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दिल्ली में एक मौत: कहानी दिखावे और खानापूर्ति की (लेखक: कमलेश्वर)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 17, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Kamleshwar_kahani
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मौत अंतिम सच है. पर मौत के बाद सारे समीकरण बदल जाते हैं. कमलेश्वर की इस कहानी में मौत के बाद के बदले हुए समीकरण और लोगों की खानापूर्ति और दिखावे को चित्रित किया गया है.

मैं चुपचाप खड़ा सब देख रहा हूं और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था. उनके लड़के से मेरी ख़ासी जान-पहचान है और ऐसे मौक़े पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है. सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है… पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है.
चारों तरफ़ कुहरा छाया हुआ है. सुबह के नौ बजे हैं, लेकिन पूरी दिल्ली धुंध में लिपटी हुई है. सड़कें नम हैं. पेड़ भीगे हुए हैं. कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं देता. जि़ंदगी की हलचल का पता आवाज़ों से लग रहा है. ये आवाज़ें कानों में बस गई हैं. घर के हर हिस्से से आवाज़ें आ रही हैं. वासवानी के नौकर ने रोज़ की तरह स्टोव जला दिया है, उसकी सनसनाहट दीवार के पार से आ रही है. बगल वाले कमरे में अतुल मवानी जूते पर पालिश कर रहा है… ऊपर सरदारजी मूंछों पर फिक्सो लगा रहे हैं… उनकी खिड़की के परदे के पार जलता हुआ बल्ब बड़े मोती की तरह चमक रहा है. सब दरवाज़े बंद हैं, सब खिड़कियों पर परदे हैं, लेकिन हर हिस्से में ज़िंदगी की खनक है. तिमंजिले पर वासवानी ने बाथरूम का दरवाज़ा बंद किया है और पाइप खोल दिया है…
कुहरे में बसें दौड़ रही हैं. जूं-जूं करते भारी टायरों की आवाज़ें दूर से नज़दीक आती हैं और फिर दूर होती जाती हैं. मोटर-रिक्शे बेतहाशा भागे चले जा रहे हैं. टैक्सी का मीटर अभी किसी ने डाउन किया है. पडोस के डॉक्टर के यहां फ़ोन की घंटी बज रही है. और पिछवाड़े गली से गुज़रती हुई कुछ लड़कियां सुबह की शिफ्ट पर जा रही हैं.
सख्त सर्दी है. सड़कें ठिठुरी हुई हैं और कोहरे के बादलों को चीरती हुई कारें और बसें हॉर्न बजाती हुई भाग रही हैं. सड़कों और पटरियों पर भीड़े है, पर कुहरे में लिपटा हुआ हर आदमी भटकती हुई रूह की तरह लग रहा है.
वे रूहें चुपचाप धुंध के समुद्र में बढ़ती जा रही हैं… बसों में भीड़ है. लोग ठंडी सीटों पर सिकुड़े हुए बैठे हैं और कुछ लोग बीच में ही ईसा की तरह सलीब पर लटके हुए हैं बांहें पसारे, उनकी हथेलियों में कीलें नहीं, बस की बर्फीली, चमकदार छड़ें हैं.
और ऐसे में दूर से एक अर्थी सड़क पर चली आ रही है. इस अर्थी की ख़बर अख़बार में है. मैंने अभी-अभी पढ़ी है. इसी मौत की ख़बर होगी. अख़बार में छपा है आज रात करोलबाग के मशहूर और लोकप्रिय बिजनेस मैगनेट सेठ दीवानचंद की मौत इरविन अस्पताल में हो गई. उनका शव कोठी पर ले आया गया है. कल सुबह नौ बजे उनकी अर्थी आर्य समाज रोड से होती हुई पंचकुइयां श्मशान-भूमि में दाह-संस्कार के लिए जाएगी.
और इस वक़्त सड़क पर आती हुई यह अर्थी उन्हीं की होगी. कुछ लोग टोपियां लगाए और मफलर बांधे हुए खामोशी से पीछे-पीछे आ रहे हैं. उनकी चाल बहुत धीमी है. कुछ दिखाई पड़ रहा है, कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है, पर मुझे ऐसा लगता है अर्थी के पीछे कुछ आदमी हैं.
