संस्मरण लिखने में लेखिका महादेवी वर्मा का कोई सानी नहीं था. प्रस्तुत संस्मरण ‘रामा’ में उन्होंने अपने घर के नौकर रामा के बारे में लिखा है.
रामा हमारे यहां कब आया, यह न मैं बता सकती हूं और न मेरे भाई-बहिन. बचपन में जिस प्रकार हम बाबूजी की विविधता भरी मेज से परिचित थे, जिसके नीचे दोपहर के सन्नाटे में हमारे खिलौनों की सृष्टि बसती थी, अपने लोहे के स्प्रिंगदार विशाल पलंग को जानते थे, जिस पर सोकर हम कच्छ-मत्स्यावतार जैसे लगते थे और मां के शंख-घड़ियाल से घिरे ठाकुरजी को पहचानते थे, जिनका भोग अपने मुंह अन्तर्धान कर लेने के प्रयत्न में हम आधी आंखें मींचकर बगुले के मनोयोग से घंटी की टन-टन गिनते थे, उसी प्रकार नाटे, काले और गठे शरीरवाले रामा के बड़े नखों से लम्बी शिखा तक हमारा सनातन परिचय था.
सांप के पेट जैसी सफ़ेद हथेली और पेड़ की टेढ़ी-मेढ़ी गांठदार टहनियों जैसी उंगलियों वाले हाथ की रेखा-रेखा हमारी जानी-बूझी थी, क्योंकि मुंह धोने से लेकर सोने के समय तक हमारा उससे जो विग्रह चलता रहता था, उसकी स्थायी संधि केवल कहानी सुनते समय होती थी. दस भिन्न दिशाएं खोजती हुई उंगलियों के बिखरे कुटुम्ब को बड़े-बूढ़े के समान संभाले हुए काले स्थूल पैरों की आहट तक हम जान गए थे, क्योंकि कोई नटखटपन करके हैले से भागने पर भी वे मानो पंख लगाकर हमारे छिपने के स्थान में जा पहुंचते थे.
शैशव की स्मृतियों में एक विचित्रता है. जब हमारी भावप्रणवता गम्भीर और प्रशान्त होती है, तब अतीत की रेखाएं कुहरे में से स्पष्ट होती हुई वस्तुओं के समान अनायास ही स्पष्ट-से-स्पष्टतर होने लगती हैं; पर जिस समय हम तर्क से उनकी उपयोगिता सिद्ध करके स्मरण करने बैठते हैं, उस समय पत्थर फेंकने से हटकर मिल जाने वाली, पानी की काई के समान विस्मृति उन्हें फिर-फिर ढक लेती है.
रामा के संकीर्ण माथे पर की खूब घनी भौहें और छोटी-छोटी स्नेहतरल आंखें कभी-कभी स्मृति-पट पर अंकित हो जाती हैं और कभी धुंधली होते-होते एकदम खो जाती हैं. किसी थके झुंझलाए शिल्पी की अन्तिम भूल जैसी अनगढ़ मोटी नाक, सांस के प्रवाह से फैले हुए-से-नथुने, मुक्त हंसी से भरकर फूले हुए-से ओठ तथा काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलाने वाली सघन और सफ़ेद दन्त-पंक्ति के सम्बन्ध में भी वही सत्य है.
रामा के बालों को तो आध इंच अधिक बढ़ने का अधिकार ही नहीं था, इसी से उसकी लम्बी शिखा को साम्य की दीक्षा देने के लिए हम कैंची लिए घूमते रहते थे. पर वह शिखा तो म्याऊं का ठौर थी, क्योंकि न तो उसका स्वामी हमारे जागते हुए सोता था और न उसके जागते हुए हम ऐसे सदनुष्ठान का साहस कर सकते थे.
कदाचित् आज कहना होगा कि रामा कुरूप था; परन्तु तब उससे भव्य साथी की कल्पना भी हमें असह्य थी.
वास्तव में जीवन सौन्दर्य की आत्मा है; पर वह सामंजस्य की रेखाओं जितनी मूर्तिमत्ता पाता है, उतनी विषमता में नहीं. जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं. बालक स्थूल विविधता से विशेष परिचित नहीं होता, इसी से वह केवल जीवन को पहचानता है. जहां से जीवन से स्नेह-सद्भाव की किरणें फूटती जान पड़ती है, वहां वह व्यक्ति विषम रेखाओं की उपेक्षा कर डालता है और जहां द्वेष, घृणा आदि के धूम से जीवन ढका रहता है, वहां वह सामंजस्य को भी ग्रहण नहीं करता.
