• होम पेज
  • टीम अफ़लातून
No Result
View All Result
डोनेट
ओए अफ़लातून
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक
ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब क्लासिक कहानियां

निक्की, रोजी और रानी: तीन साथियों की दिल छू लेनेवाली कहानी (लेखिका: महादेवी वर्मा)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 5, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
A A
Mahadevi-verma_kahani
Share on FacebookShare on Twitter

पशु-प्रेमी लेखिका महादेवी वर्मा के बचपन के तीन साथियों निक्‍की नेवला, रोजी कुत्ती और रानी घोड़ी की दिल छू लेनेवाली कहानी.

बाल्यकाल की स्मृतियों में अनुभूति की वैसी ही स्थिति रहती है, जैसी भीगे वस्त्र में जल की. वह प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, किन्तु वस्त्र के शीतल स्पर्श में उसकी उपस्थिति व्यक्त होती रहती है. इन स्मृतियों में और भी विचित्रता है. समय के माप से वे जितनी दूर होती जाती हैं, अत्मीयता के परिमाण में उतनी ही निकट आती जाती हैं.
मेरे अतीत बचपन के कोहरे में जो रेखाएं अपने संपूर्ण ममत्व के विविध रंगों में उदय होने लगती हैं, उनके आधारों में तीन ऐसे भी जीव हैं, जो मानव समष्टि के सदस्य न होने पर भी मेरी स्मृति में छपे से हैं. निक्‍की नेवला, रोजी कुत्ती और रानी घोड़ी.
रोजी की जैसे ही आंखें खुलीं, वैसे ही वह, मेरे पांचवें जन्म-दिन पर, पिताजी के किसी राजकुमार विद्यार्थी द्वारा मुझे उपहार रूप भेंट कर दी गई. स्वाभाविक ही था कि हम दोनों साथ ही बढ़ते. रोजी मेरे साथ दूध पीती, मेरे खटोले पर सोती, मेरे लकड़ी के घोड़े पर चढ़कर घूमती और मेरे खेल-कूद में साथ देती, वस्तुतः मेरे पशु-प्रेम का आरम्भ रोजी के साहचर्य से माना जा सकता है, जो तेरह वर्ष की लम्बी अवधि तक अविच्छिन्न रहा.
रोजी सफ़ेद थी, किन्तु उसके छोटे सुडौल कानों के कोने, पूंछ का सिरा, माथे का मध्य भाग और पंजों का अग्रांश कत्थई रंग का होने के कारण उसमें कत्थई किनारीवालों सफ़ेद साड़ी की शबल रंगीनी का आभास मिलता है. वह छोटी पर तेज़ टैरियर जाति की कुत्ती थी, और कुछ प्रकृति से और कुछ हमारे साहचर्य से श्वान-दुर्लभ विशेषताएं उत्पन्न हो जाने के कारण घर में उसे बच्चों के समान ही वात्सल्य मिलता था. हम सबने तो उसे ऐसा साथी मान लिया था, जिसके बिना न कहीं जा सकते थे, ओर न कुछ खा सकते थे.
उस समय पिताजी इन्दौर के डेलीकॉलेज (जो राजकुमारों का विद्यालय था) के वाइस प्रिन्सिपल थे और हम सब छावनी में रहते थे, जहां दूर तक कोई बस्ती ही नहीं थी. हमें पढ़ानेवाले शिक्षक प्रातः और संध्या समय आते थे. इस प्रकार दोपहर का समय हमारे लिए अवकाश का समय था, जिसे हम अति व्यस्तता में बिताते थे.
सबसे छोटा भाई तो हमारी व्यस्तता में साथ देने के लिए बहुत छोटा था, परन्तु मैं, मुझसे छोटी बहिन और उससे छोटा भाई दोपहर भर बया चिड़ियों के घोंसले तोड़ते, बबूल की सूखी और बीजों के कारण बजनेवाली छीमियां बीनते घूमते रहते. ग्रीष्म में जब हवा ठहर-सी जाती थी, वर्षा से जब वातावरण गलकर बरसने-सा लगता था और शीत में जब समय जम-सा जाता था, हमारी व्यस्तता एक-सी क्रियाशील रहती थी.
