चिड़ियाघर के जानवरों को हमने अपने मनोरंजन और ज्ञानवर्धन का साधन बना रखा है. दुनियाभर के जानवरों को पकड़कर चिड़ियाघर लाने के लिए क्या-क्या जतन किए जाते हैं, जानकर आपका दिल ही टूट जाएगा.
रमा ने तिनककर कहा,“हां, और तुम्हें क्या सूझेगा! कॉलेज से छुट्टी हुई, आए फैलकर पड़ रहे. न हुई छुट्टी, तो शाम को सिनेमा जाकर ऊंघ लिया. फिर जब मैं कह दूंगी कि मर्द तो शादी इसीलिए करते हैं कि रसोइया-कहारिन को तनख़्वाह न देनी पड़े, तो कहेंगे अन्याय करती हो. मैं कहती हूं, राजे क्या रोज़-रोज़ मरते हैं. आज सोचा कि छुट्टी हुई है, तो चलो, कहीं घूम आएं, लेकिन इन्हें क्या घूमने से-वह भी मेरे साथ! ये तो लेट के हुक्का गुड़गुड़ाएंगे. हां, होती कोई मेम साहब…”
मैंने बात ख़त्म करने के लिए कहा,“अच्छा, भाई, चले चलते हैं. लेकिन तुम कपड़े तो पहनो, मैं भी जरा पांच मिनट सिगार पी लूं.”
सिगार के नाम से रमा फिर भड़क उठी, लेकिन मैंने उसके कुछ कहने से पहले ही जोड़ दिया,“वह पीली साड़ी पहनना-काले किनारेवाली-तुम तो कभी अच्छा कपड़े पहनती ही नहीं अब…”
रमा ने भीतर-भीतर पिघलकर, लेकिन बाहर से और कठोर बनकर कहा,“तुम ला के भी दो कभी कुछ!” और चली गई. मैंने सन्तोष की एक लम्बी सांस ली और आरामकुर्सी पर टांग फैला कर लेट गया.
बात यह थी कि उस दिन अपने राजा साहब के ससुर-के राजा की मृत्यु के कारण कॉलेज बन्द हो गया था और मैं लौट आया था. मन में आया, घर चल कर पड़े-पड़े ऊंघा जाए. ऐसा मौक़ा भी कब मिलता है. इतवार को छुट्टी होती है, तो पढ़ाई के नोट रगड़ते-रगड़ते नष्ट हो जाती है. लेकिन श्रीमती को यह कब मंजूर? उनका आग्रह हमेशा यही रहता है, चलो, घूमने चलें. सुबह हो, शाम हो, दुपहर हो, गर्मी हो, बारिश हो, उन्हें एक ही धुन रहती है-घूमने चलो. और घूमने भी कहां? बाग नहीं, नदी पर नहीं; शहर में नहीं-चलो चिड़ियाघर! लड़ने लगेगी, तो बप्पा रावल भी सामना नहीं कर सकेंगे, लेकिन ‘टेस्ट’ बिलकुल बच्चों का-सा! मुझे चिड़ियाघर के नाम से चिढ़ है. आज तक कभी राम की बात मानी नहीं है मैंने, सो इसीलिए. चिड़ियाघर भी कोई देखने की चीज़ है? दुर्गन्ध से नाक सड़ती है.
आज भी मुझे उम्मीद थी, वह कहेगी, चलो चिड़ियाघर देखे आएं. उसने नहीं कहा. तभी मैंने घूमने चलना स्वीकार कर लिया, यद्यपि मुझे निश्चय नहीं था कि अब भी रास्ते में नहीं कह बैठेगी कि चलो इधर चलें और हाथ पकड़ कर घसीट न ले चलेगी!
मैं आरामकुर्सी में पड़ा सिगार के कश खींचने लगा. सिगार बढ़िया थे-यद्यपि अब की बार रमा खरीद कर लाई थी-इस महीने से घर का ख़र्च चलाने का जिम्मा उसने लिया था और शर्त थी कि मुझसे अच्छा चलाएगी और किफ़ायत से.
मैं ऊंघने लगा. रमा से हारना भी कुछ मीठा-मीठा-सा लगने लगा.
रमा ने आकर कहा,“चलो, चलो, चलो…”
मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा.
“कहां चलें?”
