दुनिया को ताकाझांकी पसंद है. वह भले ही आपके बारे में कुछ भी न जानती हो, पर आपकी ज़िंदगी पर अपने तरीक़े से कमेंट करना कभी नहीं भूलती. लेखिका आरती प्रणय की यह कहानी इसी ताकाझांकी की प्रवृत्ति को पर रौशनी डालती है.
लॉकडाउन के ख़त्म होने पर हमारा लेडीज़ क्लब भी फिर शुरू हो गया था. उन दिनों सभी हर रोज़ मीरा की ही चर्चा करते थे. कोई कहती,“आजकल अक्सर मीरा और वो लड़का बालकनी में साथ दिखाई देते हैं…कभी हाथों में हाथ लिए … तो कभी कंधे पर सर झुकाए.”
फ़र्स्ट फ़्लोर वाली शुभा ने कहा,“आजकल तो लिव-इन का फ़ैशन हो गया है, हींग लगे ना फिटकरी रंग भी चोखा आए. ना कोई ज़िम्मेदारी और ना कोई बंधन…जितना चाहे उतने दिन चलाओ और फिर राम राम…चलते बनो.”
सातवीं फ़्लोर वाली राशि ने उसकी हां में हां मिलाते हुए कहा,“हां जी… लिव-इन ही तो है. मेरे नेक्स्ट ही रहती है. मैं पूजा का प्रसाद देने गई थी तो उस लड़के ने ही दरवाज़ा खोला था. मैंने उससे कहा अपनी पत्नी को बुलाओ तो हंसकर कहने लगा, पत्नी नहीं है अभी वो मेरी…हम बस साथ हैं. मुझे अच्छा तो नहीं लगा उसे पूजा का प्रसाद देने में, लेकिन मैं प्रसाद उसे थमा कर चली आई.”
फिर शीना बोल उठी,“अरे…लिव-इन तो बस एक एस्केप है…. भागने का ज़रिया…मां बाप से…घर परिवार से दूर होने का. तुम देखना, यह लड़का भी कुछ दिन बाद…जब मन भर जाएगा…तो भाग जाएगा. वैसे भी भगोड़े से ही होते हैं लिव-इन वाले रिश्ते.”
शुभा कहने लगी,“बढ़िया है ना…न पायल… न बिछिया…ना सिंदूर…और साथ में सुहाग के सारे सुख…क्या है यह रिश्ता..? तुम सब देखना यह लड़का पक्का छोड़कर चला जाएगा. आख़िर ऐसे थोड़े ही ना इतने सालों से चल रहे हैं हमारे समाज में शादी के बंधन के रस्मो-रिवाज…लिव-इन तो बस मस्ती का एक ज़रिया है…”
मैं सुनती रहती थी इन सब बातों को. फिर कुछ और हंसी-मज़ाक होते, चाय और बिस्कुट का दौर चलता, और हम सब अपने घर वापस चले जाते.
मैं और मीरा, या कहें वह लिव-इन जोड़ा, एक ही फ़्लोर पर रहते थे. ‘लिव-इन जोड़ा’… यही तो नाम दिया था सबने उन दोनों को. कई बार मीरा लिफ़्ट में टकरा जाती. एक-दो बार तो हेलो-हाय भी हुई. तभी मुझे पता चला था कि उसका नाम मीरा है. एक बार तो उस लड़के के साथ भी दिखी थी लिफ़्ट में. बहुत ही सहजता के साथ खड़ा था उसके बग़ल में. उस दिन उसने अपना नाम भी बताया था… अखिल. बस इतनी सी मुलाक़ात हुई थी उनसे.
