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मेरा भाई: कहानी राखी के रिश्ते की (लेखिका: शिवानी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
August 27, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Shivani_Kahaniyan
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कुछ रिश्ते ख़ून के नहीं होते, पर उनका गाढ़ापन ख़ून के रिश्ते से कम नहीं होता. ऐसा ही रिश्ता था सुबय्या और उसकी राखी बहन का.

बैंगलूर तब आज का बैंगलूर नहीं था. शहर के एक प्रमुख चौराहे से मुड़ती संकरी गली जिस नई बन रही बस्ती में पहुंचते ही विलीन हो जाती थी, उस बस्ती का तब नाम था ‘शेषाद्रिपुरम्’. नाम आज भी वही है पर कलेवर बदल गया है. उस सड़क का नाम था थर्ड क्रॉस रोड. कुछ मकान बन रहे थे, कुछ बन चुके थे. आज की उस गृहसंकुल बस्ती में, अपने चालीस वर्ष पूर्व के उस मकान को ढूंढ़ने के लिए मुझे घंटों भटकना पड़ा था.
निराश होकर लौट ही रही थी कि एक सुदर्शन नवनिर्मित देवालय की घंटाध्वनि सुन ठिठक गई. वर्षों की जंग लगी स्मृतियों की अर्गला सहसा स्वयं खुल गई. इसी मन्दिर की तो तब नींव पड़ी थी और मैंने ही उस देवभूमि में भजन गाया था. नींव डालनेवाली थीं हमारी प्रतिवेशिनी गिरिजा बाई. तेज़ी से क़दम रखती मैं मन्दिर के गर्भगृह में खड़ी हुई तो दीवार पर टंगे गिरिजा बाई के आदमकम तैलचित्र पर दृष्टि गई. रेशमी नीली साड़ी, चैड़ा सुनहला किनारा, कंठ में पड़ा मंगलसूत्र, बड़ी-सी कंकरेजी बिन्दी, नाक के दोनों ओर चमकती हीरे की लौंग और कानों में दगदगाते हीरे के कर्णफूल.
पूरा मन्दिर, अगरबत्ती की धूम्ररेखा से सुवासित था. सूर्यास्त हो चुका था. आरती के लिए धृत ज्योति बना रहे पुजारी की नंगी पीठ देख मुझे एक क्षण को लगा, गिरिजाबाई के पति रामस्वामी ही बैठे हैं. वे भी तो ऐसे ही नारायण स्वामी के भजन गाते घृत ज्योति बनाया करते थे और हमसे कहा करते थे,‘‘देखो मां, इसे कहते हैं त्रिपुरी ज्योति, पहले तीनों ओर से बत्तियां बनाओ, फिर उन्हें एक कर दो.’’
‘‘सुनिए.’’ मैंने कहा. पुजारी चौंककर मुड़ा, मैंने देखा, वह तो कोई बीस-बाईस वर्ष का तरुण पुजारी था.
उसने आश्चर्य से मुझे देखा.
‘‘यहां कहीं गिरिजा बाई रहती थीं. यह मन्दिर उन्हीं का बनवाया हुआ है ना?’’
उसने सिर हिलाकर कन्नड़ में कुछ कहा, मूर्ति के सम्मुख झुके एक भक्त ने, शायद हिन्दी में पूछा गया मेरा प्रश्न और कन्नड़ में दिया गया उत्तर सुन लिया था.
‘‘वह तो बहुत साल हुआ मर गया जी.’’ उसने कहा.
‘‘उनके पति?’’
‘‘वह तो और भी पहले मर गया, आप बहुत साल बाद बंगलूर आया क्या?’’
‘‘जी हां, चालीस साल बाद. गिरिजा बाई हमारी पड़ोसी थीं. सुबय्या को भी आप जानते होंगे, गिरिजा बाई का अनाथ भतीजा, जो उनके साथ रहता था, वह कहां है?’’
‘‘सुबय्या को पूछता क्या?’’ फिर वह व्यक्ति, पुजारी की ओर मुड़ रहस्यमय ढंग से कन्नड़ में कुछ कहने लगा.