“चिड़ियाघर, और कहां. जाने कब से कह रही हूं.” कहकर रमा मेरी ओर देखकर मुस्कराई. हौआ ने जब आदम को वह वर्जित फल खाने को कहा होगा, तब वह भी ऐसे मुस्कराई होगी-और हौआ के पास वह काले बार्डरवाली पीली साड़ी भी नहीं थी…
मैंने एक लम्बी सांस लेकर कहा,“चलो!”
बाहर बादल छाये थे. हवा चल रही थी. मौसम अच्छा था. हम लोग तांगे में बैठकर चिड़ियाघर पहुंचे. रमा ने बटुआ खोलकर चार आने की मूंगफली और चने लिए और बोली,“जानवरों को खिलाएंगे.”
मैं मुस्करा दिया और आगे बढ़ा.
“इधर नहीं, बाबू, इधर!” मेरे कन्धे के बिलकुल पास किसी ने कहा. मैंने घूमकर देखा,“एक दढ़ियल बुड्ढा खाकी कपड़े पहने खड़ा था और मुझे कह रहा था,“इधर नहीं बाबू, इधर!”
मैंने पूछा,‘‘तुम कौन हो?”
“मैं गाइड हूं. मेरे साथ आइए, मैं दिखाऊंगा.” और वह आगे चल पड़ा. हम भी कुछ अनिच्छा से पीछे हो लिए-मैं चाहता था कि मेरे साथ सिर्फ रमा ही हो…
मैंने कहा,“चिड़ियाघर में गाइड? आज तक तो सुना नहीं-”
उसने बात काट कर कहा,“मैं चिड़ियाघर की एक-एक बात जानता हूं. आपको वह हाल सुनाऊंगा कि फिर कभी चिड़ियाघर देखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी.” कहकर उसने बड़ी तीखी दृष्टि से रमा की ओर देखकर मुस्करा दिया.
मैंने मन-ही-मन हंसकर कहा, ‘बुड्ढा बड़ा घाघ है.’
और उसने मानो मेरे विचार पढ़ कर स्वर मिलाकर कहा,“हां, समझ लीजिए कि मैं चिड़ियाघर की आत्मा हूं.”
बन्दर
“ये आप कहते हैं?”
दो कठघरों में बन्दर बन्द थे. पांच-छः तरह के एक में, वहीं पांच-छः के दूसरे में. कुछ नीचे रेत में, कुछ बीच में गड़ी हुई पानी की नांद के किनारे, और कुछ दोनों कठघरों के बीच जंगले से सट कर बैठे थे. अधिकांश ऊपर आकाश की ओर देख रहे थे.
रमा ने मूंगफली फेंकी. दो-एक ने सुस्त चाल से आकर उठाईं, तब मैंने देखा कि अधिकांश बन्दरों के शरीर पर खुजली हो रही है, कइयों के बाल झड़ रहे हैं, और कुछ ने बदन छील-छील कर घाव कर लिए हैं. एकाएक ग्लानि से भरकर मैंने कहा,“चलो, चलें!”
गाइड ने कहा,“देख लिया आपने? अब मैं दिखाऊं. आपने पहचाना, दो कठघरों के बन्दरों में कुछ फ़र्क है? एक में नर हैं, एक में मादा. ये हिमालय के बन्दर हैं, यहां की गर्मी में इनका रहना मुश्क़िल है. लेकिन ज्ञान के लिए वह कष्ट ज़रूरी है. आदमी के ज्ञान के लिए जानवरों का सुख क्या चीज़ है? यहां सबको खुजली हो गई; और जो बच्चे पैदा हुए, वे और भी रोगी हुए. रेत में पड़े वे शून्य आंखों से बाहर देखा करते थे उस पीपल की छांह की ओर. उनके शरीर से निकली हुई पीब से यह जगह सड़ रही थी. एक दिन राजा साहब आए, उन्हें चिड़ियाघर के साहब ने कहा कि इन बच्चों को गोली मार देनी चाहिए. लेकिन राजा साहब को यह हिंसा नहीं जंची, उन्होंने व्यवस्था की कि अब इनके बच्चे नहीं होने दिए जाएं, और हर साल दो नए बन्दर ख़रीद कर यहां रखे जाएं ताकि प्रदर्शन ठीक रहे तभी से नर और मादा अलग कठघरों में रखे जाते हैं. देखिए…”
मैं स्थिर दृष्टि से बन्दरों की ओर देख रहा था. जो बीच के जंगले के पास बैठे थे, उनकी निश्चेष्टता, मूंगफली के प्रति उनकी उपेक्षा, एक बड़ी भारी और बड़ी भयंकर बात बनकर मेरे मन में समा रही थी…
रमा ने मेरी कोहनी पकड़ कर कहा,“आगे चलो!”