इसी से रामा हमें बहुत अच्छा लगता था. जान पड़ता है, उसे भी अपनी कुरूपता का पता नहीं था, तभी तो केवल एक मिर्जई और घुटनों तक ऊंची धोती पहनकर अपनी कुडौलता के अधिकांश की प्रदर्शनी करता रहता था. उसके पास सजने के उपयुक्त सामग्री का अभाव नहीं था, क्योंकि कोठरी में अस्तर लगा लम्बा कुरता, बंधा हुआ साफा, बुन्देलखंडी जूते और गंठीली लाठी किसी शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते जान पड़ते थे. उनकी अखण्ड प्रतीक्षा और रामा की अटूट उपेक्षा से द्रवित होकर ही कदाचित् हमारी कार्यकारिणी समिति यह प्रस्ताव नित्य सर्वमत से पास होता रहता था कि कुरते की बांहों में लाठी को अटकाकर खिलौनों का परदा बनाया जावे, डलिया जैसे साफे को खूंटी से उतारकर उसे गुड़ियों का हिंडोला बनने का सम्मान दिया जावे और बुन्देलखंडी जूतों को हौज में डालकर गुड्डों के जल-विहार का स्थायी प्रबन्ध किया जावे; पर रामा अपने अंधेरे दुर्ग में चर्रमर्र स्वर में डाटते हुए द्वार को इतनी ऊंची अर्गला से बन्द रखता था कि हम स्टूल पर खड़े होकर भी छापा न मार सकते थे.
रामा के आगमन की जो कथा हम बड़े होकर सुन सके, वह भी उसी के समान विचित्र है. एक दिन जब दोपहर को मां बड़ी, पापड़ आदि के अक्षय-कोष को धूप दिखा रही थीं, तब न जाने कब दुर्बल और क्लान्त रामा आंगन के द्वार की देहली पर बैठकर किवाड़ से सिर टिकाकर निश्चेष्ट हो रहा. उसे भिखारी समझ जब उन्होंने निकट जाकर प्रश्न किया, तब वह ‘ए मताई, ए रामा तो भूखन के मारे जो चलो’ कहता हुआ उनके पैरों पर लेट गया. दूध, मिठाई आदि का रसायन देकर मां जब रामा को पुनर्जीवन दे चुकीं, तब समस्या और जटिल हो गई, क्योंकि भूख तो ऐसा रोग नहीं, जिसमें उपचार का क्रम टूट सके. वह बुन्देलखंड का ग्रामीण बालक विमाता के अत्याचार से भागकर मांगता-खाता इन्दौर तक जा पहुंचा था, जहां न कोई अपना था और न रहने का ठिकाना. ऐसी स्थिति में रामा यदि मां की ममता का सहज ही अधिकारी बन बैठा, तो आश्चर्य क्या!
उस दिन सन्ध्या समय जब बाबूजी लौटे, तब लकड़ी रखने की कोठरी के एक कोने में रामा के बड़े-बड़े जूते विश्राम कर रहे थे और दूसरे में लम्बी लाठी समाधिस्थ थी. और हाथ-मुंह धेकर नये सेवा-व्रत में दीक्षित रामा हक्का-बक्का-सा अपने कर्तव्य का अर्थ और सीमा समझने में लगा हुआ था.
बाबूजी तो उसके अपरूप को देखकर विस्मय-विमुग्ध हो गये. हंसते-हंसते पूछा-यह किस लोक का जीव ले आए हैं धर्मराज जी! मां के कारण हमारा घर अच्छा-खासा ‘ज़ू’ बना रहता था. बाबूजी जब लौटते, तब प्रायः कोई लंगड़ा भिखारी बाहर के दालान में भोजन करता रहता, कभी कोई सूरदास पिछवाड़े के द्वार पर खंजड़ी बजाकर भजन सुनाता होता, कभी पड़ोस का कोई दरिद्र बालक नया कुरता पहनकर आंगन में चौकड़ी भरता दिखाई देता और कभी कोई वृद्ध ब्राह्मणी भंडारघर की देहली पर सीधा गठियाते मिलती.
बाबूजी ने मां के किसी कार्य के प्रति कभी कोई विरक्ति नहीं प्रकट की; पर उन्हें चिढ़ाने में सुख का अनुभव करते थे.