देखते-देखते साल गुज़र गया. ऑफ़िस फ़िजिकल होने के बाद उस दिन जब मैं ऑफ़िस पहुंची तो मैंने देखा मेरी बग़ल की टेबल पर बैठी लड़की कोई और नहीं बल्कि वो लिव-इन वाली हमारी मीरा ही थी. हाय-हेलो के बाद उस दिन हमारी कोई बात नहीं हुई. पर जब वो घर जाने लगी तो उसने पूछा,“आप साथ चलेंगी…हम कैब शेयर कर लेंगे?” उस रोज़ से यह सिलसिला शुरू हो गया. हम शेयर टैक्सी से रोज़ घर वापस आने लगे. परिचय ने दोस्ती की ओर क़दम बढ़ाया और एक दिन उसने मुझे चाय पर अपने घर बुला लिया.
चाय पीते-पीते मैंने जानबूझ कर पूछा,“आपके हस्बैंड कहां हैं?” उसने मेरी आंखों में सीधा देखते हुए कहा,“अरे यार…अखिल बस दोस्त है मेरा…और हम बस साथ रहते हैं…एक-दूसरे के साथ…” मेरा जिज्ञासु मन आगे की कुछ और सुनना चाह रहा था. मैंने कहा,“ बस…दोस्त?” उसने कहा, हां सिर्फ़ दोस्त.. लेकिन सिर्फ़ दोस्त क्यों… प्रेमी भी…साथी भी…और मेरा एक अकेला नाता-रिश्तेदार भी…”
मीरा की बात मुझे कुछ जंची नहीं. फिर भी मैंने कहा,“ चलो…तुम दोनों का साथ बना रहे. लेकिन, ऐसा बेनाम रिश्ता? मुझे तो ऐसे रिश्ते… या कह लो लिव-इन के रिश्ते में भरोसा नहीं है.” मेरा कहना शायद मीरा को कुछ बुरा लगा और उसने कुछ कड़े स्वर में कहा,“अपनी -अपनी सोच है भाई…” फिर उसने बात को संभाल लिया और हम कुछ दूसरी बातों में लग गए. समय के साथ हमारा परिचय जैसे दोस्ती में परिवर्तित हो गया. हर पल, हर दिन मीरा की ज़ुबान पर अखिल का ही नाम हुआ करता था.
वक़्त आख़िर वक़्त ही तो है सो अपनी रफ़्तार से गुज़रता रहा. लेकिन कुछ दिनों बाद मीरा मेरे पास आई. कहा,“साक्षी, तुम मेरी मैरिज विटनेस बनोगी…मेरी शादी है…अगले हफ़्ते…” मैं उसे घूरने लगी. इतने समय से बनी मेरी अवधारणाएं जैसे बदलने वाली थीं. क्या अखिल भगोड़ा निकला? तभी तो अब शादी की बात कर रही है. मेरा मन बैठने लगा. मैं पूछ बैठी,“किससे मीरा?” मीरा ने हंस कर कहा,“अखिल से…और किससे…वही तो बना है मेरे लिए …और उसी ने तो अपना बना लिया है मुझको.” लेकिन, मेरे मन के प्रश्न शांत नहीं हो रहे थे. मैंने कहा,“ मैं ज़रूर बनूंगी. लेकिन मैं अखिल को जानती ही कितना हूं? और क्या हुआ तुम्हारी अपनी सोच को? तुम तो लिव-इन की बड़ी वक़ालत करती थी?”