एकाएक जी चाह उठा, रमा के उस स्पर्श को कोहनी के दबाव में बांध लूं, अलग न होने दूं, और वहां से भाग जाऊं… मैंने कहा… ‘‘चलो, चलो!” पर मुग्ध दृष्टि बन्दरों से नहीं हटी, जब तक कि बुड्ढे ने नहीं कहा,“अभी बहुत देखना है आपको!”
हाथी
रमा बोली,“अरे, चिड़ियाघर में हाथी भी रखा है.”
मैंने कहा,“हां, इधर हाथी भी एक अजीब चीज़ है न…”
गाइड बीच में बात काट कर कहने लगा,“यह हाथी हाथियों में भी अजीब है. इसका एक इतिहास है. यह पहले राजा साहब के निजी पीलखाने का सबसे तगड़ा हाथी था. साल में दो बार दंगल होता था, तब राजा साहब इसे लड़ाया करते थे. बाहर भी लड़ने भेजते थे. लेकिन बहुत ज़्यादा लड़ने से खोपड़ी पर ज़ोर पड़ा और दोनों आंखें अन्धी हो गईं, तब राजा साहब ने पांस सौ रुपये में स्टेट को बेच दिया और चिड़ियाघर में रख दिया. अब इसके हिलते हुए सिर लटके हुए दात और झुर्रियां-पड़े शरीर को देखकर आप अन्दाजा भी नहीं लगा सकते कि यह कैसा यमदूत रहा होगा; लेकिन देखिए…” कहकर उसने हाथी के पेट के पास लटकती हुई चमड़ी को पड़ककर कहा,“यह देखिए, फुट-फुट-भर लटक रही है अब! इसमें अगर मांस और पुट्ठे होते, तब…”
मैंने समर्थन करते हुए कहा,“हां, वाक़ई, है हाथी ही.”
“अब इसे चौथाई खुराक पर रखा गया है. ख़र्च बहुत होता है न! साहब ने इसे भी गोली मरवा देने की राय दी थी, और राजा साहब ने पुछवाया भी था कि दांत और हड्डी बेचकर क्या आमदनी होगी. लेकिन मालूम हुआ कि कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होगा, और यह भी कहा गया कि यह राजा साहब की शान के खिलाफ़ होगा. लोग कहेंगे कि सारी उम्र तो बेचारे को लड़वाते रहे और बूढ़ा हो गया तो थोड़े-से चारे के लोभ में गोली मरवा दी. इन दोनों बातों पर ध्यान रखकर राजा साहब ने धर्म का विचार करके यह तजवीज़ नामंजूर कर दी.”
रमा ने मुट्ठी-भर मूंगफली बढ़ायी. हाथी शायद गन्ध से पहचान गया कि खाने को कुछ दिया जा रहा है, लेकिन सूंड़ से टटोलकर भी नहीं पहुंच सका. तब एकाएक उसने सूंड़ लटका दी और वह बहती हुई कीचड़वाली आंखें शून्य पर जमाकर रह गया, मानो कह रहा हो-भूखे तो मरना है; तब खाई तो क्या, न खाई तो क्या…
मेरे मन में अपने पूर्ववर्ती प्रोफ़ेसर डॉक्टर कृष्ण का चित्र घूम गया, जो बीमार हो जाने के कारण छुट्टी न पा सके थे और डिसमिस कर दिए गये थे… वह भी ऐसा ही बांका जवान था, लेकिन जब उसने मुझे कहा था,“मेरा कुछ भरोसा नहीं है, बीमे की रक़म वसूल करने में उसकी (स्त्री की) मदद करना, रियासत की कम्पनी है…” और चुप होकर मेरी ओर देख दिया था, तब…
मैंने रमा से कहा,“तुमने क्या हाथी भी नहीं देखा?” और बांह पकड़कर आगे खींच ले चला.
तोते
गाइड बोला,“पहले इधर.”
मैंने कहा,“दिखाने का कुछ तरीक़ा भी है? हाथी के बाद तोते…”
वह बोला,“मेरा तरीक़ा आप अभी नहीं समझते. मैं किताबी कीड़ा तो हूं नहीं. मैं आपको चिड़ियाघर के जानवर नहीं, उसकी आत्मा दिखा रहा हूं. उस आत्मा का विकास ही आप मेरी कहानी में पाएंगे.”