मेरे दरवाज़े पर दस्तक होती है. मैं अख़बार एक तरफ़ रखकर दरवाज़ा खोलता हूं. अतुल मवानी सामने खड़ा है. ‘यार, क्या मुसीबत है, आज कोई आयरन करने वाला भी नहीं आया, ज़रा अपना आयरन देना.’ अतुल कहता है तो मुझे तसल्ली होती है. नहीं तो उसका चेहरा देखते ही मुझे खटका हुआ था कि कहीं शवयात्रा में जाने का बवाल न खड़ा कर दे. मैं उसे फ़ौरन आयरन दे देता हूं और निश्चिंत हो जाता हूं कि अतुल अब अपनी पेंट पर लोहा करेगा और दूतावासों के चक्कर काटने के लिए निकल जाएगा.
जब से मैंने अख़बार में सेठ दीवानचंद की मौत की ख़बर पढी थी, मुझे हर क्षण यही खटका लगा था कि कहीं कोई आकर इस सर्दी में शव के साथ जाने की बात न कह दे. बिल्डिंग के सभी लोग उनसे परिचित थे और सभी शरीफ़, दुनियादार आदमी थे.
तभी सरदारजी का नौकर जीने से भड़भड़ाता हुआ आया और दरवाज़ा खोलकर बाहर जाने लगा. अपने मन को और सहारा देने के लिए मैंने उसे पुकारा,‘धर्मा! कहां जा रहा है?’
‘सरदारजी के लिए मक्खन लेने,’ उसने वहीं से जवाब दिया तो लगे हाथों लपककर मैंने भी अपनी सिगरेट मंगवाने के लिए उसे पैसे थमा दिए.
सरदारजी नाश्ते के लिए मक्खन मंगवा रहे हैं, इसका मतलब है वे भी शवयात्रा में शामिल नहीं हो रहे हैं. मुझे कुछ और राहत मिली. जब अतुल मवानी और सरदारजी का इरादा शवयात्रा में जाने का नहीं है तो मेरा कोई सवाल ही नहीं उठता. इन दोनों का या वासवानी परिवार का ही सेठ दीवानचंद के यहां ज़्यादा आना-जाना था. मेरी तो चार-पांच बार की मुलाक़ात भर थी. अगर ये लोग ही शामिल नहीं हो रहे हैं तो मेरा सवाल ही नहीं उठता.
सामने बारजे पर मुझे मिसेस वासवानी दिखाई पड़ती हैं. उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर अजीब-सी सफ़ेदी और होंठों पर पिछली शाम की लिपस्टिक की हल्की लाली अभी भी मौजूद थी. गाउन पहने हुए ही वे निकली हैं और अपना जूड़ा बांध रही हैं. उनकी आवाज़ सुनाई पड़ती है,‘डार्लिंग, जरा मुझे पेस्ट देना, प्लीज़…’
मुझे और राहत मिलती है. इसका मतलब है कि मिस्टर वासवानी भी मैयत में शामिल नहीं हो रहे हैं.
दूर आर्य समाज रोड पर वह अर्थी बहुत आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ती आ रही है…
अतुल मवानी मुझे आयरन लौटाने आता है. मैं आयरन लेकर दरवाज़ा बंद कर लेना चाहता हूं, पर वह भीतर आकर खड़ा हो जाता है और कहता है,‘तुमने सुना, दीवानचंदजी की कल मौत हो गई है.’
‘मैंने अभी अख़बार में पढा है,’ मैं सीधा-सा जवाब देता हूं, ताकि मौत की बात आगे न बढ़े. अतुल मवानी के चेहरे पर सफ़ेदी झलक रही है, वह शेव कर चुका है. वह आगे कहता है,‘बड़े भले आदमी थे दीवानचंद.’
यह सुनकर मुझे लगता है कि अगर बात आगे बढ़ गई तो अभी शवयात्रा में शामिल होने की नैतिक ज़िम्मेदारी हो जाएगी, इसलिए मैं कहता हूं,‘तुम्हारे उस काम का क्या हुआ?’
‘बस, मशीन आने भर की देर है. आते ही अपना कमीशन तो खड़ा हो जाएगा. यह कमीशन का काम भी बड़ा बेहूदा है. पर किया क्या जाए? आठ-दस मशीनें मेरे थ्रू निकल गईं तो अपना बिजनेस शुरू कर दूंगा.’
अतुल मवानी कह रहा है,‘भई, शुरू-शुरू में जब मैं यहां आया था तो दीवानचंदजी ने बड़ी मदद की थी मेरी. उन्हीं की वजह से कुछ काम-धाम मिल गया था. लोग बहुत मानते थे उन्हें.’
