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ख़ुदा की मदद: कहानी एक पुलिसवाले मुख़बिर की (लेखक: यशपाल)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 13, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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क्यों उबेदुल्ला से शाहिद बना पुलिसवाला अदालत में अपने बयान से मुकर गया? जानने के लिए पढ़ें यशपाल की कहानी ‘ख़ुदा की मदद’.

उबेदुल्ला ‘मेव’ और सैयद इम्तियाज़ अहमद हाई स्कूल में एक साथ पढ़ रहे थे. उबेद छुट्टी के दिनों में गांव जाकर अपने गुज़ारे के लिए अनाज और कुछ घी ले आता. रहने के लिए उसे इम्तियाज़ अहमद की हवेली में एक ख़ाली अस्तबल मिल गया था. इम्तियाज़ का बहुत-सा समय कनकैयाबाज़ी, बटेरबज़ी, सिनेमा देखने और मुजरा सुनने में चला जाता, और कुछ फुटबाल, क्रिकेट में. वालिद साहब कुछ पढ़ने-लिखने के लिए परेशान ही कर देते तो वह पलंग पर लेट कर नाविल पढ़ता-पढ़ता सो जाता. जब इम्तियाज़ यह सब फ़न और हुनर पास कर रहा था, उबेद अस्तबल में अपनी खाट पर बैठ तिकोन का क्षेत्रफल निकालने, ‘झ’ को ‘ज्ञ’ से गुणा कर ‘जै’ से भाग देकर, उसे ‘म’ और ‘ल’ के जोड़ के बराबर प्रमाणित करने और इस देश को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा दी गई बरकतें याद करने में लगा रहता. इम्तियाज़ को उबेद का बहुत सहारा था. स्कूल में जब मास्टर लोग घर पर काम करने के लिए दिए गए काम के बारे में सख्ती करने लगते, तो बह उबेद की कापियों की मदद ले मास्टरों की तसल्ली कर देता. उबेद यह सब देखता और सोचता था,‘मेहनत और सब्र का फल एक दिन मिलेगा. ख़ुदा सब कुछ देखता है.’
उबेद मैट्रिक के इम्तिहान में पास हो गया. इम्तियाज़ के वालिद सैयद मुर्तजा अहमद को काफ़ी दौड़ धूप करनी पड़ी. उनका काफ़ी रसूख था. इम्तियाज़ भी पास हो गया. उबेद का अपने गांव में गुज़ारा मुश्किल था. ज़मीन इतनी कम थी कि सभी लोग घर पर रहते तो निठल्ले बैठे रहते या खेत में मज़दूरी करते. जुताई पर ज़मीन मिलना भी आसान न था. घर वाले कहते थे,‘इतना पढ़ाया-लिखाया है, तो क्या हल चलवाने के लिए? अगर ज़मीन से ही सिर मारना था, तो इल्म का फ़ायदा क्या?’ उबेदुल्ला आगरे में कोशिश करता रहा. कभी भट्टे पर नौकरी मिल जाती, कभी किसी जूते के कारखाने में. तनखाह बीस बाइस रुपए, और फिर नौकरी पक्की नहीं. इतने में इम्तियाज़ मुरादाबाद से सब इंस्पेक्टरी पास करके आ गया, और उसे अपने ही शहर में नौकरी मिल गई. इम्तियाज़ ने फिर उबेद की मदद की. उबेद कांस्टेबिल हो गया.
यह ठीक है कि लाल पगड़ी और खाकी वर्दी पहन कर उबेद आम लोग-बाग़ के सामने हुकूमत दिखा सकता था, लेकिन जान-पहचान के लोगों में, साथ पढ़ने वालों का ‘सामना होने पर उसके मुंह में कड़वाहट-सी आ जाती, ख़ास तौर पर जब उसे इम्तियाज़ के सामने सलूट देनी पड़ी. उसे यह न भूलता कि स्कूल में इम्तियाज़ उसकी कापियों से नकल किया करता था. लेकिन अगर इनसान के किए ही सब कुछ हो सकता तो ख़ुदा कि हस्ती को इनसान कैसे पहचानता सैयद इम्तियाज़ रसूल के खानदान से थे. खैर, कभी तो मेहनत और ईमानदारी का ‘नतीजा सामने आएगा. ख़ुदा सब कुछ देखता है. उबेद की ड्यूटी नाके पर लगती या रात की रौंद में पड़ती तौ चवन्नियों, अठन्नियों को शक में फ़ायदा उठा लेने का मौक़ा रहता. उसके साथ के सब लोग ऐसा करते ही थे. वर्ना अठारह रुपए की कांस्टेबिली में क्या रखा था? पर उबेद नियत न बिगाड़ता. उसे ईमानदारी और मेहनत के अंजाम पर भरोसा था. जब वह एड़ी से पड़ी ठोक कर दारोगा साहब को सलूट देता था तो मन में एक आदर्श की पूजा करता था. यह आदर्श था-सिर की लाल पगड़ी पर लटकता सुनहरा झब्बा, पीतल का चमचमाता ताज, कंधे से कमर तक लगी हुई चमड़े की पेटी. तनख्वाह चाहे अधिक न हो, पर वह सरकार का प्रतिनिधि होगा. इतिहास में उसने कई बादशाहों और खलीफाओं का जिक्र पढ़ा था, जो ग़रीबी में गुज़ारा कर इनसाफ़ करते थे. वैसे ही यह भी करेगा. हिन्दुस्तानी अफ़सर अकसर कमीनापन करते है. अंग्रेज़ के हाथ में इनसाफ़ है. इसीलिए ख़ुदा ने उसे इतना रुतबा दिया है’.
सैयद इम्तियाज़ अहमद सीआईडी डिपार्टमेंट में हो गए थे. उबेद पढ़ा-लिखा था. उन्होंने उसे भरोसे लायक आदमी समझ अपने नीचे ले लिया. उसे अदना सिपाही की वर्दी से मुक्ति मिली, साइकिल का और दूसरे भत्ते मिलने लगे. दही की जहमत के बजाय उसका काम हो गया ख़बर लेना-देना. सरकार के सामने उसकी बात का मूल्य था. उस ने एक तथ्य समझा-दादर में जितना आतंक, अपराध और सनसनी हो, सरकार की दृष्टि में उसका मूल्य उतना ही अधिक है. सैयद साहब स्वयं जो चाहे करते ही, लेकिन उन्हें आदमियों की ज़रूरत थी, जो कम-से कम उन्हें तो धोखा न दे. ऐसे मामलों में अक्सर उबेद की ड्यूटी लगती. मेहनत का नतीजा भी उबेद को मिला. जल्दी ही उसकी वर्दी की आस्तीन पर पहले एक बत्ती, फिर दो लग गई.
