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ओ हरामज़ादे: कहानी विदेश में बसे एक भारतीय की (लेखक: भीष्म साहनी)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
August 13, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Bhishma-Sahani_Stories
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आप दुनिया में कहीं भी चले जाएं, पर अपने देश की बातें और यादें पीछा नहीं छोड़ती हैं. भीष्म साहनी की इस कहानी में अपने देश को छोड़कर विदेश में बसे आदमी के रोम-रोम में देश की यादें बसी हैं. वह विदेश में मिले एक भारतीय के सामने अपना दिल खोलकर रख देता है. उसकी दिली इच्छा है किसी दिन उसे कोई ‘ओ हरामज़ादे’ कहनेवाला मिले.

घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे ख़ुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूंगा. कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खण्डहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रह होता. दुनिया बड़ी विचित्र पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता जैसे मेरी ही तरह वह भी बिना किसी घुरे के निरुद्देश्य घूम रही है.
ऐसे ही एक बार मैं यूरोप के एक दूरवर्ती इलाक़े में जा पहुंचा था. एक दिन दोपहर के वक़्त होटल के कमरे में से निकल कर मैं खाड़ी के किनारे बेंच पर बैठा आती-जाती नावों को देख रहा था, जब मेरे पास से गुज़रते हुए अधेड़ उम्र की एक महिला ठिठक कर खड़ी हो गई. मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा उसे किसी दूसरे चेहरे का मुग़ालता हुआ होगा. पर वह और निकट आ गई.
‘भारत से आए हो?’ उसने धीरे से बड़ी शिष्ट मुसकान के साथ पूछा.
मैंने भी मुस्कुरा कर सिर हिला दिया.
‘मैं देखते ही समझ गई थी कि तुम हिंदुस्तानी होगे.’ और वह अपना बड़ा-सा थैला बेंच पर रख कर मेरे पास बैठ गई.
नाटे कद की बोझिल से शरीर की महिला बाज़ार से सौदा ख़रीद के लौट रही थी. खाड़ी के नीले जल जैसी ही उसकी आंखें थी. इतनी साफ़ नीली आंखें केवल छोटे बच्चों की ही होती हैं. इस पर साफ़ गौरी त्वचा. पर बाल खिचड़ी हो रहे थे और चेहरे पर हल्की हल्की रेखाएं उतर आई थीं, जिनके जाल से, खाड़ी हो या रेगिस्तान, कभी कोई बच नहीं सकता. अपना ख़रीदारी का थैला बेंच पर रख कर वह मेरे पास तनिक सुस्ताने के लिए बैठ गई. वह अंग्रेज़ नहीं थी पर टूटी फूटी अंग्रेज़ी में अपना मतलब अच्छी तरह से समझा लेती थी.
‘मेरा पति भी भारत का रहने वाला है, इस वक़्त घर पर है, तुम से मिलकर बहुत ख़ुश होगा.’
मैं थोड़ा हैरान हुआ, इंग्लैंड और फ्रांस आदि देशों में तो हिन्दुस्तानी लोग बहुत मिल जाते हैं. वहीं पर सैंकड़ों बस भी गए हैं, लेकिन यूरोप के इस दूर दराज़ के इलाक़े मैं कोई हिन्दुस्तानी क्यों आकर रहने लगा होगा. कुछ कोतुहल वश, कुछ वक़्त काटने की इच्छा से मैं तैयार हो गया.
‘चलिए, जरूर मिलना चाहूंगा.’ और हम दोनों उठ खड़े हुए.
सड़क पर चलते हुए मेरी नज़र बार बार उस महिला के गोल-मटोल शरीर पर जाती रही. उस हिंदुस्तानी ने इस औरत में क्या देखा होगा जो घर बार छोड़ कर यहां इसके साथ बस गया है. संभव है, जवानी में चुलबुली और नटखट रही होगी. इसकी नीली आंखों ने कहर ढाए होंगे. हिन्दुस्तानी मरता ही नीली आंखों और गोरी चमड़ी पर ही है. पर अब तो समय उस पर कहर ढाने लग था. पचास पचपन की रही होगी. थैला उठाए हुए सांस बार बार फूल रहा था. कभी उसे एक हाथ में उठाती और कभी दूसरे हाथ में. मैंने थैला उसके हाथ से ले लिया और हम बतियाते हुए उसके घर की ओर जाने लगे.
‘आप भी कभी भारत गई हैं?’ मैंने पूछा.
‘एक बार गई थी, लाल ले गया था, पर इसे तो अब लगता है बीसियों बरस बीत चुके हैं.’
‘लाल साहब तो जाते रहते होंगे?’
महिला ने खिचड़ी बालों वाला अपना सिर झटक कर कहा,‘नहीं, वह भी नहीं गया. इसलिए वह तुम से मिल कर बहुत ख़ुश होगा, यहां हिंदुस्तानी बहुत कम आते हैं.’
तंग सीढ़ियां चढ़ कर हम एक फ़्लैट में पहुंचे, अंदर रोशनी थी और एक खुला सा कमरा जिसकी चारों दीवारों के साथ किताबों से ठसाठस भरी अलमारियां रखीं थीं. दीवार पर जहां कहीं कोई टुकड़ा ख़ाली मिल था, वहां तरह तरह के नक्शे और मानचित्र टांग दिए गए थे. उसी कमरे में दूर, खिड़की के पास वाले कमरे में काले रंग का सूट पहने, सांवले रंग और उड़ते सफ़ेद बालों वाला एक हिंदुस्तानी बैठा कोई पत्रिका बांच रह था.
‘लाल, देखो तो कौन आया है? इनसे मिलो. तुम्हारे एक देशवासी को ज़बर्दस्ती खींच लायी हूं.’ महिला ने हंस कर कहा.
वह उठ खड़ा हुआ और जिज्ञासा और कोतुहल से मेरी और देखता हुआ आगे बढ़ आया.
‘आइए-आइए! बड़ी खुशी हुई. मुझे लाल कहते हैं, मैं यहां इंजीनियर हूं. मेरी पत्नी ने मुझ पर बड़ा एहसान किया है जो आपको ले आई हैं.’
ऊंचे, लंबे कद का आदमी निकला. यह कहना कठिन था कि भारत के किस हिस्से से आया है. शरीर का बोझिल और ढीला ढाला था. दोनों कनपटियों के पास सफ़ेद बालों के गुच्छे से उग आए थे जबकि सिर के ऊपर गिने चुने सफ़ेद बाल उड़ से रहे थे.
दुआ-सलाम के बाद हम बैठे ही थे कि उसने सवालों की झड़ी लगा दी. ‘दिल्ली शहर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा?’ उसने बच्चों के से आग्रह के साथ पूछा.
‘हां. बदल गया है. आप कब थे दिल्ली में?’
‘मैं दिल्ली का रहने वाला नहीं हूं. यों लड़कपन में बहुत बार दिल्ली गया हूं. रहने वाला तो मैं पंजाब का हूं, जालन्धर का. जालन्धर तो आपने कहां देखा होगा.’
‘ऐसा तो नहीं, मैं स्वयं पंजाब का रहने वाला हूं. किसी जमाने में जालन्धर में रह चुका हूं.’
मेरे कहने की देर थी कि वह आदमी उठ खड़ा हुआ और लपक कर मुझे बाहों में भर लिया.
‘ओ लाजम! तूं बोलना नहीं ऐ जे जलन्धर दा रहणवाला ऐं?’