घूमते-घूमते थक जाने पर हमारा प्रिय विश्रामालय एक आम के वृक्ष से घिरा सूखा पोखर था, जिसका ऊंचा कगार पेड़ों की छाया में 8-8 फ़ुट और खुली धूप में 4-5 फ़ुट के लगभग गहरा था. कई आम के पेड़ों की शाखाएं लम्बी-नीची और सूखे पोखर पर झूलती-सी थीं. सूखी पत्तियों ने झड़-झड़कर सूखी गहराई को कई फ़ुट भर भी डाला था. हम तीनों डाल पर बैठकर झूलते रहते या रॉबिन्सन क्रूसो के समान अपने समतल समुद्र के गहरे टापू की सीमाएं नापते रहते. घूमने के क्रम में यदि हमें कोई मकोइ का पौधा या करौंदे की झड़ी फूली-फली मिल जाती, तो नन्‍दनवन की प्रतीति होने लगती.
हमारे इस भ्रमण में रोजी निरंतर साथ देती. जब हम डाल पर बैठकर झूलते रहते, वह कगार के सिरे पर हमारे पैरों के नीचे बैठी कूदने के आदेश की आतुर प्रतीक्षा करती रहती. जब हम पोखर की परिक्रमा करते, वह हमारे आगे-आगे मानो राह दिखाने के लिए दौड़ती और जब हम मकोई और करौंदे एकत्र करने लगते, तब वह किसी झाड़ी की छाया में बड़े विरक्त भाव से बैठी रहती. गर्मी के दिनों में आम के पेड़ों से छोटी-बड़ी अंबिया हवा के झोंके से नीचे गिरती रहतीं और उनके गिरने के स्वर के साथ रोजी सूखे पोखर में कूदती और पत्तियों के सर- सराहट भरे समुद्र में से उसे खोज लाती. कच्ची कैरी की चेपी लग जाने से बेचारी का गुलाबी छोटा मुंह धबीला हो जाता, परन्तु वह इस खोज कार्य से विरत न होती.
दोपहर को पिताजी कॉलेज में रहते और मां घर के कार्य वा छोटे भाई की देखभाल में व्यस्त रहतीं. रामा बाज़ार चला जाता और कल्‍लू की मां या तो सोती या मांज-मांजकर बर्तन चमकाने में दत्तचित्त रहती. वे सब समझते कि हम लोग या तो अपने कमरे में सो रहे हैं या पढ़-लिख रहे हैं. पर हम कुछ ऊंची खिड़की की राह से पहले रोजी को उतार देते और फिर एक-एक करके तीनों बाहर बगीचे में उतरकर करोंदे की झाड़ियों में छिपते-छिपते अपने उसी सूने मुक्तिलोक में पहुंच जाते. तीन में से किसी को भी कमरे में छोड़ना शंका से रहित नहीं था, क्‍योंकि वह बिस्कुट, पेड़ा, बर्फी आदि किसी उत्कोच के लोभ में मुखबिर बन सकता था. परिणामतः तीनों का जाना अनिवार्य था. रोजी भी हमारे निर्बन्ध-सम्प्रदाय में दीक्षित हो चुकी थी, अतः वह भी साथ आती थी. हमारे अभियान के रहस्य को वह इतना अधिक समझ गई थी कि दोपहर होते ही खिड़की से कूदने को आकुल होने लगती और खिड़की से उतार दिए जाने पर नीचे बैठकर-मनोयोगपूर्वक हमारा उतरना देखती रहती. कभी खिड़की से कूदते समय हममें से कोई उसी के ऊपर गिर पड़ता था, पर वह चीं करना भी नियम-विरुद्ध मानती थी.
ऐसे ही एक स्वच्छन्द विचरण के उपरान्त जब हम आम की डाल पर झूल-झूलकर अपने संग्रहालय का निरीक्षण कर रहे थे, तब एक आम गिरने का शब्द हुआ और रोजी नीचे कूदी. कुछ देर तक वह पत्तियों में न जाने क्‍या खोजती रही, फिर हमने आश्चर्य से देखा कि वह मुंह में किसी जीव को दबाये हुए ऊपर आ रही है. वस्तुत: उस सूखे पोखर के नीचे कगार में बिल बना-कर किसी नकुल दम्पत्ति ने प्रजापति के कार्य में सक्रिय सहयोग देना आरम्भ किया था. उनकी नकुल-सृष्टि का कोई लघु, परन्तु हमारे ही समान अराजकतावादी सदस्य, अपने सृजनकर्त्ताओं की दृष्टि बचाकर सूखी पत्तियों के समुद्र में ऊपर तैर आया था. पत्तियों से छोटा मुंह निकालकर उसने जैसे ही बाहर के संसार पर विस्मित दृष्टि डाली, वैसे ही अपने-आपको रोजी के छोटे और अंधेर मुख-विवर में पाया! निरन्तर बिना दांत चुभाये कच्ची अंबिया लाते-लाते रोज़ी इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि उस कुलबुलाते जीव को भी सुरक्षित हम तक ले आई.