मीरा बालकनी के बाहर देखती हुई कहने लगी,‘‘साक्षी…साथ बिताया हुआ समय ही रिश्तों को अंतिम स्वरूप देता है. …अखिल क़रीब दो साल पहले मेरी ज़िंदगी में आया. वह लॉकडाउन का समय था. अखिल मेरे घर में पेइंग गेस्ट बनकर आया था… उस घर में जो मैंने लिया तो था अपने आत्मविश्वास को मज़बूत करने के लिए…लेकिन जो लॉकडाउन में, जॉब जाने पर, मेरे लिए ढाल बन गया था. लोग अपने-अपने घरों में सिमट रहे थे. मकान-मालिक किराएदारों को घर छोड़ने को कह रहे थे. ऐसे में मेरा ऐड देखकर मेरे फ़्लैट को देखने कई नमूने आए. कई की आंखें अकेली, सुंदर लड़की को मकान-मालिक जानकर चमक उठतीं. मैं ऐसी चमक को भांप लेती थी. लड़कियों में तो आंखों को भांपने की अद्भुत कला होती ही है. आंखों में झांक कर वो किसी की भी नीयत परख लेतीं हैं. शायद कोई ख़ास सेंसर भगवान ने ही दे दिया है उन्हें. ऐड दिए तीन हफ़्ते हो चुके थे पर कोई ठीक-ठाक पीजी नहीं मिल रहा था. आख़िरकार एक कॉल आया. कोई अपनी गंभीर और सौम्य आवाज़ में पूछ रहा था,“मैम, मैंने आपका पीजी का ऐड देखा. आकर मिल सकता हूं?” मैंने बड़े बेमन से कहा 4 बजे आ जाइए. लेकिन ठीक 3.55 पर दरवाज़े की घंटी बजी. मैंने उबासी लेते दरवाज़ा खोला तो सामने एक लड़का खड़ा था…जीन्स और वाइट शर्ट पहने. वो पहला किराएदार था जो …मुझे नहीं …मेरे घर को देख रहा था. मैंने उसे अपना फ़्लैट और उसका कमरा दिखा दिया. अपना बायोडेटा थमाते हुए उसने कहा,“मैम… आप देख लीजिए… संस्कारी परिवार से हूं और एक एमएनसी में जॉब करता हूं. रेंट जैसा भी आप कहें..” मुझे वह सही इंसान लगा और इसी लिए मैंने हामी भर दी.
अगले ही दिन अखिल अपना सारा सामान लेकर मेरे घर आ गया. अपने साथ वह एक एक्वेरियम भी लाया था. आते ही उसने अपने कमरे को क़रीने से सजा लिया. लॉकडाउन था..इसलिए अपने रेंट के पैकेज में मैंने चाय-नाश्ता, लंच और डिनर साथ रखा था. मैंने उसे चाय दी. उसे पीजी के कुछ नियम बता दिए…जैसे, दोस्तों को घर नहीं लाना, पानी का ख़र्च कम करना, बिजली बिल का आधा ख़र्च उठाना, आदि.
अखिल का वर्क फ़्रॉम होम चल रहा था. मैंने भी एक ऑनलाइन काम शुरू कर दिया था. कोविड के कारण घर का राशन, सब्ज़ी, दूध आदि लाना भी एक बड़े संघर्ष-सा लगता था. इस तरह क़रीब चार महीने गुज़र गए.
एक दिन मैं बाज़ार से घर का सामान लेकर आ रही थी. अखिल भी कहीं बाहर जाकर घर लौट रहा था. मुझे देखकर उसने दौड़कर मेरे हाथों से मेरा बैग ले लिया. कहा,“ मेरे होते आप क्यों ये ले जाएंगी?” मैंने कहा, यह तो आपके रेंट एग्रीमेंट में नहीं लिखा है कि बाज़ार का काम आप करेंगे.” वह यह सुन कर हंस पड़ा,“ तब कहां मालूम था कि मकान-मालकिन से दोस्ती हो जाएगी.” उसके मुंह से ‘दोस्ती ’ सुनकर अच्छा तो लगा…पर मैं धीरे से हंस दी और बैग उसे थमा दिया.
