1947 में देश की आज़ादी अपने साथ विभाजन और विभाजन ने विस्थापन की सौगात दी थी. लाखों लोग सीमा के इस पार से उस पार आए गए. लाखों लोग आने-जाने की इस क्रिया में मारे गए. यह कहानी है एक बूढ़ी महिला की, जिसे अपना घर, अपनी ज़मीनें, अपनी मिट्टी छोड़कर जाने के लिए मजबूर किया गया. वो ज़िंदगी भर जिन्हें अपना कहती रही, मानती रही, उनमें से किसी ने भी उसे रुकने के लिए कहा तक नहीं.
खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुंची तो पौ फट रही थी. दूर-दूर आसमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी. शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रक्खे और ‘श्रीराम, श्रीराम’ करती पानी में हो ली. अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार किया, अपनी उनीदी आंखों पर छींटे दिए और पानी से लिपट गई!
चनाब का पानी आज भी पहले-सा ही सर्द था, लहरें लहरों को चूम रही थीं. वह दूर सामने कश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ़ पिघल रही थी. उछल-उछल आते पानी के भंवरों से टकराकर कगारे गिर रहे थे लेकिन दूर-दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों खामोश लगती थी! शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाई तक न थी. पर नीचे रेत में अगणित पांवों के निशान थे. वह कुछ सहम-सी उठी!
आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है. वह पिछले पचास वर्षों से यहां नहाती आ रही है. कितना लम्बा अरसा है! शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दुनिया के किनारे वह दुलहिन बनकर उतरी थी. और आज…आज शाहजी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है. पर नहीं यह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका! शाहनी ने लम्बी सांस ली और ‘श्री राम, श्री राम’, करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली. कहीं-कहीं लिपे-पुते आंगनों पर से धुआं उठ रहा था. टनटन बैलों, की घंटियां बज उठती हैं. फिर भी…फिर भी कुछ बंधा-बंधा-सा लग रहा है. ‘जम्मीवाला’ कुआं भी आज नहीं चल रहा. ये शाहजी की ही असामियां हैं. शाहनी ने नज़र उठाई. यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं. भरी-भरायी नई फसल को देखकर शाहनी किसी अपनत्व के मोह में भीग गई. यह सब शाहजी की बरक़तें हैं. दूर-दूर गांवों तक फैली हुई ज़मीनें, ज़मीनों में कुएं सब अपने हैं. साल में तीन फसल, ज़मीन तो सोना उगलती है. शाहनी कुएं की ओर बढ़ी, आवाज़ दी,”शेरे, शेरे, हसैना हसैना….”
शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है. वह न पहचानेगा! अपनी मां जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ. उसने पास पड़ा गंडासा ‘शटाले’ के ढेर के नीचे सरका दिया. हाथ में हुक्का पकड़कर बोला,”ऐ हैसैना-सैना….” शाहनी की आवाज़ उसे कैसे हिला गई है! अभी तो वह सोच रहा था कि उस शाहनी की ऊंची हवेली की अंधेरी कोठरी में पड़ी सोने-चांदी की सन्दूकचियां उठाकर…कि तभी ‘शेरे शेरे…’ शेरा ग़ुस्से से भर गया. किस पर निकाले अपना क्रोध? शाहनी पर! चीखकर बोला,”ऐ मर गईं एं एब्ब तैनू मौत दे.”
हसैना आटेवाली कनाली एक ओर रख, जल्दी-जल्दी बाहिर निकल आई. ”ऐ आईं आं क्यों छावेले (सुबह-सुबह) तड़पना एं?”
अब तक शाहनी नज़दीक पहुंच चुकी थी. शेरे की तेज़ी सुन चुकी थी. प्यार से बोली,”हसैना, यह वक़्त लड़ने का है? वह पागल है तो तू ही जिगरा कर लिया कर.”
”जिगरा!” हसैना ने मान भरे स्वर में कहा,”शाहनी, लड़का आख़िर लड़का ही है. कभी शेरे से भी पूछा है कि मुंह अंधेरे ही क्यों गालियां बरसाई हैं इसने?” शाहनी ने लाड़ से हसैना की पीठ पर हाथ फेरा, हंसकर बोली,”पगली मुझे तो लड़के से बहू प्यारी है! शेरे”
”हां शाहनी!”
”मालूम होता है, रात को कुल्लूवाल के लोग आए हैं यहां?” शाहनी ने गम्भीर स्वर में कहा.