मैं सकुचा गया. ढीले ढाले बुजुर्ग को यों उत्तेजित होता देख मुझे अटपटा सा लगा. पर वह सिर से पांव तक पुलक उठा था. इसी उत्तेजना में वह आदमी मुझे छोड़ कर तेज़ तेज़ चलता हुआ पिछले कमरे की और चला गया और थोड़ी देर बाद अपनी पत्नी को साथ लिए अंदर दाखिल हुआ जो इसी बीच थैला उठाए अंदर चली गई थी.
‘हेलेन, यह आदमी जलन्धर से आया है, मेरे शहर से, तुमने बताया ही नहीं.’
उत्तेजना के कारण उसका चेहरा दमकने लगा था और बड़ी बड़ी आंखों के नीचे गुमड़ों में नमी आ गई थी.
‘मैंने ठीक ही किया ना,’ महिला कमरे में आते हुए बोली. उसने इस बीच एप्रन पहन लिया था और रसोई घर में काम करने लग गई थी. बड़ी शालीन, स्निग्ध नज़र से उसने मेरी और देखा. उसके चेहरे पर वैसी ही शालीनता झलक रही थी जो दसियों वर्ष तक शिष्टाचार निभाने के बाद स्वभाव का अंग बन जती है. वह मुस्कुरती हुई मेरे पास आकर बैठ गई.
‘लाल, मुझे भारत में जगह जगह घुमाने ले गया था. आगरा, बनारस, कलकत्ता, हम बहुत घूमे थे…..’
वह बुजुर्ग इस बीच टकटकी बांधे मेरी और देखे जा रहा था. उसकी आंखों में वही रुमानी किस्म का देशप्रेम झलकने लगा था जो देश के बाहर रहने वाले हिन्दुस्तानी की आंखों में, अपने किसी देशवासी से मिलने पर चमकने लगता है. हिन्दुस्तानी पहले तो अपने देश से भागता है और बाद से उसी हिन्दुस्तानी के लिए तरसने लगता है.
‘भारत छोड़ने के बाद आप बहुत दिन से भारत नहीं गए, आपकी श्रीमती बता रही थी. भारत के साथ आपका संपर्क तो रहता ही होगा?’
और मेरी नज़र किताबों से ठसाठस भरी अल्मारियों पर पड़ी. दीवारों पर टंगे अनेक मानचित्र भारत के ही मानचित्र थे.
उसकी पत्नी अपनी भारत यात्रा को याद करके कुछ अनमनी सी हो गई थी, एक छाया सी मानो उसके चेहरे पर डोलने लगी हो.
‘लाल के कुछ मित्र संबंधी अभी भी जालन्धर में रहते हैं. कभी-कभी उनका खत आ जाता है.’ फिर हंसकर बोली, ‘उनके खत मुझे पढ़ने के लिए नहीं देता. कमरा अन्दर से बंद करके उन्हें पढ़ता है.’
‘तुम क्या जानो कि उन खतों से मुझे क्या मिलता है!’ लाल ने भावुक होते हुए कहा.
इस पर उसकी पत्नी उठ खड़ी हुई.
‘तुम लोग जालन्धर की गलियों में घूमो, मैं चाय का प्रबंध करती हूं.’ उसने हंसके कहा और उन्हीं क़दमों रसोई घर की और घूम गई.
भारत के प्रति उस आदमी की अत्यधिक भावुकता को देख कर मुझे अचन्भा भी हो रहा था. देश के बाहर दशाब्दियों तक रह चुकने के बाद भी कोई आदमी बच्चों की तरह भावुक हो सकता है, मुझे अटपटा लग रहा था.
‘मेरे एक मित्र को भी आप ही कि तरह भारत से बड़ा लगाव था,’ मैंने आवाज़ को हल्का करते हुए मज़ाक के से लहजे में कहा, ‘वह भी बरसों तक देश के बाहर रहता रहा था. उसके मन में ललक उठने लगी कि कब मैं फिर से अपने देश की धरती पर पांव रख पाऊंगा.’
कहते हुए मैं क्षण भर के लिए ठिठका. मैं जो कहने जा रहा हूं, शायद मुझे नहीं कहना चाहिए. लेकिन फिर भी घृष्टता से बोलता चल गया, ‘चुनांचे वर्षों बाद सचमुच वह एक दिन टिकट कटवाकर हवाईजहाज़ द्वारा दिल्ली जा पहुंचा. उसने ख़ुद यह किस्सा बाद में मुझे सुनाया था. हवाईजहाज़ से उतर कर वो बाहर आया, हवाई अड्डे की भीड़ में खड़े खड़े ही वह नीचे की और झुका और बड़े श्रद्धा भाव से भारत की धरती को स्पर्श करने के बाद खड़ा हुआ तो देखा, बटुआ ग़ायब था…’
बुजुर्ग अभी भी मेरी ओर देखे जा रहा था. उसकी आंखों के भाव में एक तरह की दूरी आ गई थी, जैसे अतीत की अंधियारी खोह में से दो आंखें मुझ पर लगी हों.
‘उसने झुक कर स्पर्श तो किया यही बड़ी बात है,’ उसने धीरे से कहा, ‘दिल की साध तो पूरी कर ली.’
मैं सकुचा गया. मुझे अपना व्यवहार भोंडा सा लगा, लेकिन उसकी सनक के प्रति मेरे दिल में गहरी सहानुभूति रही हो, ऐसा भी नहीं था.
वह अभी भी मेरी और बड़े स्नेह से देखे जा रहा था. फिर वह सहसा उठ खड़ा हुआ,‘ऐसे मौक़े तो रोज़ रोज़ नहीं आते. इसे तो हम सेलिब्रेट करेंगे.’ और पीछे जा कर एक अलमरी में से कोन्याक शराब की बोतल और दो शीशे के जाम उठा लाया.
जाम में कोन्याक उड़ेली गई. वह मेरे साथ बगलगीर हुआ, और हमने इस अनमोल घड़ी के नाम जाम टकराए.
‘आपको चाहिए कि आप हर तीसरे चौथे साल भारत की यात्रा पर जाया करें. इससे मन भरा रहता है.’ मैंने कहा.
इसने सिर हिलाया ‘एक बार गया था, लेकिन तभी निश्चय कर लिया था कि अब कभी भारत नहीं आऊंगा.’ शराब के दो एक जामों के बाद ही वह खुलने लगा था, और उसकी भावुकता में एक प्रकार की अत्मीयता का पुट भी आने लगा था. मेरे घुटने पर हाथ रख कर बोला, ‘मैं घर से भाग कर आया था. तब मैं बहुत छोटा था. इस बात को अब लगभग चालीस साल होने को आए हैं,’ वह ठोड़ी देर के लिए पुरानी यादों में खो गया, पर फिर, अपने को झटका सा देकर वर्तमान में लौटा लाया. ‘ज़िंदगी में कभी कोई बड़ी घटना ज़िंदगी का रुख़ नहीं बदलती, हमेशा छोटी तुच्छ सी घटनाएं ही ज़िंदगी का रुख़ बदलती हैं. मेरे भाई ने केवल मुझे डांटा था कि तुम पढ़ते लिखते नहीं हो, आवारा घूमते रहते हो, पिताजी का पैसा बरबाद करते हो…और मैं उसी रात घर से भाग गया था.’
कहते हुए उसने फिर से मेरे घुटने पर हाथ रखा और बड़ी आत्मीयता से बोला ‘अब सोचता हूं, वह एक बार नहीं, दस बार भी मुझे डांटता तो मैं इसे अपना सौभाग्य समझता. कम से कम कोई डांटने वाला तो था.’
