एक ईमानदार और आदर्शवादी स्कूल मास्टर की कहानी, जिसे अपने सीमित वेतन में अपना बड़ा परिवार तो पालना ही है साथ ही विभाजन के बाद उसके यहां रहने आए कुछ रिश्तेदारों की भी देखभाल करनी है.
छुट्टी के समय जब स्कूल-मास्टर स्कूल से बाहर निकलता, तो वह लड़कों की एक बाढ़ में होता. बहुधा उसे अनुभव होता कि लड़कों की बाढ़ में एक बंधन है. आज उसने सोचा यदि लड़कों का प्रवाह सदैव इसी प्रकार न चलता रहे, तो उसका जीवन भी सूखी नदी के रेतीले तटों पर व्यर्थ पड़ी नौका के समान नीरस होकर रह जाए. पुनः उसने सोचा, वास्तव में वह नौका ही है. प्रति वर्ष विद्यार्थियों के समूह-पर-समूह परीक्षा-रूपी किनारों से पार उतारता है. उसकी समझ में न आया, कि विद्यार्थी जल-प्रवाह और यात्रियों का संघ दोनों वस्तुएं कैसे बन सकते हैं? आखिर प्रवाह तो गतिशील ही था, जिसके सहारे उसकी टूटी-फूटी जीवन-नौका तैरकर एक काम किये जा रही थी, चाहे कठिन-से-कठिन गणित के प्रश्न मिनटों में हल कर लेने वाली उसकी बुद्धि उस अदृष्ट प्रवाह को समझ सकने में असमर्थ थी.
मास्टर ने सहज में ही अनेकों परिचितों की सलामों का उत्तर हाथ जोड़ कर दिया. अनेकों की नमस्ते, सत-श्री-अकाल, जय राम जी की झुक-झुककर ब्याज समेत लौटाई: परंतु भीतर से उसे कोई चिंता खाये जा रही थी. बाजार में तो वह यंत्रवत क्रियाएं करता चला जा रहा था. सहसा एक भागी आ रही गाय उसे बाह्य चेतना में ले आई. वह चकित था कि वह किसी से क्यों नहीं टकराया, अथवा एक ओर वह गहरे नाले में क्यों न जा पड़ा.
मोड़ घूमते समय उसने कबाड़ी की दुकान पर एक रजाई लटकते देखी. मनही-मन कांपकर उसने इधर-उधर देखा, कहीं उसे किसी ने पुरानी रजाई की ओर ललचाई हुई नजरों से देखते हुए न देख लिया हो….वह तेज़ी से मोड़ मुड़ गया.
मास्टर पांच बच्चों का पिता है. आजकल वह इन्हें पांच ग़लतियां कहता है. पुराने जर्मन और आजकल के रूस में शायद उसकी पत्नी को अधिक बच्चे पैदा करने का मेडल और पुरस्कार मिलता. वह सोच रहा था कि कैसे परिस्थितियां ग़लतियों को शुद्धियां और शुद्धियों को ग़लतियां बना देती हैं. काश कि परिस्थितियां हर व्यक्ति के बस में होतीं….परिस्थितियों की कुंजी केवल धनिकों के हाथ में ही न होती.
पाकिस्तान से शरणार्थी होकर आए तीन संबंधी भी उसके पास रहते थे. कभी उन्होंने भी उसके कठिन समय में उसकी सहायता की थी, जब वे स्वयं सुखी थे. मास्टर का वेतन अब सब कुछ मिलाकर एक सौ साढ़े सत्ताइस रुपए है. बड़ा वेतन है….केवल वह आटा जो उसे सहायता दिए जाने के समय दो रुपए तेरह आने मन था, अब तीस रुपए मन बिकता है. परंतु मास्टर का वेतन तो उचित है. एक सौ साढ़े सत्ताइस रुपए, प्रोविडेंट फ़ंड काटकर. अतएव वह उन्हें कठिन समय में कैसे आश्रय न देता?… कृतघ्न न कहलाने का भी तो मूल्य होता है न…
राशन-डिपो पर कई लोग ठहरे थे, परंतु मास्टर साहब को डिपो से भी कुछ नसीब न होता था. मास्टर साहब का वेतन एक सौ साढ़े सत्ताइस रुपए है. निर्दिष्ट रकम से एक रुपया अधिक लेने वाला भी डिपो से सस्ता राशन लेने का अधिकारी नहीं और मास्टर साहब तो पूरे ढाई रुपए अधिक ले रहे थे. उसके साथी किराएदारों में एक बैंक क्लर्क भी था. वह एक सौ पन्द्रह वेतन पाता था. उसकी पत्नी और वह-बस यही उसका परिवार था. उसको राशन मिलता था. परंतु मास्टर जी का परिवार भी तो वेतन की तरह बड़ा था. अतएव वह किसी छूट का अधिकारी नहीं था.