इस महकमे में नौकरी करते उसे बरस ही पूरा हुआ था कि सन् 42 का अगस्त आ गया. जगह-जगह से रेलें और तार के खम्भे उखाड़ दिए जाने ओर आने जला दिए जाने के भयंकर समाचार आने लगे. उबेद को लोग-बाग की आंखों में सरकार के लिए और अपने लिए नफ़रत और सरकशी दिखाई देने लगी. उसे याद आया, कि स्कूल में सन् 1857 के गदर का हाल पढ़ते समय जाहिरा तारीफ़ अंग्रेज़ों की ही की जाती थी, लेकिन सभी के मन में मुल्क़ को आज़ाद करने के लिए विदेशियों से लड़ने वालों की ही इज्जत थी. मालूम होता था कि फिर वही वक़्त ‘आ रहा है. लेकिन अब वह’ अंग्रेज़ सरकार का नौकर था. एक बार वह मन में सहमा. अगर रिआया और सरकार की इस पकड़ में सरकार चित्त हो जाय तो उसका क्या होगा उस वक उसने रेडियो पर लाट हैलट साहब का फर्मान सुना. लाट साहब ने कहा-इस वक़्त सरकार मुल्क़ के बाहर दुश्मनों से लड़ रही है. कुछ शरारती और सरकश लोग रिआया को सरकार के ख़िलाफ़ भड़का कर अमन में खलल और परेशानियों पैदा कर रहे है. हमारी सरकार को अपनी वफादार रिआया, पुलिस और फौज पर पूरा भरोसा है.
हमारी सरकार के जो अगले इस सरकशी और बदअमनी को ख़त्म करने में जी-जान से इमदाद करेंगे, सरकार उनकी खिदमतों का मुनासिब एतराफ करेगी. पुलिस और फौज को सरकशी ख़त्म और अमन कायम करने का फ़र्ज पूरा करने में जो सख्ती करनी पड़ेगी, उसके लिए सरकारी नौकरों, पुलिस या कौन के ख़िलाफ़ कोई शिकायत नहीं सुनी जाएगी, न उसकी कोई जांच पड़ताल होगी.’
उबेद का सीना गज भर का हो गया. बाज़ारों में ‘इन्कलाब ज़िंदाबाद’ और अंग्रेजी सरकार मुरदाबाद’ की आसमान फाड़ देने वाली जनता की चिल्लाहटों और थानों, कचहरियों को जला देने की अफ़वाहों से थर्राते उबेद के दिल को सांत्वना मिली. उसने सोचा. इधर ज़िंदाबाद और मुर्दाबाद की चिल्लाहट और लाखों सरकश है तो हमारे पास भी राइफलों से मुसल्लह गारदें, फौज, तोपखाने और हवाई जहाज हैं. अगर एक बम आगरे पर गिरा दिया जाय तो सरकश रिआया का दिमाग़ दुरुस्त हो जाय.’
थाने में अधिकतर मुसलमान सिपाही थे. कोतवाल साहब भी मुसलमान थे. उन्होंने रेडियो पर हुआ कायदे आज़म का एलान सब सिपाहियों को बताया कि हिन्दू कांग्रेस की इस बगावत का मकसद अंग्रेज़ सरकार को डरा कर मुल्क़ में हिन्दू-कांग्रेस का राज कायम करना है. मुसलमानों को इस बगावत से कोई सरोकार नहीं मुसलमान हिन्दू कांग्रेस से डर कर, उनका राज हरगिज कायम न होने देंगे. कोतवाल साहब सिपाहियों को यों भी समझाते रहते थे कि मुसलमान हाकिम कौम है. वे हमेशा मुल्क़ पर हुकूमत करते आए हैं. इसी आगरे के किले में मुसलमान हकूमत करते थे. अंग्रेज़ हमेशा मुसलमान का एतबार और इज्जत करता है. ईसाई हमारे अहलेकिताब हैं. ख़ुदा पे अंग्रेज़ को ओहदा दिया है और हम लोगों को उसकी मदद करने का हुक्म है. यह कांग्रेस के बनिये बक्काल क्या हुकूमत करेंगे? इन्हें चरखा कातना है, तो लहंगा पहन लें और बैठ कर सूत काते. मुसलमान शेर कौम है. हमेशा से गोश्त खाता आया है. अब घास कैसे खाने लगे?
उमेद भी सोचता, ‘इन लोगों के राज में हम लोगों का गुज़ारा कैसे हो सकता है. हम लोग भला इनकी गुलामी करेंगे? रिआया की सरकशी और बगावत की जीत का मतलब है कि पुलिस, फौज और हुकूमत तबाह हो जाए. जैसे हम लोग कुछ है ही नहीं. यानी हम लोग दो रोटी के लिए सिर पर झाबा रखे तरकारी बेचते फिरैं, या इनके लिए इक्के हांकें.’ उसने मन ही मन सरकश रिआया को गाली दी और उनके प्रति नफरत से थूक दिया.
उस समय रिआया ने सरकार को जाने क्या समझ लिया था. पटवारियों, तहसीलदारों, जैलदारों, की सब ज्यादतियों और जबरन जंगी चन्दा वसूल किए जाने का बदला लेने के लिए, देहातों में ख़ाली हाथ या ढेला, पत्थर और लाठी ले उठ खड़े हुए. ज्यों-ज्यों जनता का विरोध बढ़ता जा रहा था, सरकार सिपाहियों का लाड़ और खुशामद अधिक कर रही थी.