कहते-कहते उसकी आवाज़ लड़खड़ा गई,‘बाद में मुझे पता चला कि मेरी मां ज़िंदगी के आख़िरी दिनों तक मेरा इंतज़ार करती रही थी. और मेरा बाप, हर रोज़ सुबह ग्यारह बजे, जब डाकिए के आने का वक़्त होता तो वह घर के बाहर चबूतरे पर आकर खड़ा हो जाता था. और इधर मैंने यह दृढ़ निश्चय कर रखा था कि जब तक मैं कुछ बन ना जाऊं, घर वालों को खत नहीं लिखुंगा.’
एक क्षीण सी मुस्कान उसके होंठों पर आई और बुझ गई,‘फिर मैं भारत गया. यह लगभग पंद्रह साल बाद की बात रही होगी. मैं बड़े मंसूबे बांध कर गया था.’
उसने फिर जाम भरे और अपना किस्सा सुनाने को मुंह खोला ही था कि चाय आ गई. नाटे कद की उसकी गोलमटोल पत्नी चाय की ट्रे उठाए, मुस्कुराती हुई चली आ रही थी. उसे देख कर मन में फिर से सवाल उठा, क्या यह महिला ज़िंदगी का रुख बदलने का कारण बन सकती है?
चाय आ जाने पर वार्तालाप में औपचारिकता आ गई.
‘जालन्धर में हम माई हीरां के दरवाजे के पास रहते थे. तब तो जालन्धर बड़ा टूटा-फूटा सा शहर था. क्यों, हनी? तुम्हे याद है, जालन्धर में हम कहां पर रहे थे?’
‘मुझे गलियों के नाम तो मालूम नहीं, लाल, लेकिन इतना याद है कि सड़कों पर कुत्ते बहुत घूमते थे, और नालियां बड़ी गंदी थीं, मेरी बड़ी बेटी-तब वह डेढ़ साल की थी-मक्खी देख कर डर गई थी. पहले कभी मक्खी नहीं देखी थी. वहीं पर हमने पहली बार गिलहरी को भी देखा था. गिलहरी उसके सामने से लपक कर एक पेड़ पर चड़ गई तो वह भागती हुई मेरे पास दौड़ आई थी…और क्या था वहां?’
‘…हम लाल के पुश्तैनी घर में रहे थे…’
चाय पीते समय हम इधर उधर कि बातें करते रहे. भारत की अर्थ्व्यावस्था की, नए नए उद्योग धंधों की, और मुझे लगा कि देश से दूर रहते हुए भी यह आदमी देश की गतिविधि से बहुत कुछ परिचित है.
‘मैं भारत में रहते हुए भी भारत के बारे में बहुत कम जानता हूं, आप भारत से दूर हैं, पर भारत के बारे में बहुत कुछ जानते हैं.’
उसने मेरी और देखा और होले से मुस्कुरा कर बोला,‘तुम भारत में रहते हो, यही बड़ी बात है.’
मुझे लगा जैसे सब कुछ रहते हुए भी, एक अभाव-सा, इस आदमी के दिल को अन्दर ही अन्दर चाटता रहता है-एक खला जिसे जीवन की उपलब्धियां और आराम आसायश, कुछ भी नहीं पाट सकता, जैसे रह रह कर कोई जख्म सा रिसने लगता हो.
सहसा उसकी पत्नी बोली,‘लाल ने अभी तक अपने को इस बात के लिए माफ़ नहीं किया कि उसने मेरे साथ शादी क्यों की.’
‘हेलेन…’
मैं अटपटा महसूस करने लगा. मुझे लगा जैसे भारत को लेकर पति पत्नी के बीच अक्सर झगड़ा उठ खड़ा होता होगा, और जैसे इस विषय पर झगड़ते हुए ही ये लोग बुढ़ापे की दहलीज तक आ पहुंचे थे. मन में आया कि मैं फिर से भारत की बुराई करूं ताकि यह सज्जन अपनी भावुक परिकल्पनाओं से छुटकारा पाए लेकिन यह कोशिश बेसूद थी.
‘सच कहती हूं,’ उसकी पत्नी कहे जा रही थी, ‘इसे भारत में शादी करनी चाहिए थी. तब यह ख़ुश रहता. मैं अब भी कहती हूं कि यह भारत चला जाए, और मैं अलग यहां रहती रहूंगी. हमारी दोनों बेटियां बड़ी हो गई हैं. मैं अपना ध्यान रख लूंगी…’
वह बड़ी संतुलित, निर्लिप्त आवाज़ में कहे जा रही थी. उसकी आवाज़ में न शिकायत का स्वर था, न क्षोभ का. मानो अपने पति के ही हित की बात बड़े तर्कसंगत और सुचिन्तित ढंग से कह रही हो.
‘पर मैं जानती हूं, यह वहां पर भी सुख से नहीं रह पाएगा. अब तो वहां की गर्मी भी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा. और वहां पर अब इसका कौन बैठा है? मां रही, न बाप. भाई ने मरने से पहले पुराना पुश्तैनी घर भी बेच दिया था.’
‘हेलेन, प्लीज़…’ बुजुर्ग ने वास्ता डालने के से लहजे में कहा.
अब की बार मैंने स्वयं इधर उधर की बातें छेड़ दीं. पता चला कि उनकी दो बेटियां हैं, जो इस समय घर पर नहीं थीं, बड़ी बेटी बाप की ही तरह इंजीनियर बनी थी, जबकी छोटी बेटी अभी यूनिवर्सिटी में पढ़ रही थी, कि दोनों बड़ी समझदार और प्रतिभासंपन्न हैं. युवतियां हैं.
क्षणभर के लिए मुझे लगा कि मुझे इस भावुकता की ओर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए, इसे सनक से ज़्यादा नहीं समझना चाहिए, जो इस आदमी को कभी कभी परेशान करने लगती है जब अपने वतन का कोई आदमी इससे मिलता है. मेरे चले जाने के बाद भावुकता का यह ज्वार उतर जाएगा और यह फिर से अपने दैनिक जीवन की पटरी पर आ जाएगा.
आखिर चाय का दौर ख़तम हुआ. और हमने सिगरेट सुलगाया. कोन्याक का दौर अभी भी थोड़े-थोड़े वक़्त के बाद चल रहा था. कुछ देर सिगरेटों सिगारों की चर्चा चली, इसी बीच उसकी पत्नी चाय के बर्तन उठा कर किचन की ओर बढ़ गई.
‘हां, आप कुछ बता रहे थे कि कोई छोटी सी घटना घटी थी….’