बुड्ढे में कुछ अजीब प्रभावशीलता थी. हम पीछे हो लिए.
तोते ऊंघ रहे थे. गाइड ने चुटकी बजाकर उन्हें जगाया, रमा बुलाने लगी,“मिट्ठू, मियां मिट्ठू!”
तोते रमा की तरफ़ देखते रहे. रमा ने दाने भीतर डाल दिए, पर तोते वहीं बैठे रहे; एक ने चिड़चिड़े-से स्वर में कहा,“टेऊं!” मानो यह जतला रहा हो कि तुम अपना काम कर चुके, अब जाओ, खा लेंगे!”
गाइड बोला,“ये तोते अब प्रातःकाल या सायंकाल को ही बोलते हैं. जब पहले-पहल ये चिड़ियाघर के लिए ख़रीदे गये तब ख़ूब बोलते थे. लेकिन ख़रीद कर भीतर रखे जाते ही वे चुप हो गए, हिलाने-डुलाने, बुलाने-पुचकारने और भूखे रहने तक का कोई असर नहीं हुआ; तब राजा साहब ने उस सौदागर को बुलाया जिससे तोते खरीदे गये थे और जवाब तलब किया. सौदागर ने जगह देख-भाल-कर निवेदन किया, “हुजूर, ये तोते जंगलों के रहनेवाले हैं. आकाश के डकैत हैं; इसीलिए इनका सुख-दुख, गाना-रोना सब आज़ादी के ही आसरे है. यहां इन्हें उसकी झलक भी नहीं मिलती. आप इनके रहने के लिए ऐसी जगह बनवाइए जहां सामने दीवार न हो, आगे खुला नज़ारा हो, ये सूर्योदय भी देख सकें और सूर्यास्त भी; उस आज़ादी से इनका नाता न टूटे जो इनका जीवन है.” राजा साहब को बात जंची तो नहीं, लेकिन तोते सुन्दर थे, और चार सौ रुपये में ख़रीदे गये थे, इसलिए सौदागर के कहे अनुसार इमारत खड़ी कर दी गई. जब तोते उसमें रख दिए गए, तब एक दिन राजा साहब उस सौदागर को लेकर सवेरे-सवेरे देखने आए. रास्ते में राजा कहते आए कि सिर्फ रहने की जगह तैयार करने में हज़ार से अधिक रुपया खर्च हो गया है… खैर. उन्होंने पहुंचकर देखा, सूर्य की पहली किरण के पड़ते ही तोते सजग हो उठे हैं, आगे की ओर लटककर गर्दन झुकाकर, अपनी गोल-गोल स्थिर आंखों से पूर्व की लाली को मानो व्याकुल उत्कंठा से पी रहे हैं, उससे कुछ स्फूर्ति पा रहे हैं, जिससे उसके डैने फड़फड़ा तो नहीं ज़रा-से उठ-उठकर कांप रहे हैं, सारा बदन कांप रहा है; एकाएक वे भरे स्वर में भरे हुए दिल से चीत्कार कर उठे-कुछ मिनटों के लिए कोलाहल-सा मच गया… फिर सूर्य पूरा निकल आया और तोते धीरे-धीरे चुप हो गये, केवल कभी-कभी कोई एक मानो भूली-सी याद लेकर पुकार उठता,‘टीं!’
राजा साहब ख़ुश होकर बोले,“बोलते तो हैं.”
“सौदागर ने बांछें कुछ खिलाकर कहा,“राजा साहब, मेरे तोतों की एक आवाज़ हज़ार रुपए है!”
तनिक चुप रहकर गाइड फिर बोला,“इस हिसाब से ये तोते अब तक करोड़ों रुपए कमा चुके हैं.”
मैंने कहा,“तरकीब तो अच्छी रही-”
“अच्छी? अजी साहब, ग़ज़ब की रही तरकीब! आप देखें, यह कहां-कहां लागू नहीं होती? आप दिन-भर कॉलेज में लेक्चर झाड़ते हैं, सो क्या आपका धर्म है? आपको भी दूर कहीं पर दिखता है-पेन्शन, एक अपना घर, बगिया में धनिया-पुदीना की अपनी खेती, वग़ैरह-वग़ैरह-इसी आसरे तो…”
मैंने कहा,“रहने दो अपना दर्शन, हमें चिड़ियाघर देखना है.”