‘‘आप उसे नहीं जानते क्या?’’ मैंने कुछ अधैर्य से पूछा.
‘‘अम्मा, बैंगलूर में सुबय्या को कौन नहीं जानता? कितना मर्डर, रेप, बैंक रौबरी किया उसने, कर्नाटक गवरमेन्ट दस हजार रुपया का इनाम बोला है उसको पकड़ने का.’’
रेप, मर्डर और बैंक रौबरी! वह दुबली-पतली टांगों और स्याह चेहरेवाला रिकेटी छोकरा!
पर फिर मैं बिना कुछ पूछे चुपचाप बाहर निकल आई.
एक बार फिर मैंने उन साथ-साथ जुड़े चार मकानों को देखा. नया-नया पेन्ट, चमकती लाल छत, हरा पेन्ट किया जाफ़रीदार बरामदा और खिड़कियों के नए चमचमाते शीशे, जिन्हें हम प्रत्येक रविवार को अख़बार की भीगी लुगदी रगड़-रगड़कर साफ़ करते थे, जिससे उनकी शुभ्र पारदर्शिता भेद गोल कमरे में धरा हमारा रोजवुड का नया-नया फ़र्नीचर, राहचलते राहगीरों को भी क्षण-भर ठिठकने को बाध्य कर दे! द्वार पर चढ़ी थी प्रिमरोज की बेल, जिसके नन्हे-नन्हे पीले गुलाबों की सुगन्ध सन्ध्या होते ही अगरबत्ती की अवसन्न धूम्ररेखा-सी पूरे परिवेश को सुवासित कर देती. वह बेल हमें सुबय्या ने ही लाकर दी थी. कहता था, वह सर मिर्ज़ा इस्माइल के माली से बड़ी चिरौरी कर हमारे लिए मांग लाया है. आज हमारे उसी मकान की खिड़कियों में बदसूरत टीन ठुके थे, प्रिमरोज की बेल न जाने किस अरण्य में विलीन हो गई थी, गेट टूटकर किसी बूढ़े जर्जर दांत-सा नीचे लटक रहा था काल की कुटिल गति क्या मनुष्य और वनस्पति, पेड़-पौधे, इमारत, झोंपड़ी किसी को नहीं छोड़ती?
इसी परिवेश में मेरे कैशोर्य की कितनी सुनहली स्मृतियां दबी पड़ी थीं. तब इस मन्दिर की मूर्तियां गिरिजा बाई के गृह में प्रतिष्ठित थीं. लाल मोजेइक फ़र्श, अगरबत्ती और बेले-मोगरे की ख़ुशबू के बीच स्थापित वैंकटेश की दिव्य मूर्ति के सम्मुख तब भी अखंड घृत ज्योति जलती थी. स्वयं गिरिजा बाई का तेजोमय व्यक्तित्व भी उस पूजन-गृह से मेल खाता था. गिरिजा बाई और रामस्वामी निःसन्तान थे. कुछ वर्ष पूर्व वे गांव से अपने दूर के किसी रिश्तेदार के अनाथ पुत्र को ले आए थे. गिरिजा बाई उसे ठूंस-ठूंसकर खिलाती रहतीं, फिर भी उसकी ठूंठ-सी देह पर रत्ती-भर मांस की परत भी नहीं चढ़ी थी. उस पर रंग था आबनूसी स्याह, अंधेरे में कोई देख ले तो ‘भूत-भूत’ कह चिल्ला पड़े. उस पर एक आंख भैंगी थी, कभी-कभी लगता, पुतली है ही नहीं. ललाट के बीचोंबीच आंख के आकार का बड़े से घाव का निशान था.
‘‘यही है मेरे शिव सुबय्या का तीसरा नेत्र.’’ ग़ुस्सा आने पर गिरिजा बाई कहतीं,‘‘इसी से तो अभागे की सब पढ़ी-रटी विद्या बह जाती है, दिमाग़ में कुछ टिकता नहीं.’’ सचमुच ही बेचारा लगातार तीन वर्षों से ही क्लास में अटका पड़ा था.