वह क्षण भर के लिए ठिठका, फिर सिर टेढ़ा करके मुस्कुराने लगा, ‘तुम अपने देश से ज़्यादा देर बाहर नहीं रहे इस लिए नहीं जानते कि परदेश में दिल की कैफ़ियत क्या होती है. पहले कुछ साल तो मैं सब कुछ भूले रहा पर भारत से निकले दस-बारह साल बाद भारत कि याद रह रह कर मुझे सताने लगी. मुझ पर इक जुनून सा तारी होने लगा. मेरे व्यवहार में भी इक बचपना सा आने लगा. कभी कभी मैं कुर्ता पायजामा पहन कर सड़कों पर घूमने लगता था, ताकि लोगों को पता चले कि मैं हिन्दुस्तानी हूं, भारत का रहने वाला हूं. कभी जोधपुरी चप्पल पहन लेता, जो मैंने लंदन से मंगवायी थी, लोग सचमुच बड़े कोतुहल से मेरी चप्पल की ओर देखते, और मुझे बड़ा सुख मिलता. मेरा मन चाहता कि सड़कों पर पान चबाता हुआ निकलूं, धोती पहन कर चलूं. मैं सचमुच दिखाना चाहता था कि मैं भीड़ में खोया अजनबी नहीं हूं, मेरा भी कोई देश है, मैं भी कहीं का रहने वाला हूं. परदेस में रहने वाले हिन्दुस्तानी के दिल को जो बात सबसे ज़्यादा सालती है, वह यह कि वह परदेश में एक के बाद एक सड़क लांघता चला जाए और उसे कोई जानता नहीं, कोई पहचानता नहीं, जबकि अपने वतन में हर तीसरा आदमी वाकिफ़ होता है. दिवाली के दिन मैं घर में मोमबत्तियां लाकर जला देता, हेलेन के माथे पर बिंदी लगाता, उसकी मांग में लाल रंग भरता. मैं इस बात के लिए तरस तरस जाता कि रक्षा बन्धन का दिन हो और मेरी बहिन अपने हाथों से मुझे राखी बांधे, और कहे ‘मेरा वीर जुग जुग जिए!’ मैं ’वीर’ शब्द सुन पाने के लिए तरस तरस जाता. आखिर मैंने भारत जाने का फैसला कर लिया. मैंने सोचा, मैं हेलेन को भी साथ ले चलूंगा और अपनी डेढ़ बरस की बच्ची को भी. हेलेन को भारत की सैर कराऊंगा और यदि उसे भारत पसंद आया तो वहीं छोटी-मोटी नौकरी करके रह जाऊंगा.’
‘पहले तो हम भारत में घूमते घामते रहे. दिल्ली, आगरा, बनारस…. मैं एक एक जगह बड़े चाव से इसे दिखाता और इसकी आंखों में इसकी प्रतिक्रिया देखता रहता. इसे कोई जगह पसन्द होती तो मेरा दिल गर्व से भर उठता.’
‘फिर हम जलन्धर गए.’ कहते ही वह आदमी फिर से अनमना सा होकर नीचे की और देखने लगा और चुपचाप सा होगया, मुझे जगा जैसे वह मन ही मन दूर अतीत में खो गया है और खोता चला जा रहा है. पर सहसा उसने कंधे झटक दिए और फर्श की ओर आंखें लगाए ही बोला,‘जालन्धर में पहुंचते ही मुझे घोर निराशा हुई. फटीचर सा शहर, लोग ज़रूरत से ज़्यादा काले और दुबले. सड़कें टूटी हुईं. सभी कुछ जाना पहचाना था लेकिन बड़ा छोटा छोटा और टूटा फूटा. क्या यही मेरा शहर है जिसे मैं हेलेन को दिखाने लाया हूं? हमारा पुशतैनी घर जो बचपन में मुझे इतना बड़ा और शानदार लगा करता था, पुराना और सिकुड़ा हुआ. मां बाप बरसों पहले मर चुके थे. भाई प्यार से मिला लेकिन उसे लगा जैसे मैं जायदाद बांटने आया हूं और वह पहले दिन से ही खिंचा खिंचा रहने लगा. छोटी बहन की दस बरस पहले शादी हो चुकी थी और वह मुरादाबाद में जाकर रहने लगी थी. क्या मैं विदेशों में बैठा इसी नगर के स्वपन देखा करता था? क्या मैं इसी शहर को देख पाने के लिए बरसों से तरसता रहा हूं? जान पहचान के लोग बूढ़े हो चुके थे. गली के सिरे पर कुबड़ा हलवाई बैठा करता था. अब वह पहले से भी ज़्यादा पिचक गया था, और दुकान में चौकी पर बैठने के बजाए, दुकान के बाहर खाट पर उकड़ूं बैठा था. गलियां बोसीदा, सोयी हुई. मैं हेलेन को क्या दिखाने लाया हूं? दो तीन दिन इसी तरह बीत गए. कभी मैं शहर से बाहर खेतों में चल जाता, कभी गली बाज़ार में घूमता. पर दिल में कोई स्फूर्ति नहीं थी, कोई उत्साह नहीं था. मुझे लगा जैसे मैं फिर किसी पराए नगर में पहुंच गया हूं.
तभी एक दिन बाज़ार में जाते हुए मुझे अचानक ऊंची सी आवाज़ सुनायी दी,‘ओ हरामज़ादे !’ मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया. यह हमारे शहर की परम्परागत गाली थी जो चौबीसों घंटे हर शहरी की ज़बान पर रहती थी. केवल इतना भर विचार मन में उठा कि शहर तो बूढ़ा हो गया है लेकिन उसकी तहजीब ज्यों की त्यों कायम है.
‘ओ हरामज़ादे! अपने बाप की तरफ़ देखता भी नहीं?’
मुझे लगा जैसे कोई आदमी मुझे ही सम्बोधन कर रहा है. मैंने घूम कर देखा. सड़क के उस पार, साइकिलों की एक दुकान के चबूतरे पर खड़ा एक आदमी मुझे ही बुला रहा था.
मैंने ध्यान से देखा. काली काली फनियर मूंछों, सपाट गंजे सिर और आंखों पर लगे मोटे चश्मे के बीच से एक आकृति सी उभरने लगी. फिर मैंने झट से उसे पहचान लिया. वह तिलकराज था, मेरा पुराना सहपाठी.
‘हरामज़ादे! अब बाप को पहचानता भी नहीं है!’ दूसरे क्षण हम दोनों एक दूसरे की बाहों में थे.
‘ओ हरामज़ादे! बाहर की गया, साहब बन गया तूं?’ तेरी साहबी विच मैं…’ और उसने मुझे ज़मीन पर से उठा लिया. मुझे डर था कि वह सचमुच ही ज़मीन पर मुझे पटक न दे. दूसरे क्षण हम एक दूसरे को गालियां निकाल रहे थे.
मुझे लड़कपन का मेरा दोस्त मिल गया था. तभी सहसा मुझे लगा जैसे जालन्धर मिल गया है, मुझे मेरा वतन मिल गया है. अभी तक मैं अपने शहर में अजनबी सा घूम रहा था. तिलक राज से मिलने की देर थी कि मेरा सारा पराया पन जाता रहा. मुझे लगा जैसे मैं यहीं का रहने वाला हूं. मैं सड़क पर चलते किसी भी आदमी से बात कर सकता हूं, झगड़ सकता हूं. हर इन्सान कही का बन कर रहना चाहता है. अभी तक मैं अपने शहर में लौट कर भी परदेसी था, मुझे किसी ने पहचाना नहीं था. अपनाया नहीं था. यह गाली मेरे लिए वह तन्तू थी, सोने की वह कड़ी थी जिसने मुझे मेरे वतन से, मेरे लोगों से, मेरे बचपन और लड़कपन से, फिर से जोड़ दिया था.
तिलकराज की और मेरी हरकतों में बचपना था, बेवकूफ़ी थी. पर उस वक़्त वही सत्य था, और उसकी सत्यता से आज भी मैं इन्कार नहीं कर सकता. दिल दुनिया के सच बड़े भोंड़े पर बड़े गहरे और सच्चे होते हैं.
‘चल, कहीं बैठ्कर चाय पीते हैं,’ तिलकराज ने फिर गाली देकर कहा. ‘वह पंजाबी दोस्त क्या जो गाली देकर, फक्कड़ तोलकर बगलगीर न हो जाए.’
हम दोनों, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले. खरामा खरामा माई हीरां के दरवाज़े की ओर जाने लगे. मेरी चाल में पुराना अलसाव आ गया. मैं जालन्धर की गलियों में यूं घूमने लगा जैसे कोई जागीरदार अपनी जगीर में घूमता है. मैं पुलक पुलक रहा था. किसी किसी वक़्त मन में से आवाज़ उठती, तुम यहां के नहीं हो, पराए हो, परदेसी हो, पर मैं अपने पैर और भी ज़ोर से पटक पटक कर चलने लगता.’
