पुरखों द्वारा लगाए गए बरगद के पेड़ ने जब पंडित सालिकराम का जीना मुश्क़िल कर दिया तो उन्होंने एक ऐसा फ़ैसला लिया, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था. पर क्या उनका वह फ़ैसला उनकी समस्याओं का अंत करने में सफल रहा?
पंडित सालिगराम को अपनी छोटी-सी हवेली बहुत प्यारी थी. उन्होंने अपनी ग़रीबी से जीवन-भर संघर्ष करके भी उसे अपने हाथों से बाहर जाने नहीं दिया था. चाहे घर कितना भी पुराना क्यों न हो, किंतु फिर भी पुरखों की शान था. आख़िर वे उसी में पले थे. उन्होंने उसी में घुटनों चलना प्रारंभ किया था, उसी में चलना सीखा था और जीना तो था ही, मरना भी प्रायः उसी घर में निश्चित था. घर के सामने ही एक छोटा-सा मैदान था. कहने को तो वह वास्तव में पंडितजी की ही ज़मीन थी, किंतु उन्होंने अपनी रहमदिली के कारण उसके चारों ओर कभी कांटे नहीं बिछवाए. गांव के बच्चे आते. आज़ादी से गोदी के बच्चों को धूल में खेलने को छोड़ कर बड़े-बड़े बच्चे मैदान के बीच में खड़े बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे छाया में कबड्डी खेलते. अक्सर चांदनी रातों में डू डू डू डू की आवाज़ गूंजा करती. कभी-कभी पंडितजी की रात में नींद खुल-खुल जाती जब कोई लड़का खम ठोंक कर पूरी आवाज़ से चिल्लाता
मेरी मूंछें लाल लाल
चल कबड्डी आल ताल….
किंतु पंडितजी ने कभी क्रोध नहीं किया. उनके पुरखों ने इसी की छाया के लिए वह पेड़ लगाया था. गांव के लोगों से यह छिपा नहीं था कि जिस पेड़ का एक छोटा-सा पौधा मात्र लाकर उनके पुरखों ने अपनी सब्ज़ी उगाने की जगह लगाया था, वही अब इतना फल-फूल कर ख़ूब फैल गया है. इसी की जड़ें अपने आप इतनी फैल गई हैं कि ज़मीन का सारा रस चुस लिया है. अब उस ज़मीन से दिन-रात अंधेरा-सा छाया रहता है. पेड़ की डालियों में अनेक पंछी रहते हैं. कौन नहीं जानता इन पंछियों की बान कि ‘चरसी यार किसके, दम लगाए खिसके.’ आज यहां है, कल वहां. सिर्फ़ मतलब के यार हैं.
उस ज़मीन में सब्ज़ी की भली चलाई, घास तक ढंग से नहीं उग सकती. उल्टी बरगद की जटाओं ने लौटकर अपनी मज़बूत हथेलियों को धरती में घुसा दिया है कि पूरा महल-सा लगने लगा है. एक दिन पंडितजी के पुरखों ने इसी छाया के लिए उसे वहां धरकर पनपने के लिए छोड़ दिया था.
पंडितजी को कभी वह पेड़ नहीं अखरा. सदा उसकी हरियाली का वैभव देखकर उनकी आंखें ठंडी होती रही हैं.
और पंडितजी देखते कि गूलरों के गिरने पर बच्चों का जमघट आकर इकट्ठा हो जाता. सब ओर शोर करते. और गांवों के मेहरबान ज़मींदार को तो जैसे उस पेड़ से खास प्रेम था. दशहरे पर जब गद्दी होती तो वे उस शाम को इसी पेड़ के नीचे अपना दरबार करते. आस-पास के गांवों तक से लोग उन्हें भेंट देने आते. भला वे राजा आदमी. पेड़ क्या हुआ उन्होंने उसे गांव वालों के लिए भगवान का अवतार बना दिया.
पेड़ भी एक ही कमाल का था. जगह-जगह उसमें खोखले हैं. शायद जगह-जगह उसमें सांप हैं. और उसके अरमानों की थाह नहीं. वामन के विराट रूप की भांति तीन डगों में ही सारे संसार को नाप लेना चाहता है. आकाश, पाताल और धरती. ऊपर भी फैलता, नीचे भी उतरता है और धरती को भी जकड़ता चला जाता है. जैसे पृथ्वी को संभालने वाले हाथियों में एक की संख्या बढ़ गई हो. हवेली की बगल में पेड़ की इस सघनता से एक सुनसान बियाबान की-सी नीरवता छा गई है. और शायद अब वह दिखाई भी नहीं देता. पेड़ ही पेड़ छा गया हैं.