‘‘अरी तुम अच्छे-अच्छे स्कूलों में पढ़ती हो.’’ गिरिजा बाई कहतीं,
‘‘छुट्टियों में घर आती हो तो इसे भी पढ़ा दिया करो, शायद तुम्हारी सोहबत ही इसे सुधार दे!’’ दूसरे ही दिन से सुबय्या सुबह होते-न-होते अपनी कापी-किताब ले, हमसे पढ़ने आ जाता. नंगे बदन, ऊंची बंधी धोती, ललाट पर भस्म का प्रगाढ़ प्रलेप, सतर बंधी शिखा और काले स्याह चेहरे पर विद्युत वद्दि-सी चमकती सफेद दन्त-पंक्ति. मां कभी-कभी बौखला जातीं,‘‘सुबह- ही-सुबह इस कलूटे कनुवे का मुंह देख लिया है, न जाने दिन कैसा बीतेगा.’’
‘‘वह काना नहीं है, भैंगा है मां.’’ मैं अपने शिष्य का पक्ष लेती.
मुझे उस पर बेहद तरस आता था. अनाथ लड़का, बुआ के यहां आश्रित नौकर की-सी ही ज़िन्दगी तो जी रहा था.
‘‘अरे सुबय्या, पानी भरा? कमरा झाड़ा? पूजा के बर्तन साफ़ किए? चल जल्दी कॉफ़ी बना ला.’’ असंख्य आदेशों की गोली दागतीं बुआ जब कॉफ़ी पीकर शान्त होतीं, तो वह हमसे पढ़ने भाग आता.
मेरे दोनों भाई उसे छेड़ते रहते,‘‘क्यों रे भड़भूंजे, तुझे तो पसीना भी काला आता होगा, क्यों?’’
‘‘अरे भुतनी के, कल बनियान पहनकर आना, तेरी नंगी काली पीठ आंखों में चुभती है.’’
वह बेचारा हिन्दी समझता ही कहां था, पर फिर धीरे-धीरे वह हिन्दी भी सीख गया. जितने दिन हम गर्मी की छुट्टियों में घर रहते, वह दिन-रात हमारे यहां ही पड़ा रहता.
‘‘क्यों रे सुबय्या, तुझे हमारे यहां इतना अच्छा क्यों लगता है रे?’’ एक दिन मैंने पूछ दिया.
‘‘बताऊं?’’ उसने अपनी बड़ी-बड़ी डरी-सहमी आंखें उठाकर, लजाकर सहसा झुका लीं.
‘‘बता ना.’’ मेरी बड़ी बहन ने कहा.
‘‘आप लोग सब इतना सफ़ेद हैं ना, इसी से.’’ बेचारा, अपने काले रंग के लिए वह विधाता को कभी क्षमा नहीं कर पाया. शायद वही कुंठा उसे एक दिन विधाता की सृष्टि का संहार करने को उकसा गई.
रक्षाबन्धन के दिन वह स्वयं ही एक सजीली राखी लेकर उपस्थित हो जाता.
‘‘हमको आप राखी बांधेगा ना, इसी से हम लाया.’’
‘‘तू क्यों लाया, भाई थोड़े ही ना राखी लाता है, बहन उसे बांधती है, फिर पहाड़ में यानी हमारे देश में राखी दामाद और भानजे को बांधी जाती है, हमारे यहां भाई-बहन का त्यौहार है भाई दूज, उस दिन आना, हम तुझे पूड़ी-पकवान खिलाकर तिलक करेंगे और तू हमें रुपया देगा.’’
‘‘ऐसा क्या!’’ उसका मुंह लटक गया.
‘‘अच्छा चल, मैं तुझे राखी बांध दूंगी. पर अगली बार तू राखी मत लाना, भाई थोड़े ही ना राखी लाता है, बहन उसे बांधती है.’’ मैंने उसे तिलक लगाकर राखी बांधी और मुंह में लड्डू भर दिया.
