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पांसा पलट गया: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
March 5, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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पांसा पलट गया: डॉ संगीता झा की कहानी
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यह कहानी है एक पिता और उसके पुत्र की. क्या होता है, जब पिता और पुत्र दोनों का दिल एक ही लड़की पर आ जाता है. क्या पिता अपने क़दम पीछे खींचेगा? या पुत्र को क़ुर्बानी देनी होगी? पढ़ें डॉ संगीता झा की कहानी पांसा पलट गया.

मैं और पप्पा अकेले ही घर पर रहते थे. अकेला बेटा था मैं, मां अट्ठारह साल की थी और मैं पैदा हो गया था. मैं और मां बड़ी बहन और छोटे भाई की तरह थे. पप्पा भी सिर्फ़ बाईस बरस के थे तब मैं पैदा हो गया. मेरे पैदा होने के बाद पप्पा ने अपनी कम्पनी शुरू कर दी और हम जामनगर से अहमदाबाद आ गए. थे तो हम गुजराती, लेकिन मां के पप्पा यानी मेरे नाना बहुत सारे गुजरातियों की तरह कमाने साउथ अफ्रीका चले गए थे, इससे मां बहुत प्रोग्रेसिव थी. घर का स्टैंडर्ड लेडी ऑफ़ दी हाउस ही बनाती है. नाना मेरे बहुत बड़े होते तक साउथ अफ्रीका में ही थे, इससे इम्पोर्टेड खिलौने, पेन्सल और बैग्स बहुत थे मेरे पास. मेरे जन्म ने एक बड़े आदमी की बेटी के सारे अरमानों पर पानी फेर दिया. अठारह साल की लड़की ख़ुद बच्ची थी और एक बच्चे का जन्म. मैं तो मानो नानी का ही बेटा था, मां का छोटा भाई, जिससे मां को मानो मुझसे सिबलिंग राइवलरी थी. कई बार मुझे नानी की गोद से हटा ख़ुद अपना सर रख देती थी. नानी-नाना, मां-पप्पा ने मिलकर मुझे फट्टू बना दिया था, जो मैं आज तक हूं.
मुझे आज भी याद है, मैं छः साल का था और सांप सीढ़ी के खेल में लाख चीटिंग करने के बाद भी मां को नाइंटी एट में सांप ने काट लिया तो मां ने ग़ुस्से में आकर पूरा गेम ही फाड़ दिया. कैरम में मां की रानी अगर अंदर जाती तो उसके पीछे एक गोटी ज़बरन किसी भी तरीक़े से लगभग ढकेल अंदर डाल देती. पप्पा ख़ुद को सेटल करने में व्यस्त थे और मैं और मां लुका छिपी खेलने में. मां मेरे साथ स्कूल ही नहीं जाती थी बाक़ी सारे काम हम साथ करते थे. मां जब मां बनती तो हमेशा यही चाहती कि मैं पढ़ लिख कर अच्छा सीए, डॉक्टर या ऑफ़िसर बनूं. इसीलिए मेरी पढ़ाई पर बहुत ध्यान देती और मेरे नम्बर कम आने पर टीचर से जाकर युद्ध करती. मैं इसी शर्मिंदगी से बचने के लिए बहुत अच्छा पढ़ता और अच्छे नम्बर लाता, नहीं तो मुझे डर रहता कि मां आकर मेरी टीचर से झगड़ा करेगी. कुल मिला कर नानी तीन बच्चों को पाल रही थी पप्पा, मां और मैं. मैं और मां लड़ते भी बहुत थे पर एक दूसरे के बिना रह भी नहीं सकते थे. मेरी क्लास में पढ़ाई जाने वाली सारी चीज़ें मुझसे ज़्यादा मां को याद रहती थीं. मेरे एग्ज़ाम का पेपर पढ़ते ही मां गेस कर लेती थी कि मुझे कितने मार्क्स आएंगे क्योंकि जो मां को आता था, वो ही मुझे भी आता था. घंटों बैठ मैथ के सवाल करती और जब तक सही उत्तर नहीं आ जाता परेशान ही रहती. मां की इसी मेहनत का परिणाम था कि मेरा अहमदाबाद के ही अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन हो गया.
सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था. मां ही मेरी दोस्त गर्ल फ्रेंड सब कुछ थी. कॉलेज की हर न्यूज़ मां को जानना ज़रूरी था. मैं भी कभी-कभी झल्लाता कि मां मां कब बनेगी. पर पता नहीं क्यों मां से एक ऐसा लगाव था कि मैं हर लड़की में मां को ढूंढ़ता था, इससे प्यार करने में नाक़ामयाब ही रहा. लेकिन नानी, नानू, मां पप्पा के प्यार के बाद किसी और प्यार की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. मेरे फ़ाइनल ईयर के इम्तिहान होने वाले थे और मां चाहती थी कि मुझे गोल्ड मेडल मिले. मां, नानू और नानी द्वारका जाकर प्रार्थना करना चाहते थे. मैं और पप्पा घर पर ही रह गए. पता नहीं क्या मर्ज़ी थी ईश्वर की कि तीनों द्वारकाधीश पहुंच पाते उससे पहले ही ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुला लिया. रास्ते में उनकी कार का एक ट्रक से ऐक्सिडेंट हुआ और सब कुछ ख़त्म. मैं और पप्पा घर और दुनिया में अकेले रह गए. मैं बाईस और पप्पा पैंतालीस, सम्भालने वाले हम दोनों ही थे एक दूसरे को. मां को कभी घर के बाहर की ज़िंदगी पसंद नहीं थी और अपने रिश्तों को लेकर काफ़ी पज़ेसिव भी थी. इससे ना पप्पा के और ना ही मेरे कोई अच्छे दोस्त बन पाए. मैं पप्पा का भी पप्पा बन गया और एग्ज़ाम के बाद उनकी कम्पनी में मदद करने लगा.
पप्पा काफ़ी चुप चुप रहते थे. पप्पा की एक सेक्रेटरी थी निशा मेहता, क़रीब तेइस चौबीस की होगी, मेरा ऑफ़िस में बहुत ध्यान रखती. अक्सर मेरे लिए अपने घर से कुछ ना कुछ बना कर लाती, कभी दाल ढोकली, तो कभी ख़मन या दाबेली. मैं सोचता रहता निशा जी को मेरी पसंद कैसे मालूम है. एक दिन मैं ऑफ़िस में सर झुकाए मां को याद कर रहा था और लगा पीछे से मां मेरा सिर सहला रही है. मैंने भी सहलाने वाले का हाथ पकड़ लिया, पीछे मुड़ने पर पाया कि वो निशा जी ही थीं. मुझे बड़ा अच्छा लगा, क्योंकि मां इस तरह मुझमें समाई हुई थीं कि मुझे मां जैसी ही जीवन संगिनी चाहिए थी. दिल में गिटार-सा बजने लगा, लेकिन था तो मैं फट्टू ही, मन की बात मन में ही रह गई. अब तो ये रोज़ का ही हमारा रूटीन हो गया जब वो हंसते हुए मेरे टेबल पर आतीं और मेरे बालों को सहलाते हुए निकल जातीं. वो पप्पा का काम भी मिनटों में सुलझा देतीं. मां जब तक थीं, वो पप्पा की पत्नी कम मेरी गर्लफ्रेंड ज़्यादा थी, अब शायद यें निशा मेरी पत्नी और पप्पा की दोस्त बन जाएगी ऐसा मैं सोचने लगा था.
यहीं से मेरे अंदर के विस्मय का आरम्भ हो रहा था. मेरे शब्द और मेरी क्रिया मेरे वास्तविक अभिप्राय को झुठलाने में लगे थे. जहां निशा की केवल मेरे पास उपस्थिति ही मुझे एक अद्भुत, अपूर्वपरिचित चुनचुनाहट को जन्म देती थी लेकिन उसके सामने आते ही मानो जिव्हा को ताला लग जाता था. मैं जो हमेशा अपने उन साथियों पर हंसता आया था कि उन्हें स्त्री का सानिध्य सहन नहीं होता, वो उसे सहज भाव से ना ले उत्तेजित या अस्थिर हो उठते थे. मैंने यहां तक देखा था कि कभी किसी कमसिन स्त्री के हाथ से चाय का प्याला लेने में भी उनके हाथ कांपने लगते थे और अब ये मेरे साथ हो रहा था.