दोस्ती शब्द में ही जैसे कोई जादू होता है. उस दिन के बाद से अखिल मुझे कुछ अपना-सा लगने लगा. हर हफ़्ते बाज़ार से राशन-सब्ज़ी लाने का भार अखिल ने अपने हाथों में ले लिया. मैं भी उसकी पसंद का नाश्ता-खाना उसे देने लगी. कभी-कभी एक्वेरियम में रखी उसकी मछलियों को भी फ़ीड करने लगी. और एक दिन मैंने उससे पूछ लिया,“अखिल… अगर तुम्हें एतराज़ न हो तो मैं इस एक्वेरियम को लिविंग-रूम में रख लूं?”ख़ुश होकर अखिल ने कहा,“अरे… यह तो और भी अच्छा होगा. मेरे गोल्ड और गोल्डी के भी मेरी तरह अच्छा खाना टाइम पर मिल जाएगा.” मैंने हंसते हुए कह दिया,“… कुछ भी…”
मगर मेरा वह ‘कुछ भी ‘ कहना शायद कुछ कह रहा था. उस दिन से हमारी दोस्ती कुछ गहराने लगी. पर…सच कहो तो उस रात ने मेरी सोच और जीवन की दिशा ही बदल दी. उस रात खाने बनाने के लिए मैं ऊपर रखे डब्बे से कुछ उतार रही थी. अचानक…मेरा पैर फिसला और मैं गिर पड़ी. मेरे मुंह से अचानक “अखिल “ का नाम निकल गया. शायद तब तक अखिल इतना अपना हो चुका था. चोट लगने पर अगर हम किसी का नाम लेते हैं तो वह हमारे दिल की बहुत ही क़रीब होता है. ख़ैर..अखिल कैब बुलाकर मुझे हॉस्पिटल ले गया. मेरा एक छोटा-सा ऑपरेशन कर मुझे हॉस्पिटल में एक हफ़्ते रहने की सलाह दी गई. मैंने अखिल से कितना ही कहा कि तुम घर चले जाओ, कोविड के समय में हॉस्पिटल में रहना ठीक नहीं है…पर उसने मेरी एक बात भी नहीं सुनी. पूरे सात दिन वह मास्क लगाकर रातभर मेरे वॉर्ड के बाहर बैठा रहता था. रोज़ अपने सामने कई लोगों को कोविड से जान गंवाते देखता, लेकिन फिर भी निडरता से घंटों मेरे पास या हॉस्पिटल में बाहर बैठा रहता था. जब पूरा देश अपनी जान की हिफ़ाज़त में घरों में बंद था…तब भी वह एक अनजान लड़की के लिए जान गंवाने को भी तैयार था. मेरे किसी अपने ने भी मुझे इस तरह कभी नहीं अपनाया था.
जब मैं घर लौटकर आई तो अखिल ने पूरे घर को क़रीने से सजा दिया था. मेरी ज़रूरत के सारे सामान मेरे बेड के पास रख दिए थे. मेरी आंखें छलक आईं. इतनी परवाह की आदत जो नहीं थी. मैं बार-बार आभार से भरी आंखों से उसे देखती तो वह कह उठता, “तुम भी यार…एकदम से भावनाओं से भरी हुई हो..” क़रीब दो हफ़्ते तक वह उसी तरह मेरी केयर करता रहा. अब हम दोनों डिनर साथ ही लेने लगे थे. फिर एक दिन अखिल ने कहा,“बहुत दिनों से कहना चाह रहा था… पर सोचा…आज कह ही दूं….तुम्हें नहीं लगता कि हम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं?” फिर उसने अपना लहज़ा बदल कर कहा,“अगर नहीं लगता है तो मेरी बात का बुरा मत मानना और मुझे इसके लिए मकान से मत निकाल देना…”
अखिल तो इतनी बड़ी बात कह कर हंस पड़ा, लेकिन मैं गंभीर हो गई. क्या हर स्त्री-पुरुष के रिश्ते का पर्याय ‘शादी’ ही होना चाहिए. ऐसा नहीं था कि मैं अखिल के साथ अच्छा महसूस नहीं करती थी. लेकिन…फिर वही.. शादी..? कितना अच्छा तो था सब कुछ? न अतीत को बाांटने की ज़रूरत.. न भविष्य में साथ बंधने के सपने..!
मैंने अपने-आप को संयत करते हुए कहा,‘‘अखिल तुम मुझे जानते ही कितना हो? मेरा एक अजीब सा अतीत है. तुम तो जानते ही हो अतीत कभी खोता नहीं है…आपके हर फ़ैसले में दख़लअंदाज़ी कर बैठता है. मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है. हम दोनों का साथ रहना मुझे शायद तुमसे भी ज़्यादा अच्छा लगता है और शायद मैं भी तुमसे प्यार करने लगी हूं… पर.. शादी?.. शादी के बारे में कुछ सोचने में मुझे समय लगेगा. लेकिन, मैं तुम्हें अपनी उलझन में नहीं उलझाऊंगी…तुम्हारी ज़िंदगी को रोकूंगी नहीं.’’