‘चुच्चा हलवाई अभी भी वहीं पर बैठता है?’
‘और क्या, तूं हमें धोखा दे गया है, और लोगों ने तो धोखा नहीं दिया.’
इसी अल्हड़पन से, एक दूसरे की कमर में हाथ डाले, हम किसी ज़माने में इन्हीं सड़कों पर घूमा करते थे. तिलकराज के साथ मैं लड़कपन में पहुंच गया था, उन दिनों का अलबेलापन महसूस करने लग था.
हम एक मैले कुचैले ढाबे में जा बैठे. वही मक्खियों और मैल से अटा गन्दा मेज, पर मुझे परवाह नहीं थी, यह मेरे जालन्धर के ढाबे का मेज था. उस वक़्त मेरा दिल करता कि हेलेन मुझे इस स्थिति में आकर देखे, तब वह मुझे जान लेगी कि मैं कौन हूं, कहां का रहने वाला हूं, कि दुनिया में एक कौना ऐसा भी है जिसे मैं अपना कह सकता हूं, यह गन्दा ढाबा, यह धूंआधारी फटीचर खोह.
ढाबे से निकल कर हम देर तक सड़कों पर मटरगश्ती करते रहे यहां तक कि थककर चूर हो गए. वह उसी तरह मुझे अपने घर के सामने तक ले गया. जैसे लड़कपन में मैं उसके साथ चलता हुआ, उसे उसके घर तक छोड़ने जाता था, फिर वह मुझे मेरे घर तक छोड़ने आता था.
तभी उसने कहा, ‘कल रात खाना तुम मेरे घर पर खाओगे. अगर इन्कार किया तो साले, यहीं तुझे गले से पकड़ कर नाली में घुसेड़ दूंगा.’
‘आऊंगा,’ मैंने झट से कहा.
‘अपनी मेम को भी लाना. आठ बजे मैं तेरी राह देखूंगा. अगर नहीं आया तो साले हराम दे….’
और पुराने दिनों की ही तरह उसने पहले हाथ मिलाया और फिर घुटना उठा कर मेरी जांघ पर दे मारा. यही हमारा विदा होने का ढंग हुआ करता था. जो पहले ऐसा कर जाए कर जाए. मैंने भी उसे गले से पकड़ लिया और नीचे गिराने का अभिनय करने लगा.
यह स्वांग था. मेरी जालन्धर की सारी यात्रा ही छलावा थी. कोई भावना मुझे हांके चले जा रही थी और मैं इस छलावे में ही खोया रहना चाहता था.
दूसरे रोज, आठ बजते न बजते, हेलेन और मैं उसके घर जा पहुंचे. बच्ची को हमने पहले ही खिलाकर सुला दिया था. हेलेन ने अपनी सबसे बढ़िया पोशाक पहनी, काले रंग का फ्राक, जिसपर सुनहरी कसीदाकारी हो रही थी, कंघों पर नारंगी रंग का स्टोल डाला, और बार बार कहे जाती:
‘तुम्हारा पुराना दोस्त है तो मुझे बन संवर कर ही जाना चाहिए ना.’
मैं हां कह देता पर उसके एक एक प्रसाधन पर वह और भी ज़्यादा दूर होती जा रही थी. न तो काला फ्राक और बनाव सिंगार और न स्टोल और इत्र फुलेल ही जालन्धर में सही बैठते थे. सच पूछो तो मैं चाहता भी नहीं था कि हेलेन मेरे साथ जाए. मैंने एकाध बार उसे टालने की कोशिश भी की, जिस पर वह बिगड़ कर बोली, ‘वाह जी, तुम्हारा दोस्त हो और मैं उससे न मिलूं? फिर तुम मुझे यहां लाए ही क्यों हो?’
हम लोग तो ठीक आठ बजे उसके घर पहुंच गए लेकिन उल्लू के पट्ठे ने मेरे साथ धोखा किया. मैं समझे बैठा था कि मैं और मेरी पत्नी ही उसके परिवार के साथ खाना खाएंगे. पर जब हम उसके घर पहुंचे तो उसने सारा जालन्धर इकट्ठा कर रखा था, सारा घर मेहमानों से भरा था. तरह तरह के लोग बुलाए गए थे. मुझे झेंप हुई. अपनी ओर से वह मेरा शानदार स्वागत करना चाहता था. वह भी पंजाबी स्वभाव के अनुरूप ही. दोस्त बाहर से आए और वह उसकी खातिरदारी न करे. अपनी ज़मीन जायदाद बेचकर भी वह मेरी खातिरदारी करता. अगर उसका बस चलता तो वह बैंड बाजा भी बुला लेता. पर मुझे बड़ी कोफ्त हुई. जब हम पहुंचे तो बैठक वाला कमरा मेहमानों से भरा था, उनमें से अनेक मेरे परिचित भी निकल आए और मेरे मन में फिर हिलोर सी उठने लगी.
पत्नी से मेरा परिचय कराने के लिए मुझे बैठक में से रसोईघर की ओर ले गया. वह चूल्हे के पास बैठी कुछ तल रही थी. वह झट से उठ खड़ी हुई दुप्पटे के कोने से हाथ पोंछते हुए आगे बढ़ आई. उसका चेहरा लाल हो रहा था और बालों की लट माथे पर झूल आई थी. ठेठ पंजाबिन, अपनत्व से भरी, मिलनसार, हंसमुख. उसे यों उठते देखकर मेरा सारा शरीर झनझना उठा. मेरी भावज भी चुल्हे से ऐसे ही उठ आया करती थी, दुप्पटे के कोने से हाथ पोंछती हुई, मेरी बड़ी बहनें भी, मेरी मां भी. पंजाबी महिला का सारा बांकापन, सारी आत्मियता उसमें जैसे निखर निखर आई थी. किसी पंजाबिन से मिलना हो तो रसोईघर की दहलीज पर ही मिलो. मैं सराबोर हो उठा. वह सिर पर पल्ला ठीक करती हुई, लजाती हुई सी मेरे सामने आ खड़ी हुई.
‘भाभी, यह तेरा घरवाला तो पल्ले दर्जे का बेवकूफ है, तुम इसकी बातों में क्यों आ गईं?’
‘इतना आडम्बर करने की क्या ज़रूरत थी? हम लोग तो तुमसे मिलने आए हैं…’
फिर मैंने तिलकराज की और मुखातिब होकर कह, ‘उल्लू के पट्ठे, तुझे मेहमाननवाजी करने को किसने कहा था? हरामी, क्या मैं तेरा मेहमान हूं? … मैं तुझसे निबट लूंगा.’
उसकी पत्नी कभी मेरी ओर देखती, कभी अपने पति की ओर फिर धीरे से बोली, ‘आप आएं और हम खाना भी न करें? आपके पैरों से तो हमारा घर पवित्र हुआ है.’
वही वाक्य जो शताब्दियों से हमारी गृहणियां मेहमानों से कहती आ रही हैं.
फिर वह हमें छोड़ कर सीधा मेरी पत्नी से मिलने चली गई और जाते ही उसका हाथ पकड़ लिया और बड़ी आत्मीयता से उसे खींचती हुई एक कुर्सी की ओर ले गई. वह यों व्यवहार कर रही थी जैसे उसका भाग्य जागा हो. हेलेन को कुर्सी पर बैठाने के बाद वह स्वयं नीचे फर्श पर बैठ गई. वह टूटी फूटी अंग्रेजी बोल लेती थी ओर बेधड़क बोले जा रही थी. हर बार उनकी आंखें मिलतीं तो वह हंस देती. उसके लिए हेलेन तक अपने विचार पहुंचाना कठिन था लेकिन अपनी आत्मीयता और स्नेह भाव उस तक पहुंचाने में उसे कोई कठिनाई नहीं हुई.