रामा को भी उन्होंने क्षणभर का अतिथि समझा, पर मां शीघ्रता में कोई उत्तर न खोज पाने के कारण बहुत उद्विग्न होकर कह उठीं-मैंने ख़ास अपने लिए इसे नौकर रख लिया है. जो व्यक्ति कई नौकरों के रहते हुए भी क्षणभर विश्राम नहीं करता, वह केवल अपने लिए नौकर रखे, यही कम आश्चर्य की बात नहीं, उस पर ऐसा विचित्र नौकर. बाबूजी का हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया. विनोद से कहा,‘ठीक ही है, नास्तिक जिनसे डर जावें, ऐसे ख़ास सांचे में ढले सेवक ही तो धर्मराजजी की सेवा में रह सकते हैं.’
उन्हें अज्ञातकुलशील रामा पर विश्वास नहीं हुआ; पर मां से तर्क करना व्यर्थ होता, क्योंकि वे किसी की पात्रता-अपात्रता का मापदण्ड अपनी सहज-संवेदना ही को मानती थीं. रामा की कुरूपता का आवरण भेदकर उनकी सहानुभूति ने जिस सरल हृदय को परख लिया, उसमें अक्षय सौंदर्य न होगा, ऐसा सन्देह उनके लिए असम्भव था.
इस प्रकार रामा हमारे यहां रह गया, पर उसका कर्तव्य निश्चित करने की समस्या नहीं सुलझी.
सब कामों के लिए पुराने नौकर थे और अपने पूजा और रसोईघर का कार्य मां किसी को सौंप ही नहीं सकती थीं. आरती, पूजा आदि के सम्बन्ध में उनका नियम जैसा निश्चित और अपवादहीन था, भोजन बनाने के सम्बन्ध में उससे कम नहीं.
एक ओर यदि उन्हें विश्वास था कि उपासना उनकी आत्मा के लिए अनिवार्य है, तो दूसरी ओर दृढ़ धारणा थी कि उनका स्वयं भोजन बनाना हम सबके शरीर के लिए नितान्त आवश्यक है. हम सब एक-दूसरे से दो-दो वर्ष छोटे-बड़े थे, अतः हमारे अबोध और समझदार होने के समय में विशेष अन्तर नहीं रहा. निरन्तर यज्ञ-ध्वंस में लगे दानवों के समान हम मां के सभी महान् अनुष्ठानों में बाधा डालने की ताक में मंडराते रहते थे, इसी से रामा को, हम विद्रोहियों को वश में रखने का गुरु-कर्तव्य सौंपकर कुछ निश्चिन्त हो सकीं.
रामा सवेरे ही पूजा-घर साफ़ कर वहां के बर्तनों को नींबू से चमका देता-तब वह हमें उठाने जाता. उस बड़े पलंग पर सवेरे तक हमारे सिर-पैर की दिशा और स्थितियों में न जाने कितने उलट-फेर हो चुकते थे. किसी की गर्दन को किसी का पांव नापता रहता था, किसी के हाथ पर किसी का सर्वांग तुलता होता था और किसी की सांस रोकने के लिए किसी की पीठ की दीवार बनी मिलती थी. सब परिस्थितियों का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करने के लिए रामा का कठोर हाथ कोमलता से छद्मवेश में, रजाई या चादर पर एक छोर से दूसरे छोर तक घूम आता था और तब वह किसी को गोद के रथ, किसी को कंधे के घोड़े पर तथा किसी को पैदल ही, मुख-प्रक्षालन-जैसे समारोह के लिए ले जाता.