यूपी के पूर्वी ज़िलों के देहात में विद्रोह अधिक था. पश्चिम के ज़िलों से वफादार और समझदार पुलिस को स्थानीय पुलिस की सहायता के लिए भेजा गया. सैयद इम्तियाज़ अहमद की मातहती में उबेद भी बनारस जिले में गया. विशेष भरोसे का और समझदार होने के नाते उसे सदर की पोशाक में देहाती बन कर सरकशों का पता लगाने का काम सौंपा गया. दिन भर गांव-गांव फिर कर अगर वह सांझ को ख़बर देता कि सब अम्नोआमान है तो सैयद साहब उसे फटकार देते और रपट लिखते कि ‘मातबर जरिये से पता चला है कि पड़ोस का थाना फूंक देने वाले सरकश लोग गांव में छिपे हुए हैं.’ रपट में कुछ सरकश बनियों के नाम ख़ास तौर पर रहते. साहब के यहां उबेद की कारगुजारी पहुंचने पर उसकी पीठ ठोंकी जाती. गारद जाकर गांव को घेर लेती. एक-एक झोंपड़ी और मकान की तलाशी ली जाती. भगोड़ों का पता पूछने के लिए लोगों को मुश्कें बांध का पीटा जाता, औरतों को नंगी कर देने की धमकी दी जाती. तबीयत होती तो धमकी को पूरी कर दिखा देते. इस मुहिम में पुलिस वालों के हाथ जो लग जाता, थोड़ा था. किसी के घर से घी की हांडी, गुड की भेलिया किसी की अंटी से दो-चार रुपए, किसी औरत के गले या कलाई से चांदी के गहने उतर जाने का क्या पता चलता सिपाहियों ने ख़ूब खाया.
सेरों चांदी की गठरियां उनके थैलों में छिपी रहतीं. किसी घर में छबीली औरत या जबान लड़की की झांकी पा जाते तो घर की तलाशी ले लेते. मर्दों को शक में पकड़ कैम्प में भिजवा देते, औरतों से पूछते,‘बताओ भगोड़े बदमाश कहां छिपे हैं?’ और उन्हें बांह से घसीट कर अरहर के खेतों में ले जाते. शान्ति कायम करने के लिए पुलिस की इन हरक़तों के ख़िलाफ़ यदि किसी देहाती के माथे पर बल दिखाई देते तो उसे पेड़ से बांध कर उसके सारे शरीर के बाल झाड़ दिए जाते.
पुलिस अनुभव कर रही थी कि वह वास्तव में राज कर रही है. बदमाशों की खोज-ख़बर लगाने का काम सरकार की दृष्टि में सब से महत्वपूर्ण था. कटौना का थाना फूंकने वालों का पता लगाने के लिए उबेद को मोहरसिंह के साथ ड्यूटी पर लगाया. रघुनाथ पांडे छ: मास से फरार था. उबेद ने साधु का भेष बनाया और काशी जी में फिरता रहा. वह हाथ देख कर भाग्य बताता, रमल बताता और बात-बात में राज-पलट होने, नये राजा, तालुकदार बनने और ताम्बे का सोना बनाने की बातें करता. इसी तरह बातों-बातों में उसने रघुनाथ पांडे को खोज निकाला और गिरफ़्तार करवा दिया.
देश में शान्ति स्थापित हो गई. उबेद आगरा लौट आया और उसकी कारगुजारी के इनाम में उसे हेड कांस्टेबिल का ओहदा मिला. आगरे में भी उसे सियासी फरारों की तलाश के काम पर लगाया गया. यहां उसने कुछ दिन इक्का हांक कर, फरार निर्मल चन्द को गिरफ़्तार करा दिया. उसे पूरा भरोसा था कि जल्दी ही सब-इन्सपेक्टरी मिल जाएगी.
मुल्क़ में अमनो-आमान कायम हो गया था पर जाने अंगरेज़ों को क्या सूझा कि उन्होंने सरकार का काम कांग्रेस वालों को सौंप दिया. अफ़वाहें उड़ रही थीं कि सब जेल जाने वाले ही अफ़सर बनेंगे और अंग्रेज़ सरकार से बअदारी निभाने बालों से बदले लिए जायेंगे. कुछ दिनों में ही इतना परिवर्तन हो गया कि जो गांधी टोपी छिपती फिरती थी, अब अकड़ कर मोटर पर सवार थाने में पहुंचने लगी. लाल पगड़ी को उसके सामने झुक कर सलाम करना पड़ता. अंगरेज़ सरकार के समय जिन अफ़सरों का मान था वे अब घबरा रहे थे. पुरानी सरकार के प्रति वफादारी नयी सरकार की निगाह में गद्दारी थी. उबेदुल्ला सोचता था-यह अल्लाह ने क्या किया?’ पुलिस के बड़े मुसलमान अफ़सर, सैयद इम्तियाज़ अहमद और दूसरे साहबान, तुर्की टोपी की जगह किश्तीनुमा टोपियां पहनने लगे, और फिर गांधी टोपी. वे अपने से नीचे ओहदे के सहमे हुए लोगों को समझाते,‘अपना फ़र्ज हे हाकिमेवक़्त का वफादार रहना. सियासियत से हमें क्या मतलब?’
उबेदुल्ला मन ही मन सोचता कि बेइज्जत होकर बर्खास्त होने से बेहतर है कि बाइज्जत रह ख़ुद इस्तीफा दे दे. इस नयी सरकार को उसकी ज़रूरत क्या? ख़ास कर सियासी खुफिया पुलिस की उसे क्या ज़रूरत ‘जब रिआया का अपना राज हो गया तो लोग ख़ुद ही कानून बनायेंगे और उन्हें मानेंगे. कौन बगावत करेगा, जिसे हम पकड़ेंगे? यह जनता की सरकार हमें क्यों पालेगी?’