‘‘आज से तू हमारा भाई बन गया सुबय्या.’’
‘‘भाई?’’ उसकी आंखों में उल्लास की किरणें फूट उठीं.
‘‘हां, भाई.’’
‘‘सच?’’
‘‘सच.’’
और फिर तीन वर्षों तक मेरा वह भाई, मेरे सगे भाइयों से भी पहले, भाई दूज के पकवान खाने पहुंच जाता. रक्षाबन्धन के दिन भी वह स्वयं राखी लेकर आ जाता.
सुबह अख़बार लेने, हममें से कोई भी द्वार खोलता तो देखता, नंगे बदन, ललाट पर भस्म पोते, मेरा राखीबन्द भाई, देहरी पर स्वामिभक्त श्वान-सा बैठा है.
‘‘अरी जा, तेरा कलूटा कनुआ आ गया है तुझसे राखी बंधवाने. जब भी सुबह-सुबह इसकी मनहूस सूरत देखी है, कुछ-न-कुछ बुरी ख़बर जरूर सुनने को मिली है.’’ मां भुनभुनातीं.
‘‘छिः, मां. कनुआ क्यों कहती हो उसे. वह काना नहीं, भैंगा है.’’ मैं कहती.
‘‘जो भी है, है तो मनहूस. जा बांध राखी और दफ़ा कर.’’
मेरी मां को उसका आना फूटी आंखों नहीं भाता था.
देखती नहीं, कैसे टगर-टगर चोरों की तरह ताकता है. आए दिन बेचारी गिरिजा बाई चिल्लाती रहती हैं, पूजा का चढ़ावा ग़ायब हो गया. रामस्वामी की जेब से पैसा चला गया. आख़िर इसके सिवा वहां है ही कौन जो लेगा. देख, इसे बहुत मुंह मत लगा, मुझे इसकी कौए की-सी टेढ़ी नज़र अच्छी नहीं लगती.’’
मेरे होस्टल जाने के दिन आते तो वह उदास हो जाता, मुंह से कुछ नहीं कहता, पर जाने के दिन एक मोगरे का गजरा लेकर स्टेशन पर अवश्य उपस्थित रहता.
‘‘ले आ गया तेरा भाई.’’ मेरी बहन कहतीं.
‘‘पिछली बार स्टेशन आया तो ट्रेन सात घंटे लेट पहुंची थी.’’
मैं ट्रेन से गर्दन निकाल, उसके दुबले काले हाथ में हिलते पांडुवर्णी जीर्ण रूमाल को तब तक देखती रहती, जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो जाता. शायद तीन वर्षों तक वह निरन्तर मुझसे राखी बंधवाने आता रहा, फिर उसी वर्ष मेरे पिता का देहान्त हुआ और दक्षिण हमसे छूट गया. हम जब बैंगलूर से पहाड़ लौटे तो वह अपनी बुआ के साथ श्रीरंगपट्टनम् की यात्रा पर गया था, और फिर वह सहसा जैसे किसी शून्य अन्तरिक्ष से सहसा धूमकेतू-सा प्रकट हो गया, वह भी ठीक रक्षाबन्धन के दिन.
इटारसी से कुछ आगे बढ़ते ही ट्रेन ने गति द्विगुणित कर दी थी, अन्धकार गहन हो चला था, भोपाल पहुंचते-पहुंचते दस बज जाएगा, सोच मैंने लपककर बत्ती बुझा दी. पढ़ते-पढ़ते ऊब गई थी, कूपे में और कोई नहीं था, एक धूमिल नीली बत्ती जल रही थी. सहसा खटाक से द्वार खुल गया. मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी. मैंने तो चिटकनी चढ़ाई थी, यह कैसे खुल गया. मैं बत्ती जलाती, इससे पूर्व ही मैंने देखा, एक मुड़े तार को भीतर डाल, सधे कौशल से चिटखनी खोलनेवाला एक दीर्घदेही व्यक्ति मेरे सिरहाने खड़ा है खाकी वर्दी, सिर पर धरी तिरछी बैरा कैप, जिसने यवनिका की भांति उसका पूरा चेहरा ढांप लिया था.