आकार में वह गिलहरी से बड़ा न था, पर आकृति में स्पष्ट अन्तर था. भूरा चमकीला रंग, काली कत्थई-आंखें, नर्म-नर्म पंजे, गुलाबी नन्‍हा मुंह, रोओं में छिपे हुए नन्‍हीं सीपियों से कान, सब कुछ देखकर हमें वह जीवित नन्‍हा खिलौना-सा जान पड़ा. रोजी ने उसे हौले से पकड़ा था, परन्तु बचने के संघर्ष में उसके कुछ खरोंच लग ही गई थी. चोट से अधिक भय से वह निश्चेष्ट था. उसे पाकर हम सब इतने प्रसन्न हुए कि अपना घोंसले, चिकने पत्थर, जंगली कनेर के फूल आदि का विचित्र संग्रहालय छोड़कर उसे लिए हुए घर की ओर भागे. उस समय की उत्तेजना में हम अपने अज्ञात भ्रमण की बात भी भूल गए, परन्तु मां ने यह नहीं पूछा कि वह छोटा जीव हमें कहां और कैसे मिला. उन्होंने जीव-जन्तुओं को न सताने के सम्बन्ध में लम्बा उपदेश देने के उपरान्त, उसे उसके नकुल माता-पिता के पास बिल में रख आने का आदेश दिया.
हमें बेचारे नकुल शिशु से बड़ी सहानुभूति हुई. छोटे-से बिल में रात-दिन पड़े माता-पिता के सामने बैठे रहने में जो कष्ट बच्चे को हो सकता है, उसका हम अनुमान कर सकते थे. यदि एक छोटे कमरे में हमें सामने बैठाकर बाबूजी रात-दिन पढ़ाते रहें और मां सिलाई-बुनाई में लगी रहें, तो हमारा क्या हाल होगा. ऐसी ही कोई अप्रिय स्थिति बिल में रही होगी, नहीं तो यह इतना छोटा बच्चा भागता ही क्‍यों! अतः नकुल शिशु के बिल और बिल-निवासी माता-पिता की खोज में हम अनिच्छापूर्वक गए और खोज में असफल होकर निराश से अधिक प्रसन्न लौटे.
अब तो उस लघु प्राणी का हमारे अतिरिक्त कोई आश्रय ही नहीं रहा. प्रसन्नतापूर्वक हमने अपने खिलौनों के छोटे बॉक्स को ख़ाली कर उसमें रुई और रेशमी रूमाल बिछाया. फिर बहुत अनुनय-विनय कर और उसके सब आदेश मानने का वचन देकर रामा को, उसे रुई की बत्ती से दूध पिलाने के लिए राज़ी किया. इस प्रकार हमारे लघु परिवार में एक लघुतम सदस्य सम्मिलित हुआ.
जब रामा की सतर्क देख-रेख में वह कुछ दिनों में स्वस्थ और पुष्ट होकर हमारा समझदार साथी हो गया, तब हम रामा को दिए वचन भूलकर फिर पूर्ववत्‌ अराजकतावादी बन गए.
मां ने उसका नाम रखा नकुल, जो उसकी जातिवाचक संज्ञा का तत्सम रूप था, किन्तु न जाने संक्षिप्तीकरण की किस प्रवृत्ति के कारण हम उसे निक्‍की पुकारने लगे.
पालने की दृष्टि से नेवला बहुत स्नेही और अनुशासित जीव है. गिलहरी के खाने योग्य कीट, पतंग, फल, फूल आदि कोई भी खाद्य खाकर वह अपने पालनेवाले के साथ चौबीसों घण्टे रह सकता है. जेब में, कन्धे पर, आस्तीन में, बालों में, जहां कहीं उसे बैठा दिया जावे, वह शान्‍त स्थिर भाव से बैठकर अपनी छोटी पर सतर्क आंखों से चारों ओर की स्थिति देखता परखता रहता था.
निक्‍की मेरे पास ही रहता था.
उस समय हमारे परिवार में छोटी लड़कियों की वेशभूषा में गोटे-पट्टे से सजा गरारा, कुर्ता और दुपट्टा विशेष महत्त्व रखता था. जिसमें वे मध्यकालीन बेगमों के लघु संस्करण जान पड़ती थीं. कभी-कभी प्रगतिशीलता का प्रमाण देने के लिए उन्हें फ्रॉक पहनाए जाते थे, जिसके कॉलर, लेस, झालर आदि के घटाटोप में वे क्वीन विक्टोरिया की संगिनियों का भ्रम उत्पन्न करके मानो पूर्व-पश्चिम दोनों का प्रतिनिधित्व करती थीं. हमारे जूते तक पूर्व-पश्चिम में विभाजित थे. पूर्व के वेश के साथ छोटी, हल्की और जरी के काम वाली जूतियां पहनकर हम घिसटते हुए चलते थे. पश्चिमीय वेश के साथ घुटने के ऊपर तक काले या सफ़ेद मोजे चढ़ाकर ऊंची एड़ीवाले और तस्में से कसे-बंधे जूते पहनकर डगमगाते हुए चलते थे. हमारे मन और पैर दोनों ही इस संचरण- पद्धति से विद्रोह करते थे, क्योंकि वह न हमें करोंदे की झाड़ियां लांघने देती और न दौड़ने. अतः हम आल्मारी में दोनों प्रकार के पदत्राणों को छिपाकर खिड़की से कूदते और नंगे पैर कंकड़-पत्थरों पर दौड़ लगाते थे.