सरकारी नौकरों और पुलिसों को अपनी मर्जी, से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में बंट जाने का मौक़ा दिया गया. उबेद ने सोचा कि इस हिन्दू राज से पाकिस्तान ही चला जाय. बड़े-बड़े मुसलमान अफ़सर भी ऐसी ही बातें कर रहे थे. पुलिस में मुसलमान ही ज्यादा थे. सब पुलिस अगर पाकिस्तान ही पहुंच जाय तो रिआया से ज्यादा तो पुलिस ही हो जायेगी. बह घबरा रहा था. जिन लोगों की चौकसी कर वह डायरी लिखा करता था, वे लोग अब सरकारी परमिट लाकर बड़े-बड़े कारोबार कर रहे थे. जब तक बड़े लाट लोग अंग्रेज़ थे, कुछ धीरज था. उम्मीद थी कि शायद फिर दिन फिरें. एक बार पहले भी कांग्रेस सरकार हुई थी, और चली गई. लीग वाले भी ज़ोर बांध रहे थे. लेकिन अगस्त1947 में जब लाट भी कांग्रेसी बन गए, तो वह धीरज भी जाता रहा. वह देखता रहता था कि सैयद साहब अब इस या उस कांग्रेसी नेता के यहां मिलने आते-जाते रहते थे और प्राय: जिक्र करते रहते थे, कि उनके मरहम वालिद साहब मौलाना शौकत-अली और मुहम्मदअली के जिगरी दोस्त थे, और ख़िलाफ़त तथा कांग्रेस में काम करते रहे हैं. वे तो एक बार लखनऊ भी हो आए थे. उबेद सोचता,‘ये तो खानदानी और बड़े आदमी हैं. पहले रसूख के ज़ोर पर ओहदे पर चढ़ गए अब भी इनका गुज़ारा हो जाएगा. अंग्रेज़ी सरकार के ज़माने में इन्होंने मुसाहबियत के सिवा किया क्या है? लेकिन हमने तो ईमानदारी और नमक हलाली निभाई है. ‘ऊपर के दफ्तरों में रिकार्ड’ देखे जा रहे होंगे और बर्खास्ती का हुक्म आया ही चाहता है.’
अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान का शासन कांग्रेस और लीग को ऐसे समय में सौंपा जब युद्ध के बोझ के कारण देश की आर्थिक अवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी. कीमतें चौगुनी चढ़ गई थीं. मुनाफे के लोभ में व्यापारियों ने बाजारों को समेट कर गोदामों में बन्द कर लिया था. सरकार राष्ट्र-निर्माण करना चाहती थी. जनता रोटी मांग रही थी. व्यवसायी लोग दाम नीचे न गिरने देने के लिए माल को तैयारी कम कर रहे थे. जो माल बनता, उसे सरकारी कीमत की मोहर लगवाये बिना चोर-बाज़ार में खींच लेते! मज़दूर अपनी मज़दूरी से पेट न भर पाने के कारण मज़दूरी बढ़ाने की मांग कर रहे थे. मज़दूरी न बढ़ने पर मज़दूर हड़ताल की धमकी दे रहे थे. सरकार हड़ताल को राष्ट्र के लिए घातक समझ रही थी. हड़ताल-विरोधी क़ानून बना दिए गए.
इस पर भी हड़तालें न रुकीं. सरकार कम्युानिस्टों को हड़ताल के लिए ज़िम्मेवार समझ, गिफ्तार करने लगी. कम्युनिस्ट लोग कांग्रेस और अंग्रेजों की लड़ाई परंपरा के अनुसार स्वयं बिस्तर लेकर थाने में पहुंच आने के बजाय फरार होकर, अपना आन्दोलन चलाने लगे. कम्युनिस्ट नेताओं को गिरफ़्तार करना सरकार के लिए एक समस्या हो गई. मि चक्रवर्ती अंग्रेज़ सरकार के जमाने में आतंकवादी लोगों के पडयंत्रों की खोज-ख़बर लगाने और उन्हें गिरफ़्तार करने में काफ़ी कीर्ति कमा चुके थे. नयी सरकार ने उन्हें गुप्तचर विभाग का डी. आई. जी. बनाकर यह काम सौंपा. मि चक्रवर्ती ने ऐसे पडयंत्रों और अपराधियों को पकड़ने की रसायनिक विधि का उपयोग किया.
जैसे कूजे की मिस्री बनाने के लिए मिस्री की एक डली को चाश्नी में लटका देने से चीनी के कण जल से सिमिट कर एक जगह जम जाते हैं, और उन्हें बाहर कर लिया जाता है, वैसे ही उन्होंने अशान्ति की बात धीमे-धीमे करने वाले अपने आदमियों को जनता में छोड़ शरारती लोगों को इकट्ठा कर लेने का उपाय सोच निकाला.
अंग्रेज़ अफसरों के नौकरी छोड़ विलायत चले जाने के कारण, सैयद साहब को डी. एस. पी. की जगह मिल गई थी. उबेद को सैयद साहब के यहां हाजिरी का हुक्म आया. उसे मालूम हुआ कि पिछली कारगुजारी की बुनियाद पर उसे स्पेशल ड्यूटी के लिए चुना गया है. दो काम-ख़ास थे-एक तो पाकिस्तानी एजेंटों का पता लगाना और दूसरा मज़दूरी में बदअमनी फैलाने वाले कम्युनिस्टों की खोज. उबेद को धीरज हुआ. सरकार चाहे जो हो, इन्तजाम और निजाम तो रहेगा ही. वह फालतू नहीं हो गया. लेकिन अपने बिरादराने-दीन को वह पकड़ेगा उसने मन को समझाया,‘मजहब और सियासियात अलग अलग चीजें है. हाकिमे वक़्त से वफादारी भी तो अल्लाह का हुक्म है. मजहब अपनी जगह है, मुल्क़ अपनी जगह. ईरानी और तुर्क, दोनों मुसलमान हैं लेकिन अपने-अपने मुल्क़ के लिए उनमें जंग होती रही है.’ फिर भी उसने कोशिश की कि हड़तालियों की पड़ताल पर ड्यूटी रहे तो अच्छा है. ऐसे आदमियों के ख़िलाफ़ उबेद को स्वयं ही क्रोध था. ग़रीब भले आदमी यों ही कपड़े के बिना मरे जा रहे है, ये बेईमान हड़ताल करके और कपड़ा नहीं बनने देंगे. शहर में बिजली, पानी बन्द करके दुनिया को मार देना चाहते हैं. ऐसे कमीनों का तो यह इलाज ही है कि जूते लगायें और काम लें! कमीने लोग कभी ख़ुशी से काम करते हैं? उसका तो इलाज ही डंडा है.
उबेद को फरार कम्युनिस्टों और मज़दूरों में असंतोष फैलाने वाले उपद्रवी लोगों का पता लगाने के लिए कानपुर में नियुक्त किया गया. खुफिया पुलिस के महकमे में उसका नाम सब इंस्पेक्टरों में था. लेकिन वह मैले कपड़े और दुपल्ली टोपी पहने, रोजगार की तलाश में कानपुर के बाज़ारों में घूम रहा था. कुछ रोज उसने एक मिल के इंजन रूम में खलासी का काम किया और फिर आयलमैन हो गया.