शेरे ने ज़रा रुककर, घबराकर कहा,”नहीं शाहनी…” शेरे के उत्तर की अनसुनी कर शाहनी ज़रा चिन्तित स्वर से बोली,”जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा नहीं. शेरे, आज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते. पर…” शाहनी कहते-कहते रुक गई. आज क्या हो रहा है. शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है. शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गए, पर आज कुछ पिघल रहा है शायद पिछली स्मृतियां…आंसुओं को रोकने के प्रयत्न में उसने हसैना की ओर देखा और हल्के-से हंस पड़ी. और शेरा सोच ही रहा है, क्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकता. यह होके रहेगा क्यों न हो? हमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियां तोला करते थे. प्रतिहिंसा की आग शेरे की आंखों में उतर आई. गंड़ासे की याद हो आई. शाहनी की ओर देखा नहीं-नहीं, शेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस क़त्ल कर चुका है पर वह ऐसा नीच नहीं…सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के हाथ उसकी आंखों में तैर गए. वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डांट खाके वह हवेली में पड़ा रहता था. और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए ‘शेरे-शेरे, उठ, पी ले.’ शेरे ने शाहनी के झुर्रियां पड़े मुंह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी. शेरा विचलित हो गया. ‘आख़िर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गई, वह शाहनी को ज़रूर बचाएगा. लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फिरोज़ की बात! ‘सब कुछ ठीक हो जाएगा सामान बांट लिया जाएगा!’
”शाहनी चलो तुम्हें घर तक छोड़ आऊं!”
शाहनी उठ खड़ी हुई. किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे मज़बूत क़दम उठाता शेरा चल रहा है. शंकित-सा-इधर उधर देखता जा रहा है. अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूंज रही हैं. पर क्या होगा शाहनी को मारकर?
”शाहनी!”
”हां शेरे.”
शेरा चाहता है कि सिर पर आने वाले ख़तरे की बात कुछ तो शाहनी को बता दे, मगर वह कैसे कहे?”
”शाहनी”
शाहनी ने सिर ऊंचा किया. आसमान धुएं से भर गया था. ”शेरे”
शेरा जानता है यह आग है. जबलपुर में आज आग लगनी थी लग गई! शाहनी कुछ न कह सकी. उसके नाते रिश्ते सब वहीं हैं
हवेली आ गई. शाहनी ने शून्य मन से ड्योढ़ी में क़दम रक्खा. शेरा कब लौट गया उसे कुछ पता नहीं. दुर्बल-सी देह और अकेली, बिना किसी सहारे के! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी. दुपहर आई और चली गई. हवेली खुली पड़ी है. आज शाहनी नहीं उठ पा रही. जैसे उसका अधिकार आज स्वयं ही उससे छूट रहा है! शाहजी के घर की मालकिन…लेकिन नहीं, आज मोह नहीं हट रहा. मानो पत्थर हो गई हो. पड़े-पड़े सांझ हो गई, पर उठने की बात फिर भी नहीं सोच पा रही. अचानक रसूली की आवाज़ सुनकर चौंक उठी.
”शाहनी-शाहनी, सुनो ट्रकें आती हैं लेने?”
”ट्रके…?” शााहनी इसके सिवाय और कुछ न कह सकी. हाथों ने एक-दूसरे को थाम लिया. बात की बात में ख़बर गांव भर में फैल गई. बीबी ने अपने विकृत कण्ठ से कहा,”शाहनी, आज तक कभी ऐसा न हुआ, न कभी सुना. ग़ज़ब हो गया, अंधेर पड़ गया.”
शाहनी मूर्तिवत् वहीं खड़ी रही. नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा,”शाहनी, हमने तो कभी न सोचा था!”
शाहनी क्या कहे कि उसी ने ऐसा सोचा था. नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दी. शाहनी समझी कि वक़्त आन पहुंचा. मशीन की तरह नीचे उतरी, पर ड्योढ़ी न लांघ सकी. किसी गहरी, बहुत गहरी आवाज़ से पूछा”कौन? कौन हैं वहां?”
कौन नहीं है आज वहां? सारा गांव है, जो उसके इशारे पर नाचता था कभी. उसकी असामियां हैं जिन्हें उसने अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा. लेकिन नहीं, आज उसका कोई नहीं, आज वह अकेली है! यह भीड़ की भीड़, उनमें कुल्लूवाल के जाट. वह क्या सुबह ही न समझ गई थी?
बेगू पटवारी और मसीत के मुल्ला इस्माइल ने जाने क्या सोचा. शाहनी के निकट आ खड़े हुए. बेगू आज शाहनी की ओर देख नहीं पा रहा. धीरे से ज़रा गला साफ़ करते हुए कहा,”शाहनी, रब्ब नू एही मंजूर सी.”