निक्‍की या तो मेरे दुपट्टे की चुन्नट में छिपा हुआ झूलता रहता या गर्दन के पीछे चोटी में छिपकर बैठता और कान के पास नन्‍हा मुंह निकालकर चारों ओर की गतिविधि देखता. रोजी का कार्य तो हमारे साथ दौड़ना ही था, परन्तु निक्‍की इच्छा होने पर ही अपने सुरक्षित स्थान से कूदकर दौड़ता. एक दिन जैसे ही हम खिड़की से नीचे उतरे, वैसे ही निक्‍की की सतर्क आंखों ने गुलाब की क्यारी के पास घास में एक लम्बे काले सांप को देख लिया और वह कूदकर उसके पास पहुंच गया. हमने आश्चर्य से देखा कि निक्‍की दो पिछले पैरों पर खड़ा होकर सांप को मानो चुनौती दे रहा है और सांप भी हवा में आधा उठकर फुफकार रहा था.
निक्‍की ने सांप को मार डाला, समझकर हम सब चीखने-पुकारने और सांप को पत्थर मारने लगे. यदि हमारा कोलाहल सुनकर रामा न आ जाता, तो परिणाम कुछ दुःखद भी हो सकता था.
उस दिन प्रथम बार हमें ज्ञात हुआ कि हमारा बालिश्त भर का निक्‍की कई फ़ुट लम्बे सांप से लड़ सकता है. उन दोनों की लड़ाई मानो पेड़ की हिलती डाल से बिजली का खेल थी. निक्‍की सांप के सब ओर इतनी तेज़ी से घूम रहा था कि वह एक भूरे और घूमते हुए धब्बे की तरह लग रहा था. सांस फन पटक रहा था, फुफकार रहा था, उसे अपनी कुण्डली में लपेट लेने के लिए आगे-पीछे हट-बढ़ रहा था, परन्तु बिजली की तरह तड़प उठने-वाले निक्‍की को पकड़ने में असमर्थ था. वह तेज़ी से उछल-उछल कर सांप के फन के नीचे पैने दांतों से आघात कर रहा था.
रामा के कारण इस असमय युद्ध का अन्त देखने के लिए तो हम बाहर खड़े न रह सके, परन्तु जब निक्‍की खिड़की पर आकर बैठा, तब हमने झांककर सांप को कई खंडों में कटा देखा. निक्‍की के मुंह में विष न लगा हो, इस भय से रामा ने उसके मुंह को पानी में डुबा-डुबा कर धोया और फिर दूध दिया.
सांप जैसे विषधर को खण्ड-खण्ड करने की शक्ति रखने पर भी नेवला नितान्‍त निर्विष है. जीव-जगत में जो निर्विष है, वह विष से मर जाता है और जिसमें अधिक मारक विष है, वह कम मारक वाले की परास्त कर देता है. पर नेवला इसका अपवाद है. वह विष रहित होने पर भी न सर्प के विष से मरता है और न संघर्ष में विषधर से परास्त होता है.
नेवला सर्प की तुलना में बहुत कोमल और हल्का है. यदि सांप चाहे तो उसे अपनी कुण्डली में लपेटकर चूर-चूर कर डाले. फण के फूत्कार से मूर्छित कर दे, परन्तु वह नेवले के फूल से हल्केपन और बिजली जैसी गति से परास्त हो जाता है. नेवला न उसे दंशन का अवसर देता है, न व्यूह रचना का अवकाश. और अपनी लाघवता के कारण नेवले को न विशेष अवसर चाहिए न सुयोग.
इसी बीच में बाबूजी ने मुझे शहर के मिशन स्कूल में भर्ती करने का निश्चय किया. इस योजना से तो हमारा समस्त कार्यक्रम ध्वस्त होने की सम्भावना थी, अतः हम सब अत्यंत दुखी और चिन्तित हुए, परन्तु विवशता थी.
अन्त में एक दिन पुस्तक लेकर और शिकरम (बन्द गाड़ी जो उन दिनों नागरिक प्रतिष्ठा की सूचक थी) में बैठकर मुझे जाना पड़ा.
निक्‍की सदा के समान मेरे साथ था, परन्तु बाबूजी के आदेश से उसे घर पर ही छोड़ देना आवश्यक हो गया. मिशन स्कूल पहुंच कर देखा कि वह शिकरम की छत पर बैठकर वहां पहुंच गया है. फिर तो उसे कपड़ों में छिपाकर भीतर ले जाने में मुझे सफलता मिल गई. परन्तु कक्षा में उसे मेरे पास देखकर जो कोहराम मचा, उसने मुझे स्तम्भित और अवाक्‌ कर दिया. She has brought a reptile, throw it away आदि कहकर सिस्टर्स तथा सहपाठिनियां चिल्लाने-पुकारने लगीं, तब reptile का अर्थ न जानने पर भी मैंने समझ लिया कि वह निक्‍की के लिए अपमानजनक सम्बोधन है. मैंने कुछ अप्रसन्न मुद्रा में बार-बार कहा कि यह मेरा निक्‍की है, किसी को काटता नहीं, परन्तु कोई उसके साथ बैठने को राज़ी नहीं हुआ. निरुपाय मैंने उसे फाटक से चहारदीवारी तक फैली लता में बैठा तो दिया, परन्तु उसके खो जाने की शंका से मेरा मन पढ़ाई-लिखाई से विरक्त ही रहा.