उस शाम तिलकराज की पत्नी हेलेन के आगे पीछे घूमती रही. कभी अन्दर से कढ़ाई के कपड़े उठा लाती और एक एक करके हेलेन को दिखाने लगती. कभी उसका हाथ पकड़ कर उसे रसोईघर में ले जाती, और उसे एक एक व्यंजन दिखाती कि उसने क्या क्या बनाया है और कैसे कैसे बनाया है. फिर वह अपनी कुल्लू की शाल उठा लायी और जब उसने देखा कि हेलेन को पसंद आई है, तो उसने उसके कंधों पर डाल दी.
इस सारी आवभगत के बावजूद हेलेन थक गई. भाषा की कठिनाई के बावजूद वह बड़ी शालीनता के साथ सभी से पेश आई. पर अजनबी लोगों के साथ आखिर कोई कितनी देर तक शिष्टाचार निभाता रहे? अभी ड्रिंक्स ही चल रहे थे जब वह एक कुर्सी पर थक कर बैठ गई. जब कभी मेरी नज़र हेलेन की ओर उठती तो वह नज़र नीची कर लेती, जिसक मतलब था कि मैं चुपचाप इस इंतज़ार में बैठी हूं कि कब तुम मुझे यहां से ले चलो.
रात के बारह बजे के करीब पार्टी ख़त्म हुई और तिलकराज के यार दोस्त नशे में झूमते हुए अपने अपने घर जाने लगे. उस वक़्त तक काफी शोर गुल होने लगा था, कुछ लोग बहकने भी लगे थे. एक आदमी के हाथ से शराब का गिलास गिरकर टूट गया था.
जब हम लोग भी जाने को हुए और हेलेन भी उठ खड़ी हुई तो तिलकराज ने पंजाबी दस्तूर के मुताबिक कहा-बैठ जा, बैठ जा, कोई जाना वाना नहीं है.
‘नहीं यार, अब चलें. देर हो गई है.’
उसने फिर मुझे धक्का देकर कुर्सी पर फेंक दिया.
कुछ हल्का हल्का सरूर, कुछ पुरानी याद, तिलकराज का प्यार और स्नेह उसकी पत्नी का आत्मीयता से भरा व्यवहार, मुझे भला लग रहा था. सलवार कमीज पहने बालों का जूड़ा बनाए, चूड़ीयां खनकाती एक कमरे से दूसरे कमरे में जाती हुई तिलकराज की पत्नी मेरे लिए मेरे वतन का मुजस्समा बन गई थी, मेरे देश की समुची संस्कृति उसमें सिमट आई थी. मेरे दिल में, कहीं गहरे में, एक टीस सी उठी कि मेरे घर में भी कोई मेरे ही देश की महिला एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमा करती, उसी की हंसी गूंजती, मेरे ही देश के गीत गुनगुनाती. वर्षों से मैं उन बोलों के लिए तरस गया था जो बचपन में अपने घर में सुना करता था.
हेलेन से मुझे कोई शिकायत नहीं थी. मेरे लिए उसने क्या नहीं किया था. उसने चपाती बनाना सीख लिया था. दाल छोंकना सीख लिया था. शादी के कुछ समय बाद ही वह मेरे मुंह से सुने गीत टप्पे भी गुनगुनाने लगी थी. कभी कभी सलवार कमीज पहन कर मेरे साथ घूमने निकल पड़ती. रसोईघर की दीवार पर उसने भारत का एक मानचित्र टांग दिया था जिस पर अनेक स्थानों पर लाल पेंसिल से निशान लगा रखे थे कि जालन्धर कहां है और दिल्ली कहां है और अमृतसर कहां है जहां मेरी बड़ी बहन रहती थी. भारत सम्बंधी जो किताब मिलती, उठा लाती, जब कभी कोई हिन्दुस्तानी मिल जाता उसे आग्रह अनुरोध करके घर ले आती. पर उस समय मेरी नज़र में यह सब बनावट था, नकल थी, मुलम्मा था-इन्सान क्यों नहीं विवेक और समझदारी के बल पर अपना जीवन व्यतीत कर सकता? क्यों सारा वक़्त तरह तरह के अरमान उसके दिल को मथते रहते हैं?
‘फिर?’ मैंने आग्रह से पूछा.
उसने मेरी ओर देखा और उसके चेहरे की मांसपेशियों में हल्का सा कम्पन हुआ. वह मुस्कराकर कहने लगा, ‘तुम्हे क्या बताऊं.’ तभी मैं एक भूल कर बैठा. हर इन्सान कहीं न कहीं पागल होता है और पागल बना रहना चाहता है. जब मैं विदा लेने लगा और तिलकराज कभी मुझे गलबहियां देकर और कभी धक्का देकर बिठा रहा था और हेलेन भी पहले से दरवाज़े पर जा खड़ी हुई थी, तभी तिलकराज की पत्नी लपककर रसोईघर की ओर से आई और बोली, ‘हाय, आपलोग जा रहे हैं? यह कैसे हो सकता है? मैंने तो खास आपके लिए सरसों का साग और मक्के की रोटियां बनाई हैं.’
मैं ठिठक गया. सरसों का साग और मक्की की रोटियां पंजाबियों का चहेता भोजन है.
‘भाभी, तुम भी अब कह रही हो? पहले अंट संट खिलाती रही हो और अब घर जाने लगे हैं तो….’
‘मैं इतने लोगों के लिए कैसे मक्की की रोटियां बना सकती थी? अकेली बनाने वाली जो थी. मैंने आपके लिए थोड़ी सी बना दी. यह कहते थे कि आपको सरसों का साग और मक्की की रोटी बहुत पसंद है…’
सरसों का साग और मक्की की रोटी. मैं चहक उठा, और तिलकराज को सम्बोधन करके कहा. ‘ओ हरामी, मुझे बताया क्यों नहीं?’ और उसी हिलोरे में हेलेन से कहा, ‘आओ हेलेन, भाभी ने सरसों का साग बनाया है. यह तो तुम्हे चखना ही होगा.’
हेलेन खीज उठी. पर अपने को संयत कर मुस्कुराती हुई बोली, ‘मुझे नहीं, तुम्हें चखना होगा.’ फिर धीरे से कहने लगी, ‘मैं बहुत थक गई हूं. क्या यह साग कल नहीं खाया जा सकता?’
सरसों का साग, नाम से ही मैं बावला हो उठा था. उधर शराब का हल्का हल्का नशा भी तो था.
‘भाभी ने ख़ास हमारे लिए बनाया है. तुम्हे ज़रूर अच्छा लगेगा.’
फिर बिना हेलेन के उत्तर का इंतज़ार किए, साग है तो मैं तो रसोईघर के अन्दर बैठ कर खाऊंगा. मैंने बच्चों की तरह लाड़ से कहा, ‘चल बे, उल्लू के पट्ठे, उतार जूते, धो हाथ और बैठ जा थाली के पास! एक ही थाली में खाएंगे.’
छोटा सा रसोईघर था. हमारे अपने घर में भी ऐसा ही रसोईघर हुआ करता था जहां मां अंगीठी के पास रोटियां सेंका करती थी और हम घर के बच्चे, साझी थालियों में झुके लुकमे तोड़ा करते थे.
