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पहला सफ़ेद बाल: बेवफ़ा बालों पर एक फ़िलॉसफ़िकल चर्चा (लेखक: हरिशंकर परसाई)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
July 28, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Harishankar-Parsai_Vyangya
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बाल सफ़ेद होना एक सहज और अनिवार्य क़ुदरती प्रक्रिया है. फिर भी हम अपना पहला सफ़ेद बाल देखकर डर जाते हैं. हरिशंकर परसाई की यह रचना पहले सफ़ेद बाल को देखकर मन में आनेवाले डर, सवाल और फ़िलॉसफ़ी को ख़ूबसूरती से प्रस्तुत कर रही है.

आज पहला सफ़ेद बाल दिखा. कान के पास काले बालों के बीच से झांकते इस पतले रजत-तार ने सहसा मन को झकझोर दिया.
ऐसा लगा जैसे बसन्त में वनश्री देखता घूम रहा हूं कि सहसा किसी झाड़ी से शेर निकल पड़े या पुराने ज़माने में किसी मज़बूत माने जानेवाले क़िले की दीवार पर रात को बेफ़िक्र घूमते गरबीले क़िलेदार को बाहर से चढ़ते हुए शत्रु के सिपाही की कलगी दिख जाए या किसी पार्क के कुंज में अपनी राधा को हृदय से लगाए प्रेमी को एकाएक राधा का बाप आता दिख जाए.
कालीन पर चलते हुए कांटा चुभने का दर्द बड़ा होता है. मैं अभी तक कालीन पर चल रहा था. रोज़ नरसीसस जैसी आत्म-रति से आईना देखता था, घुंघराले काले केशों को देखकर, सहलाकर, संवारकर, प्रसन्न होता था. उम्र को ठेलता जाता था, वार्द्धक्य को अंगूठा दिखाता था. पर आज कान में यह सफ़ेद बाल फ़ुस-फ़ुसा उठा,‘भाई मेरे, एक बात ‘कानफ़िडेन्स’ में कहूं- अपनी दुकान समेटना अब शुरू कर दो!’
तभी से दुखी हूं. ज्ञानी समझाएंगे-जो अवश्यम्भावी है, उसके होने का क्या दु:ख? जी हां, मौत भी तो अवश्यम्भावी है. तो क्या ज़िन्दगी-भर मरघट में अपनी चिता रचते रहें? और ज्ञानी से कहीं हर दुख जीता गया? वे क्या कम ज्ञानी थे, जो मरणासन्न लक्ष्मण का सिर गोद में लेकर विलाप कर रहे थे,‘मेरो सब पुरूषारथ थाको!’ स्थितप्रज्ञ दर्शन अर्जुन को समझानेवाले की आंख उद्धव से गोकुल की व्यथा-कथा सुनकर, डबडबा आई थी. मरण को त्यौहार माननेवाले ही मृत्यु से सबसे अधिक भयभीत होते हैं. वे त्यौहार का हल्ला करके अपने हृदय के सत्य भय को दबाते हैं.
मैं वास्तव में दुखी हूं. सिर पर सफ़ेद कफ़न बुना जा रहा है; आज पहला तार डाला गया है. उम्र बुनती जाएगी इसे और यह यौवन की लाश को ढंक लेगा. दु:ख नहीं होगा मुझे? दु:ख उन्हें नहीं होगा, जो बूढ़े ही जन्मे हैं.
मुझे ग़ुस्सा है, इस आईने पर. वैसे तो यह बड़ा दयालु है, विकृति को सुधार-कर चेहरा सुडौल बनाकर बताता रहा है. आज एकाएक यह कैसे क्रूर हो गया! क्या इस एक बाल को छिपा नहीं सकता था? इसे दिखाए बिना क्या उसकी ईमानदारी पर बड़ा कलंक लग जाता? उर्दू-कवियों ने ऐसे संवेदनशील आईनों का जिक्र किया है, जो माशूक के चेहरे में अपनी ही तस्वीर देखने लगते है, जो उस मुख के सामने आते ही गश खाकर गिर पड़ते है; जो उसे पूरी तरह प्रतिबिम्बित न कर सकने के कारण चटक जाते हैं. सौन्दर्य का सामना करना कोई खेल नहीं है. मूसा बेहोश हो गया था. ऐसे भले आईने होते हैं, उर्दू-कवियों के. और यह एक हिन्दी लेखक का आईना है.
मगर आईने का क्या दोष? बाल तो अपना सफ़ेद हुआ है. सिर पर धारण किया, शरीर का रस पिलाकर पाला, हजारों शीशियां तेल की उड़ेल दीं-और ये धोखा दे गए. संन्यासी शायद इसीलिए इनसे छुट्टी पा लेता है कि उस विरागी का साहस भी इनके सामने लड़खड़ा जाता है.