आने के समय जब निक्‍की कूदकर मेरे कन्धे पर आ बैठा तब आनन्द के मारे मेरे आंसू आ गए. तब से नित्य यही क्रम चलने लगा.
प्रतिदिन मुझे पहुंचाने और लेने रामा आता था और वह पालक के नाते निक्‍की के प्रति बहुत सदय था, अतः मार्ग भर निक्‍की मेरी गोद में बैठकर आता था और मिशन के फाटक की लता में या बाग में घूम-घूमकर मेरी पढ़ाई के घंटे बिताता था. छुट्टी होने पर मेरे फाटक पर पहुंचते ही उसका कूदकर मेरे कंधे पर बैठ जाना इतना नियमित और निश्चित था कि उसमें कुछ मिनटों का हेर-फेर भी कभी नहीं हुआ.
मिशन का वातावरण मेरे लिए घर के वातावरण से भिन्न था. वहां की वेशभूषा भिन्न थी, प्रार्थना भिन्न थी, चित्र, मूर्ति आदि भिन्न थे, ईश्वर नाम भी भिन्न था, और इन सबसे बड़ी भिन्नता यह थी कि निक्‍की का वहां प्रवेश निषिद्ध था.
इसके उपरान्त हमारे परिवार में एक सबसे बड़ा जीव सम्मिलित हुआ.
रियासत होने के कारण इंदौर में शानदार घोड़ों और सवारों का आधिक्य था. इसके अतिरिक्त हम अंग्रेजों के बच्चों को छोटे टट्टुओं या सफ़ेद गधों (जिनकी जाति के सम्बन्ध में रामा ने हमारा ज्ञानवद्धर्न किया था) में घूमते देखते थे. रामा की कहानियों में तो राजा, अपराधियों की गधे पर चढ़ाकर देश निकाला देता था. इन्हें गधों पर बैठकर प्रसन्नता से घूमते देखकर विश्वास करना कठिन था कि इन्हें दण्ड मिला है. रामा के पास हमारी जिज्ञासा का समाधान था. इन्हें विलायत में गधे पर बैठने का दण्ड देकर भारत भेजा गया है, क्योंकि वहां यह वाहन नहीं है.
एक दिन हम तीनों ने बाबूजी को मौखिक स्मृतिपत्र (मेमो-रेण्डम) दिया कि हमारे पास छोटा घोड़ा न रहना अन्याय की बात है. यदि अन्य बच्चों को घोड़े पर बैठने का अधिकार है, तो हमें भी यह अधिकार मिलना चाहिए.
बाबूजी ने हंसते हुए पूछा, सफ़ेद टट्टू पर बैठोगे? ‘तुम कहो, तुम कहो’ के साथ ठेलमठाल के उपरान्त मैंने अगुआ होकर गम्भीर मुद्रा में उत्तर दिया,‘सफ़ेद टट्टू तो गधा होता है, जिस पर बैठाकर सजा दी जाती है.’
पता नहीं, हमारे ज्ञान के अजस्र स्रोत रामा को बाबूजी ने डांटा या नहीं, परन्तु कुछ दिन बाद हमने देखा कि एक छोटा-सा चाकलेट रंग का टट्टू आंगन के पश्चिम वाले बरामदे में बांधा गया है. बरामदा तो घोड़े बांधने के लिए बनाया नहीं गया था अतः बाहर से टट्टू को लाने, ले जाने के लिए दीवाा में एक नया दरवाज़ा लगाया गया और उसकी मालिश करने तथा खाने, पीने, घूमने आदि की देखरेख के लिए छुटुन नाम का साईस रखा गया.
अब तो हम उस छोटे टट्टू से बहुत प्रभावित और आतंकित हुए. हमारे तथा हमारे अन्य साथी जीवों के लिए न मकान में कोई परिवर्तन हुआ, न कोई विशेष नौकर रखा गया. रामा को तो नौकर कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह तो डाटने-फटकारने के अतिरिक्त हमारे कान भी खींचता था. और हमारी खिड़की तक दरवाज़े में परिवर्तित न हो सकी, जिससे हम रोजी और निक्‍की के साथ कूदने के कष्ट से मुक्त हो सकते. बाबूजी से यह सुनकर भी कि वह टट्टू हमारी सवारी के लिए आया है, हम सब चार-पांच दिन उससे रुष्ट और अप्रसन्न ही घूमते