भागती दुनिया में चिठ्ठियां अब शायद ही कोई भेजता हो. वैसे भी जब सूचना लाइव भेजी जा सकती हो तो स्नेल मेल कहलानेवाली चिट्ठियों की भला क्या ज़रूरत? पर कोरोना के लॉकडाउन ने दुनिया की रफ़्तार को ठहरा दिया था. जब समय ठहर गया तो दादी की चिठ्ठियों और उन चिठ्ठियों के अपने घर यानी लेटरबॉक्स ने बीते दौर की कहानी सुना डाली.
आज सभी कहते हैं कि समय ठहर गया है. हम घर की चार-दीवारी में क़ैद हो गए हैं. बाहर से अंदर, और अंदर से बाहर जाने वाले थम गए हैं. घर से बाहर जाने पर भय है, संचय मंडराता है. इसीलिए मुख्य द्वार के खुलने की आहट नहीं होती. लिफ़्ट में लगे चैनल-डोर के खुलने-बंद होने की खटपट भी नहीं सुनाई देती.
पहले घरों में प्रवेश करने के लिए एक मुख्य द्वार होता था. एक मोटा बबूल-रोहिड़े की लकड़ी पर बनी कलाकृतियां वाला दो पल्ले का भारी-सा दरवाज़ा होता था. उसे बंद रखने के लिए एक कुंडी/सांकल दरवाज़े के ऊपर और नीचे लगी होती थी. उस कुंडी/सांकल पर कभी ताला नहीं जड़ा जाता था. एक न एक सदस्य घर पर अवश्य रहता था. ताऊ-ताई, चाचा-चाची, पिताजी-माता, दादा-दादी, और बहुत सारे नन्हे-मुन्ने स्कूल से लौट कर आंगन में, नीम और आम के पेड़ के नीचे खेला-कूदा करते थे. मां तथा दादी के हाथ की चूल्हे पर सिकी फूली हुए रोटी और उबलती हुई पकौड़ीवाली कढ़ी खाने को मिलती थी. घड़े का शीतल जल गले को तर कर देता था. तब कभी समय नहीं ठहरा था. तब कोई क़ैद नहीं होता था. घर की चौखट लांघ कर काम पर जाते भी थे तो सांझ से पूर्व घर लौटकर आंगन या बरामदे में पड़े दीवान या तखत पर बैठ कर बच्चों से बतियाते थे. बुज़ुर्गों से अपनी और उनकी बातें किया करते थे.
मेरी दादी जानी-मानी लेखिका तो नहीं थी पर वह लिखा करती थी. लिखकर वह अपने पर्चों को संदूकची में रखे कपड़ों के नीच रख देती थी. उसने पहले पेंसिल और बाद में स्याही की दवात में निब वाल पेन डुबोकर लिखना जारी रखा. मेरे शहरी घर में ऊपर बने अनयूज़्ड आइट्मस भरे स्टोर रूम में दादी के निमित्त एक आले में वो संदूकची आज भी मेरी आंखों में सजीव हो उठती है. उनके समय की ज़िंदगी पर सोचने लगा मैं जब दादी ख़ूब बातें बताती थी.
स्कूटर, कार या मोटर साइकिल किसी दरोगा या ग्राम पंचायत के तहसीलदार या सरकारी अधिकारी के पास होती थी जिससे वे अपनी हैसियत दिखाया करते थे. तब के आम आदमी के पास तो दो पहियों की साइकिल होना भी बड़े घर की बात होती थी. उस पर वो अपने गांव से पास के छोटे-से शहर का चक्कर भी लगा आया करता था. लोग एक दूसरे से बतियाते थे. मुसाफ़िर को रास्ता तो रास्ता उसे गंतव्य स्थान तक पहुंचा आते थे. तब भी समय नहीं रुका था.
मां साड़ी के पल्ले में रुपए-पैसे की अंठी लगाए रखती थी जो आज के किसी एटीएम से कम नहीं होती थी . पिताजी की पैंट और कमीज की जेब में खुल्ले रुपए पैसे भी सुरक्षित रहा करते थे. दादी की चारपाही के सिरहाने और दादाजी की तिजोरी में बच्चों की जन्म कुंडली के साथ नोट बंधे होते थे. तब के रुपए में ताज़गी, पाने की ललक होती थी. रुपए का मोल था. सोना-चांदी और खेत ही जमा पूंजी होते थे. पहले रुपया और सिक्का दोनों चलते थे तो समय कहां और कैसे रुक सकता था?
