को दिखाया. दूसरे कमरे में सिन्घार मेज़ के पास जाकर आईने में ख़ुद उस को हर पहलू से अच्छी तरह देखा. जब पूरा इत्मिनान हो गया तो उसे उतारा, जहां-जहां तंग या खुला था. वहां निशान बनाए, और उस की सारी खामियां दूर कीं. एक बार फिर पहन कर देखा. जब बिलकुल फिट हो गया तो पक्की सिलाई शुरू की.
उधर ऊदी साटन का ये बिलाउज़ सिया जा रहा था. उधर मोमिन के दिमाग़ में अजीब-ओ-ग़रीब ख़यालों के जैसे टांके से उधड़ रहे थे… जब उसे कमरे में बुलाया जाता और उस की निगाहें चमकीली साटन के बिलाउज़ पर पड़तीं तो इस का जी चाहता कि वो हाथ से छू कर उसे देखे. सिर्फ़ छू कर ही नहीं देखे… बल्कि उस की मुलाइम और रोईं दार सतह पर देर तक हाथ फेरता रहे… अपने खुरदरे हाथों से.
उसने इन साटन के टुकड़ों से उसकी मुलायमी का अंदाज़ा कर लिया था. धागे जो उसने इन टुकड़ों से निकाले थे और भी ज़्यादा मुलायम हो गए थे. जब उसने इनका गुच्छा बनाया था तो दबाते वक़्त उसे मालूम हुआ कि इनमें रबड़-सी लचक भी है… वो जब अंदर आकर बिलाउज़ को देखता इस का ख़याल फ़ौरन उन बालों की तरफ़ दौड़ जाता जो उस ने शकीला की बग़ल में देखे थे. काले-काले बाल मोमिन सोचता था. क्या वो भी इस साटन ही की तरह मुलायम होंगे.
बिलाउज़ बिलआख़िर तैयार हो गया… मोमिन कमरे के फ़र्श पर गीला कपड़ा फेर रहा था कि शकीला अंदर आई. क़मीज़ उतारकर उसने पलंग पर रखी. इसके नीचे उसी क़िस्म का सफ़ेद बनियान था. जिसका नमूना लेकर मोमिन भाव दरयाफ़्त करने गया था… इसके ऊपर शकीला ने अपने हाथ का सिला हुआ बिलाउज़ पहना. सामने के हुक लगाए और आईने के सामने खड़ी हो गई.
मोमिन ने फ़र्श साफ़ करते करते आईना की तरफ़ देखा. बिलाउज़ में अब जान सी पड़ गई थी… एक-दो जगह पर वो इस क़दर चमकता था कि मालूम होता था साटन का रंग सफ़ेद हो गया है… शकीला की पीठ मोमिन की तरफ़ थी. जिस पर रीढ़ की हड्डी की लंबी झुर्री. बिलाउज़ फ़िट होने के बाइस अपनी पूरी गहराई के साथ नुमायां थी. मोमिन से न रहा गया. चुनांचे उस ने कहा. “बीबी जी. आपने तो दर्ज़ियों को भी मात कर दिया!”
शकीला अपनी तारीफ़ सुन कर ख़ुश हुई. मगर वो रज़िया की राय तलब करने के लिए बेक़रार थी. इसलिए वो सिर्फ़ अच्छा सिला है न? कह कर बाहर दौड़ गई… मोमिन आईने की तरफ़ देखता रह गया जिसमें बिलाउज़ का स्याह और चमकीला अक्स देर तक मौजूद रहा.
रात को जब वो फिर इस कमरे में सुराही रखने के लिए आया. तो इस ने खूंटी पर लकड़ी के हैंगर में उस बिलाउज़ को देखा. कमरे में कोई मौजूद नहीं था. चुनांचे आगे बढ़कर पहले उस ने ग़ौर से देखा. फिर डरते-डरते उस पर हाथ फेरा. ऐसा करते हुए उसे ये महसूस हुआ. कि कोई उस के जिस्म के मुलायम रोईं पर हौले-हौले बिलकुल हवाई लम्स की तरह हाथ फेर रहा है.
रात को जब वो सोया तो उसने कई ऊट पटांग ख़्वाब देखे… डिप्टी साहब ने पत्थर के कोयलों का एक बड़ा ढेर उसे कूटने को कहा. जब उस ने एक कोयला उठाया और उस पर हथौड़े की एक ज़र्ब लगाई तो वो नर्म-नर्म बालों का एक गुच्छा बन गया… ये काली खांड के महीन-महीन तार थे. जिन का गोला बना हुआ था… फिर ये गोले काले रंग के गुब्बारे बन कर हवा में उड़ना शुरू हुए… बहुत ऊपर जाकर ये फटने लगे… फिर आंधी आ गई और मोमिन की रूमी टोपी का फुंदना कहीं ग़ायब हो गया… फुंदने की तलाश में वो निकला… देखी और अनदेखी जगहों में घूमता रहा… नए लट्ठे की बिलाउज़ भी कहीं से आना शुरू हुई. फिर न जाने क्या हुआ. एक काली साटन के बिलाउज़ पर इस का हाथ पड़ा… कुछ देर वो इस धड़कती हुई चीज़ पर हाथ फेरता रहा. फिर दफ़अतन हड़बड़ा के उठ बैठा. थोड़ी देर तक वो कुछ न समझ सका कि क्या हो गया है. इस के बाद उसे ख़ौफ़, तअज्जुब और एक अनोखी टीस का एहसास हुआ. उसकी हालत उस वक़्त अजीब-ओ-ग़रीब थी… पहले उसे तकलीफ़देह हरारत महसूस हुई थी. मगर चंद लमहात के बाद एक ठंडी-सी लहर इसके जिस्म पर रेंगने लगी.

Illustration: Pinterest

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