रहे, परन्तु अन्त में उसने हमारी मित्रता प्राप्त कर ही ली. रामा से उसका नाम पूछने पर ज्ञात हुआ कि उसे ताज रानी कहकर पुकारा जाता है. ताजमहल का चित्र हमने देखा था और रामा और कल्लू को मां की सभी कहानियों में रानी के सुख-दुख की गाथा सुनते-सुनते हम उसके प्रति बड़े सदय हो गए थे. ताजमहल जैसे भवन की रानी होने पर भी यह यहां से कहानी की रानी की तरह निकाल दी गई है, यह कल्पना करते ही हमारी सारी ईर्ष्या और सारा रोष करुणा से पिघल गया और हम उसे और अधिक आराम देने के उपाय सोचने लगे.
वह इतनी सुन्दर थी कि अब तक उसकी छवि आंखों में बसी जैसी है. हल्का चाकलेटी चमकदार रंग, जिस पर दृष्टि फिसल जाती थी. खड़े छोटे कानों के बीच में माथे पर झूलता अयाल का गुच्छा, बड़ी, काली, स्वचछ और पारदर्शी जैसी आंखें, लाल नथुने जिन्हें फुला-फुलाकर वह चारों ओर की गन्ध लेती रहती, उजले दांत और लाल जीभ की झलक देते हुए गुलाबी ओठोंवाला लम्बा मुंह, जो लोहा चबाते रहने पर भी क्षत-विक्षत नहीं होता था. ऊंचाई के अनुपात से पीठ की चौड़ाई अधिक थी. सुडौल, मजबूत पैर और सघन पूंछ, जो मक्खियां उड़ाने के क्रम में मोरछल के समान उठती-गिरती रहती थी. उस समय यह सब समझने की बुद्धि नहीं थी, परन्तु इतने दीर्घ काल के उपरान्त भी स्मृतिपट पर वे रेखाएं ऐसे उभर आती हैं, जैसे किसी अदृश्य स्याही में लिखे अक्षर अग्नि के ताप से प्रत्यक्ष होने लगते हैं.
हम बारबार सोचते हैं कि वह कुछ और छोटी क्‍यों न हुई. होती तो हम रोजी और निक्‍की के समान उसे भी अपने कमरे में रख लेते.
रानी को अपने कमरे में ले जाना संभव नहीं था, अतः अस्तबल बना हुआ बरामदा ही हमारी अराजकता का कार्यालय बना.
बरामदा घोड़े बांधने के लिए तो बना नहीं था, अतः उसकी दीवार में एक खुली आल्मारी और कई आले-ताख थे. उन्हीं में हमारा स्वेच्छया विस्थापित और शरणार्थी खिलौनों का परिवार स्थापित होने लगा.
रानी की गर्दन में झूल-झूलकर, उसके कान और अयाल में फूल खोंस-खोंसकर और उसको बिस्कुट मिठाई आदि खिला-खिला कर थोड़े ही दिनों में हमने उससे ऐसी मैत्री स्थापित कर ली कि हमें न देखने पर वह अस्थिर होकर पैर पटकने और हिनहिनाने लगती.
फिर हमारी घुड़सवारी का कार्यक्रम आरम्भ हुआ. मेरे और बहिन के लिए सामान्य, छोटी पर सुन्दर जीन खरीदी गई और भाई के लिए चमड़े के घेरेवाली ऐसी जीन बनवाई गई, जिससे संतुलन खोने पर भी गिरने का भय नहीं था.
बाहर के चबूतरे पर खड़े होकर हम बारी-बारी से रानी पर आरूढ़ होते और छुट्टन साथ दौड़ता हुआ हमें घुमाता. सबेरे भाई-बहिन घूमते और स्कूल से लौटने पर तीसरे पहर या संध्या समय मेरे साथ वह कार्यक्रम दोहराया जाता.
परन्तु ऐसी सवारी से हमारी विद्रोही प्रकृति कैसे सन्तुष्ट हो सकती थी. अस्तबल में रानी की गर्दन में झूलकर तथा स्टूल के सहारे उसकी पीठ पर चढ़कर भी हमें सन्‍तोष न होता था.
अन्त में एक छुट्टी के दिन दोपहर में सबके सो जाने पर हम रानी को खोलकर बाहर ले आए और चबूतरे पर खड़े होकर उसकी नंगी पीठ पर सवारी करके बारो-बारी से अपनी अधूरी शिक्षा की पूरी परीक्षा देने लगे.
यह स्वाभाविक ही था कि ताजरानी हमारी अराजक प्रवृत्तियों से प्रभावित हो जाती. वास्तव में बालकों में चेतना के विभिन्न स्तरों का बोध न होकर सामान्य चेतना का ही बोध रहता है. अतः उनके लिए पशु-पक्षी, वनस्पति सब एक परिवार के हो जाते हैं.
निक्‍की रानी की पूंछ से झूलने लगता था, रोजी इच्छानुसार उसकी गर्दन पर उछलकर चढ़ती और नीचे कूदती थी और हम सब उसकी पीठ पर ऐसे गर्व से बैठते थे, मानो मयूर सिंहासन पर आसीन हैं.