आज आत्मविश्वास उठा जाता है; साहस छूट रहा है. क़िले में आज पहिली सुरंग लगी है. दुश्मन को आते अब क्या देर लगेगी! क्या करूं? इसे उखाड़ फ़ेंकूं? लेकिन सुना है, यदि एक सफ़ेद बाल को उखाड़ दो, तो वहां एक गुच्छा सफ़ेद हो जाता है. रावण जैसा वरदानी होता, कमबख्त. मेरे चाचा ने एक नौकर सफ़ेद बाल उखाड़ने के लिए ही रखा था. पर थोड़े ही समय में उनके सिर पर कांस फ़ूल उठा था. एक तेल बड़ा ‘मनराखन’ हो गया है. कहते हैं उससे बाल काले हो जाते है (नाम नही लिखता, व्यर्थ प्रचार होगा), उस तेल को लगाऊं? पर उससे भी शत्रु मरेगा नहीं, उसकी वर्दी बदल जाएगी. कुछ लोग खिजाब लगाते है. वे बड़े दयनीय होते हैं. बुढ़ापे से हार मानकर, यौवन का ढोंग रचते हैं. मेरे एक परिचित खिजाब लगाते थे. शनिवार को वे बूढ़े लगते और सोमवार को जवान-इतवार उनका रंगने का दिन था. न जाने वे ढलती उम्र में काले बाल किसे दिखाते थे! शायद तीसरे विवाह की पत्नी को. पर वह उन्हें बाल रंगते देखती तो होगी ही. और क्या स्त्री को केवल काले बाल दिखाने से यौवन का भ्रम उत्पन्न किया जा सकता है? नहीं, यह सब नहीं होगा. शत्रु को सिर पर बिठाए रखना पड़ेगा. जानता हूं, धीरे-धीरे सब वफ़ादार बालों को अपनी ओर मिला लेगा.
याद आती हैं, मेरे समानधर्मी, कवि केशवदास की, जिसे ‘चन्द्रवदन मृगलोचनी’ ने बाबा कह दिया, तो वह बालों पर बरस पड़ा था. हे मेरे पूर्वज, दुखी, रसिक कवि! तेरे मन की ऐंठन मैं अब बख़ूबी समझ सकता हूं. मैं चला आ रहा हूं, तेरे पीछे. मुझे ‘बाबा’ तो नहीं, पर ‘दादा’ कहने लगी है-बस, थोड़ा ही फ़ासला है! मन बहुत विचलित है. आत्म-रति के अतिरेक का फ़ल नरसीसस ने भोगा था, मुझे भी भोगना पड़ेगा. मुझे एक अन्य कारण से डर है. मैने देखा है, सफ़ेद बाल के आते ही आदमी हिसाब लगाने लगता है कि अब तक क्या पाया, आगे क्या करना है और भविष्य के लिए क्या संचय किया. हिसाब लगाना अच्छा नहीं होता. इससे ज़िन्दगी में वणिक-वृत्ति आती है और जिस से कुछ मिलता है, और जिस दिशा से कुछ मिलता है, आदमी उसी दिशा में सिजदा करता है. बड़े-बड़े ‘हीरो’ धराशायी होते है. बड़ी-बड़ी देव-प्रतिमाएं खण्डित होती है. राजनीति, साहित्य, जन-सेवा के क्षेत्र की कितनी महिमा-मण्डित मूर्तियां इन आंखों ने टूटते देखी हैं; कितनी आस्थाएं भंग होते देखी है. बड़ी ख़तरनाक उम्र है यह; बड़े समझौते होते सफ़ेद बालों के मौसम में. यह सुलह का झण्डा सिर पर लहराने लगा है. यह घोषणा कर रहा है,‘अब तक के शत्रुओ! मैने हथियार डाल दिए हैं. आओ, सन्धि कल लें.’ तो क्या सन्धि होगी-उनसे, जिनसे संघर्ष होता रहा? समझौता होगा उससे, जिसे ग़लत मानता रहा?
यौवन सिर्फ़ काले बालों का नाम नहीं है. यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तात्परता का नाम है; यौवन साहस, उत्साह, निर्भयता और खतरे-भरी ज़िन्दगी का नाम हैं; यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है. और सबसे ऊपर, बेहिचक बेवकूफ़ी करने का नाम यौवन है. पर आज एकदम ये निर्णायक प्रश्न मेरे सामने क्यों खड़े हो गए? बालों की जड़ बहुत गहरी नहीं होती! हृदय से तो उगता नहीं है यह! यह सतही है, बेमानी? यौवन सिर्फ़ काले बालों का नाम नहीं है. यौवन नवीन भाव, नवीन विचार ग्रहण करने की तात्परता का नाम है; यौवन साहस, उत्साह, निर्भयता और खतरे-भरी ज़िन्दगी का नाम हैं; यौवन लीक से बच निकलने की इच्छा का नाम है. और सबसे ऊपर, बेहिचक बेवकूफ़ी करने का नाम यौवन है. मैं बराबर बेवकूफ़ी करता जाता हूं. यह सफ़ेद झण्डा प्रवचना है. हिसाब करने की कोई जल्दी नहीं है. सफ़ेद बाल से क्या होता है?