और रात को जब अंधेरा फैल जाता है, तब उस सन्नाटे में हवा के तेज झोंकों में जब पेड़ खड़खड़ाता है, तब लगता है जैसे कोई भयानक दैत्य अपने शिकार पर टूट पड़ने के पहले भयानक आकार को हिला रहा हो.
पंडितजी की छोटी बच्ची भय से आंखें मीच लेती और अपनी-मां की छाती से चिपट जाती. पंडितजी वह भी देखते, किंतु कभी इस बात पर ध्यान नहीं देते, क्योंकि उन्होंने सदा ही अपने पूर्वजों की बुद्धि पर विश्वास किया है, और इतना किया है कि अपने पर तो कभी किया ही नहीं…
2
पंडितानी सुबह उठकर नहाती हैं, दिन में नहाती हैं, सांझ को नहाती हैं. किंतु फिर भी उन्हें कोई साफ़-सुथरा नहीं कह सकता, जैसे वह पानी एक चिकने घड़े पर गिरता है, फिसल जाता है.
पंडितजी बैठे पूजा कर रहे थे. एकाएक बाहर शोर मच उठा. पंडितजी की पूजा में व्याघात पड़ गया. शोर बढ़ता ही जा रहा था. कुछ समझ में नहीं आया. इसी समय कुछ लड़के उनकी छोटी बच्ची को उठाकर भीतर लाए. लड़कों की आकृति सहमी हुई थी. डरते-डरते लाकर उन्होंने उसे उनके सामने रख दिया.
पंडितजी ने देखा, बच्ची की नाक से ख़ून बह रहा था. सारी देह नीली पड़ गई थी.
उन्होंने मर्मांत स्वर में पूछा,‘क्या हुआ इसे?’
कंठ अवरूद्ध हो गया, वे और कुछ भी नहीं कह सके.
एक लड़के ने सहमी हुई आवाज़ में कहा,‘बरगद के नीचे झाड़ियों में से कोई सांप काट गया.’
‘काट गया?’ उन्होंने चीखकर पूछा.
लड़कों ने कोई उत्तर नहीं दिया. सबने सिर झुका लिया. इस कोलाहल को सुनकर पंडितानी भीगे कपड़े पहने ही बाहर आ गई, और बच्ची की यह हालत देखकर उससे चिपट गई, और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी.
पंडितजी किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रहे. वे कुछ भी नहीं समझ सके कि उन्हें क्या करना चाहिए?
और धीरे-धीरे अड़ोस-पड़ोस के अनेक किसान आ-आकर इकट्ठे होने लगे.
पंडितानी का करुण क्रंदन सबके हृदय को हिला देता है. ऐसा कौन-सा पाप किया था कि जिसके सामने उठना चाहिए था, वही आज अपने सामने से उठा जा रहा है. और हम चुपचाप देख रहे हैं.
पंडितजी सुनते थे और उनकी आंखों में कोई तरलता नहीं थी.
पहली बार उन्होंने बरगद की ओर आंखें उठाई, जैसे अपने किसी विराट शत्रु की ओर देखा हो. वे देर तक उसे घूरते रहे.
यही है वह पुरखों का दैत्य, जो संतान को ही खा जाना चाहता है.
और पहली बार उन्होंने अनुभव किया कि उनके घर की भी कोई बचत नहीं.
इधर ही झुका आ रहा है. आज उनकी हवेली गिरेगी, कल करीम का मकान फिर बस्ती के सारे मकानों पर उल्लू बोलेंगे. और तब भी यह दैत्य का-सा बरगद अपनी जटाओं के अंकुश भूमि में गाड़कर खड़ा रहेगा, जैसे सारी ज़मीन इसी के बाप की है.
विक्षोभ से उनका गला रुंध गया. उन्होंने एक बार ज़ोर से अपनी मुट्ठियां भींच ली और देखा, पंडितानी का हृदय टुकड़े-टुकड़े होकर आंसुओं की राह बहा जा रहा था. उन्होंने बच्ची को गोद में धर लिया और तरह-तरह के विलाप कर रही थी. रुदन की वह भयानक कठोरता उनके मन में ऐसे ही उतर गई, जैसे सांप उनकी बच्ची को काटकर फिर उस पेड़ के खोखले में छिप गया होगा.
उन्होंने बड़ी देर तक निश्चय किया फिर धीरे से कहा, ‘रोने से क्या अब वह लौट आएगी?’
पंडितानी ने लाज से आज माथे पर घूंघट नहीं सरकाया, क्योंकि इस समय वह बहू नहीं मां थी.
लोगों ने पंखें बांधकर बच्ची को उस पर सुला दिया और पंडितानी चिल्ला उठी,‘धीरे बांधो मेरी बच्ची को, धीरे कि कहीं उसको बग न जाए.’
