क्या होता है, जब बच्चे अचानक एक दिन बड़े बनकर, बड़ों की तरह काम करने का फ़ैसला करें? घर के नौकरों की जगह बच्चों को घर के काम थमाने का मज़ेदार हश्र आपको इस्मत चुग़ताई की इस कहानी में पढ़ने मिलेगा.
बड़ी देर के वाद-विवाद के बाद यह तय हुआ कि सचमुच नौकरों को निकाल दिया जाए. आखिर, ये मोटे-मोटे किस काम के हैं! हिलकर पानी नहीं पीते. इन्हें अपना काम ख़ुद करने की आदत होनी चाहिए. कामचोर कहीं के!
‘तुम लोग कुछ नहीं. इतने सारे हो और सारा दिन ऊधम मचाने के सिवा कुछ नहीं करते.’ और सचमुच हमें ख़याल आया कि हम आखिर क्यों नहीं करते? हिलकर पानी पीने में अपना क्या खर्च होता है? इसलिए हमने तुरंत हिल-हिलाकर पानी पीना शुरू किया.
हिलने में धक्के भी लग जाते हैं और हम किसी के दबैल तो थे नहीं कि कोई धक्का दे, तो सह जाएं. लीजिए, पानी के मटकों के पास ही घमासान युद्ध हो गया. सुराहियां उधर लुढ़कीं. मटके इधर गए. कपड़े भीगे, सो अलग. ‘यह भला काम करेंगे.’ अम्मा ने निश्चय किया. ‘करेंगे कैसे नहीं! देखो जी! जो काम नहीं करेगा, उसे रात का खाना हरगिज नहीं मिलेगा. समझे.’ यह लीजिए बिलकुल शाही फ़रमान जारी हो रहे हैं.
‘हम काम करने को तैयार हैं. काम बताए जाएं,’ हमने दुहाई दी.
‘बहुत-से काम हैं जो तुम कर सकते हो. मिसाल के लिए, यह दरी कितनी मैली हो रही है. आंगन में कितना कूड़ा पड़ा है. पेड़ों में पानी देना है और भाई मुफ्त तो यह काम करवाए नहीं जाएंगे. तुम सबको तनख्वाह भी मिलेगी.’
अब्बा मियां ने कुछ काम बताए और दूसरे कामों का हवाला भी दिया-माली को तनख्वाह मिलती है. अगर सब बच्चे मिलकर पानी डालें, तो… ‘ऐ हे! खुदा के लिए नहीं. घर में बाढ़ आ जाएगी.’ अम्मा ने याचना की. फिर भी तनख्वाह के सपने देखते हुए हम लोग काम पर तुल गए.
एक दिन फर्शी दरी पर बहुत-से बच्चे जुट गए और चारों ओर से कोने पकड़कर झटकना शुरू किया. दो-चार ने लकड़ियां लेकर धुआंधार पिटाई शुरू कर दी. सारा घर धूल से अट गया. खांसते-खांसते धूल जो दरी पर थी, जो फर्श पर थी, सबके सिरों पर जम गई. नाकों और आंखों में घुस गई. बुरा हाल हो गया सबका. हम लोगों को तुरंत आंगन में निकाला गया. वहां हम लोगों ने फौरन झाडू देने का फ़ैसला किया. झाड़ू क्योंकि एक थी और तनख्वाह लेनेवाले उम्मीदवार बहुत, इसलिए क्षण-भर में झाड़ू के पुर्जे उड़ गए. जितनी सींकें जिसके हाथ पड़ीं, वह उनसे ही उलटे-सीधे हाथ मारने लगा. अम्मा ने सिर पीट लिया. भई, ये बुजुर्ग काम करने दें तो इंसान काम करे. जब ज़रा-ज़रा सी बात पर टोकने लगे तो बस, हो चुका काम!