सरकार चाहती थी कि हड़ताल किसी तरह न हो इसलिए शहर में दफा 144 लगी हुई थी. हुक्म था कि जलसा न हो, जुलूस न निकले. कांग्रेस के नेता कलक्टर साहब की इजाजत से सब-कुछ कर सकते थे. मनाही थी सिर्फ़ मज़दूरों को भड़काने वाले लोगों के लिए जिनसे सरकार को हड़ताल और शान्ति-भंग का अंदेशा था. फिर भी बस्तियों में, पुरवों में मकान की दीवारों पर, सड़कों पर, चूने से, कोयले से और गेरू से मज़दूरों के नारे लिखे दिखाई देते,‘चोर बाज़ारी बन्द करो! मुनाफाखोरों को फांसी दो! मज़दूरों को मंहगाई भत्ता दो! रोजी-रोटी दो! बिजली पानी लो! जालिम कानून हटाओ! मज़दूर नेताओं को छोड़ो!’
उबेदुल्ला कान खोल कर मज़दूरों में फैलती अफवाहें सुनता रहता-महंगाई के लिए हड़ताल ज़रूर होगी, मीटिंग में बात पक्की हो गई है. कल रात मीटिंग में लीडर आए थे. स्वदेशी वाले, म्योर वाले, जर्टन वाले सब तैयार है. देखें कौन रोकता है? उबेद मिल में शाहिद के नाम से भरती हुआ था. वह इन बातों में बहुत उत्साह दिखाता, मज़दूरों की टोलियों में खूब ऊंचे नारे लगाता. वह सोचता कि गुप- चुप होने वाली मीटिंगों में जा पाए तो असली भेद पाये और फरार नेताओं का सुराग मिले. जाहिर है ऐसे नारे लगा कर भी वह मन में सोचता,‘कमीनों का दिमाग़ कैसा फिर गया है. अंग्रेज़ के बराबर कुर्सी पर बैठने वाले, इतने बड़े-बड़े नेताओं की सरकार पलट कर अपनी सरकार बनायेंगे. शरीफ अमीर आदमियों का राज उखाड़ कर कोरियों, पासियों, भंगियों और मज़दूरों का राज बनेगा? कैसी बदमाशी की साजिश है. कहते हैं, मज़दूर की कमेटियां मिलें चलायेगी. मालिक महंगाई बनाये रखने के लिए दो तिहाई मिलें बन्द किए हुए हैं. इन लोगों की चल जाय तो दुनिया पलट जाय? ये लोग छिपे- छिपे कितना ज़ोर बांध रहे हैं. इनके सैंतालीस नेता फरार हैं. सब कानपुर में है और पता नहीं चलता. पिछली बातों से ख़तरा और भी बढ़ गया था. इनका एक बड़ा नेता गिरफ़्तार हुआ था तो पिस्तौल कारतूस भी बरामद हुए थे. पिस्तौल पसली पर रख कर पिट से कर दें इनका क्या भरोसा है. वह अपनी डायरी देने थाने न जाकर, कर्नेंलगंज में रहने वाले एक खुफिया इंस्पेक्टर के यहां जाता था.
यों तो उबेद का सब इंस्पेक्टरी की तनखाह, ड्यूटी का भत्ता और शाहिद आयलमैन की मज़दूरी भी मिल रही थी लेकिन मुसीबत कितनी थी! सिर्फ़ आयलमैन की मज़दूरी में ही गुज़ारा करना पड़ता. बह आराम के लिए पैसा खर्च करता तो साथ के लोगों को शक हो जाता. चार महीने बीत गए. वह अपनी तनख्वाह लेने भी न जा सका. वह सरकार के खजाने में जमा हो रही थी. सचमुच बुरा हाल था. पेट भी ठीक से नहीं भरता था. चबैना और मूंगफली खाते-खाते खुश्की से दिमाग चकराने लगता था. साफ कपड़े पहनने के लिए जी तरस जाता. वह मज़दूरों की बाबत सोचता, ‘कमीनों का यह तो हाल है कि रोटियों को तरसते हैं और करेंगे राज! कमबख्तों का यही तो इलाज है कि खाने को न दे और जूतियां मार-मार कर काम ले. हमेशा से कायदा ही यह रहा है.’ वह अपनी ड्य़ूटी की सख्ती से परेशान था. इतनी मुसीबत अंग्रेज़ के जमाने में कमी न हुई थी.
एक दिन हद हो गई. शाम के वक़्त वह थक कर दीवार की कुनिया से पीठ लगा बैठ गया था. इंजीनियर साहब आ रहे थे. वह देख न पाया इसलिए उठ कर खड़ा न हुआ. इंजीनियर साहब ने उसे ठोकर मार कर गाली दी. उबेदुल्ला ने बड़ी मुश्किल से अपना हाथ रोका. मन में तो कहा,‘बेटा, न हुआ मैं बाहर, नहीं तो हथकड़ी लगवा कर थाने ले जाता और सब शेखी झाडू देता? क्या समझते हो अपने आपको दूसरे जैसे आदमी ही नहीं हैं.’ फिर गम खा गया कि बहुत बड़े काम के लिए वह यह सब बर्दाश्त कर रहा है.
रात में दूसरे मज़दूरों के साथ दर्शनपुरवा की एक कोठरी में लेटा लेटा वह सोचने लगा. ‘कम-से-कम मार-पीट, गाली-गलौज तो न होनी चाहिए. मज़दूरों में सब कमीने लोग थोड़े ही हैं. और फिर यहां पैसा लेकर मज़दूरी करते है, अपने घर चाहे जो हो.’ उसे अपने दो भाइयों की बात याद आ गई. एक अहमदाबाद में और दूसरा रतलाम में मज़दूरी करने चला गया था. इसी सिलसिले में वह यह भी सोचने लगा, कि कम-से-कम पेट भरने लायक मज़दूरी तो मिले! जब सरकार अपनी है, तो उसे हालत ठीक से मालूम होनी चाहिए. मज़दूरों की भी सुनी जाय.