उसने ज़रा भी अप्रतिभ हुए बग़ैर कहा,“यह चिड़ियाघर नहीं तो और क्या है. और आप उनसे पूछकर देखें…” उसने रमा की ओर इशारा किया,“ये रोटी पकाती हैं, घर संभालती हैं, शायद हारमोनियम बजाती हैं, सो सब किसलिए? इनके हृदय में भी कोई स्वप्न है या-”
रमा ने अनावश्यक क्रोध से भरकर कहा,“चुप रहो तुम!” लेकिन मैंने देखा, उसकी आंखों में कुछ घना-सा घिर आया है, जिसे मैं नहीं समझता.
शेर
रमा की फटकार का शायद उस पर कुछ असर हुआ. तभी जब हम शेर के कठघरे पर पहुंचे, तब उसने धीरे से कहा,“वह देखिए,’’ और कठघरे के सींखचे से लगे हुए बोर्ड की ओर हमारा ध्यान खींचा.
हमने पढ़ा,“यह शेर राजा साहब ने चिड़ियाघर के लिए भेंट किया था. गुजरात के जंगलों में यह राजा साहब के पुरुषार्थ से ही पकड़ा गया था.”
हमने शेर को देख लिया वह रेत में गड्ढा-सा खोदकर, उसमें बसी हुई नमी की शीतलता पकड़ने के लिए उससे ठोड़ी सटाए हांफ रहा था, उसकी अधखुली आंखें करुणा से हम लोगों की ओर देख रही थीं, मानो कह रही थीं, मैं भी क़ैद में हूं, नहीं तुम लोग ही क्या चीज़… और देखकर हम लोग आगे बढ़ने लगे.
गाइड ने कहा,“राजा साहब के पुरुषार्थ की कहानी है, शायद आपको दिलचस्पी हो.” उसका स्वर ऐसा निरीह था, मानो जोड़ रहा हो,‘स्वयं मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है.’ हम कहानी को ललच गए. मैंने कहा,“कहो.”
“राजा साहब के यहां अक्सर विदेशी शिकारी आते रहते हैं, और विदेशी होने के नाते यह ज़रूरी हो जाता है कि साहब उनके ओहदे के मुताबिक़ एक या दो शेर मरवाएं. इसलिए अब शेर बहुत थोड़े हो गए हैं. लेकिन दशहरे के दिनों राजा साहब को एक शेर मारना ज़रूरी होता है, क्योंकि परम्परा चली आई है. उसी की कच्ची खाल पर खड़े होकर राजा साहब दरबार से मुजरा लेते हैं. तो इस बार भी तैयारी हुई. मचान बंधे, और शिकारपार्टी चली. लेकिन बहुत खोजने ओर हो-हल्ला करने पर भी शेर नहीं मिला. केवल एक बुड्ढे ने यह ख़बर दी कि जंगल में एक ताल के पास शेरनी ने बच्चे दिए हैं, और उनके साथ मांद में पड़ी रहती है. तब नया मचान बंधा, नए सिरे से शोर मचाया गया कि शेरनी बाहर निकले. लेकिन वह नहीं निकली. आखिर राजा साहब ने अपने दौ नौजवान शिकारियों को हुक्म दिया कि वे मांद के पास जाएं और शेरनी को भड़काएं. उन्हें आत्मरक्षा के लिए बन्दूकें दे दी गईं, और कड़ा हुक्म दिया गया कि शेरनी पर फ़ायर न करें, उसे राजा साहब के लिए ही आने दें. वे मांद के पास गए और कुछ दूर से उन्होंने बड़ा-सा पत्थर मांद की ओर लुढ़काया. शेरनी तड़पकर बाहर निकली, तब शिकारी भागे. एक तो निकल गया, लेकिन दूसरे पर शेरनी का पंजा पड़ा, और वह गिर गया. बन्दूक अभी उसके हाथ में थी, और शायद वह गोली चला भी सकता, लेकिन राजा साहब की आज्ञा नहीं थी! राजा साहब ने तीन-चार फ़ायर किए, शेरनी मर गई. घायल शिकारी को उठा ले गए, राजा साहब ने अपने निजी डॉक्टर से उसका इलाज कराया, लेकिन वह सातवें दिन मर गया!”