‘‘ख़बरदार जो चिल्लाई, यहीं ख़तम कर दूंगा, लाओ बटुआ, घड़ी, चेन, कंगन, कान के टाप्स भी खोलकर दे दो, नहीं तो मुझे खींचने पड़ेंगे. बेकार में ख़ून बहाना मुझे अच्छा नहीं लगता.’’
मैंने एक-एक कर सब चीजें उसे थमा दीं. ऐसी परिस्थिति में, व्यर्थ का दुःसाहस प्रदर्शन मुझे महंगा बैठेगा, यह मैं समझ गई, क्योंकि उसके हाथ में एक लम्बा लपलपाता छुरा था. मेरी ओर बिना पीठ किए ही फिर उसने ऊपर के बर्थ पर धरा मेरा सूटकेस इस सहज भंगिमा से उठा लिया, जैसे उसी का हो और गन्तव्य स्टेशन आने पर वह अपना ही सामान लिए उतर रहा हो.
‘‘सुनो.’’ मैंने न जाने कैसे साहस जुटाकर कहा.
‘‘तुम सब ले जा सकते हो, पर सूटकेस में मेरा पासपोर्ट है, मुझे परसों रात की फ़्लाइट से सांघातिक रूप से बीमार किसी को देखने लन्दन जाना है, तुम यह ले जाओगे तो मैं इतनी जल्दी दूसरा पासपोर्ट नहीं बना पाऊंगी.’’
मैं सहसा अपनी रुलाई नहीं रोक पाई.
‘‘बस-बस, रोना नहीं, मुझे औरतों की रुलाई से बड़ी घबड़ाहट होती है. लाओ चाबी पासपोर्ट निकाल दूं.’’
सूटकेस खोल, उसने ऊपर ही धरा पासपोर्ट निकाला, बिना खोले ही थमा जाता तो अच्छा था, पर न जाने क्या सोच उसने पासपोर्ट खोला, बड़ी देर तक देखता रहा, फिर सूटकेस खुला ही छोड़ उसने बत्ती जला दी.
मैंने अब तक उसका चेहरा देखा भी नहीं था. बत्ती जली तो मैंने अचकचाकर उसे देखा और उसने मुझे. हम दोनों कितने ही बदल गए हों, राखी के क्षीण सूत्र ने ही शायद एकसाथ हम दोनों को किसी फ़िल्मी फ़्लैश बैक की तत्परता से एक बार फिर शेषाद्रिपुरम् की उस नई बस्ती में खड़ा कर दिया.
‘‘सुबय्या, तुम सुबय्या हो ना?’’
उसने टोपी उतारकर बर्थ पर शायद इसीलिए पटकी कि मैं उसका चेहरा ठीक से देख, उसे पहचान लूं. ललाट के बीचोंबीच, उसका तीसरा नेत्र, उसकी दुष्कीर्ति की भांति जैसे और फैल गया था.
‘‘यही तो है मेरे शिव सुबय्या का तीसरा नेत्र, इसी से तो अभागे की सारी पढ़ी-पढ़ाई विद्या बहकर निकल जाती है, दिमाग़ में कुछ टिकता नहीं.’’
जैसे गिरिजा बाई, कमर पर हाथ धरे उसे कोस रही थीं.
‘‘आज इतने बरस में तुमसे मिला, वह भी ठीक रक्षाबन्धन के दिन. तुम पासपोर्ट नहीं मांगता तो हमसे आज कितना बड़ा पाप हो जाता.’’
‘‘इससे भी बड़ा पाप नहीं कर चुके क्या? सुना है, बहुत नाम कमा चुके हो. दस हज़ार का इनाम है तुम्हारे सिर का.’’ मेरा स्वर शायद कुछ अधिक ही तीखा हो गया था.