मिल के साथी मज़दूरों को शाहिद पर विश्वास हो जाने से उसे हाथ की लिखाई में पर्चे पढ़ने को मिलने लगे. इन पर्चों पर प्रेस का नाम नहीं रहता था. इन पर्चों में सरकार के ख़िलाफ़ सरकशी की बातें और जंग का एलान रहता’…. जो सरकार मुनाफाखोरी, चोर बाजारी के हकों को जायज समझती है, उसके राज में मेहनत करने वाली जनता ‘कभी सुखी नहीं हो सकती. व्यापार के नाम पर मुनाफे की लूट केवल किसानों और मज़दूरों के राज में ख़त्म हो सकती है, जब पैदावार मुनाफे के लिए नहीं, जनता की ज़रूरतें पूरी करने के लिए की जाएगी. यह पूंजीपतियों का राज जनता का स्वराज्य नहीं, बल्कि सिर्फ़ हिन्दुस्तानी और विदेशी मुनाफाखोरों का समझौता है. मेहनत करने वालों का स्वराज्य केवल मेहनत करने वालों की अपनी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, ही कायम कर सकती है. कम्युनिस्ट पार्टी मेहनत करने वाली जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए इस सरमायादारी हुकूमत के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान करती है. आप लोग अपने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए व्यक्तिगत और सुसंगठित तौर पर लड़ने के लिए तैयार हो जाइये. पुलिस के दमन का मुकाबिला कीजिए. अपने गली, मुहल्लों और अहातों में पुलिस राज समाप्त करके, मेहनत करने वाली जनता का राज कायम कीजिए. आदि आदि. उबेद यह खुली बगावत देख सिहर उठता. दुलीचन्द्र ऐसे पर्चे शाहिद को पढ़ाकर वापस ले लेता था. शाहिद पर्चों को दो बार, तीन बार पढ़कर शब्दों को याद कर लेने की कोशिश करता ताकि बिलकुल सही-सही रिपोर्ट दे सके. अकेले में मन-ही-मन उन्हें दोहराता रहता.
मन-ही-मन वह सोचता,‘कितनी खुली बगावत है.’ और साथ ही यह भी सोचता, इन मज़दूरों के ख़्याल से बातें भी सही है. लाखों लोग तो इसी हालत में है. उसने एक राज फिसल कर दूसरा राज आता देखा था. वह सोचने लगता,‘क्या तीसरा राज आएगा?’ जैसे इन दोनों राजों में वह एक ही काम करता आया है, वैसे ही वह करता चला जायगा? तब उसे गल्ले और कपड़े के गोदाम छिपाने वालों का पता लगाना होगा, ऐसे आदमियों की पड़ताल करनी होगी जो रिआया को भूखी और नंगी रखते हैं. ऐसे विचारों से कर्नैलगंज में इंस्पेक्टर साहब के यहां रिपोर्ट लिखाने जाने का उत्साह फीका पड़ने लगा. अब उसे अपना काम बहुत कठिन जान पड़ने लगा. लेकिन बह बड़ी होशियारी से आंख बचा कर. अपनी रिपोर्ट पहुंचाता रहा. बह सरकार का नमक खा रहा था और ख़ुदा के रूबरू हाकिमेवक़्त का नौकर था.
एक दिन दुलीचन्द ने उससे कहा,फपाल्टी के मेम्बर क्यों नहीं वन जाते?’
उबेद मन-ही-मन सिहर उठा. लेकिन प्रकट में कहा,‘बन जायेंगे.’ मन में उसने सोचा कि पार्टी के मेम्बर बन जाने पर ही उसे भीतरी षड्यंत्र का पता चलेगा. दूसरा ख़्याल आया कि यह तो अपने ऊपर एतबार करने वालों के साथ दगा होगी. उबेद मन-ही-मन बहुत परेशान हुआ. पार्टी का मेम्बर बनने से इनकार करे तो फ़र्ज में कोताही और ख़ुदा के रूबरू अपनी सरकार से दगा है और पार्टी का मेम्बर बन कर उसका राज दूसरों को दे तो ग़रीब साथियों और ख़ुदा की खल्क के साथ दगा है. उसने अपने मन को समझाया कि औवल तो वह सरकार का ही नमक खा रहा है और ख़ुदा ने सरकार को रुतबा दिया है. वह ख़ुदा के इन्साफ में क्यों शक करे? उबेद तो परेशानी में था लेकिन दुलीचन्द को शाहिद जैसे समझदार, पक्के और जोशीले साथी को पार्टी का मेम्बर बनाने की धुन सवार थी. उसने उसे पार्टी का कार्ड दिलवा दिया और एक रात उसे पक्के साथियों की मीटिंग में ले गया. मीटिंग में पन्द्रह-बीस साथी थे, दूसरी-दूसरी मिलों के कामरेड लीडर बता रहे थे – ‘हड़ताल के मतलब होते हैं, मालिकों की हुकूमत के ख़िलाफ़ मज़दूरों के मोर्चे को मजबूत करना. मज़दूरों का मोर्चा सिर्फ़ पार्टी के मेम्बरों का मोर्चा नहीं है. मज़दूरों का मोर्चा तमाम मेहनत करने वाली जनता का मोर्चा है. पार्टी के मेम्बर इस मोर्चे में राह दिखाते हैं. वे मोर्चे के मालिक नहीं हैं. जो लोग बाबू लोगों से, जमादारों से, पुलिस वालों से अपनी दुश्मनी समझते हैं वे ग़लती पर हैं और मज़दूरों के मोर्चे को नुक़सान पहुंचाते हैं. हमारे दुश्मन सिर्फ़ वे लोग हैं जो जनता की मेहनत को लूटना अपना हक समझते हैं. तबके सिर्फ़ दो हैं. एक लूटने वाला और दूसरा लुटा जाने वाला. नौकर सब लुटने वाले तबके से हैं. फ़र्क इतना है कि वे लोग अपनी बिरादरी और समाज को न पहचान कर लूटनो वालों के हाथ बिके हुए हैं. उनकी किस्मत मालिकों के हाथ का खेल है. हमारा मोर्चा मार-पीट, ज़ोर-जुल्म का मोर्चा नहीं है. यह मोर्चा पक्के इरादे से अपने हक़ को पाने का मोर्चा है.’