मैंने कहा,“लेकिन यह शेर इसकी तो बात ही नहीं हुई-”
“हां, शेरनी के दो बच्चे पकड़ लिए गए. राजा साहब ने खुद मांद में घुसकर पकड़वाए उनमें से एक शेर है जो आप देखते हैं.”
हम आगे बढ़ गए.
ऊदबिलाव
“यह ठंडे देशों का जानवर है, इनसे यहां की गर्मी सही नहीं जाती, इसीलिए पहले इसके लिए खासतौर से कुएं का ठंडा पानी लाया जाता था, लेकिन अब वह बन्द कर दिया गया है. तभी देखिए वह पानी के बाहर बैठकर हांफ रहा है, शायद हवा के झोंके से बदन कुछ ठंडा हो.”
मैंने कहा,‘उसके पैर में क्या हुआ है?” पैर से रक्त बह रहा था.
रमा बोली,“यही है न जो हौज में से पैसे निकाल लाता है?”
गाइड ने कहा, हां, आप दोनों के प्रश्नों का एक ही उत्तर है, मैं अभी कहता हूं. ठहरिए, पैसा मत डालिए…”
रमा रुक गई. गाइड कहने लगा,“जब से यह यहां आया, तभी से यह पैसा निकालनेवाला खेल शुरू हो गया. ऊदबिलाव तो पानी का जानवर है, मच्छी-मेंढक खाता है; लेकिन यहां उसे छीछड़े दिए जाते थे, और उन्हीं के पीछे वह पानी में भागता था. लोग पैसे फेंकते तो खाद्य समझकर वह उन पर भी झपटता, लेकिन निराश होकर उन्हें किनारे पर ला रखता, सब लोग अपने पैसे उठा लेते. इसी तरह वह सध भी गया. पिछले साल गर्मियों में कुछ लोग देखने आए. तब भी यह ऐसे ही गर्मी से घबराया हुआ पड़ा था, जैसा अब है-तब ठंडे पानी का इन्तज़ाम नया-नया बन्द हुआ था. देखनेवालों में एक लड़के ने चवन्नी फेंकी, वह कांपती हुई डूब गई. ऊदबिलाव ने इधर देखा नहीं, न अपनी जगह से हिला. लड़का रोने लगा. बाप ने पूछा, क्या है? चवन्नी की बात सुनकर उसे भी फिक्र हुई और वह अपनी छड़ी से ऊदबिलाव को उठाने लगा. थोड़ी देर तो ऊदबिलाव ने इसकी उपेक्षा की, लेकिन जब उसने देखा कि उपेक्षा से छुटकारा नहीं मिलता है, तब क्रुद्ध होकर फुफकारने और दांत दिखाने लगा. लड़के के पिता तो हताश हो रहे थे, पर चचा भी साथ थे; वे बम्बई की एक मील के मैनेजर थे और काम निकालना जानते थे. बोले,“मैं देखता हूं, कैसे नहीं लाता.” उन्होंने जेब से चाकू निकालकर छड़ी के आगे बांधा और उसे ऊदबिलाव के चुभाने लगे. ऊदबिलाव झपटा, तो चाकू उसके पैर में लगा, उसने और भी क्रोधान्ध होकर वार किया, तब एक आंख में भी चाकू लगा. तब उसने पराजित होकर डुबकी लगायी और चवन्नी बाहर ला रखी. तभी से पैर का ज़ख्म ठीक नहीं होता है-जब कभी वह पानी में जाता है, तो ख़ून की एक लकीर खिंच जाती है. और आंख का ज़ख्म तो गन्दा हो गया था, उससे आंख ही नष्ट हो गई. आप जानते हैं कि गर्म देशों में ज़ख्म कितनी जल्दी ख़राब होता है-”
मैंने कहा,“आंख गई बेचारे की? किसी ने…”
“जी हां, आप उसे जगाएं तो दिख जाएगी; अभी दिखती है न.”
रमा ने इकन्नी निकाली थी, वह वापस पर्स में डाल ली, और चुपकी-सी खड़ी रही. गाइड बोला,“नहीं, आप इकन्नी की फि़क्र न करें, वह ले आएगा. उजड्ड आदमी भी सबक सीखकर सीधा हो जाता है, यह तो बेचारे बेबस जानवर हैं. यही वे मिल-मैनेजर कहते थे.”
मैं जानता था कि रमा ने इकन्नी क्यों वापस रख ली, लेकिन गाइड के ग़लत समझने से मुझे क्रोध नहीं हुआ. रमा मुझे चिड़ियाघर घसीटकर लाई है, चखे मज़ा! अब कभी आने का नाम नहीं लेगी.
