दिल से कोई बुरा नहीं होता, बस ज़रूरत होती है अंतरात्मा को जगाने की. इस हक़ीक़त से रूबरू कराती है लेखिका आरती प्रणय की प्यारी-सी कहानी ‘संतूरी’.
कभी-कभी कुछ रिश्ते जात-पात, ऊंच-नीच से ऊपर उठकर जुड़ जाते हैं. शायद दिल की अच्छाई की समानता से जुड़ते हैं ऐसे रिश्ते. एक ऐसा ही रिश्ता था मेरा और संतूरी का. मेरे बच्चों के स्कूल के बस-स्टॉप के पास ज्वार की रोटियां पकाती थी वह. मेरे पति अमिष को ज्वार की रोटियां बहुत पसंद थी. जब कभी बच्चों की बस लेट हो जाती तो मैं उसको रोटी बनाते हुए ग़ौर से देखती रहती. एक दिन उसने पूछ ही लिया, “मैडम जी आप ज्वार की रोटियां खाती हैं क्या?” मैंने कहा, नहीं बस देख रही हूं तुम्हें… इतनी अच्छी ज्वार की रोटियां पकाते हुए. कैसे तुम कुम्हार के चाक के जैसी गोल-गोल रोटियां पका लेती हो. उसने तवे से बिना नज़र हटाए कहा,“10 साल की उम्र से ये रोटियां ही तो बना रही हूं. रोटी ही तो मुझे रोटी देती है. पहले मां की मदद करने के लिए बनाती थी. अब अपने बच्चों के लिए बनाती हूं…”
वह मेरी संतूरी से पहली मुलाक़ात थी. उस दिन अमिष का जन्मदिन था. मैंने सरप्राइज़ देने के लिए संतूरी से चार रोटियां पैक कर देने को कहा. संतूरी ने बड़े प्यार और गौरव के साथ रोटियां पैक कर दीं. साथ ही दो और रोटियां पैक कर देते हुए कहा,“ये मेरी तरफ़ से हैं… साहब के लिए…”
कितनी उदार थी संतूरी! …यहां महानगरों में तो अच्छे ख़ासे लोग भी एक कप चाय के लिए नहीं पूछते. चाय में डली एक चम्मच चीनी का हिसाब भी बिना शर्म के जोड़ लेते हैं.
रोटियां बनाती संतूरी की आंखों में मु़झे अक्सर चिंता और आशा के मिलेजुले भाव दिखते थे. इसलिए मैंने स्कूल से घर लौटते समय उससे दो रोटियां ख़रीदना शुरू कर दिया…ताकि उसकी आंखों की चमक कुछ बनी रहे. जब कभी बच्चों की बस लेट होती तो मैं उससे दो-चार बातें भी कर लेती. रोटी को चकले पर बेलन से घुमाती. तवे पर उलटते-पलटते वह मुझसे बात करती रहती. उस ज़माने में मोबाइल था नहीं. आमने-सामने बातें होती थीं. बिना फ़्रेंड-रिक्वेस्ट के. कई बार तो अनजान लोगों से भी अंतरंग बातें हो जाया करती थीं. बिना ईमोजी डाले. लगभग दो साल तक मैं इसी तरह बच्चों को पिक-अप करने के लिए जाती रही और मेरी मुलाक़ात हर रोज़ संतूरी से होती. जैसे वो मेरी एक दोस्त बन गई थी. लंबी छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुलते तब मुझे संतूरी से मिलने का भी इंतज़ार रहने लगा था. कभी वह रोटियां बनाते बनाते अपने घर की परेशानियां मुझे सुनाती रहती, तो कभी शर्मा कर अपने पति की बातें भी मुझे बता जाती. मुझे बहुत अच्छी लगने लगी थी संतूरी. मुंबई जैसे बनावटी शहर में दुर्लभ एक साफ़दिल इंसान जो थी वो. कभी-कभी बच्चों के जन्मदिन पर मैं उसे केक और मिठाइयां दे आती. पर, वह ईमानदार ग़रीब उन केक और मिठाइयों का हिसाब भी बाक़ी नहीं रखती थी. मेरे लिए भी वह दो रोटियां और चटनी बांध देती और लाख कहने पर भी उसके पैसे नहीं लेती.