कामरेड लीडर के चेहरे पर बड़ी हुई मूंछें और कतरी हुई दाढ़ी के बावजूद इंसपेक्टर साहब से मालूम हुए हुलिए से उबेद पहचान गया था कि यह फरार लीडर कामरेड नाथ है. फ़र्ज पूरा करने के लिए उसने इस मीटिंग की ओर नाथ के बदले हुए हुलिए की रिपोर्ट भी इंसपेक्टर साहब के यहां पहुंचा दी. इसके बाद वह दो और मीटिंगों में भी गया. बड़ी भारी मुकम्मल हड़ताल की तैयारी के लिए गुप्त मीटिंगें बार-बार हो रही थी. इंसपेक्टर साहब का हुक्म था कि ऐसी मीटिंग का समय और स्थान मालूम कर, उबेद वक़्त रहते उन्हें ख़बर दे लेकिन उबेद को मीटिंग का पता ऐसे समय लगता कि ख़बर दे आने का मौक़ा ही न रहता. पांचवीं गुप्त मीटिंग हड़ताल के लिए आखिरी बातें तय करने के लिए की जानी थी. मिल से छुट्टी होते ही शाहिद को कहा गया कि ग्वालटोली के चार साथियों, प्यारे, नोतन, लेह. और नब्बन को ख़बर दे आए. ग्वाल टोली जाते हुए उबेद कर्नैलगंज में ख़बर देता गया. इस बात के नतीजे से वह ख़ुद घबरा रहा था. लेकिन ख़ुदा के रूबरू वह अपने फ़र्ज से कोताही कैसे करता? इस मानसिक परेशानी में वह बार-बार अल्लाह को गुहराता कि वही उसकी मदद करे, उसे गुमराह होने से बचाए.
एक हरीकेन लालटेन की रोशनी थी. अलगनियों पर कपड़े और धर का सामान लाद कर सब लोगों के बैठने के लिए जगह बनाई गई थी. कानपुर के एक लाख मज़दूरों और शहर के करोड़पतियों और सरकार में जंग का फैसला हो रहा था-पिकेटिंग के समय कौन लोग देख-भाल करेंगे, लाठी चार्ज होने पर क्या किया जाय? गैरकानूनी जुलूस निकला जाय या नहीं? दूसरे मज़दूरों के दिल से ख़तरा दूर करने के लिए कौन लोग पहले मार खायें और गिरफ़्तार हों? ख़याल रखा जाए कि इधर से लोग भड़क कर ईंट पत्थर चलाकर पुलिस को गोली चलाने का मौक़ा न दें.
आधी रात के समय मीटिंग हो रही थी. तीन लीडर आए हुए थे. हड़ताल के लिए कामरेड नाथ आखिरी बातें समझा रहे थे.
उबेद के कानों में सांय सांय हो रहा था. उसका कलेजा धकधक कर रहा था. वह लगातार बीड़ी पर बीड़ी सुलगा रहा था. दूसरे कई लोग भी बीड़ी पी रहे थे. लीडर कामरेड मौलाना ने भूरी आंखें निकाल, डांट कर कहा,‘बीड़ी बुझा दो सब लोग. क्या बेवकूफी करते हो? देखते नहीं हो, दम घुट रहा है? तुम लोग क्या जंग लड़ोगे, जो एक घंटे तक बिना बीड़ी के नहीं रह सकते.’
उबेद बीड़ी फर्श पर दवा कर बुझा रहा था. दूसरे लोगों ने भी बीड़ी बुझा दी. उसी समय पड़ोस से ऊंची पुकार सुनाई दी,‘भूरे ओ भूरे!’
मौलाना की पीठ तन गई. ‘पुलिस आ गई!’ उन्होंने कहा. वे तुरन्त कागज़ समेटने लगे, और बोले,‘जगन कामरेडों को निकाल दो. मोती दरवाज़े पर डट जाओ, भीतर न आने देना.’
गड़बड़ मच गई. शाहिद का दिल और भी ज़ोर से धड़कने लगा. दस सेकिंड भी नहीं गुज़रे थे कि दरवाज़े पर से धमकी सुनाई दी,‘दरवाज़े खोलो. तोड़ दो दरवाजा.’ पिस्तौल की दो गोलियां चलने की भी आवाज़ सुनाई दी. सादे कपड़े पहने पुलिस थी. पुलिस और मज़दूरों में हाथापाई हो रही थी. तीन गोलियां और चलीं. वर्दी वाली पुलिस भी आ गई.
बारह आदमी गिरफ़्तार हो गए. दुलीचन्द के घुटने में और नब्वन की बांह के डौले में गोली लगी थी. दूसरे लोगों को भी चोटें आई थीं. तीनों लीडर कामरेड निकाल दिए गए थे. पुलिस के लोगों में शाहिद को कोई भी नहीं पहचानता था. उसने भागने की कोशिश भी नहीं की. वह भी गिरफ़्तार हो गया. मुहल्ले के बाहर चार पुलिस लारियां खड़ी थी. तीन-तीन गिरफ्तारों को पुलिस के साथ इनमें बन्द किया गया, और बड़ी कोतवाली पहुंच गए. सब लोगों को अलग-अलग बन्द कर दिया गया.
अगले दिन चौथे पहर कर्नैलगंज वाले इंस्पैक्टर साहब और उन से बड़े अफ़सर आए. उन लोगों ने उबेदुल्ला की कारगुजारी की तारीफ़ की. उन्होंने कहा,‘बड़े बड़े मच्छ तो जाल तोड़ कर निकल गए. कितने बदमाश हैं ये लोग. फिर भी इनके बारह ख़ास आदमी हाथ आ गए हैं. फिलहाल इनकी यह हड़ताल तो न हो सकेगी.’