फिर दीवानचंद का नाम सुनते ही मेरे कान खड़े हो जाते हैं. तभी खिड़की से सरदारजी सिर निकालकर पूछने लगते हैं,‘मिस्टर मवानी! कितने बजे चलना है?’
‘वक़्त तो नौ बजे का था, शायद सर्दी और कुहरे की वजह से कुछ देर हो जाए.’ वह कह रहा है और मुझे लगता है कि यह बात शवयात्रा के बारे में ही है.
सरदारजी का नौकर धर्मा मुझे सिगरेट देकर जा चुका है और ऊपर मेज पर चाय लगा रहा है. तभी मिसेज़ वासवानी की आवाज़ सुनाई पड़ती है,‘मेरे खयाल से प्रमिला वहां जरूर पहुंचेगी, क्यों डार्लिंग?’
‘पहुंचना तो चाहिए. …तुम ज़रा जल्दी तैयार हो जाओ.’ कहते हुए मिस्टर वासवानी बारजे से गुज़र गए हैं.
अतुल मुझसे पूछ रहा है,‘शाम को कॉफ़ी-हाउस की तरफ़ आना होगा?’
‘शायद चला आऊं,’ कहते हुए मैं कम्बल लपेट लेता हूं और वह वापस अपने कमरे में चला जाता है. आधे मिनट बाद ही उसकी आवाज़ फिर आती है,‘भई, बिजली आ रही है?’
मैं जवाब दे देता हूं,‘हां, आ रही है.’ मैं जानता हूं कि वह इलेक्ट्रिक रॉड से पानी गर्म कर रहा है, इसीलिए उसने यह पूछा है.
‘पॉलिश!’ बूट पॉलिश वाला लड़का हर रोज़ की तरह अदब से आवाज़ लगाता है और सरदारजी उसे ऊपर पुकार लेते हैं. लड़का बाहर बैठकर पॉलिश करने लगता है और वह अपने नौकर को हिदायतें दे रहे हैं,‘खाना ठीक एक बजे लेकर आना…. पापड़ भूनकर लाना और सलाद भी बना लेना….’ मैं जानता हूं सरदारजी का नौकर कभी वक़्त से खाना नहीं पहुंचाता और न उनके मन की चीज़ें ही पकाता है.
बाहर सड़क पर कुहरा अभी भी घना है. सूरज की किरणों का पता नहीं है. कुलचे-छोलेवाले वैष्णव ने अपनी रेड़ी लाकर खड़ी कर ली है. रोज़ की तरह वह प्लेटें सजा रहा है, उनकी खनखनाहट की आवाज़ आ रही है.
सात नंबर की बस छूट रही है. सूलियों पर लटके ईसा उसमें चले जा रहे हैं और क्यू में खड़े और लोगों को कंडक्टर पेशगी टिकट बांट रहा है. हर बार जब भी वह पैसे वापस करता है तो रेजगारी की खनक यहां तक आती है. धुंध में लिपटी रूहों के बीच काली वर्दी वाला कंडक्टर शैतान की तरह लग रहा है.
और अर्थी अब कुछ और पास आ गई है.
‘नीली साड़ी पहन लूं?’ मिसेज़ वासवानी पूछ रही हैं.
वासवानी के जवाब देने की घुटी-घुटी आवाज़ से लग रहा है कि वह टाई की नॉट ठीक कर रहा है.
सरदारजी के नौकर ने उनका सूट ब्रुश से साफ़ करके हैंगर पर लटका दिया है. और सरदारजी शीशे के सामने खडे पगड़ी बांध रहे हैं.
अतुल मवानी फिर मेरे सामने से निकला है. पोर्टफोलियो उसके हाथ में है. पिछले महीने बनवाया हुआ सूट उसने पहन रखा है. उसके चेहरे पर ताज़गी है और जूतों पर चमक. आते ही वह मुझे पूछता है,‘तुम नहीं चल रहे हो?’ और मैं जब तक पूछूं कि कहां चलने को वह पूछ रहा है, वह सरदारजी को आवाज़ लगाता है,‘आइए, सरदारजी! अब देर हो रही है. दस बज चुका है.’
दो मिनट बाद ही सरदारजी तैयार होकर नीचे आते हैं कि वासवानी ऊपर से ही मवानी का सूट देखकर पूछता है,‘ये सूट किधर सिलवाया?’