पर उस बार जब गर्मियों की छुट्टी के बाद स्कूल खुला तो न कहीं संतूरी थी न उसका चूल्हा. मैं हर दिन स्कूल पहुंचते ही उसको ढूंढ़ती, उसका इंतज़ार करती. पर.. मुझे वह नहीं मिली. मैंने कभी उसके घर का पता भी नहीं पूछा था. इसलिए उसकी खोज-ख़बर ले पाना भी मुमक़िन नहीं था. मैं सिर्फ़ प्रार्थना करने लगी कि वह जहां भी रहे, सुखी रहे.
इस तरह क़रीब एक महीना बीत गया. तभी एक दिन मैंने अख़बार में संतूरी की फ़ोटो देखी. फ़ोटो के ऊपर मोटे अक्षरों में लिखा था,‘आटे के डब्बे में मिली चोरी की अंगूठी.’ मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई. मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि संतूरी ने कोई ऐसा काम किया होगा. मैंने दोबारा उस महिला का नाम पढ़ा. उस फ़ोटो को देखा. पर नाम संतूरी ही था और वह फ़ोटो उसकी ही थी.
अख़बार में दिए संतूरी के पते को देख कर मैं उसके घर पहुंच गई. घर में एक बूढ़ी औरत अपने सिर पर हाथ रखकर बैठी हुई थी. पास में दो बच्चे इन सबसे बेख़बर कोई खेल खेल रहे थे. मुझे देखते ही उस बूढ़ी औरत की उदास आंखों में चमक-सी आ गई. जैसे उसने मुझे पहचान लिया हो. शायद संतूरी ने इतने दिनों में उसे मेरे बारे में कुछ बताया था. मुझे देखते ही वह उठी और दौड़कर मेरे सामने हाथ जोड़कर कहने लगी,“मैडम…मेरी बिटिया ने चोरी नहीं की…वह चोर नहीं है. उसे तो किसी ने वह अंगूठी रखने के लिए दी थी. उसने चुराई नहीं थी.’’ कहते-कहते संतूरी की मां रोने लगी. पर, अब तक उसकी आंखों के आंसू भी शायद ख़त्म हो चुके थे. अब उन आंखों से बस पीड़ा और विवशता बरस रही थी.
मेरे लिए यह सब एक पहेली जैसा बनता जा रहा था. मैं संतूरी की मां को कुछ पैसे थमा कर, फिर आती हूं कह कर अपने घर लौट गई. रास्ते भर संतूरी की आंखें मेरी आंखों के सामने घूम रही थीं. कितनी सच्चाई थी उसकी आंखों में. मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि वह ऐसा कुछ कर सकती थी. कुछ लोगों की आंखों में इतनी सच्चाई होती है कि यक़ीन करना मुश्किल होता है कि वे कुछ ग़लत भी कर सकते हैं. मैंने अगले दिन उससे जेल में मिलने का निश्चय कर लिया.
अगले दिन मुझे देख कर संतूरी बिफर कर रो पड़ी. शायद कई बार चोरी न करने की दुहाई पहले दे चुकी थी. उसने बस अपने दोनों हाथ मेरे सामने कर दिए. कहने लगी,“ मैडम जी.. दस साल की थी तब से बस रोटियां बनाती आई हूं. ये..सारे..मेरे जलने के निशान हैं. पर…इतना दर्द कभी भी हाथों के जलने से नहीं हुआ…पति दो बच्चों की मां बना कर सौतन संग भाग गया…तब भी इतनी पीड़ा नहीं हुई…क्योंकि..मुझे लगता था कि मैं अपनी बेटियों को पाल लूंगी..अपने बल-बूते पर. उन्हें अच्छे संस्कार दे कर आप लोगों जैसा बनाऊंगी.” कुछ पलों की चुप्पी में शायद उसने अपने सपनों और इच्छाओं को तौला, फिर कहने लगी,“मैंने आज तक अपने लिए एक साड़ी तक नहीं ख़रीदी. सब कुछ बस बेटियों के लिए बचाती रही हूं…उन बेटियों के लिए जिनके होने से मेरा पति मुझे बेटी जनने वाली कहता था और मुझे यह कहकर छोड़ गया कि उसे बेटा पैदा करने वाली चाहिए. मैं तो ख़ुद उन्हें ऐसा बनाना चाहती हूं कि उन्हें यह कहने में गर्व हो कि मैं उनकी मां हूं. फिर यह हीरे की चोरी…? …..मैडम जी… हीरे के बारे में मैं तो बस इतना जानती हूं कि राजस्थान में जब भी रानियों पर विपदा आती थी तो वह हीरे को चूसकर मर जाती थीं. और आज ऐसे हीरे के वास्ते मुझे पुलिस हथकड़ी लगा कर यहां ले आई. मैंने तो आजतक हीरा देखा भी नहीं है…न ही मैं हीरा पहचानती हूं. मुझे तो अपने आटे में रखी वह अंगूठी भी 50 रुपए वाली ही लगी.’’ इतना कह कर संतूरी बिलख-बिलख कर रोने लगी. मैंने उसको सांत्वना देते हुए उसे पूरी बात बताने को कहा.