दादी की संदूकची में उसकी दुर्लभ जमा की हुई एक-एक चीज़ें रखीं हुई हैं. उसकी बूढ़ी मगर चमकती गोल-गोल आंखों पर काले रंग और मोटे फ्रेम की ऐनक, रामायाण, गीता, चाणक्य, कई सारी आरती और हवन कराने की विधियों वाली पुस्तिकाएं जो पीले पन्नों में तब्दील हो चुकी हैं. बहुत सारी छोटी-बड़ी हाथ से सिली कपड़े की थैलियां जिसमें कई तरह के धागे और रंगबिरंगी रील में सुईंया आज भी पिरोई हुई हैं. एक पुरानी जंग खायी हुई ऊषा सिलाई मशीन भी एक पुरानी चद्दर में बंधी हुई रखी है जिसकी डस्टिंग कई साल से नहीं हुई थी. मेरी नज़र दादी की एक स्कूल वाली कापी पर पड़ी जिसकी भूमिका में लिख रखा है: अगर रुठे को मनाए ना, और फटे को सिले ना तो, तो जीवन नहीं चलता. घर में शांति नहीं रहती.
खाने में तब बेजड़/मक्का/बाजरे की रोटी खाते थे. दाल भर-भर पी भी जाते थे. गुड़ की एक डली को फांक लेना किसी मिठाई से कम नहीं होता था. घड़े में रखे पानी में अपने गांव की मिट्टी की ख़ुशबू किसी इत्र से कम मज़ा नहीं देती थी. घने छाया पेड़ों को निकल कर आती बयार में खुली छत पर सोने का मज़ा अब हम भूल गए हैं. बरसात के बाद मोर का आंगन में आकर नाचना और पक्षियों का चहचहाना, मां या दादी की लोरी से कम नहीं होता था. सब कुछ गतिमान था. समय ने कभी हिचकोले नहीं खाए. हम सब उसके साथ क़दमताल करें या न करें वह हमारे साथ था, हमारा था और अपने प्रियजनों और मित्रों को प्रेम में बांध कर रखा हुआ था.
पर आज तो समय तो जैसे रुक गया है. हम उसके साथ नहीं चल रहे. प्रियजन हैं भी तो हम उनसे और वो हमसे मिल भी नहीं सकते. दादी की कापी में वो सब लिखा है जो गूगल और विकीपिडिया में भी नहीं मिलेगा क्योंकि उसमें वही सब कुछ मिलेगा जो संचार तंत्र ने उगला है. उसके इस संदूकची में सैंकड़ों पोस्टकार्ड और इनलैंड लेटर की गड्डियां धागों से बंधी मिलीं. अपने गांव से शहर में हमारे साथ रहने आई थी दादी तो हर हफ़्ते चिट्ठी लिखती थी. जवाब आते ही वह पत्र पढ़कर सुनाकर बताती थी कि लिखा है कि बहू को अखंड सौभाग्यवती का आशीर्वाद देना, बच्चों को ढेर सारा प्यार करना, बड़ी होती गुड़िया को कॉलेज ज़रूर पढ़ने भेजना. उनका (हमारे दादाजी) का ध्यान रखना, समय पर दवाई देते रहना. उन्हें सुबह-शाम घूमने जाने देना.
होली-दीपावली दादी डाकिए को अपनी कुर्ती की जेब से निकालकर पांच या दस रुपए का नोट भी दिया करती थी. डाकिया उनके चरणों में बैठ कर घर बनाई गुंजिया और बेसन की चक्की खाकर आशीर्वाद लेकर जाते थे .
मैं दादी के सारे सामान की डस्टिंग कर जमाता गया. सब कुछ ठहरा हुआ-सा है. शायद हमने अपने बुज़ुर्गों की बात नहीं मानी. ना हमने अपने संयुक्त परिवार बचाए, न पेड़-पौधों का ध्यान रखा, पशु पक्षियों को दाना भी नहीं डाला. रुठे को मनाया नहीं, फटे को सिया नहीं. हम ख़ुद ही रुक गए. किसी मोड़ पर. नया रास्ता तलाशा नहीं, पुराने घर पर लौटे नहीं.
कुछ समय तक दादा के चले जाने के बाद पत्र-व्यवहार चलता रहा पर जब वह कम हुआ तो घर के बाहरी दरवाज़े पर लटके लेटर बॉक्स को सुबह-शाम देखने जाती. पक्षियों को चुग्गा और परिंडे में जल भरते हुए मुझे उदास हो कर कहती,“लल्ला आज भी कोई चिट्ठी नहीं आई?” मैं कैसे कहता कि दादी अब तुम्हारे नजीबाबाद में बचा ही कौन है! बिल्डर ने तो तुम्हारे पीहर वाला मकान सस्ते में लेकर तीन मंज़िला फ़्लैट भी बनवा दिए हैं. पर दादी थी इस बात को मानती ही नहीं थी. बाद में दादी के नाम से डाक आती रहे तो मैंने ऋषि प्रसाद और आनंद संदेश पत्रिकाएं सब्सक्राइब कर दीं. डॉक में हर माह इन्हें पाकर वो ख़ुश तो होती थी, मगर उन्हें इंतज़ार रहता पोस्टकार्ड और इनलैंड लेटर का. मगर वो पत्र फिर नहीं आए. अंत समय तक दादी की आंखें उस लेटर बॉक्स पर लगी रहती जिसमें-डाक नहीं आती थी.
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