वह खिसिया गया,‘‘मां कहां है? बड़े भाई कहां हैं? तुम्हारा हजबैंड किधर है?’’ जिन सबकी कुशल वह पूछ रहा था, वे सब एक-एक कर सांसारिक कुशल-क्षेम की परिधि से बहुत दूर जा चुके थे. फिर सकपकाकर उसने पूछा,‘‘तुम शादी तो बनाया ना?’’ मैं चुप रही.
सहसा वह चौकन्ना होकर सतर हो गया. गाड़ी की गति कुछ धीमी हो रही थी. किसी आसन्नप्राय स्टेशन की बत्तियां, सुदूर अरण्य में जुगनू-सी चमकने लगी थीं.
‘‘मैं चलूं, राखी नहीं बांधेगा?’’ सहसा उसका स्वर कोमल धैवत पर उतर आया.
‘‘नहीं.’’
‘‘कोई बात नहीं, मैं तुमको हमेशा रक्षाबन्धन पर एक रुपया देता था, याद है ना?’’
‘‘उसे भी शायद बुआ के मन्दिर से चुराकर लाते होगे.’’ मैंने तीखे स्वर में कहा.
‘‘ठीक पकड़ा तुम.’’ उसने बेहयायी से हंसकर बटुआ खोला,‘‘लो,’’ न जाने कितने नोट निकाल उसने मेरी ओर बढ़ा दिए.
‘‘मैं तुम्हारा रुपया अब लेना तो दूर, छूना भी नहीं चाहती.’’
‘‘ओह, हम समझ गया. कोई बात नहीं, तुम राखी नहीं बांधा, पर हमको लगता तुम राखी बांध दिया.’’ और वह टोपी पहन तीर-सा निकल गया. मैं कुछ देर तक उठ ही नहीं पाई, जब बड़ी चेष्टा से खुला सूटकेस बन्द करने उठी तो मेरे दोनों पैर कांप रहे थे. वह लेकर चला जाता तो? मूर्ख की भांति पूरे पांच हज़ार कैश लेकर जा रही थी, ट्रेवलर्स चेक बनाने का समय ही कहां मिला था? उस पर पासपोर्ट, कुल देवताओं की पोटली, चार तोले के कंगन, घड़ी, हीरे की अंगूठी! कैसा बचाया वर्षों पूर्व बांधी गई राखी की डोर ने! पर तब ही देखा, चलते-चलते मेरा वह हतभागा भाई, मुझे मात दे ही गया था. अपना वॉलेट, वह मेरे सूटकेस में वैसे ही धर गया था. सौ-सौ पाउंडों की मोटी गड्डी, डालर, दीनार और फ्रैंक से भरा बटुआ, बकरा खाए अजदहे के पेट-सा फूला था. न जाने किस विदेशी यात्री की जेब कतर वह उसे तिड़ी कर लाया था. निखालिस इंगलिश लेदर के बटुए पर लिखा था ‘मेड इन ग्रेट ब्रिटेन’ किन्तु उसमें न नाम-धाम है, न अता-पता! अब कहां ढूंढूं इसके स्वामी को और किसे लौटाऊं?
सोचती हूं, कभी फिर तिरुपति गई तो वहां के दानपात्र में ही इसे डाल आऊंगी.
सुना है, वहां संसार-भर के महापातकी, अपनी पाप की कमाई उंड़ेल जाते हैं और उनका समस्त कलुष धुल जाता है.
राखी तो उसे नहीं बांध पाई पर इतना तो कर ही सकती हूं. जिसे अब मैं नहीं ढूंढ़ पाऊंगी, मेरे उस राखीबन्द भाई को शायद दयालु वैंकटेश्वर स्वयं एक दिन मुश्कें बांध अपने दरबार में बुला भेजें और वह अभागा उनके चरणों में गिरकर कह सके:
‘‘पापोहं पाप कर्मोहं
पापात्मा पाप संभवम्
त्राहि मां मुंडरीकाक्षं सर्वपापहरो हरिः’’

llustration: Pinterest

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