हम सब भगवान की शक्तियां चाहते हैं, पर भगवान की तक़लीफ़ साझा करने को लेकर उदासीन क्यों हो जाते हैं? भगवान की तक़लीफ़ और इंसान की मौक़ापरस्ती का उदाहरण है कहानी ‘इंसान और भगवान’.
यह एक अजीब विस्मयकारी और चौंकानेवाला दृश्य था. भादों का महीना और कृष्ण जन्माष्टमी का अवसर. निर्जला व्रत किए लाखों लोगों का हुजूम, जो कृष्ण जन्माष्टमी के महोत्सव में शामिल होने आए थे. कृष्ण मंदिरों के सामने हजारों श्रद्धालुओं की भीड़. जगह-जगह कीर्तन और कृष्ण-लीलाओं की झांकियां. कृष्ण की लीला तो अपरंपार है, तभी तो उन्हें एकमात्र पूर्णावतार माना गया, शेष सारे अवतार अधूरे हैं. यही कृष्ण की विशेषता है, कोई कह नहीं सकता कि वे कब क्या कर बैठेंगे. भौतिकता को कब और कैसे आध्यात्मिकता में बदल देंगे और कब कर्म को जीवन-सिद्धांत का केंद्र बना देंगे और वे कब साधारण मनुष्य बन जाएंगे, यह कहा नहीं जा सकता.
इस भीड़-भाड़ से अलग एक पंडाल में कृष्ण की अनन्य भक्त मीराबाई पर प्रवचन हो रहा था. प्रवचनकार कुछ बड़ी ही सूक्ष्म और चौंकानेवाली बातें कह रहे थे-भाइयों और बहनों! मीराबाई ने कृष्ण को अपना पति माना था…इसलिए मीरा राधा के गांव बरसाना के ऊंचा गांव पीठ स्थित ब्रजाचार्य के पास दीक्षा लेने पहुंची थीं, लेकिन ब्रजाचार्य मीरा को कैसे दीक्षा दे सकते थे. वे तो राधा के गांव बरसाना के निवासी और पूरे ब्रज के आचार्य थे. राधा-भक्त ब्रजाचार्य मीरा को कृष्ण की पत्नी कैसे स्वीकार कर सकते थे? लेकिन मीरा जैसी कृष्ण-भक्त की अवहेलना भी वे नहीं कर सकते थे, इसलिए ब्रजाचार्य ने राजस्थान के तिजारा पीठाधीश को आदेश दिया था कि वे ब्रज प्रदेश के बाहर अपने क्षेत्र में मीरा को दीक्षा दें. इसीलिए मीरा की दीक्षा तिजारा में हुई थी. यह तिजारा ही महाभारतकालीन त्रिगर्त है. उत्तर भारत में यही तिजारा दक्षिण के आध्यात्मिक दर्शनशास्त्री माधवाचार्य की अकेली गद्दी है, जहां से द्वैत और अद्वैत का भेद मिटाया गया था…तभी तो कृष्ण साधारण जन के प्रतिनिधि बने थे…नहीं तो कृष्ण भी अलौकिक अवतारों की तरह मनुष्य के प्रतिनिधि नहीं बन पाते. मीराबाई ने ही अपने कृष्ण को मनुष्य बनाया था.
और ख़ुद मीराबाई ने सामंती परदा-प्रथा से विद्रोह करके साधुसंतों-कृष्ण भक्तों का संग अपनाया था. अपने पति की मृत्यु पर सती होने से इनकार किया था! और एक विशेष बात सुनिए, भक्तजनों मीराबाई ने दलित कवि रैदास को अपना गुरु स्वीकारा था, जो जाति से मोची थे…ऐसी विद्रोही कवि के भगवान् स्वयं विद्रोही ही हो सकते थे!
और हुआ भी वही. वह सचमुच अजीब विस्मयकारी और चौंकानेवाला दृश्य था…ऐसा तो कभी हुआ नहीं था…
जैसे ही कृष्ण-जन्म का शंख बजा और मंदिरों में घंटा और घड़ियाल बजने लगे, तभी वह विलक्षण घटना घटी! जब भक्तजन अपने आराध्य कृष्ण के जन्म का जश्न मनाने को तैयार हुए, तभी आसन पर खड़ी त्रिभंगी कृष्ण की मूर्ति में हलचल हुई और आश्चर्य यह कि अपने आसन से उतरकर वह मूर्ति अपने भक्तजनों के बीच मनुष्य-रूप में आ खड़ी हुई!