‘उधर ख़ान मार्केट में.’
‘बहुत अच्छा सिला है. टेलर का पता हमें भी देना.’ फिर वह अपनी मिसेज़ को पुकारता है,‘अब आ जाओ, डियर!… अच्छा मैं नीचे खड़ा हूं तुम आओ.’ कहता हुआ वह भी मवानी और सरदारजी के पास आ जाता है और सूट को हाथ लगाते हुए पूछता है,फलाइनिंग इंडियन है.’
‘इंग्लिश!’
‘बहुत अच्छा फ़िटिंग है!’ कहते हुए वह टेलर का पता डायरी में नोट करता है. मिसेज़ वासवानी बारजे पर दिखाई पड़ती हैं.
अर्थी अब सड़क पर ठीक मेरे कमरे के नीचे है. उसके साथ कुछेक आदमी हैं, एक-दो कारें भी हैं, जो धीरे-धीरे रेंग रही हैं. लोग बातों में मशगूल हैं.
मिसेज़ वासवानी जूडे में फूल लगाते हुए नीचे उतरती हैं तो सरदारजी अपनी जेब का रुमाल ठीक करने लगते हैं. और इससे पहले कि वे लोग बाहर जाएं वासवानी मुझसे पूछता है,‘आप नहीं चल रहे?’
‘आप चलिए मैं आ रहा हूं,’ मैं कहता हूं पर दूसरे ही क्षण मुझे लगता है कि उसने मुझसे कहां चलने को कहा है? मैं अभी खड़ा सोच ही रहा रहा हूं कि वे चारों घर के बाहर हो जाते हैं. अर्थी कुछ और आगे निकल गई है. एक कार पीछे से आती है और अर्थी के पास धीमी होती है. चलाने वाले साहब शवयात्रा में पैदल चलने वाले एक आदमी से कुछ बात करते हैं और कार सर्र से आगे बढ़ जाती है. अर्थी के साथ पीछे जाने वाली दोनों कारें भी उसी कार के पीछे सरसराती हुई चली जाती हैं.
मिसेज़ वासवानी और वे तीनों लोग टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे हैं. मैं उन्हें देखता रहता हूं. मिसेज़ वासवानी ने फ़र-कालर डाल रखा है. और शायद सरदारजी अपने चमड़े के दास्ताने पहने हैं और वे चारों टैक्सी में बैठ जाते हैं. अब टैक्सी इधर ही आ रही है और उसमें से खिलखिलाने की आवाज़ मुझे सुनाई पड़ रही है. वासवानी आगे सड़क पर जाती अर्थी की ओर इशारा करते हुए ड्राइवर को कुछ बता रहा है….
मैं चुपचाप खड़ा सब देख रहा हूं और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था. उनके लड़के से मेरी ख़ासी जान-पहचान है और ऐसे मौक़े पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है. सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है… पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है.
उन चारों की टैक्सी अर्थी के पास धीमी होती है. मवानी गर्दन निकालकर कुछ कहता है और दाहिने से रास्ता काटते हुए टैक्सी आगे बढ़ जाती है.
मुझे धक्का-सा लगता है और मैं ओवरकोट पहनकर, चप्पलें डालकर नीचे उतर आता हूं. मुझे मेरे क़दम अपने आप अर्थी के पास पहुंचा देते हैं, और मैं चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूं. चार आदमी कंधा दिए हुए हैं और सात आदमी साथ चल रहे हैं सातवां मैं ही हूं. और मैं सोच रहा हूं कि आदमी के मरते ही कितना फ़र्क पड़ जाता है. पिछले साल ही दीवानचंद ने अपनी लड़की की शादी की थी तो हज़ारों की भीड़ थी. कोठी के बाहर कारों की लाइन लगी हुई थी… मैं अर्थी के साथ-साथ लिंक रोड पर पहुंच चुका हूं. अगले मोड पर ही पंचकुइयां श्मशान भूमि है.