असल में झाडू देने से पहले ज़रा-सा पानी छिड़क लेना चाहिए. बस, यह खयाल आते ही तुरंत दरी पर पानी छिड़का गया. एक तो वैसे ही धूल से अटी हुई थी. पानी पड़ते ही सारी धूल कीचड़ बन गई. अब सब आंगन से भी निकाले गए. तय हुआ कि पेड़ों को पानी दिया जाए. बस, सारे घर की बालटियां, लोटे, तसले, भगोने, पतीलियां लूट ली गईं. जिन्हें ये चीजें भी न मिलीं, वे डोंगे-कटोरे और गिलास ही ले भागे. अब सब लोग नल पर टूट पड़े. यहां भी वह घमासान मची कि क्या मजाल जो एक बूंद पानी भी किसी के बर्तन में आ सके. ठूसम-ठास! किसी बालटी पर पतीला और पतीले पर लोटा और भगोने और डोंगे. पहले तो धक्के चले. फिर कुहनियां और उसके बाद बरतन. फौरन बड़े भाइयों, बहनों, मामुओं और दमदार मौसियों, फूफियों की कुमक भेजी गई, फौज मैदान में हथियार फेंककर पीठ दिखा गई.
इस धींगामुश्ती में कुछ बच्चे कीचड़ में लथपथ हो गए जिन्हें नहलाकर कपड़े बदलवाने के लिए नौकरों की वर्तमान संख्या काफी नहीं थी. पास के बंगलों से नौकर आए और चार आना प्रति बच्चा हिसाब से नहलवाए गए.
हम लोग कायल हो गए कि सचमुच यह सफ़ाई का काम अपने बस की बात नहीं और न पेड़ों की देखभाल हमसे हो सकती है. कम-से-कम मुर्गियां ही बंद कर दें. बस, शाम ही से जो बांस, छड़ी हाथ पड़ी, लेकर मुर्गियां हांकने लगे. ‘चल दड़बे, दड़बे.’ पर साहब, मुर्गियों को भी किसी ने हमारे विरुद्ध भड़का रखा था. ऊट-पटांग इधर-उधर कूदने लगीं. दो मुर्गियां खीर के प्यालों से जिन पर आया चांदी के वर्क लगा रही थी, दौड़ती-फड़फड़ाती हुई निकल गईं. तूफ़ान गुज़रने के बाद पता चला कि प्याले खाली हैं और सारी खीर दीदी के कामदानी के दुपट्टे और ताजे धुले सिर पर लगी हुई है. एक बड़ा-सा मुर्गा अम्मा के खुले हुए पानदान में कूद पड़ा और कत्थे-चूने में लुथड़े हुए पंजे लेकर नानी अम्मा की सफ़ेद दूध जैसी चादर पर छापे मारता हुआ निकल गया. एक मुर्गी दाल की पतीली में छपाक मारकर भागी और सीधी जाकर मोरी में इस तेज़ी से फिसली कि सारी कीचड़ मौसी जी के मुंह पर पड़ी जो बैठी हुई हाथ-मुंह धो रही थीं. इधर सारी मुर्गियां बेनकेल का ऊंट बनी चारों तरफ़ दौड़ रही थीं. एक भी दड़बे में जाने को राज़ी न थी.
इधर, किसी को सूझी कि जो भेड़ें आई हुई हैं, लगे हाथों उन्हें भी दाना खिला दिया जाए. दिन-भर की भूखी भेड़ें दाने का सूप देखकर जो सबकी सब झपटीं तो भागकर जाना कठिन हो गया. लश्टम-पश्टम तख्तों पर चढ़ गईं. पर भेड़-चाल मशहूर है. उनकी नज़र तो बस दाने के सूप पर जमी हुई थी. पलंगों को फलांगती, बरतन लुढ़काती साथ-साथ चढ़ गईं. तख्त पर बानी दीदी का दुपट्टा फैला हुआ था जिस पर गोखरी, चंपा और सलमा-सितारे रखकर बड़ी दीदी मुग़लानी बुआ को कुछ बता रही थीं. भेड़ें बहुत नि:संकोच सबको रौंदती, मेंगनों का छिड़काव करती हुई दौड़ गईं. जब तूफ़ान गुज़र चुका तो ऐसा लगा जैसे जर्मनी की सेना टैंकों और बमबारों सहित उधर से छापा मारकर गुज़र गई हो. जहां-जहां से सूप गुजरा, भेड़ें शिकारी कुत्तों की तरह गंध सूंघती हुई हमला करती गईं. हज्जन मां एक पलंग पर दुपट्टे से मुंह ढांके सो रही थीं. उन पर से जो भेड़ें दौड़ी तो न जाने वह सपने में किन महलों की सैर कर रही थीं, दुपट्टे में उलझी हुई ‘मारो-मारो’ चीखने लगीं. इतने में भेड़ें सूप को भूलकर तरकारीवाली की टोकरी पर टूट पड़ीं. वह दालान में बैठी मटर की फलियां तोल-तोल कर रसोइए को दे रही थी. वह अपनी तरकारी का बचाव करने के लिए सीना तान कर उठ गई. आपने कभी भेड़ों को मारा होगा, तो अच्छी तरह देखा होगा कि बस, ऐसा लगता है जैसे रुई के तकिए को कूट रहे हों. भेड़ को चोट ही नहीं लगती. बिलकुल यह समझकर कि आप उससे मज़ाक कर रहे हैं. वह आप ही पर चढ़ बैठेगी. ज़रा-सी देर में भेड़ों ने तरकारी छिलकों समेत अपने पेट की कड़ाही में झोंक दी.