बाघ के बच्चे
हमने बोर्ड की ओर देखकर पढ़ा,“पुत्र के जन्म की ख़ुशी में नवाब-की ओर से दान.”
रमा ने कहा,“कैसे सुन्दर बच्चे हैं! खेलने को जी चाहता है.”
गाइड ने कहा,“बच्चे कैसे इतने सुन्दर होते हैं, यही एक ताज्जुब की बात है.
‘‘शायद पीड़ा से जो चीज़ पैदा होती है, वह सुन्दर ही होती है, नहीं तो…’’ एकाएक मेरी ओर देखकर वह रुक गया और बोला,“अच्छा लीजिए, नहीं कहता. आप, मालूम होता है, दर्शन-शास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं, तभी दर्शन से चिढ़ते हैं. खैर, मैं अपना काम करूं, कहानी ही कहूं. सुनिए. जिस रात नवाबज़ादे का जन्म हुआ, उस रात नवाब साहब ने भारी उत्सव किया. शराब में मस्त होकर जब वे बैठने के नाक़ाबिल हो गए, तब भीतर महलों की ओर चले शयनागार के बाहर एक बांदी खड़ी थी, उससे उन्होंने कुछ भद्दा मज़ाक़ किया. वह बोली कुछ नहीं, बोलना, ज़रूरी नहीं था; लेकिन उसने वह मुस्कान की अदा नहीं की, जो पाने का हक़ नवाब के मज़ाक़ को है. नवाब साहब बिगड़ उठे और बांदी को भीतर खींच ले गए, वहां उससे छेड़छाड़ करने लगे. उसने बहुत अनुनय-विनय की, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ. वह गर्भवती थी, और अन्त में उसने अपने अजात बच्चे के नाम पर नवाब से दया मांगी. लेकिन नवाब आपे में नहीं थे, उन्होंने उसके पेट में लात मारी. बांदी लड़खड़ाकर बैठ गई, पीड़ा और एक असह्य आशंका से उसका चेहरा स्याह पड़ गया, तब उसने फुफकार मारकर कहा,“नवाब साहब, याद रखिए, मां बाघिन होती है!…” नवाब साहब ने अट्टहास करके कहा,“नवाब क्या बाघिन से डरता है?” पर बांदी को बाहर निकलवा दिया. अगले दिन जब बांदी क्षमा न मांगने पर जेल भेजी गई, तब नवाब साहब को सूझा कि गाभिन बाघिन का शिकार करना चाहिए. शिकार का प्रबन्ध हुआ, और एक बाघिन मारी गई. गोली लगने पर जब वह छटपटाने लगी तब इन तीन बच्चों का प्रसव हुआ. असमय पैदा होने से, देखिए, इनकी खाल कितनी मुलायम ओर सुन्दर है. तभी मैं कहता हूं कि पीड़ा सौन्दर्य की मां है.”
रमा ने टोककर पूछा,“और बांदी का क्या हुआ? उसका बच्चा…”
गाइड हंस दिया. बोला,“मुझे मालूम नहीं. मालूम हो भी क्यों? मैंने आपसे पहले ही कहा न, मैं इस चिड़ियाघर की आत्मा हूं, दुनिया की आत्मा नहीं हूं. मेरी कहानी इसी की कहानी है. अगर दुनिया भी एक चिड़ियाघर है, तो उसकी कहानी के लिए आप…”
लेकिन मेरी सहनशीलता की इति हो चुकी थी. मैं रमा को खींचता हुआ एक ओर निकल चला. मुझे बाहर की राह मालूम नहीं थी, लेकिन एक ओर फाटक देखकर उधर ही मैं लपका.
चिड़ियाघर का साहब
फाटक के पास मैं ठिठक गया. उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था,“सावधान! बिना लिखित इजाज़त के भीतर मत आओ!”
मैं कहने को था, अब क्या करें? कि मैंने देखा, गाइड पास खड़ा मुस्करा रहा है.
मैंने अपना क्रोध दबाकर पूछा,“यहां कौन-सा जानवर रहता है?”
“वह चिड़ियाघर के साहब का बंगला है.”
“ऐं?”