कुछ संभल कर संतूरी कहने लगी,“मैडम जी…उस दिन बस स्टॉप पर मेरी एक पड़ोसन, आशा, मेरे पास एक बैग लेकर आई और कहा इसे तुम अपने पास रख लो…नहीं तो मेरा पति इसे भी बेच देगा. मैंने आशा पर आंख मूंद कर भरोसा कर लिया और बिना खोले…उसमें क्या है…यह सब देखे…उसे अपने आटे के डब्बे में…जो मेरा ख़ज़ाना था..उसमें डाल दिया. दो दिन बाद पुलिस मेरे घर पहुंची. तलाशी लेने पर उन्हें वह अंगूठी उस डब्बे से मिली और वे मुझे उठा कर यहां ले आए. मुझे तो अब भी अपनी ग़लती समझ नहीं आ रही है. मैं निर्दोष हूं पर यहां कलंक से पुती खड़ी हूं. आप ही कुछ करो…”
संतूरी का एक-एक शब्द उसकी आंखों की सच्चाई से मेल खा रहा था. मैंने तय कर लिया कि मुझे उसे बचाना है…उस ईमानदार रोटी वाली को और उसके सपनों को भी. मैंने संतूरी से आशा की मालकिन, अलका जी का पता लिया और वहां जाकर उन्हें संतूरी की सारी बातें बताईं. उन्होंने बताया कि आशा उनके घर में कई सालों से काम कर रही थी. लेकिन, आज तक भी कभी उसने एक पैसा भी घर से नहीं उठाया. उन्होंने कहा कि उनकी बेटियां लाखों के गहने छुट्टियों में आने पर इधर-उधर छोड़ देती थीं, पर आशा ने कभी भी उनकी ओर नहीं देखा. आशा को शुरू में उन्होंने अपनी मां की देखभाल के लिए रखा था. वह उनका इतना ख़याल रखती थी जितना कि कोई संतान भी न रख सके. इसलिए उन्हें आशा पर लेश मात्र भी शक़ नहीं था. फिर भी जब मैंने आशा से बात करने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने कहा कि आप उससे बात कर लीजिए.
मैं आशा के लौटने का इंतज़ार करने लगी. उसकी जितनी तारीफ़ मैंने अलका जी सुनी थी उससे यह तो तय हो गया था कि आशा एक अच्छी इंसान है. इससे मेरी उम्मीद कुछ बढ़ गई, क्योंकि अच्छे इंसान कोई भी झूठ परिस्थितियों में फंस कर ही बोलते हैं. अच्छे लोग झूठे नहीं होते हैं.
आशा आई. पर्स और अंगूठी के बारे में पूछने पर उसकी आंखें झुक गईं, लेकिन उसने कहा,“मैडम, मुझे आपकी बातें समझ में नहीं आ रही हैं. जो सच है वही मैंने पुलिस को बोला.” पर, उसकी आंखें और चेहरे के भाव उसके शब्दों से मेल नहीं खा रहे थे. उसकी आंखों में ग्लानि और विवशता झलक रही थी. मेरा वहां और ज़ोर देकर पूछना ठीक नहीं था, इसलिए मैं उस दिन मन की निराशा समेट कर वापस लौट गई. लेकिन मैं जान गई थी कि संतूरी को निर्दोष साबित करने का एक ही उपाय था…आशा की अंतरात्मा को जगा कर उससे सच कहलवाना.