मास्टर ने देखा, उससे कई गुना अधिक हैसियत वाले लोग डिपो से राशन ले रहे हैं. परंतु वे तो दुकानदार थे, कोई नौकरी-पेशा तो न था. बेचारी सरकार के पास भी तो उनकी स्वयं लिखी हुई बहियों के अतिरिक्त आय मापने का कोई यंत्र अथवा साधन न था. मास्टर झूठ नहीं बोल सकता. उसे हर कोई भद्र पुरुष कहता है. कई व्यंग्य से भी-जैसे दुश्चरित्र या बेईमान होना कोई गुण होता है… मास्टर कानून का पूरा मानने वाला था. पढ़े-लिखे आदमी की कानून के उल्लंघन की वैसे भी अधिक सजा मिल सकती है. मास्टर तो देशभक्त भी है. अपने या अपने आदमियों के कारण वह देश और जाति की हानि सहन नहीं कर सकता.
मास्टर निकल गया-सब कुछ देखता. उसे मार्ग में पुनः रजाई का ध्यान आया. नई रजाई के लिए कम से कम बीस रुपये की आवश्यकता है. हिसाब लगाया-ढाई मन आटा, तीस दूना साठ और पंद्रह-पचहत्तर रुपये, घी बनस्पति बारह रुपये, ईंधन पन्द्रह रुपये और बड़ी रकम उसे बाद में याद आई-किराया तीस रुपये, दूध-चाय के लिए तेरह रुपये और आगे इसी प्रकार. कुल जोड़ एक सौ छियासी रुपये. बजट में प्रति मास लगभग साठ रुपये का घाटा. उसे बजट को चैलेंज करना चाहिए. परंतु उसको गृह-विज्ञान के अनुसार नई पुस्तकों एवं पत्रिकाओं पर व्यय की जा रही सात रुपए की राशि के सिवा कुछ अनावश्यक न मिला. वह मन-ही-मन इस ख़र्च पर लकीर खींचने लगा था, परंतु उसे अनुभव हुआ कि वह ख़र्च उसकी खुराक पर हो रहे ख़र्च से भी अधिक आवश्यक है.
आखिर उसने सोचा,“मैं मुख्याध्यापक की आज्ञा से एक ट्यूशन रखूंगा. तीस की आय बढ़ जाएगी. तीस का व्यय जैसे-तैसे कम करूंगा. परंतु रजाई के लिए बीस रुपए कहां से आएंगे?…रजाई सर्दी के लिए बहुत आवश्यक वस्तु है. अतिथियों को अलग-अलग चारपाई और बिस्तर देना भी अत्यावश्यक था. तीन लड़कियां इकट्ठी सोती थीं. एक ही चारपाई और एक ही रजाई में सोने से कद नाटे हो जाएंगे. लड़कियों के शरीर नाटे हो जाने से उन्हें आज के संसार में पहले ही कोई नहीं पूछता. कल उसने अपनी घरवाली को उनमें से बड़ी को अलग सुलाने के लिए कहा था.
‘‘थोड़ी चारपाइयां हैं कैलाश? फिर इन्हें अलग-अलग क्यों नहीं लेटने को कहती तुम?’’
कैलाश ने विनम्र उत्तर दिया था,“चारपाई तो एक और है परंतु और रजाई नहीं है. अभी बिल्लू भी मेरे साथ ही सोता है.’’