हमारा मुंह-हाथ धुलाना कोई सहज अनुष्ठान नहीं था, क्योंकि रामा को ‘दूध बताशा राजा खाय’ का महामन्त्र तो लगातार जपना ही पड़ता था, साथ ही हम एक-दूसरे का राजा बनना भी स्वीकार नहीं करना चाहते थे. रामा जब मुझे राजा कहता, तब नन्हें बाबू चिड़िया की चोंच जैसा मुंह खोलकर बोल उठता,‘लामा इन्हें कौं लाजा कहते हो?’ र कहने में भी असमर्थ उस छोटे पुरुष का दम्भ कदाचित् मुझे बहुत अस्थिर कर देता था. रामा के एक हाथ की चक्रव्यूह जैसी उंगलियों में मेरा सिर अटका रहता था और उसके दूसरे हाथ की तीन गहरी रेखाओं वाली हथेली सुदर्शनचक्र के समान मेरे मुख पर मलिनता की खोज में घूमती रहती थी. इतना कष्ट सहकर भी दूसरों को राजत्व का अधिकारी मानना अपनी असमर्थता का ढिंढोरा पीटना था, इसी से मैं साम-दाम-दण्ड-भेद के द्वारा रामा को बाध्य कर देती कि वह केवल मुझी को राजा कहे. रामा ऐसे महारथियों को सन्तुष्ट करने का अमोघ मन्त्र जानता था. वह मेरे कान में हौले से कहता,‘तुमई बड्डे राजा हौ जू, नन्हें नइयां’ और कदाचित् यही नन्हें के कान में दोहराया जाता, क्योंकि वह उत्फुल्ल होकर मंजन की डिबिया में नन्हीं उंगली डालकर दांतों के स्थान में ओठ मांजने लगता. ऐसे काम के लिए रामा का घोर निषेध था, इसी से मैं उसे गर्व से देखती; मानो वह सेनापति की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला मूर्ख सैनिक हो.
तब हम तीनों मूर्तियां एक पंक्ति में प्रतिष्ठित कर दी जातीं और रामा बड़े-बड़े चम्मच, दूध का प्याला, फलों की तश्तरी आदि लेकर ऐसे विचित्र और अपनी-अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए व्याकुल देवताओं की अर्चना के लिए सामने आ बैठता. पर वह था बड़ा घाघ पुजारी. न जाने किस साधना के बल से देवताओं को आंख मूंदकर कौव्वे द्वारा पुजापा पाने को उत्सुक कर देता. जैसे ही हम आंखें मूंदते वैसे ही किसी के मुंह में अंगूर, किसी के दांतों में बिस्कुट और किसी के ओठों में दूध का चम्मच जा पहुंचता. न देखने का तो अभिनय ही था, क्योंकि हम सभी अधखुली आंखों से रामा की काली, मोटी उंगलियों की कलाबाज़ी देखते ही रहते थे. और सच तो यह है कि मुझे कौवे की काली कठोर और अपरिचित चोंच से भय लगता था. यदि कुछ खुली आंखों से मैं काल्पनिक कौव्वे और उसकी चोंच से रामा के हाथ और उंगलियों को न पहचान लेती तो मेरा भोग का लालच छोड़कर उठ भागना अवश्यम्भावी था.
जलपान का विधान समाप्त होते ही रामा की तपस्या की इति नहीं हो जाती थी. नहाते समय आंख को साबुन के फेन से तरंगित और कान को सूखा द्वीप बनने से बचाना, कपड़े पहनते समय उनके उलटे-सीधे रूपों में अतर्क वर्ण-व्यवस्था बनाए रहना, खाते समय भोजन की मात्रा और भोक्ता की सीमा में अन्याय न होने देना, खेलते समय यथावश्यकता हमारे हाथी, घोड़ा, उड़नखटोला आदि के अभाव को दूर करना और सोते समय हम पर पंख जैसे हाथों को फैलाकर कथा सुनाते-सुनाते हमें स्वप्न-लोक के द्वार तक पहुंचा आना रामा का ही कर्तव्य था.
हम पर रामा की ममता जितनी अथाह थी, उस पर हमारा अत्याचार भी उतना ही सीमाहीन था. एक दिन दशहरे का मेला देखने का हठ करने पर रामा बहुत अनुनय-विनय के उपरान्त मां से, हमें कुछ देर के लिए ले जाने की अनुमति पा सका. खिलौने ख़रीदने के लिए जब उसने एक को कंधे पर बैठाया और दूसरे को गोद लिया, तब मुझे उंगली पकड़ाते हुए बार-बार कहा,‘उंगरिया जिन छोड़ियो राजा भइया.’ सिर हिलाकर स्वीकृति देते-देते ही मैंने उंगली छोड़कर मेला देखने का निश्चय कर लिया. भटकते-भटकते और दबने से बचते-बचते जब मुझे भूख लगी, तब रामा का स्मरण आना स्वाभाविक था. एक मिठाई की दुकान पर खड़े होकर मैंने यथासम्भव उद्विग्नता छिपाते हुए प्रश्न किया,‘क्या तुमने रामा को देखा है? वह खो गया है.’ बूढ़े हलवाई ने धुंधली आंखों में वात्सल्य भरकर पूछा,‘कैसा है तुम्हारा रामा?’ मैंने ओठ दबाकर सन्तोष के साथ कहा,‘बहुत अच्छा है.’ इस हुलिया से रामा को पहचान लेना कितना असम्भव था, यह जानकर ही कदाचित् वृद्ध कुछ देर वहीं विश्राम कर लेने के लिए आग्रह करने लगा. मैं हार तो मानना नहीं चाहती थी, परन्तु पांव थक चुके थे और मिठाइयों से सजे थालों में कुछ कम निमन्त्रण नहीं था, इसी से दुकान के एक कोने में बिछे ठाट पर सम्मान्य अतिथि की मुद्रा में बैठकर मैं बूढ़े से मिले मिठाई रूपी अर्घ्य को स्वीकार करते हुए उसे अपनी महान यात्रा की कथा सुनाने लगी.