इधर यह प्रलय मची थी, उधर दूसरे बच्चे भी लापरवाह नहीं थे. इतनी बड़ी फौज थी-जिसे रात का खाना न मिलने की धमकी मिल चुकी थी. वे चार भैंसों का दूध दुहने पर जुट गए. धुली-बेधुली बालटी लेकर आठ हाथ चार थनों पर पिल पड़े. भैंस एकदम जैसे चारों पैर जोड़कर उठी और बालटी को लात मारकर दूर जा खड़ी हुई. तय हुआ कि भैंस की अगाड़ी-पिछाड़ी बांध दी जाए और फिर काबू में
लाकर दूध दुह लिया जाए. बस, झूले की रस्सी उतारकर भैंस के पैर बांध दिए गए. पिछले दो पैर चाचा जी की चारपाई के पायों से बांध, अगले दो पैरों को बांधने की कोशिश जारी थी कि भैंस चौकन्नी को गई. छूटकर जो भागी तो पहले चाचा जी समझे कि शायद कोई सपना देख रहे हैं. फिर जब चारपाई पानी के ड्रम से टकराई और पानी छलककर गिरा तो समझे कि आंधी-तूफ़ान में फंसे हैं. साथ में भूचाल भी आया हुआ है. फिर जल्दी ही उन्हें असली बात का पता चल गया और वह पलंग की दोनों पटियां पकड़े, बच्चों को छोड़ देनेवालों को बुरा-भला सुनाने लगे.
यहां बड़ा मज़ा आ रहा था. भैंस भागी जा रही थी और पीछे-पीछे चारपाई और उस पर बैठे हुए थे चाचा जी. ओहो! एक भूल ही हो गई यानी बछड़ा तो खोला ही नहीं, इसलिए तत्काल बछड़ा भी खोल दिया गया. तीर निशाने पर बैठा और बछड़े की ममता में व्याकुल होकर भैंस ने अपने खुरों को ब्रेक लगा दिए. बछड़ा तत्काल जुट गया. दुहने वाले गिलास-कटोरे लेकर लपके क्योंकि बालटी तो छपाक से गोबर में जा गिरी थी. बछड़ा फिर बाग़ी हो गया. कुछ दूध ज़मीन पर और कपड़ों पर गिरा. दो-चार धारें गिलास-कटोरों पर भी पड़ गईं. बाक़ी बछड़ा पी गया. यह सब कुछ, कुछ मिनट के तीन-चौथाई में हो गया.
घर में तूफ़ान उठ खड़ा हुआ. ऐसा लगता जैसे सारे में मुर्गियां, भेड़ें, टूटे हुए तसले, बालटियां, लोटे, कटोरे और बच्चे थे. बच्चे बाहर किए गए. मुर्गियां बाग़ में हंकाई गईं. मातम-सा मनाती तरकारी वाली के आंसू पोंछे गए और अम्मा आगरा जाने के लिए सामान बांधने लगीं. ‘या तो बच्चा-राज कायम कर लो या मुझे ही रख लो. नहीं तो मैं चली मायके,’ अम्मा ने चुनौती दे दी. और अब्बा ने सबको कतार में खड़ा करके पूरी बटालियन का कोर्ट मार्शल कर दिया. ‘अगर किसी बच्चे ने घर की किसी चीज़ को हाथ लगाया तो बस, रात का खाना बंद हो जाएगा.’ ये लीजिए! इन्हें किसी करवट शांति नहीं. हम लोगों ने भी निश्चय कर लिया कि अब चाहे कुछ भी हो जाए, हिलकर पानी भी नहीं पिएंगे.
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