फिर एक बार चिरपरिचित दृश्य मानों अतीत में से उभर कर मेरी आंखों के सामने घूमने लगा था और मैं आत्मविभोर होकर उसे देखे जा रहा था. चुल्हे की आग की लौ में तिलकराज की पत्नी के कान का झूमर चमक चमक जाता था. सोने के कांटे में लाल नगीना पंजाबियों को बहुत फबता है. इस पर हर बार तवे पर रोटी सेंकने पर उसकी चूड़ियां खनक उठतीं और वह दोनो हाथों से गरम गरम रोटी तवे पर से उतार कर हंसते हुए हमारी थाली में डाल देती.
यह दृश्य मैं बरसों के बाद देख रहा था और यह मेरे लिए किसी स्वपन से भी अधिक सुन्दर और हृदयग्राही था. मुझे हेलेन की सुध भी नहीं रही. मैं बिल्कुल भूले हुए था कि बैठक में हेलेन अकेली बैठी मेरा इंतज़ार कर रही है. मुझे डर था कि अगर मैं रसोईघर में से उठ गया तो स्वपन भंग हो जाएगा. यह सुन्दरतम चित्र टुकड़े टुकड़े हो जाएगा. लेकिन तिलकराज की पत्नी उसे नहीं भूली थी. वह सबसे पहले एक तशतरी में मक्की की रोटी और थोड़ा सा साग और उस पर थोड़ा सा मक्खन रख कर हेलेन के लिए ले गई थी. बाद में भी, दो एक बार बीच बीच में उठ कर उसके पास कुछ न कुछ ले जाती रही थी.
खाना खा चुकने पर, जब हम लोग रसोईघर में से निकल कर बैठक में आए तो हेलेन कुर्सीं में बैठे बैठे सो गई थी और तिपाई पर मक्की की रोटी अछूती रखी थी. हमारे क़दमों की आहट पाकर उसने आंखें खोलीं और उसी शालीन शिष्ट मुस्कान के साथ उठ खड़ी हुई.
विदा लेकर जब हम लोग बाहर निकले तो चारों ओर सन्नाटा छाया था. नुक्क्ड़ पर हमें एक तांगा मिल गया. तांगे में घूमे बरसों बीत चुके थे, मैंने सोचा हेलेन को भी इसकी सवारी अच्छी लगेगी. पर जब हम लोग तांगे में बैठे कर घर की ओर जाने लगे तो रास्ते में हेलेन बोली, ‘कितने दिन और तुम्हारा विचार जालन्धर में रहने का है?’
‘क्यों अभी से ऊब गयीं क्या?’ आज तुम्हे बहुत परेशान किया ना, आई एम सारी.’
हेलेन चुप रही, न हूं, न हां.
‘हम पंजाबी लोग सरसों के साग के लिए पागल हुए रहते हैं. आज मिला तो मैंने सोचा जी भर के खाओ. तुम्हे कैसे लगा?’
‘सुनो, मैं सोचती हूं मैं यहां से लौट जाऊं, तुम्हारा जब मन आए, चले आना.’
‘यह क्या कह रही हो हेलेन, क्या तुम्हें मेरे लोग पसंद नहीं हैं?’
भारत में आने पर मुझे मन ही मन कई बार यह ख़याल आया था कि अगर हेलेन और बच्ची साथ में नहीं आतीं तो में खुल कर घूम फिर सकता था. छुट्टी मना सकता था. पर मैं स्वयं ही बड़े आग्रह से उसे अपने साथ लाया था. मैं चाहता था कि हेलेन मेरा देश देखे, मेरे लोगों से मिले, हमारी नन्ही बच्ची के संस्कारों में भारत के संस्कार भी जुड़ें और यदि हो सके तो मैं भारत में ही छोटी-मोटी नौकरी कर लूं.
हेलेन की शिष्ट, सन्तुलित आवाज़ में मुझे रुलाई का भास हुआ. मैंने दुलार से उसे आलिंगन में भरने की कोशिश की. उसमे धीरे से मेरी बांह को परे हटा दिया. मुझे दूसरी बार उसके इर्द गिर्द अपनी बांह डाल देनी चाहिए थी, लेकिन मैं स्वयं तुनक उठा.
‘तुम तो बड़ी डींग मारा करतीं हो कि तुम्हे कुछ भी बुरा नहीं लगता और अभी एक घंटे में ही कलई खुल गई.’
तांगे में हिचकोले आ रहे थे. पुराना फटीचर सा तांगा था, जिसके सब चुल ढीले थे. हेलेन को तांगे के हिचकोले परेशान कर रहे थे. ऊबड़ खाबड़, गड्डों से भरी सड़क पर हेलेन बार बार संभल कर बैठने की कोशिश कर रही थी.
‘मैं सोचती हूं, मैं बच्ची को लेकर लौट जाऊंगी. मेरे यहां रहते तुम लोगों से खुलकर नहीं मिल सकते.’ उसकी आवाज़ में औपचारिकता का वैसा ही पुट था जैसा सरसों के साग की तारीफ़ करते समय रहा होगा, झूठी तारीफ़ और यहां झूठी सद्भावना.
‘ तुम ख़ुद सारा वक़्त गुमसुम बैठी रही हो. मैं इतने चाव से तुम्हे अपना देश दिखाने लाया हूं.’
‘तुम अपने दिल की भूख मिटाने आए हो, मुझे अपना देश दिखाने नहीं लाए,’ उसने स्थिर, समतल, ठण्डी आवाज़ में कहा.’और अब मैंने तुम्हारा देश देख लिया है.’
मुझे चाबुक सी लगी.
‘इतना बुरा क्या है मेरे देश में जो तुम इतनी नफ़रत से उसके बारे में बोल रही हो? हमारा देश ग़रीब है तो क्या, है तो हमारा अपना.’
‘मैंने तुम्हारे देश के बारे में कुछ नहीं कहा.’
‘तुम्हारी चुप्पी ही बहुत कुछ कह देती है. जितनी ज़्यादा चुप रहती हो उतना ही ज़्यादा विष घोलती हो.’
वह चुप हो गई. अन्दर ही अन्दर मेरा हीन भाव जिससे उन दिनों हम सब हिन्दुस्तानी ग्रस्त हुआ करते थे, छटपटाने लगा था. आक्रोश और तिलमिलाहट के उन क्षणों में भी मुझे अन्दर ही अन्दर कोई रोकने की कोशिश कर रहा था. अब बात और आगे नहीं बढ़ाओ, बाद में तुम्हें अफसोस होगा, लेकिन मैं बेकाबू हुआ जा रहा था. अंधेरे में यह भी नहीं देख पाया कि हेलेन की आंखें भर आई हैं और वह उन्हें बार बार पोंछ रही है. तांगा हिचकोले खाता बढ़ा जा रहा था और साथ साथ मेरी बौखलाहट भी बढ़ रही थी. आखिर तांगा हमारे घर के आगे जा खड़ा हुआ. हमारे घर की बत्ती जलती छोड़कर घर के लोग अपने अपने कमरों में आराम से सो रहे थे. कमरे मे पहुंच कर हेलेन ने फिर एक बार कहा, ‘तुम्हे किसी हिन्दुस्तानी लड़की से शादी करनी चाहिए थी. उसके साथ तुम ख़ुश रहते. मेरे साथ तुम बंधे बंधे महसूस करते हो.’
हेलेन ने आंख उठा कर मेरी ओर देखा. उसकी नीली आंखें मुझे कांच कि बनी लगी, ठन्डी, कठोर, भावनाहीन, ‘तुम सीधा क्यों नहीं कहती हो कि तुम्हे एक हिन्दुस्तानी के साथ ब्याह नहीं करना चाहिए था. मुझ पर इस बात का दोष क्यों लगाती हो?’