मैं किसी तरह हिम्मत जुटा कर निशा जी, जो अब मेरे लिए निशा बन चुकी थी, से अपने मन की बात कहने ही वाला था कि मेरा जामनगर से एमबीए सिलेक्शन का लेटर आ गया. मैं तो जाना ही नहीं चाहता था पर पप्पा से ज़्यादा निशा ने मजबूर किया कि मैं एमबीए ज़रूर करूं, इससे हमारी कम्पनी को भी काफ़ी मदद मिलेगी. जाने के पहले वो घर पर भी आई और मेरा सामान जमाने में मेरी मदद भी की. पप्पा हम दोनों को बड़े प्यार से दूर खड़े देखते रहे. बड़ा अच्छा भी लगा पर पप्पा और निशा दोनों से बिछड़ने का दुःख भी बहुत था. जाने के पहले मैं और निशा बधाई हो मूवी भी साथ देखने गए. मेरा रिऐक्शन ठीक आयुष्मान की तरह था कि इतनी बड़ी उम्र में मां बाप को बच्चा पैदा करने की क्या ज़रूरत है? लेकिन निशा की सोच थी कि सबको हर उम्र में जीने का हक़ है. वो मुझ पर ज़रूरत से ज़्यादा ग़ुस्सा भी हुई कि मेरी ऐसी सोच है. पूरी मूवी में हम पास-पास ही बैठे थे क्या मजाल की निशा का हाथ भी मेरे हाथ से लगा हो. सोचा बोल ही दूं, दिल चीर के दिखा ही दूं, लेकिन फिर मैं फट्टू.
निशा से मेरा परिचय लंबा भी नहीं था. बल्कि परिचय कहलाने लायक भी नहीं था. वो मेरे पप्पा की मुलाजिम और मैं उसके बॉस का फट्टू बेटा जिसमें ज़बान खोलने का दम भी नहीं था. हमारे बीच ऐसे कई ऐसे लघु पल आए जब मैं और वो अकेले और लहराती हवा जो उसके बालों को उड़ाते हुए वातावरण को बहुत मादक बना देती थी पर पता नहीं कैसे मेरी ज़बान को ताला लग जाता था. बड़े भारी मन से मैंने विदा ली और कॉलेज में आ अपनी पढ़ाई और प्रोजेक्ट में बिज़ी हो गया. हर समय दिलो दिमाग़ पर निशा छाई रहती थी. लेकिन मैं तो जामनगर पढ़ाई के लिए आया था, इससे ज़्यादा समय अपना कोर्स किसी तरह कम्प्लीट करने में था. अभी मेरा पहला सेमिस्टर पूरा ही हुआ था और दूसरे की शुरुआत हुई हुई थी कि अचानक कोरोना नाम के एक राक्षस ने आ कर तबाही मचा दी. हमारा कॉलेज बंद हो गया और सारी पढ़ाई ऑनलाइन होने की वजह से मैं घर अहमदाबाद आ गया. कोरोना प्रकोप और लॉकडाउन होने की वजह से पप्पा ने भी सब कुछ वर्क फ्रॉम होम ही कर लिया था. निशा के लिए स्पेशल पास की व्यवस्था कर दी थी. रोज़ सुबह नौ बजे शार्प वो पहुंच जाती और शाम पांच बजे तक पूरा ऑफ़िस वर्क करा वापस घर चली जाती.
इस एक साल में निशा में थोड़ा परिवर्तन आ गया था. ध्यान से देखने पर पाया कि थोड़ा मांस उसकी कमर पर चढ़ गया था. सर के बालों में दो या तीन बाल भी सफ़ेद हो चले थे. सुराहीदार गर्दन भी थोड़ी मोटी यानी मोर की गर्दन से गाय की गर्दन हों गई थी पर गर्दन थी ज़रूर. शायद वर्क लोड ज़्यादा हो गया था ऐसा मैंने अनुमान लगाया. घर मां के जाने के बाद पहली बार घर की तरह लगा. सारी चीज़ें घर पर क़रीने से रखी हुई थीं. घर की पुरानी नौकरानी सुशीला बेन निशा की उंगलियों पे नाच रही थी. रोज़ सुशीला बेन मेरे पसंद के पकवान बना रही थी. घर पहुंच लॉकडाउन भी अच्छा लगा, पप्पा भी बहुत ख़ुश लग रहे थे. बार-बार सुशीला बेन कहती कि निशा बहुत ही अच्छी है. मैं उसका इशारा समझ रहा था लेकिन फिर फट्टू का फट्टू. दिनभर निशा सर झुकाए ऑफ़िस की फ़ाइलों में उलझी रहती. सुशीला बेन के बहुत आग्रह करने पर उसने घर से टिफ़िन लाना बंद कर दिया था. लंच हम तीनों यानी पप्पा निशा और मैं साथ-साथ करते थे. पप्पा कोरोना की वजह ने बिज़नेस डाउन होने से बहुत परेशान रहते थे. उसने लॉकडाउन शुरू होने के पहले ही पप्पा को सेनेटाइजर और मास्क के होल सेल सप्लाई का आइडिया दिया और पप्पा सॉफ़्टवेयर से पक्के गुजराती बिज़नेस में आ गए.