‘‘बीस रुपए की रजाई!’’ पहले ही बजट में घाटा है. तीस की ट्यूशन, तीस ख़र्च में से कम करने ही पड़ेंगे. परंतु रजाई के लिए बीस और कहां से आएंगे? उसे स्मरण हुआ कि उसने परसों ही अपनी पुस्तकें और रद्दी बेचकर सात रुपए बारह आने पाए थे. परंतु रजाई के लिए बीस रुपये!…ओह!…कबाड़ी से पुरानी रजाई! हां ठीक है, कल पूछा जाएगा.
कई दिन वह प्रातः समय की ताक में रहा. दिन में वह कबाड़ी से पुनः पूछने का साहस न कर सका. एक दिन रात के समय गया बाजार बंद था. बेचारा ‘नैशनबिल्डर’ कौम का उस्ताद निराश लौट गया. बनाने वाला स्वयं बनाए जाने वालों के हाथों से क्या बन रहा था….
उसने पुनः विचार किया-आखिर प्रातः ही दांव लगाकर काम बनेगा. निगोड़ी रजाई भी थी जिसे कोई ख़रीदता ही न था. किसी के सामने ख़रीदकर अपमान होता था-यदि उसका नहीं, तो अध्यापकों की श्रेणी का. परंत राष्ट्र का बेचारा अध्यापक क्या कर रहा था? वह किसी से क्या छिपा रहा था? उसने पुनः विचार किया-वह ‘इज्जत’ को आंच न आने देगा.
रविवार का दिन था-छुट्टी का दिन. वह अपने बड़े लड़के को साथ लेकर उस दुकान पर गया. रजाई पूर्ववत वहीं पड़ी थी. वह एक ही छलांग में दुकान में चला गया. सात रुपये में सौदा पट गया. रुपये देकर वह शीघ्र वापस लौट आया. दस क़दम ही चला होगा कि किसी ने आवाज़ दी,“मुर्दों से उतारी हई रजाई ख़रीद ली है.’’
उस्ताद घूमकर देखे बिना न रह सका. कहने वाला एक दरजी था. पास ही मास्टर का एक शिष्य था, जिसने आज से उसके घर पढ़ने आना था. उसने भी मास्टर के पास आकर कहा,“यह तो मुर्दों से उतारी गई रजाइयां बेचता है, मास्टर जी?’’
मास्टर सच का सा झूठ बोला,‘‘हां बेटा, परंतु किसी आवश्यकता वाले की आवश्यकता तो पूरी हो जायेगी.’’
कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि जिस से संशय हो सकता था कि उसने रजाई किसी अन्य व्यक्ति के लिए ख़रीदी है. आखिर यदि यह झूठ भी था तो धर्मपुत्र युधिष्ठिर के बोले झूठ से बुरा न था.
दिन-भर रजाई धूप में पड़ी रही. शाम हो जाने पर रजाई कमरे में लाई गई. दीपक चलने के बाद वही लड़का पढ़ने के लिए आ गया. उसने रजाई पड़ी हुई देखकर नमस्ते कहने के बाद पूछा,“क्यों मास्टर जी, यह वही रजाई है न?’’
मास्टर में दूसरी बार झूठ बोलने की सामर्थ्य न थी. उसने कहा,“वही है बेटा, परंतु आज मैं तुझे पढ़ा न सकूंगा, मेरी तबीयत खराब है, तू कल आ जाना.’’
सचमुच उसकी तबीयत ख़राब थी, लड़का वापस लौट गया.
मास्टर ने रसोई में काम कर रही घरवाली से कहा,“कैलाश, नई रजाई मुझे दे दे. मेरे वाली पहली रजाई लड़कियों को दे देना. हां, सच-गोमती को अलग सुलाना.’’
‘‘क्यों आप खाना न खाएंगे?’’कैलाश ने रजाई पैरों पर ओढ़ते हुए कहा.
‘‘नहीं,’’ मास्टर ने कहा और मुर्दों से उतारी रजाई अपने पैरों पर खींच ली. कितने समय तक वह सोचता रहा कि कौन मुर्दों से रजाई उतार लेता है और कौन जीवितों से… वह अशांत था…
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