पंडितजी का हृदय भीतर ही भीतर कांप उठा और उनकी आंखों से आंसू की दो-चार बूंदें धीरे से गालों पर बहती हुई भूमि पर टपककर उनके मन की अथाह वेदना को लिख गई…
3
पंडितजी का निश्चय निश्चय था. करीम की राय तो पहले ही थी कि बरगद काट दिया जाए. कौन-सा लाभ है उससे? इधर बड़ी देह रखकर देता क्या है गूलर, जो न खाने के न उगलने के, फूले की-सी आंख, न ख़ूबसूरती की, न देखने की.
पंडितजी ने कहा,‘इसी बरगद को मेरे पुरखों ने, आपके पुरखों ने अपना समझ कर पाला था. आशा की थी कि एक दिन इसकी छाया होगी. आसमान से होने वाले अनेक वारों से यह हमें बचाएगा. लेकिन भइया करीम यही होना था क्या?’
‘कौन सुनेगा तुम्हारी पुकारों को पंडितजी!’ करीम ने सोचते हुए कहा,‘यह बरगद उतनी ही जान रखता है, जितने फल फूल सकें. इसे भला मतलब कि हम आप जी रहे हैं या मर गए. इसके तो कोई इन्सान के से कान हैं नहीं.’
‘लेकिन’ पंडितजी ने तड़पकर कहा, ‘दुनिया-भर के ज़हर को अपने आप में भर लेने के लिए इसकी छाती में जगह की कमी नहीं.’
करीम ने हंसकर कहा,‘आप भी कैसी बातें करते हैं? जानते हैं रात को कैसी नशीली हवा में सोना पड़ता है हमें? और भैया, यह तो इस पेड़ की आदत है. जहां बोओगे वहीं जड़ फैलाएगा. कोई नहीं रोक सकता.’
‘नहीं कैसे रोक सकता? इसे मैं कटवा दूंगा.’ पंडितजी ने विक्षुब्ध होकर कहा.
‘तुम’, करीम ने विस्मय से पूछा,‘पंडित होकर पेड़ कटवा दोगे? धरम-वरम सब छोड़ दोगे?’
‘धर्म’, पंडितजी ने आसन बदलकर कहा,‘धर्म का नाम न लेना करीम! मेरी बच्ची का ख़ून है इसके सिर पर. इस पर हत्या का दोष है. जाने कितनों के बच्चों को अभी और काटेगा?…और कमबख्त का हौसला देखो. अब इसका जाल इतना फैल गया है कि हमारे ही घर को ढहा देना चाहता है. मेरे बाद तुम्हारी बारी है करीम…’
करीम ने हाथ उठाकर कहा,‘अल्लाह, रहम कर. पंडितजी! कहीं के न रहेंगे. इसे काटना ही पड़ेगा.’
पंडितजी को कुछ संतोष हुआ. मन की जलन पर कुछ शीतल लेप हुआ. तब एक आदमी तो साथ है. पुरखे तभी तक अच्छे हैं जब तक पितर हैं, पानी दे दिया, लेकर चले गए, यह क्या कि अपने ही बच्चों पर भूत बनकर सवार और रोज़-रोज़ गंगा नहाने के ख़र्चे की धमकी दे रहे हैं. अरे, अगर ज़िंदा ही नहीं खाएंगे तो इन कमबख्तों को कौन चराएगा?
पंडितजी उठ पड़े. घर आकर पंडितानी से कहा. उनकी आंखों में आंसू और होंठों पर एक फीकी मुस्कराहट छा गई. किंतु हृदय में एक शंका भीतर ही भीतर कांप उठी. फिर भी उन्होंने कुछ कहा नहीं.
गांवभर में पेड़ से एक दहशत छा गई. बच्चों ने पेड़ के नीचे खेलना बंद कर दिया. जैसे वह फूहड़ की तलैया का दूसरा भूत हो गया.
पेड़ के नीचे का मैदान नीरव हो गया. अब उसमें कभी-कभी कोई-कोई अकेली गिलहरी भागती हुई दिखाई देती है. और फिर शाखों में जाकर छिप जाती है. अब कोई मुसाफ़िर उसके नीचे नहीं लेटता. क्या जाने कब सांप आए और सोते में कान मंतर पढ़ जाए?
पंडितजी का निश्चय गांव में एक अचरज फैलाता हुआ फैल गया. लोगों के हृदय में उनके साहस, उनके जीवन के प्रति एक अज्ञात श्रद्धा जागृत हो गई.
4
मज़दूर पेड़ काटने लगे. गांव के अनेक-अनेक लोग आते, देखते और इधर-उधर की बातें करके चले जाते. सचमुच अब पेड़ से प्रत्येक को एक न एक शिकायत थी, जो आजतक किसी ने प्रकट नहीं की. आज सब ही को उस पेड़ से एक निहित घृणा थी. हमारे सीने पर ऐसा खड़ा था जैसे मूंग में मुगदर.