अगली सुबह मैं आशा के काम पर जाने से पहले ही उसके घर जा पहुंची. उसका घर संतूरी के घर के पास ही था. मैंने उससे कहा,‘‘ये कुछ पैसे रख लो. संतूरी की बूढ़ी मां से बच्चे नहीं संभल रहे हैं. तुम तो उसकी दोस्त हो… बच्चों को थोड़ा देख लेना और कुछ बना कर खिला देना..” पहले तो आशा मुकर गई, लेकिन फिर बच्चों का मुंह देख कर पिघल गई.
लगभग पंद्रह दिनों बाद मैं वापस आशा से मिलने उसके घर गई. मन में एक उम्मीद लिए कि जैसे रस्सी से घिस कर पत्थर का रूप भी बदल जाता है, वैसे ही शायद हर दिन संतूरी के बिखरे परिवार को देख कर उसका हृदय भी बदल गया हो.
वही हुआ. मुझे देखते ही आशा की आंखें छलक गईं. कहने लगी,“ मैडम… मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरे एक छोटे से झूठ से इतने लोगों की ज़िंदगी बदल जाएगी…नहीं देखा जाता है मुझसे उसकी मां की आंखों से लगातार बहते आंसुओं को…इन बच्चों के सूखे होंठों को… मां की पुचकार से वंचित उनके रूखे गालों को…” आशा बस बोलती जा रही थी.मानो उसकी ग्लानि को बहने का रास्ता मिल गया हो.
फिर आंसू पोंछ कर वह कहने लगी,“उस दिन मैं घर में झाड़ू लगा रही थी. मुझे वहीं वह अंगूठी दिखी. अगले हफ़्ते मेरी बिटिया का सोलहवां जन्मदिन था. मैं हर बार उसे जन्मदिन का तोहफ़ा देने का वादा किया करती थी, लेकिन राशन-पानी से पहले कुछ बचे तो… मेरे मन में आया कि वह अंगूठी उसे बहुत अच्छी लगेगी. उस दिन एक मां की ईमानदारी पर बेटी के प्यार का पलड़ा भारी हो गया… पर, मुझे नहीं पता था कि वह अंगूठी इतनी महंगी होगी. मुझे लगा हज़ार, दो हज़ार की होगी. इतना तो मेरी मैडम का हर रोज़ स्नैक्स का पार्सल आता था. मैं अंगूठी लेकर घर आ गई. जन्मदिन पांच दिन बाद था. पति के डर से मैं उसे संतूरी के घर रख आई. दो दिन बाद जब मैडम ने पूछना शुरू किया और पुलिस की धमकी दी, तो मैंने कह दिया कि मेरी सहेली मुझसे मिलने आई थी, शायद उसी ने उठाया हो… मेरा इतने दिनों का कमाया हुआ भरोसा काम आया और मैडम ने बिना किसी सवाल-जवाब के मेरी बात मान ली.”
मेरी आंखों का एकटक घूरना मानो उससे पूछ रहा था…अब आगे क्या? जवाब बिना पूछे आया,“ मैं चल कर पुलिस को सब बता दूंगी….नहीं सह सकती मैं इस पाप की पीड़ा को. आशा ने घर की चाबी अपनी पड़ोसन को थमाई और मेरे साथ चल पड़ी प्रायश्चित के पथ पर. मेरे मन में एक दया-मिश्रित विजय का भाव उभर रहा था. कई बार सच को साबित करने के लिए सबूत की नहीं. अन्तरात्मा को जगाने की ज़रूरत होती है.
संतूरी को घर वापस लाते समय उसके आभार और ख़ुशी के आंसू थम नहीं रहे थे. ऑटो से बाहर देखती वह कहे जा रही थी,“मैडम जी…हमारे राजस्थान में हमने बचपन में सुना था कि जब रेत की आंधी लोगों को उड़ा ले जाती है तो.. परियां आकर सच्चे लोगों को वापस घर तक ले आती हैं. मैंने आज एक ऐसी ही परी को देखा…”
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