लॉकडाउन बढ़ता जा रहा था, सारे शहर में हाहाकार मचा हुआ था, लेकिन हमारा घर स्वर्ग था. हम तीनो बीच बीच में कभी लूडो तो कभी कैरम खेलते, तो कभी मैं और निशा टेबलटेनिस. रोज़ निशा सुशीलाबेन को समझा कर हमें इम्यूनिटी बढ़ाने वाला काढ़ा पिलवाती. मोसंबी, नींबू, आंवला, गिलोय ये हमारे डाइनिंग टेबल के नियमित मित्र बन गए. कभी-कभी पप्पा से जलन होती जब निशा पप्पा का ज़्यादा और मेरा कम ध्यान रखती. तब अपने मन को सांत्वना देता कि पप्पा की बीबी भी तो उनका कम मेरा ज़्यादा ध्यान रखती थी. कई बार मैं और निशा ऐमज़ान प्राइम तो कभी हॉटस्टार में बैठ मूवी तो कभी सिरीज़ देखते. कुछ सीन देख मैं उत्तेजित हो जाता लेकिन निशा बिना हिले डुले बैठे रहती. बहुत इच्छा होती उसका हाथ पकड़ लूं पर फिर मैं फट्टू का फट्टू. घर पर रहते हुए क़रीब-क़रीब तीन महीने हो गए थे. मुझे अभी भी अच्छी तरह याद था, वो वट सावित्री का दिन था. हर साल मां मुझे सत्यवान सावित्री की कहानी सुनाती थी कि किस तरह सावित्री ने सत्यवान के प्राणों की यमराज के पास जाकर रक्षा की. मैं मां के जाने के बाद हर साल सोचता काश… मां के सत्यवान यानी मेरे पप्पा भी मां के प्राण ला पाते. सुबह से मैं मां की याद में बहुत उदास सा बैठा था क्योंकि वो एक वट सावित्री का ही दिन था जब मां मेरी ज़िंदगी से चली गई. उनके सत्यवान यानी पप्पा उन्हें नहीं बचा पाए. पप्पा बेचारे मुझे सम्भालने में ही लगे रहे, उनके आंसू मुझे कभी नहीं दिखे. इस बार वट सावित्री के दिन एक वट की डाल ले निशा घर जल्दी आ गई. उसने लाल साड़ी पहनी थी, थोड़ा मेकअप भी किया था. बिलकुल सपनों की राजकुमारी लग रही थी. साथ में एक वीआईपी सूटकेस भी लाई थी. मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा कि कम से कम निशा मेरी तरह फट्टू नहीं थी. ये शायद उसका प्रपोज करने का अन्दाज़ है ऐसा लगा. पप्पा बहुत ख़ुश लगे, मैंने सोचा दोनों मुझे वट सावित्री के दिन ही सरप्राइज़ देना चाहते थे. पप्पा ने शायद निशा के लिए मेरी दीवानगी भांप ली थी.
निशा ने मुझसे जल्दी नहा कर तैयार होने कहा. मैं भी बड़ा ख़ुश… नहा कर अच्छा पैजामा-कुर्ता पहन अच्छा बॉडी परफ़्यूम लगा हाल में पहुंचा. निशा ने सुशीला बेन की मदद से पूजा की पूरी तैयारी कर ली थी. पप्पा ने निशा को मां का एक सेट पहनने के लिए दिया. सचमुच निशा तैयार हो स्वर्ग की अप्सरा लग रही थी. पप्पा ने मुझे गले लगाया और कहा,“चलो अब तुम्हें ख़ुश ख़बरी दे ही देते हैं. आज के ही दिन तुम्हारी मां इस दुनिया छोड़ कर गई थी. आज मैं और निशा इस वट की डाल को साक्षी मान शादी कर रहे हैं. ताकि तुम्हारी मां की कमी पूरी हो जाए.”
मुझे तो समझ ही नहीं आया मैं क्या करूं रोऊं या ख़ुशियां मनाऊं. यहां तो पांसा ही पलट गया और पलटा भी तो किसने मेरे अपने बाप ने जिसे मैं जी जान से चाहता था. मेरे पास अब भीष्म बनने के सिवाय कोई चारा भी नहीं था.

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ sangeeta.jha63@gmail.com

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