अखिल ने कहा,“मीरा, मैं तुम्हारे अतीत में झांकना नहीं चाहता, अतीत को अतीत ही रहने दो… उसकी डोर से वर्तमान और भविष्य को थामना तो नासमझी ही है. फिर भी.. अगर तुम चाहो तो तुम अपने उस अतीत को मेरे साथ साझा कर सकती हो. कहते हैं किसी कड़वे अतीत को साझा करने से उसकी पकड़ कुछ ढीली पड़ जाती है.”
कुछ तो था अखिल की आंखों में. मेरी आंखें नम हो आईं और मैं अपने अतीत के पन्ने उसके सामने खोले लगी. “कुछ साल पहले मेरी मंगनी रंजित से तय हुई थी. अच्छा ख़ासा लड़का था. अपनी मां की बहुत इज़्ज़त करता था. जब भी कॉफी हाउस में मिलते तो मेरा हाथ थाम कर साथ निभाने की क़समें खाता. कहता, मैं अच्छे-बुरे वक़्त में कभी तुम्हारा साथ नहीं छोड़ूंगा. लेकिन कहना हमेशा आसान होता है और करना ज़्यादातर कठिन. मंगनी के कुछ महीने बाद मैं बस से इंदौर से खंडवा आ रही थी. रात का समय था. अचानक बस ख़राब हो गई. तभी कुछ गुंडे आए और बस में जा रही कुछ लड़कियों को अगवा करके ले गए. उन्होंने हम सब से हमारे मां-बाप का नंबर मांगा और फिर हमारे माता-पिता से फिरौती की मांग करने लगे. हमारी क़िस्मत थी की पुलिस ने हमें दो दिनों में ही छुड़ा लिया. यह भी हमारी क़िस्मत थी कि वो लोग लुटेरे थे…दरिंदे नहीं. उन्होंने हमें कोई शारीरिक हानि नहीं पहुंचाई.’’
“लेकिन दो दिन बाद जब हम सब घर लौटे तो सब कुछ बदल चुका था. मुझे मेरे बड़े भाई और भाभी ने ही बचपन से अपनी दूसरी बेटी की तरह ही पाला था. लेकिन घर वापसी के बाद वो दोनों भी पराए से हो गए. उसी दिन शाम रंजीत और उसकी मां मेरे घर आए. आते ही उन्होठने बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरा. फिर कहने लगी,“ बिटिया…मेरे तो सारे सपने ही बिखर गए. काश मैं तुम्हें अपना पाती! पर …तुम ही बताओ मैं किस तरह समाज में अपना मुंह दिखा पाऊंगी ? मैं कैसे किसी ऐसी लड़की को अपनी बहू बना पाऊंगी जिसका हरण किसी रावण में कर लिया हो? जब भगवान राम भी सीता को नहीं अपना सके तो हम तो आम आदमी हैं.” ….फिर उन्होंने रंजित से मंगनी की अंगूठी वापस कर देने को कहा. रंजित ने भी ने भी बिना हिचकिचाए अंगूठी निकाल कर मेरे हाथों में थमा दी. मैंने एक पल को उसकी ओर देखा… फिर मैंने भी झट से अपनी अंगूठी निकाल कर उसके हाथों में दे दी और कहा,‘‘अच्छा किया कि यह शुभ काम तुमने ही पहले कर दिया. अंगूठी तो मैं ही तुम्हें वापस करने वाली थी. क्योंकि तुम्हारी सोच इतनी ओछी है कि तुमने मिलते ही मुझसे यह नहीं पूछा कि मैं ठीक हूं या नहीं. तुमने पूछा कि उन लोगों ने तुम्हें छुआ तो नहीं? तुम्हारे लिए मैं वस्तु मात्र थी जो पवित्र होनी चाहिए. स्त्री को लेकर तुम आज भी अग्नि परीक्षा लेने वाले पुरुष मात्र हो. लेकिन मैं ऐसी स्त्री नहीं हूं …और मैं कभी कोई अग्नि-परीक्षा नहीं दूंगी. मेरा अस्तित्व मेरा अभिमान है और मुझे उसकी पवित्रता किसी के सामने साबित करने की ज़रूरत नहीं है.”