रानी हम सबकी शक्ति और दुर्बलता जानती थी. उसकी नंगी पीठ पर अयाल पकड़कर बैठनेवालों को वह दुल्की चाल से इधर-उधर घुमाकर संतुष्ट कर देती थी. परन्तु एक बार मेरे बैठ जाने पर भाई ने अपने हाथ की पतली संटी उसके पैरों में मार दी. चोट लगने की तो सम्भावना ही नहीं थी, परन्तु इससे न जाने उसका स्वाभिमान आहत हो गया या कोई दुःखद स्मृति उभर आई. वह ऐसे वेग से भागी, मानो सड़क, पेड़, नदी, नाले सब उसे पकड़ बांध रखने का संकल्प किए हों.
कुछ दूर मैंने अपने आपको उस उड़न खटोले पर संभाला परन्तु गिरना तो निश्चित था. मेरे गिरते ही रानी मानो अतीत से वर्तमान में लौट आई और इस प्रकार निश्चल खड़ी रह गई, जैसे पश्चात्ताप की प्रस्तर प्रतिमा हो.
साथियों की चीख-पुकार से सब दौड़े और फिर बहुत दिनों तक मुझे बिछौने पर पड़ा रहना पड़ा. स्वस्थ होकर रानी के पास जाने पर वह ऐसी करुण पश्वात्ताप भरी दृष्टि से मुझे देखकर हिनहिनाने लगी कि मेरे आंसू आ गए.
एक बार भाई के जन्म-दिन पर नानी ने उसके लिए सोने के कड़े भेजे. सामान्यतः हम कोई भी नया कपड़ा या आभूषण पहन कर रानी को दिखाने अवश्य जाते थे. सुन्दर छोटे-छोटे शेर मुंहवाले कड़े पहनकर भाई भी रानी को दिखाने गया और न जाने किस प्रेरणा से वह दोनों कड़े उतारकर रानी के खड़े सतर्क कानों में वलय की तरह पहना आया.
फिर हम सब खेल में कड़ों की बात भूल गए. सन्ध्या समय भाई के कड़े रहित हाथ देखकर जब मां ने पूछताछ की, तब खोज आरम्भ हुई. पर कहीं भी कड़ों का पता नहीं चला.
रानी अपने कोने को खुरों से खोदती और हिनहिनाती रही. अन्त में बाबूजी का ध्यान उसकी ओर गया और उन्होंने छुट्टन को कोने की मिट्टी हटाने का आदेश दिया. किसी ने कुछ गहरा गड्ढा खोदकर दोनों कड़े गाड़ दिए थे. दण्ड तो किसी को नहीं मिला, परन्तु रानी सारे घर के हृदय में स्थान पा गई.
एक घटना अपनी विचित्रता में स्मरणीय है. एक सवेरे उठने पर हमने रानी के पास एक छोटे-से घोड़े के बच्चे को देखा. “यह कहां था?” कह-कहकर हमने रामा को इतना थका दिया कि उसने निरुपाय घोषणा की कि वह नया जीव रानी के पेट में दाना-चारा खाकर सो रहा था. भाई ने उत्साह से पूछा, और भी है’ रामा ने स्वीकृति में सिर हिलाया.
अब तो हम विस्मित भी हुए और क्रोधित भी. यह छोटे जीव कोई काम-धाम नहीं करते और हमको पीठ पर बैठाकर दौड़नेवाली रानी का दाना-चारा स्वयं खाकर उसके पेट में लेटे रहते हैं.
भाई ने कहा, रानी का पेट चीरकर हम कम से कम एक और बच्चा घोड़ा निकाल लें-तब बच्चे घोड़ों पर वे छोटे बहिन-भाई बैठेंगे और रानी मेरी सेवा में रहेगी. प्रस्ताव मुझे भी उचित जान पड़ा, पर जब एक दोपहर को वह कहीं से शाक काटने का चाकू ले आया, तब मेरे साहस ने उत्तर दे दिया. एक और था. समस्या की ओर हमारा ध्यान गया. आखिर हम रानी का पेट सियेंगे कैसे. मां की महीन-सी सुई से तो सीना संभव नहीं था. टाट सीने का बड़ा सूजा रामा अपनी कोठरी में रखता था, जहां हमारी पहुंच नहीं थी. कुछ दिनों के उपरान्त जब रानी का अश्व शिशु कुछ बड़ा होकर दौड़ने लगा, तब हमें न अपना क्रोध-स्मरण रहा और न प्रस्ताव.
फिर अचानक हमारे अराजक राज्य पर क्रान्ति का बवंडर बह गया और हमें समझदारों के देश में निर्वासित होना पड़ा. अवकाश के दिनों में जब हम घर लौटे, तब निक्‍की मर चुका था, रानी और उसका बच्चा पवन किसी को दे दिए गए थे. केवल दुर्बल, अकेली और खोई-सी रोज़ी हमारे पैरों से लिपटकर कूं-कूं करके रोने लगी.