और जैसे ही अर्थी मोड पर घूमती है, लोगों की भीड़ और कारों की कतार मुझे दिखाई देने लगती है. कुछ स्कूटर भी खड़े हैं. औरतों की भीड़ एक तरफ़ खड़ी है. उनकी बातों की ऊंची ध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं. उनके खड़े होने में वही लचक है जो कनॉट प्लेस में दिखाई पड़ती है. सभी के जूड़ों के स्टाइल अलग-अलग हैं. मर्दों की भीड़ से सिगरेट का धुआं उठ-उठकर कुहरे में घुला जा रहा है और बात करती हुई औरतों के लाल-लाल होंठ और सफ़ेद दांत चमक रहे हैं और उनकी आंखों में एक गरूर है…
अर्थी को बाहर बने चबूतरे पर रख दिया गया है. अब खामोशी छा गई है. इधर-उधर बिखरी हुई भीड़ शव के इर्द-गिर्द जमा हो गई है और कारों के शोफ़र हाथों में फूलों के गुलदस्ते और मालाएं लिए अपनी मालकिनों की नज़रों का इंतज़ार कर रहे हैं.
मेरी नज़र वासवानी पर पड़ती है. वह अपनी मिसेज़ को आंख के इशारे से शव के पास जाने को कह रहा है और वह है कि एक औरत के साथ खड़ी बात कर रही है. सरदारजी और अतुल मवानी भी वहीं खड़े हुए हैं.
शव का मुंह खोल दिया गया है और अब औरतें फूल और मालाएं उसके इर्द-गिर्द रखती जा रही हैं. शोफ़र ख़ाली होकर अब कारों के पास खड़े सिगरेट पी रहे हैं.
एक महिला माला रखकर कोट की जेब से रुमाल निकालती है और आंखों पर रखकर नाक सुरसुराने लगती है और पीछे हट जाती है.
और अब सभी औरतों ने रुमाल निकाल लिए हैं और उनकी नाकों से आवाज़ें आ रही हैं.
कुछ आदमियों ने अगरबत्तियां जलाकर शव के सिरहाने रख दी हैं. वे निश्चल खड़े हैं.
आवाज़ों से लग रहा है औरतों के दिल को ज़्यादा सदमा पहुंचा है.
अतुल मवानी अपने पोर्टफ़ोलियो से कोई काग़ज़ निकालकर वासवानी को दिखा रहा है. मेरे ख़याल से वह पासपोर्ट का फ़ॉर्म है.
अब शव को भीतर श्मशान भूमि में ले जाया जा रहा है. भीड़ फाटक के बाहर खड़ी देख रही है. शोफ़रों ने सिगरेटें या तो पी ली हैं या बुझा दी हैं और वे अपनी-अपनी कारों के पास तैनात हैं.
शव अब भीतर पहुंच चुका है.
मातमपुरसी के लिए आए हुए आदमी और औरतें अब बाहर की तरफ़ लौट रहे हैं. कारों के दरवाज़े खुलने और बंद होने की आवाज़ें आ रही हैं. स्कूटर स्टार्ट हो रहे हैं. और कुछ लोग रीडिंग रोड, बस-स्टॉप की ओर बढ़ रहे हैं.
कुहरा अभी भी घना है. सड़क से बसें गुज़र रही हैं और मिसेज़ वासवानी कह रही हैं,‘प्रमिला ने शाम को बुलाया है, चलोगे न डियर? कार आ जाएगी. ठीक है न?’
वासवानी स्वीकृति में सिर हिला रहा है.
कारों में जाती हुई औरतें मुस्कराते हुए एक-दूसरे से बिदा ले रही हैं और बाय-बाय की कुछेक आवाज़ें आ रही हैं. कारें स्टार्ट होकर जा रही हैं.
अतुल मवानी और सरदारजी भी रीडिंग रोड, बस स्टॉप की ओर बढ़ गए हैं और मैं खड़ा सोच रहा हूं कि अगर मैं भी तैयार होकर आया होता तो यहीं से सीधा काम पर निकल जाता. लेकिन अब तो साढ़े ग्यारह बज चुके हैं.
चिता में आग लगा दी गई है और चार-पांच आदमी पेड़ के नीचे पड़ी बैंच पर बैठे हुए हैं. मेरी तरह वे भी यूं ही चले आए हैं. उन्होंने ज़रूर छुट्टी ले रखी होगी, नहीं तो वे भी तैयार होकर आते.
मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि घर जाकर तैयार होकर दफ़्तर जाऊं या अब एक मौत का बहाना बनाकर आज की छुट्टी ले लूं. आख़िर मौत तो हुई ही है और मैं शवयात्रा में शामिल भी हुआ हूं.

Illustration:Pinterest

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