उन लोगों के जाने के बाद भैया और भाभी भी मुझे ही दोष देने लगे. उन्होंने कहा कि अगर तुम चुप रहती तो शायद वे लोग पिघल भी जाते, लेकिन तुमने तो ख़ुद ही इतना कुछ उन्हें सुना दिया. अब तो तुम्हारे कारण हमारी रिंकी की शादी में भी बहुत मुश्क़िल होगी.
उस दिन के बाद मेरे सारे अपने बदल गए. भाभी बार-बार ताने सुना दिया करती,“इतना तेवर ठीक नहीं लड़कियों का…” अड़ोस- पड़ोस वाले भी आते-जाते कुछ-न-कुछ कह दिया करते. मेरा एक-एक दिन उस घर में भारी पड़ने लगा. यह तो भगवान का शुक्र था कि मेरी जॉब लग गई और मैं यहां मुंबई आ गई. अब तो मेरे सारे रिश्ते बस औपचारिक से ही है …जिनकी भरपाई मैं बस होली-दिवाली में घर जाकर कर आती हूं.
अखिल के सामने अपना अतीत खोल कर मैं काफ़ी हल्का महसूस कर रही थी. मैंने उससे कहा,“मैं जानती हूं जब भी मैं शादी के बंधन में बंधूंगी तो यह सब कुछ वापस उघड़ जाएगा. फिर वही सवाल उभरेंगे. इसलिए मैं शादी ही नहीं करना चाहती.” अखिल ने सब सब कुछ बहुत बिना कोई सवाल किए सुना. फिर कहा,“ ठीक है… मैं तुम्हारी भावनाओं को समझ सकता हूं. आशंकाओं का सागर बहुत गहरा होता है. लेकिन मैं तब तक तुम्हारा इंतज़ार करूंगा जब तक मेरा प्यार तुम्हारे अतीत पर भारी न पड़ जाए.”
उस दिन से अब तक हम वैसे ही दोस्तों की तरह रहते आए हैं. न कभी अखिल ने मेरे अतीत का ज़िक्र किया, न कभी मैंने यह सब कुछ उसे बताने के लिए शर्मिंदा महसूस किया. पर कहते हैं ना… रोज़ घिसते-घिसते पत्थर पर भी रस्सी के निशान पड़ जाते हैं. हमारी आपस की सहजता ने एक रिश्ते की नींव डाल दी. परसों मेरा जन्मदिन था. जैसे ही उसने मुझे विश किया मैंने उससे पूछ लिया,“शादी कब करनी है…?” और उससे लिपट गई. शायद मेरे और अखिल के प्यार के बीच मेरा अतीत कहीं विलीन सा हो गया.’’
मैं एकटक उसकी ओर देखे जा रही थी. लाज और ख़ुशी से लाल अपने सुंदर स्वरूप में मुझे वह बिना किसी श्रृंगार के एक नई दुल्हन की तरह लग रही थी. शायद शादी की संपूर्णता रस्मों और रिवाजों से नहीं, सहजता, समर्पण और विश्वास से होती है. फिर वह चाहे लिव-इन हो या सात फेरों वाली. मैंने मीरा को गले लगा लिया और कहा,‘‘बताना जब भी…जिस दिन भी…चलना हो रजिस्ट्रेशन के लिए… आख़िर इतने पवित्र रिश्ते के गवाह तो बड़े भाग्यवान ही बनते हैं.’’
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