उन्होंने उबेदुल्ला को समझाया-इन बदमाशों पर मामला चलाया जायगा कि इन्होंने सर अन्जाम में पुलिस के काम में अड़चन डाली, पुलिस से मारपीट की, एक दारोगा और चार कांस्टेबिल को जख्मी किया. लेकिन गवाही सब पुलिस की ही है इसलिए उबेद को सरकारी गवाह बनना पड़ेगा. पन्द्रह बीस दिन की ही तो बात है. जेल में सब आराम का इन्तजाम हो जायगा. घबड़ाने की कोई बात नहीं है. कल उन सब लोगों को जेल की हवालात में भेज दिया जायगा. उबेद के लिए जेल में अलग इन्तजाम हो जायगा, दो-एक रोज़ में बयान तैयार हो जायगा, और उबेद को वह बयान मैजिस्ट्रेट के सामने देना होगा. बड़े साहब ने कहा है कि इस मामले से छूटने पर उबेद को किसी थाने का इन्चार्ज बना कर पच्छिम में भेज देंगे.
सब गिरफ़्तार दंगाइयों को पुलिस से फौजदारी करने की दफ़ा में मुलजिम बनाकर जेल हवालात में भेज दिया गया. उबेद भी जेल भेज दिया गया. लेकिन उसे अलग कोठरी में रखा गया. उस पर ख़ास वार्डर की ड्यूटी थी कि उससे कोई मिलने न पाए. सिर्फ़ पानी देने वाला, खाना पहुंचाने वाला, अस्पताल की कमान के कैदी और भंगी उसकी कोठरी में आते जाते थे. इन्हीं में से कोई उसे ख़बर दे गया कि उसके बाकी साथी कह रहे है, कि शाहिद को भी उनके साथ रखा जाय और उसे साथ न रखा जाने पर भूख हड़ताल की तैयारी है.
उबेद परेशान था कि क्या करे. उसने कितने ही मुश्किल काम किए थे लेकिन ऐसी मुसीबत कमी न आई थी. कचहरी में खड़े होकर वह इन लोगों के ख़िलाफ़ बयान कैसे देगा? कैसी कैसी गालियां वे लोग इसे देंगे और फिर जेल वे लोग किस बात के लिए जा रहे है?
तीसरे दिन उसकी कोठरी में आने जाने वाले कैदियों की आंख बदली हुई दिखाई दी. उस पर ड्यूटी देने वाले जमादार की आंख बचाकर, एक गैर-पहचाना कैदी उसे गाली देकर और उसकी ओर थूक कर कह गया,‘साला मुखबिर है.’
उसी दिन शाम को मजिस्ट्रेट उसका बयान कलमबन्द करने के लिए आए. मजिस्ट्रेट ने उससे कहा,‘ख़ुदा को हाजिर-नाजिर जान कर हलफिया सच बयान दो.’
शाहिद ने होंठ दबा लिए.
मैजिस्ट्रेट ने पूछा,‘तुम्हारा नाम शाहिद है? वालिद का नाम?’
शाहिद चुप रहा.
मजिस्ट्रेट ने धमकाया,‘बोलते क्यों नहीं?’
साथ खड़े सी. आई. डी. के इंसपेक्टर साहब ने भी कहा,‘बयान दो अपना.’
शाहिद ने जबाव दिया,‘मेरा नाम शाहिद नहीं, मैं ख़ुदा को रूबरू जान कर हलफिया झूठ नहीं बोल सकता.’
मैजिस्ट्रेट ने आश्चर्य से अंग्रेज़ी में कहा,‘यह क्या तमाशा है.’
सी. आई. डी. के इंस्पेक्टर ने उबेद को समझाया,‘अरे इस में क्या है यह तो जाब्ते की बात है. कचहरी में ख़ुदा थोड़े ही हाजिर हो सकते है, इसमें क्या रखा है?’
उबेद ने हकलाते हुए कहा,‘हजूर नौकरी करता हूं, जान दे कर सरकार का नमक हलाल कर सकता हूं. पर ईमान नहीं बेच सकता. उसने छत की तरफ़ हाथ उठाया. वह दुनिया भी तो है.’
मजिस्ट्रेट साहब ने इंसपेक्टर साहब को डांट दिया,‘यह सब क्या फरेब है? मैं ऐसा बयान नहीं लिख सकता. मुझे रिपोर्ट में यह सब लिखना होगा.’
इस परेशानी में बयान न लिखा जा सका.
अगले दिन उसे समझाने के लिए दूसरे अफ़सर आए. बोले,‘ऐसी नमक-हरामी, गद्दारी करोगे तो सात बरस की नौकरी कार गुजारी, सरकार के यहां जमा तनख़्वाह तो जब्त होगी ही साथ ही सरकार की नौकरी में रह कर बगावत करने के जुर्म में फांसी, काले पानी की सजा तक हो सकती है.’
उबेद ने जबाब दिया,‘सरकार मालिक है. मैंने गद्दारी नहीं की है…. नहीं की, लेकिन ख़ुदा के रूबरू दरोगहलफी करके आकबत नहीं बिगाड़ सकता. यहां आप मालिक है, वहां वो मालिक है…’
उबेदुल्ला का मामला आई. जी. साहब के यहां गया हुआ था. इसी बीच दूसरे ग्यारह आदमियों पर पुलिस से फौजदारी करने का मामला चल रहा था. पुलिस ही मुद्दई थी और पुलिस ही गवाह.
गवाही माकूल नहीं थी. मामला गिर जाने की आशा थी. मुलजिम लारियों में नारे लगाते हुए अदालत आते जाते ये. मुलजिम के वकील बार-बार शाहिद को अदालत में पेश करने की दरखास्तें दे रहे थे.
पुलिस की तरफ़ से जवाब था कि शाहिद पर से यह फौजदारी का मामला हटा लिया गया है. वह दूसरे मामले में मरूफ़र था. उसकी तहक़ीक़ात अलग से हो रही है.
मज़दूरों को विश्वास था कि कामरेड शाहिद को सरकारी गवाह बनाने के लिए पीटा गया है लेकिन उसने अपने साथियों से गद्दारी करना मंजूर नहीं किया. पुलिस उसे परेशान कर रही है. वे नारे लगाते थे-कामरेड शाहिद ज़िंदाबाद! कामरेड शाहिद को रिहा करो’
जेल वालों की चौकसी के बावजूद यह ख़बर भी उबेद तक पहुंची.
उसकी आंखें ख़ुशी से चमक उठी. उसने अल्लाह को याद कर, दुआ के लिए हाथ फैलाकर कहा,‘या ख़ुदा शुक्र तेरा! एक बार तो तेरे नाम ने ज़िंदगी में मदद की! यही बहुत है!’

Illustration: Pinterest

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