‘मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा,’ बह बोली और पार्टीशन के पीछॆ कपड़े बदलने चली गई.
दीवार के साथ एक ओर हमारी बच्ची पालने में सो रही थी. मेरी आवाज़ सुन कर वह कुनकुनाई, इस पर हेलेन झट से पार्टीशन के पीछे से लौट आई और बच्ची को थपथपाकर सुलाने लगी. बच्ची फिर से गहरी नींद में सो गई. और हेलेन पार्टीशन की ओर बढ़ गई. तभी मैंने पार्टीशन की और जाकर गुस्से से कहा, ‘जब से भारत आए हैं, आज पहले दिन कुछ दोस्तों से मिलने का मौक़ा मिला है, तुम्हे वह भी बुरा लगा है. लानत है ऐसी शादी पर!’
मैं जानता था पार्टीशन के पीछे से कोई उत्तर नहीं आएगा. बच्ची सो रही हो तो हेलेन कमरे में चलती भी दबे पांव थी. बोलने का तो सवाल ही नहीं उठता.
पर वह उसी समतल आवाज़ में धीरे से बोली,‘तुम्हे मेरी क्या परवाह. तुम तो मज़े से अपने दोस्त की बीवी के साथ फ़्लर्ट कर रहे थे.’
‘हेलेन!’ मुझे आग लग गई,‘क्या बक रही हो.’
मुझे लगा जैसे उसने एक अत्यंत पवित्र, अत्यंत कोमल और सुन्दर चीज़ को एक झटके में तोड़ दिया हो.
‘तुम समझती हो मैं अपने मित्र की बीवी के साथ फ़्लर्ट कर रहा था?’
‘मैं क्या जानूं तुम क्या कर रहे थे. जिस ढंग से तुम सारा वक़्त उसकी ओर देख रहे थे…’
दुसरे क्षण मैं लपक कर पार्टीशन के पीछे जा पहुंचा और हेलेन के मुंह पर सीधा थप्पड़ दे मारा.
उसने दोनो हाथों से अपना मुंह ढांप लिया. एक बार उसकी आंखें टेढ़ी हो कर मेरी ओर उठीं. पर वह चिल्लायी नहीं. थप्पड़ पड़ने पर उसका सिर पार्टीशन से टकराया था. जिससे उसकी कनपटी पर चोट आई थी.
‘मार लो, अपने देश में लाकर तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करोगे, मैं नहीं जानती थी.’
उसके मुंह से यह वाक्य निकलने की देर थी कि मेरी टांगे लरज गयीं और सारा शरीर ठंडा पड़ गया. हेलेन ने चेहरे पर से हाथ हटा लिए थे. उसके गाल पर थप्पड़ का गहरा निशान पड़ गया था. पार्टीशन के पीछे वह केवल शमीज पहने सिर झुकाए खड़ी थी क्योंकि उसने फ्राक उतार दिया था. उसके सुनहरे बाल छितराकर उसके माथे पर फैले हुए थे.
यह मैं क्या कर बैठा था? यह मुझे क्या हो गया था? मैं आंखें फाड़े उसकी ओर देखे जा रहा था और मेरा सारा शरीर निरुद्ध हुआ जा रहा था. मेरे मुंह से फटी फटी सी एक हुंकार निकली, मानो दिल का सार क्षोभ और दर्द अनुकूल शब्द न पाकर मात्र क्रंदन में ही छटपटाकर व्यक्त हो पाया हो. मैं पार्टीशन के पीछे से निकल कर बाहर आंगन में चला गया. यह मुझसे क्या हो गया है? यही एक वाक्य मेरे मन में बार बार चक्कर काट रहा था…
इस घटना के तीन दिन बाद हमने भारत छोड़ दिया. मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब लौट कर नहीं आऊंगा. उस दिन जो जालन्धर छोड़ा तो फिर लौट कर नहीं गया…..
सीढ़ियों पर क़दमों की आवाज़ आई. उसी वक़्त रसोईघर से हेलेन भी एप्रेन पहने चली आई. सीढ़ियों की ओर से हंसने चहकने और तेज़ तेज़ सीढ़ियां चढ़ने की आवाज़ आई. जोर से दरवाज़ा खुला और हांफती हांफती दो युवतियां-लाल साहब की बेटियां-अन्दर दाखिल हुईं. बड़ी बेटी ऊंची लम्बी थी, उसके बाल काले थे और आंखें किरमिची रंग की थीं. छोटी के हाथ में किताबें थीं, उसका रंग कुछ कुछ सांवला था, और आंखों में नीली नीली झाईयां थीं. दोनों ने बारी-बारी से मां और बाप के गाल चूमे, फिर झट से चाय की तिपायी पर से केक के टुकड़े उठा उठा कर हड़पने लगीं. उनकी मां भी कुर्सी पर बैठ गई और दोनो बेटियां दिन भर की छोटी छोटी घटनाएं अपनी भाषा में सुनाने लगीं. सारा घर उनकी चहकती आवाज़ों से गूंजने लगा. मैंने लाल की ओर देखा. उसकी आंखों में भावुकता के स्थान पर स्नेह उतर आया था.
‘यह सज्जन भारत से आए हैं. यह भी जालन्धर के रहने वाले हैं.’
बड़ी बेटी ने मुस्कुरा कर मेरा अभिवादन किया. फिर चहक कर बोली, ‘जालन्धर तो अब बहुत कुछ बदल गया होगा. जब मैं वहां गई थी, तब तो वह बहुत पुराना पुराना सा शहर था. क्यों मां?’ और खिलखिलाकर हंसने लगी.
लाल का अतीत भले ही कैसा रहा हो, उसका वर्तमान बड़ा समृद्ध और सुन्दर था.
वह मुझे मेरे होटल तक छोड़ने आया. खाड़ी के किनारे ढलती शाम के सायों में देर तक हम टहलते बतियाते रहे. वह मुझे अपने नगर के बारे में बताता रहा, अपने व्यवसाय के बारे में, इस नगर में अपनी उपलब्धियों के बारे में. वह बड़ा समझदार और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति निकला. आते-जाते अनेक लोगों के साथ उसकी दुआ सलाम हुई. मुझे लगा शहर में उसकी इज़्ज़त है. और मैं फिर उसी उधेड़बुन में खो गया कि इस आदमी का वास्तविक रूप कौन सा है? जब वह यादों में खोया अपने देश के लिए छटपटाता है, या एक लब्धप्रतिष्ठ और सफल इंजीनियर जो कहां से आया और कहां आकर बस गया और अपनी मेहनत से अनेक उपलब्धियां हासिल कीं?
विदा होते समय उसने मुझे फिर बांहों में भींच लिया और देर तक भींचे रहा, और मैंने महसूस किया कि भावनाओं का ज्वार उसके अन्दर फिर से उठने लगा है, और उसका शरीर फिर से पुलकने लगा है.
‘यह मत समझना कि मुझे कोई शिकायत है. ज़िंदगी मुझपर बड़ी मेहरबान रही है. मुझे कोई शिकायत नहीं है, अगर शिकायत है तो अपने आप से….’ फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह हंस कर बोला, ‘हां एक बात की चाह मन में अभी तक मरी नहीं है, इस बुढ़ापे में भी नहीं मरी है कि सड़क पर चलते हुए कभी अचानक कहीं से आवाज़ आए ’ओ हरामज़ादे!’ और मैं लपक कर उस आदमी को छाती से लगा लूं,’ कहते हुए उसकी आवाज़ फिर से लड़खड़ा गई.

Illustration: Pinterest

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