“इनकी भी कहानी कह दूं?” कहकर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए चिड़ियाघर की आत्मा बोली,“साहब हमारे राजा के चचेरे भाई की सन्तान हैं-एक वेश्या से. यह कहानी बहुत कम लोग जानते हैं, क्योंकि वह वेश्या बहुत देर तक कुंवर साहब की चहेती रही और वे उसके लड़के को कुमार की तरह पालते रहे. उसे भी अपनी मां का पता नहीं लगा. एक बार राजकुमार कॉलेज में उसकी किसी दूसरे कुमार से लड़ाई हो गई थी, और उसने उसे वेश्यापुत्र कह दिया. जब पूछने पर सच्चाई का पता चला, तब वह दुःख और ग्लानि से पागल हो गया. जब पागलपन कुछ ठीक हुआ, तब उसने कॉलेज जाने से इनकार किया और यहीं रहने लगा. अब भी उसका पागलपन मिटा नहीं, लेकिन अब यह हालत हुई कि जब कोई उसका नाम लेकर या कुंवर साहब कहकर बुलाता, तब उसे दौरा हो जाता और वह हत्या करने को तैयार हो जाता. अजनबी भी यदि उसका नाम पूछ बैठते या कोई और बात करते, जिससे उसका ध्यान अपने मां-बाप की ओर जाए; तब भी यही हालत होती, अन्यथा वह बहुत ठीक रहता. जानवरों में उसे विशेष दिलचस्पी थी. इसलिए राजा साहब ने उसे यहां नियुक्त करके इस बंगले में रख दिया और बाहर यह बोर्ड लगवा दिया कि कोई भूलकर भी उधर न चला जाए.”
थोड़ी देर मौन रहा. फिर गाइड ने ही कहा,“मालूम होता है, आप और नहीं देखना चाहते.” मेरे उत्तर देने से पहले ही वह रमा की ओर देखकर बोला,“मैंने पहले ही कहा था, आपको दुबारा देखने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.”
और मैंने फिर देखा, उसकी मुस्कराहट में एक तीखा व्यंग्य है. मैंने रमा से कहा,“देख लिया? अब चलो बाहर!”
हम चले. रमा कुछ बोली नहीं, तब मेरा सारा क्रोध उसी पर फूटना चाहने लगा. मैंने व्यंग्य से पूछा,“कैसी रही सैर चिड़ियाघर की?”
उसने मेरा ग़ुस्सा पढ़कर, मानो ज्वाला में घी छोड़ने के लिए शान्त भाव से कहा,“अजीब थी.”
“अजीब कहती हो तुम-अजीब? ऐसा सड़ा, गन्दा, वीभत्स, डिसगस्टिंग दिन मैंने कभी नहीं बिताया. अब कभी चिड़ियाघर आऊं तो मेरा नाम…”
“कैसे नहीं आओगे तुम चिड़ियाघर में?”
अपने बिलकुल पास क्रोध से जलता हुआ यह गर्जन सुनकर मैं सहम गया. चिड़ियाघर की आत्मा वह गाइड मेरे बिलकुल पास खड़ी मेरी ओर देख रहा था. उसके विस्फारित नेत्रों से आग बरस रही थी, बदन गुस्से से कांप रहा था. “कैसे नहीं आओगे तुम चिड़ियाघर में? जाओगे कहां तुम? वहां बाहर! वहां एक बहुत बड़ा चिड़ियाघर है जिसमें तुम बन्द हो, तुम!”
वह एकाएक इतना पास आ गया कि उसकी गर्म सांस मेरे गले पर पड़ने लगी और लम्बी दाढ़ी के बाल मुझे चुभ गये. मैंने एकाएक घबड़ाकर रमा को खींचते हुए कहा,“रमा, चलो, बाहर चलो…”
मैं कांपता हुआ जागा, तो पाया कि मेरा झबरा कुत्ता टिम मेरे कन्धे पर अपनी थूथनी रगड़कर मुझे जगाना चाहता है और उसके पीछे रमा वही पीली साड़ी पहने हुए प्यार-भरे स्वर में कह रही है,“पोस्ती जी, चलना नहीं बाहर?” मैं अपने को संभालने की कोशिश करते-करते बोला, “चलो. लेकिन कहां?”
उसने और भी आकर्षक मुस्कान अपने चेहरे पर जाल की तरह बिखेरकर कहा,“क्यों, चिड़ियाघर नहीं ले चलोगे?”
मैं डूबते हुए स्वर में किसी तरह कह पाया,“चलो…”
Illustrations: Pinterest