भक्तजन भौंचक्के रह गए…वे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर सके कि यह भी कभी हो सकता है कि कृष्ण भगवान् जीवित मनुष्य के रूप में उनके सामने और साथ आकर उन्हीं के बीच खड़े हो जाएं! हाड़-मांस के मनुष्य के रूप में! यह तो अलौकिक आश्चर्य की घटना थी, लेकिन यह घटना घटित हो गई थी.
और पूर्णावतार कृष्ण अपने आसन से उतरकर मनुष्य रूप में उन्हीं भक्तजनों के सामने खड़े थे. और तब अपने भक्तजनों से मनुष्य रूपी श्रीकृष्ण बोले,‘भारत की धर्मप्राण जनता और कृष्ण-भक्त संप्रदाय के मेरे भक्तों! मैं त्रिभंगी मुद्रा में पिछले तीन हज़ार वर्षों से खड़े-खड़े बेहद थक गया हूं…मेरे पैर जवाब दे चुके हैं, इसलिए मैं अब कुछ दिनों का आराम चाहता हूं और आपसे निवेदन करना चाहता हूं कि आप सारे भक्तों में से कोई भी एक भक्त मेरा स्थान ले ले और भगवान् के रूप में इस दुनिया के धार्मिक कारोबार को सुचारु रूप से ज़ारी रखे. आप भक्तजनों में से कोई भी एक जन मेरी जगह लेकर भगवान् बन जाए और थोड़े दिनों के लिए मुझे मुक्त करके आराम करने का अवसर दे दे!’
तमाम भक्तजन अभी भी इस आश्चर्यजनक दृश्य को हैरत और अविश्वास से देख रहे थे! उनकी सोचने की क्षमता लुप्त हो गई थे…वे उत्तर दे सकने की स्थिति में ही नहीं थे!
और तब कृष्ण ने अपने महाभक्त पं. किशोरीदास को पुकारा,‘किशोरीदासजी, आपने तो मेरी वर्षों तक पूजा-आराधना की है, मैं चाहता हूं कि आप कुछ समय के लिए मेरे भगवान् होने के पद और पदवी को संभाल लें…मैं सदियों से खड़ा-खड़ा बेहद थक गया हूं…आप मेरी मदद करें!’
तो पं. किशोरीदास ने हाथ जोडक़र नम्र निवेदन किया कि ‘हे भगवन्! मैं आपका अनन्य भक्त हूं…लेकिन हे अंतरयामी! आपको तो पता ही होगा कि हार्निया के ऑपरेशन के लिए सुबह ही अस्पताल जाना है, इसलिए मैं असमर्थ हूं! मुझे क्षमा कर दीजिए!’
तब पूर्णावतार कृष्ण ने देखा, उनके सभी भक्तजन एक अजीब से ऊहापोह में फंसे हुए थे. कुछेक तो आंख बचाकर चुपचाप वहां से खिसक भी लिए थे. भगवान् श्रीकृष्ण को यह देखकर बहुत आश्चर्य और दु:ख भी हो रहा था. उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि रोज़ उनकी पूजा-अर्चना करनेवाले लोग उनकी तक़लीफ़ से इतने वीतराग होंगे.
और तब भगवान् श्रीकृष्ण ने सामने बैठे, पर निकल भागने के लिए आतुर एक नौजवान को संबोधित किया,‘हे नौजवान! धर्म और मुझमें आस्था रखनेवाले तुम क्या कुछ दिनों के लिए भगवान् के रूप में मेरी जगह ले सकते हो?’
‘भगवन्! मुझे क्षमा करें…एक तो मैं भगवान् बनने योग्य नहीं हूं, दूसरे यह कि कल सुबह मेरी नौकरी का इंटरव्यू है. यदि वहां नहीं पहुंचा तो मेरी नौकरी ख़तरे में पड़ जाएगी. भगवन्! मैं भगवान् बनने नहीं, अपनी नौकरी के लिए आशीर्वाद लेने आया था…मेरे पास भगवान् बनने का वक़्त ही नहीं है. यदि मैं भगवान् बन गया तो मेरे हाथ से नौकरी पाने का सुनहरा अवसर निकल जाएगा. इसलिए भगवन्, आप मुझे क्षमा करें, मैं भगवान् नहीं बनना चाहूंगा!’
अपने आसन से उतरे, मनुष्य रूप में प्रकट हुए त्रिभंगी कृष्ण की मानुष-मूर्ति ने देखा कि उनके सारे भक्तजन मंदिर परिसर से भाग सकने की कोशिश में थे या भाग गए थे. यह दृश्य देखकर तीन हज़ार वर्षों से अपने आसन पर खड़े त्रिभंगी कृष्ण हतप्रभ और निराश हो गए थे, क्योंकि कोई भी नश्वर व्यक्ति भगवान् की जगह लेने और भगवान् बनने के लिए तैयार नहीं था!
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