एक-एक ज़मींदार के कारिंदे ने कहा,‘पंडितजी पा लागन.’
‘ख़ुश रहो भैया, ख़ुश रहो.’ पंडितजी ने कहा,‘कहो कैसे आए?’
‘सरकार ने याद फ़रमाया है.’
‘चलता हूं’, पंडितजी उठ खड़े हुए.
‘हुजूर’, कारिंदे ने कहा, ‘एक बात और है!’
‘क्या बात है?’ पंडितजी ने भौं सिकोड़कर उत्सुकता से पूछा.
‘सरकार पेड़ का काटना बंद करवाना चाहिए.’
‘पेड़ कटना क्यों?’ पंडितजी ने एकदम टकराकर गिरते हुए व्यक्ति की-सी चीख निकाली.
‘हां सरकार.’
‘नहीं हो सकता यह. पेड़ तो कटकर ही रहेगा. ज़मीन मेरी है, मालिक का इसमें क्या उजर है?’
‘सोच लीजिए पंडित!’ कारिंदे ने आंखें मटकाकर कहा.
‘सोच लिया है सब.’ न जाने पंडितजी में इतना साहस कहां से आ गया.
सुनने वाले सहमे से खड़े रहे. कारिंदा चला गया. पंडितजी ने कहा,‘काटो पेड़. यह तो कट कर ही रहेगा.’
मज़दूर फिर काटने लगे. अचानक एक दर्दनाक चीख. ‘क्या हुआ?’ पंडितजी ने पुकारकर पूछा.
एक मज़दूर शाख पर से नीचे टपक पड़ा. उसे सांप ने काट लिया था, वह मर रहा था. मज़दूर कूद-कूदकर भागने लगे. पंडितजी ने चिल्लाकर कहा,‘कहां जा रहे हो, आज इसकी एक-एक जड़ उखाड़कर फेंक दो वर्ना कल यह सारी बस्ती को वीरान बना देगा. डरो नहीं.’ और पेड़ से मुड़कर कहा,‘ओ राक्षस, तेरी एक-एक डाल में मौत का भीषण ज़हर है, आज मैं तेरी बोटी-बोटी काट डालूंगा.’
लोगों ने मज़दूरों को घेर लिया था. वे कुछ नहीं समझ पा रहे थे. कोलाहल मचने लगा था.
एकाएक पंडितजी ने सुना,‘देखा! तेरे पाप का फल. दूसरों को खाने लगा है. तूने धरम की जड़ पर वार किया है.’
पंडितजी चौंक उठे. उन्होंने कहा,‘मालिक! इसने दो ख़ून किए हैं.’
‘ख़ून इसने किए हैं कि तेरे पाप ने, तेरे पुरबले जनम के पाप ने?’
ज़मींदार साहब ने कहा.
पंडितजी ने तड़पकर कहा,‘और इसने हमारे घर की रौशनी बंद कर दी है, इसने हमारे घर में अंधेरा कर दिया है, इसने अपने भयानक गड्ढ़ों से हमें खंडहर बनाने का इरादा किया है, इसने हमारे बच्चों को डसा है…मैं आज इसे काटे बिना नहीं रहूंगा.’
कहते हुए पंडित सालिगराम ने ज़मीन पर पड़ी हुई कुल्हाड़ी को उठा लिया. ज़मींदार साहब ने कहा,‘देख, पागल न बन. देखता नहीं मेरे साथ कौन हैं?’
पंडितजी ने देखा. पुलिस के सिपाही थे. ज़मींदार साहब ने मुस्कराकर देखा. पंडितजी चिल्लाकर कहने लगे,‘मालिक, ज़मीन मेरी है.’
‘खामोश!’ ज़मींदार ने चिल्लाकर उत्तर दिया,‘कैसे है तेरी ज़मीन? जिस ज़मीन पर हमने दरबार किया है वह तेरी कहां है? आज तू उसे काट रहा है, जिसकी छाया में हमने राज किया है. कल तू हम पर हाथ उठाएगा!’
‘मगर यह धरती बगावत कर रही है. वह मेरी हो गई है…!’ पंडितजी ने कुल्हाड़ी उठाकर कहा,‘मैं इसे ज़रूर काटूंगा…!’
जड़ पर कुल्हाड़ा पड़ते ही पंडितजी मूर्छित होकर गिर गए. उनके सिर पर ज़मींदार के गुर्गों के लट्ठ बज उठे.
और बरगद अपने चरणों पर बलि का रक्त फैलाए ऐसा खड़ा था जैसे अश्वमेघ के उठते धुएं में एक दिन साम्राज्य की पिपासा से तृप्त समुद्रगुप्त हुआ होगा.
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