वहां मुझे ढूंढ़ते-ढूंढ़ते रामा के प्राण कण्ठगत हो रहे थे. सन्ध्या समय जब सबसे पूछते-पूछते बड़ी कठिनाई से रामा उस दुकान के सामने पहुंचा, तब मैंने विजय गर्व से फूलकर कहा,‘तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा!’ रामा के कुम्हलाए मुख पर ओस के बिन्दु जैसे आनन्द के आंसू लुढ़क पड़े. वह मुझे घुमा-घुमाकर इस तरह देखने लगा, मानों मेरा कोई अंग मेले में छूट गया हो. घर लौटने पर पता चला कि बड़ों के कोश में छोटों की ऐसी वीरता का नाम अपराध है, पर मेरे अपराध को अपने ऊपर लेकर डांट-फटकार भी रामा ने ही सही और हम सबको सुलाते समय उसकी वात्सल्यता भरी थपकियों का विशेष लक्ष्य भी मैं ही रही.
एक बार अपनी और पराई वस्तु का सूक्ष्म और गूढ़ अन्तर स्पष्ट करने के लिए रामा चतुर भाष्यकार बना. बस फिर क्या था! वहां से कौन-सी पराई चीज़ लाकर रामा की छोटी आंखों को निराश विस्मय से लबालब भर दें, इसी चिन्ता में हमारे मस्तिष्क एकबारगी क्रियाशील हो उठे.
हमारे घर से एक ठाकुर साहब का घर कुछ इस तरह मिला हुआ था कि एक छत से दूसरी छत तक पहुंचा जा सकता था. हां, राह एक बालिश्त चौड़ी मुंडेर मात्र थी, जहां से पैर फिसलने पर पाताल नाप लेना सहज हो जाता.
उस घर आंगन में लगे फूल, पराई वस्तु की परिभाषा में आ सकते हैं, यह निश्चित कर लेने के उपरान्त हम लोग एक दोपहर को, केवल रामा को खिझाने के लिए उस आकाश मार्ग से फूल चुराने चले. किसी का भी पैर फिसल जाता तो कथा और ही होती, पर भाग्य से हम दूसरी छत तक सकुशल पहुंच गये. नीचे के जीने की अन्तिम सीढ़ी पर एक कुत्ती नन्हें-नन्हें बच्चे लिए बैठी थी; जिन्हें देखते ही, हमें वस्तु के सम्बन्ध में अपना निश्चय बदलना पड़ा; पर ज्यों ही हमने एक पिल्ला उठाया, त्यों ही वह निरीह-सी माता अपने इच्छा भरे अधिकार की घोषणा से धरती आकाश एक करने लगी. बैठक से जब कुछ अस्त-व्यस्त भाववाले गृहस्वामी निकल आए और शयनागार से जब आलस्यभरी गृहस्वामिनी दौड़ पड़ी, तब हम बड़े असमंजस में पड़ गए. ऐसी स्थिति में क्या किया जाता है, यह तो रामा के व्याख्यान में था ही नहीं, अतः हमने अपनी बुद्धि का सहारा लेकर सारा मन्तव्य प्रकट कर दिया, कहा,‘हम छत की राह से फूल चुराने आए हैं.’ गृहस्वामी हंस पड़े. पूछा,‘लेते क्यों नहीं?’ उत्तर और भी गम्भीर मिला,‘अब कुत्ती का पिल्ला चुराएंगे.’ पिल्ले को दबाए हुए जब तक हम उचित मार्ग से लौटे तब तक रामा ने हमारी डकैती का पता लगा लिया था.
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