Illustration: Pinterest

इन्हें भीपढ़ें

फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य: अरुण चन्द्र रॉय की कविता

फटी एड़ियों वाली स्त्री का सौंदर्य: अरुण चन्द्र रॉय की कविता

January 1, 2025
democratic-king

कहावत में छुपी आज के लोकतंत्र की कहानी

October 14, 2024
त्रास: दुर्घटना के बाद का त्रास (लेखक: भीष्म साहनी)

त्रास: दुर्घटना के बाद का त्रास (लेखक: भीष्म साहनी)

October 2, 2024
पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों: सफ़दर हाशमी की कविता

पढ़ना-लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालों: सफ़दर हाशमी की कविता

September 24, 2024
Tags: Famous Indian WriterFamous writers’ storyHindi KahaniHindi StoryHindi writersIndian WritersKahaniMahadevi VermaMahadevi Verma ki kahaniMahadevi Verma ki kahani Nikki Rosy aur RaniMahadevi Verma storiesNikki Rosy aur Raniकहानीनिक्की रोजी और रानीमशहूर लेखकों की कहानीमहादेवी वर्मामहादेवी वर्मा की कहानियांमहादेवी वर्मा की कहानीमहादेवी वर्मा की कहानी निक्की रोजी और रानीहिंदी कहानीहिंदी के लेखकहिंदी स्टोरी
टीम अफ़लातून

टीम अफ़लातून

हिंदी में स्तरीय और सामयिक आलेखों को हम आपके लिए संजो रहे हैं, ताकि आप अपनी भाषा में लाइफ़स्टाइल से जुड़ी नई बातों को नए नज़रिए से जान और समझ सकें. इस काम में हमें सहयोग करने के लिए डोनेट करें.

Related Posts

ग्लैमर, नशे और भटकाव की युवा दास्तां है ज़ायरा
बुक क्लब

ग्लैमर, नशे और भटकाव की युवा दास्तां है ज़ायरा

September 9, 2024
लोकतंत्र की एक सुबह: कमल जीत चौधरी की कविता
कविताएं

लोकतंत्र की एक सुबह: कमल जीत चौधरी की कविता

August 14, 2024
बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता
कविताएं

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता

August 12, 2024
Facebook Twitter Instagram Youtube
Oye Aflatoon Logo

हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

संपर्क

ईमेल: [email protected]
फ़ोन: +91 9967974469
+91 9967638520
  • About
  • Privacy Policy
  • Terms

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • सुर्ख़ियों में
    • ख़बरें
    • चेहरे
    • नज़रिया
  • हेल्थ
    • डायट
    • फ़िटनेस
    • मेंटल हेल्थ
  • रिलेशनशिप
    • पैरेंटिंग
    • प्यार-परिवार
    • एक्सपर्ट सलाह
  • बुक क्लब
    • क्लासिक कहानियां
    • नई कहानियां
    • कविताएं
    • समीक्षा
  • लाइफ़स्टाइल
    • करियर-मनी
    • ट्रैवल
    • होम डेकोर-अप्लाएंसेस
    • धर्म
  • ज़ायका
    • रेसिपी
    • फ़ूड प्लस
    • न्यूज़-रिव्यूज़
  • ओए हीरो
    • मुलाक़ात
    • शख़्सियत
    • मेरी डायरी
  • ब्यूटी
    • हेयर-स्किन
    • मेकअप मंत्र
    • ब्यूटी न्यूज़
  • फ़ैशन
    • न्यू ट्रेंड्स
    • स्टाइल टिप्स
    • फ़ैशन न्यूज़
  • ओए एंटरटेन्मेंट
    • न्यूज़
    • रिव्यूज़
    • इंटरव्यूज़
    • फ़ीचर
  • वीडियो-पॉडकास्ट
  • लेखक

© 2022 Oyeaflatoon - Managed & Powered by Zwantum.