यह सब मैं किसी दूसरे से नहीं कह रहा हूं, अपने आपको ही समझा रहा हूं. द्विमुखी संघर्ष है यह-दूसरों को भ्रमित करना और मन को समझाना. दूसरों से भय नहीं. सफ़ेद बालों से किसी और का क्या बिगड़ेगा? पर मन तो अपना है. इसे तो समझाना ही पड़ेगा कि भाई तू परेशान मत हो. अभी ऐसा क्या हो गया है! यह् तो पहला ही है. और फ़िर अगर तू नही ढीला होता, तो क्या बिगड़नेवाला है!
पहले सफ़ेद बाल का दिखना एक पर्व है. दशरथ को कान के पास सफ़ेद बाल दिखे, तो उन्होंने राम को राजगद्दी देने का संकल्प किया. उनके चार पुत्र थे. उन्हें देने का सुभीता था. मैं किसे सौंपू? कोई कन्धा मेरे सामने नहीं हैं, जिस पर यह गौरवमय भार रख दूं. किस पुत्र को सौपूं? मेरे एक मित्र के तीन पुत्र हैं. सबेरे यह मेरा दशरथ अपने कुमारों को चुल्लू-चुल्लू पानी मिला दूध बांटता है. इनके कन्धे ही नहीं हैं-भार कहां रखेगें? बड़े आदमियों के दो तरह के पुत्र होते हैं-वे जो वास्तव में हैं, पर कहलाते नहीं है और वे जो कहलाते है, पर हैं नहीं. जो कहलाते हैं, वे धन-सम्पत्ति के मालिक बनते हैं और जो वास्तव में हैं, वे कही पंखा खींचते हैं या बर्तन मांजते हैं. होने से कहलाना ज़्यादा लाभदायक है.
अपना कोई पुत्र नहीं. होता तो मुश्क़िल में पड़ जाते. क्या देते? राज-पाट के दिन गए, धन-दौलत के दिन है. पर पास ऐसा कुछ नहीं है, जो उठाकर दे दिया जाए. न उत्तराधिकारी है, न उसका प्राप्य. यह पर्व क्या बिना दिए चला जाएगा.
पुत्र तो पीढ़ियों के होते हैं. केवल जन्मदाता किसी का पिता नहीं होता. विराट भविष्य को एक पुत्र ले भी कैसे सकता हैं? इससे क्या कि कौन किसका पुत्र होगा, कौन किसका पिता कहलाएगा! मेरी पीढ़ी के समस्त पुत्रों! मैं तुम्हें वह भविष्य ही देता हूं. पर हम क्या दें? महायुद्ध की छाया में बढ़े हम लोग; हम ग़रीबी और अभाव में पले लोग; केवल जिजीविषा खाकर जिए हम लोग. हमारी पीढ़ी के बाल तो जन्म से ही सफ़ेद हैं. हमारे पास क्या हैं? हां, भविष्य है, लेकिन वह भी हमारा नहीं, आनेवालों का है. तो इतना रंक नही हूं-विराट भविष्य तो है. और अब उत्तराधिकारी की समस्या भी हल हो गई. पुत्र तो पीढ़ियों के होते हैं. केवल जन्मदाता किसी का पिता नहीं होता. विराट भविष्य को एक पुत्र ले भी कैसे सकता है? इससे क्या कि कौन किसका पुत्र होगा, कौन किसका पिता कहलाएगा! मेरी पीढ़ी के समस्त पुत्रों! मैं तुम्हें वह भविष्य ही देता हूं. यद्यपि वह अभी मूर्त्त नहीं हुआ है, पर हम जुटे हैं, उसे मूर्त्त करने. हम नीव में धंस रहे हैं कि तुम्हारे लिए एक भव्य भविष्य रचा जा सके. वह एक वर्तमान बनकर ही आएगा-हमारा तो कोई वर्तमान भी नही था. मैं तुम्हें भविष्य देता हूं और इसे देने का अर्थ यह है कि हम अपने-आपको दे रहे हैं, क्योंकि उसके निर्माण में अपने-आपको मिटा रहे हैं.
लो सफ़ेद बाल दिखने के इस पर्व पर यह तुम्हारा प्राप्य संभालो. होने दो हमारे बाल सफ़ेद. हम काम में तो लगे हैं-जानते हैं कि काम बन्द करने और मरने का क्षण एक ही होता है. हमें तुमसे कुछ नहीं चाहिए. ययाति-जैसे स्वार्थी हम नहीं हैं जो पुत्र की जवानी लेकर युवा हो गया था. बाल के साथ, उसने मुंह भी काला कर लिया.
हमें तुमसे कुछ नहीं चाहिए. हम नींव में धंस रहे है; लो हम तुम्हें कलश देते हैं.

Illustration: Pinterest

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