शाहनी के क़दम डोल गए. चक्कर आया और दीवार के साथ लग गई. इसी दिन के लिए छोड़ गए थे शाहजी उसे? बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है,’क्या गुज़र रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है…’
शाहनी का घर से निकलना छोटी-सी बात नहीं. गांव का गांव खड़ा है हवेली के दरवाज़े से लेकर उस दारे तक जिसे शाहजी ने अपने पुत्र की शादी में बनवा दिया था. तब से लेकर आज तक सब फैसले, सब मशविरे यहीं होते रहे हैं. इस बड़ी हवेली को लूट लेने की बात भी यहीं सोची गई थी! यह नहीं कि शाहनी कुछ न जानती हो. वह जानकर भी अनजान बनी रही. उसने कभी बैर नहीं जाना. किसी का बुरा नहीं किया. लेकिन बूढ़ी शाहनी यह नहीं जानती कि सिक्का बदल गया है…
देर हो रही थी. थानेदार दाऊद ख़ां ज़रा अकड़कर आगे आया और ड्योढ़ी पर खड़ी जड़ निर्जीव छाया को देखकर ठिठक गया! वही शाहनी है जिसके शाहजी उसके लिए दरिया के किनारे खेमे लगवा दिया करते थे. यह तो वही शाहनी है जिसने उसकी मंगेतर को सोने के कनफूल दिए थे मुंह दिखाई में. अभी उसी दिन जब वह ‘लीग’ के सिलसिले में आया था तो उसने उद्दंडता से कहा था,’शाहनी, भागोवाल मसीत बनेगी, तीन सौ रुपया देना पड़ेगा!’ शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपए दिए थे. और आज…?
”शाहनी!” डयोढ़ी के निकट जाकर बोला,”देर हो रही है शाहनी. (धीरे से) कुछ साथ रखना हो तो रख लो. कुछ साथ बांध लिया है? सोना-चांदी.”
शाहनी अस्फुट स्वर से बोली,”सोना-चांदी!” ज़रा ठहरकर सादगी से कहा,”सोना-चांदी! बच्चा वह सब तुम लोगों के लिए है. मेरा सोना तो एक-एक ज़मीन में बिछा है.”
दाऊद ख़ां लज्जित-सा हो गया. ”शाहनी तुम अकेली हो, अपने पास कुछ होना ज़रूरी है. कुछ नकदी ही रख लो. वक़्त का कुछ पता नहीं.”
”वक़्त?” शाहनी अपनी गीली आंखों से हंस पड़ी. ”दाऊद ख़ां, इससे अच्छा वक़्त देखने के लिए क्या मैं ज़िंदा रहूंगी!” किसी गहरी वेदना और तिरस्कार से कह दिया शाहनी ने.
दाऊद ख़ां निरुत्तर है. साहस कर बोला,”शाहनी कुछ नकदी ज़रूरी है.”
”नहीं बच्चा मुझे इस घर से,’’शाहनी का गला रुंध गया,”नकदी प्यारी नहीं. यहां की नकदी यहीं रहेगी.”
शेरा आन खड़ा गुज़रा कि हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से. ”ख़ां साहिब देर हो रही है”
शाहनी चौंक पड़ी. देर मेरे घर में मुझे देर! आंसुओं की भंवर में न जाने कहां से विद्रोह उमड़ पड़ा. मैं पुरखों के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए…नहीं, यह सब कुछ नहीं. ठीक है देर हो रही है पर नहीं, शाहनी रो-रोकर नहीं, शान से निकलेगी इस पुरखों के घर से, मान से लांघेगी यह देहरी, जिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी. अपने लड़खड़ाते क़दमों को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आंखें पोछीं और डयोढ़ी से बाहर हो गई. बड़ी-बूढ़ियां रो पड़ीं. किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! ख़ुदा ने सब कुछ दिया था, मगरमगर दिन बदले, वक़्त बदले…
शाहनी ने दुपट्टे से सिर ढांपकर अपनी धुंधली आंखों में से हवेली को अन्तिम बार देखा. शाहजी के मरने के बाद भी जिस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा आज वह उसे धोखा दे गई. शाहनी ने दोनों हाथ जोड़ लिए यही अन्तिम दर्शन था, यही अन्तिम प्रणाम था. शाहनी की आंखें फिर कभी इस ऊंची हवेली को न देखी पाएंगी. प्यार ने ज़ोर मारा सोचा, एक बार घूम-फिर कर पूरा घर क्यों न देख आई मैं? जी छोटा हो रहा है, पर जिनके सामने हमेशा बड़ी बनी रही है उनके सामने वह छोटी न होगी. इतना ही ठीक है. बस हो चुका. सिर झुकाया. डयोढ़ी के आगे कुलवधू की आंखों से निकलकर कुछ बन्दें चू पड़ीं. शाहनी चल दी ऊंचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया. दाऊद ख़ां, शेरा, पटवारी, जैलदार और छोटे-बड़े, बच्चे, बूढ़े-मर्द औरतें सब पीछे-पीछे.
ट्रकें अब तक भर चुकी थीं. शाहनी अपने को खींच रही थी. गांववालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है. शेरे, ख़ूनी शेरे का दिल टूट रहा है. दाऊद ख़ां ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवाज़ा खोला. शाहनी बढ़ी. इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी आवाज़ से कहा,” शाहनी, कुछ कह जाओ. तुम्हारे मुंह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!” और अपने साफ़े से आंखों का पानी पोंछ लिया. शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा,”रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चा, ख़ुशियां बक्शे….”
वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया. ज़रा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के. और हम शाहनी को नहीं रख सके. शेरे ने बढ़कर शाहनी के पांव छुए,”शाहनी कोई कुछ कर नहीं सका. राज भी पलट गया.” शाहनी ने कांपता हुआ हाथ शेरे के सिर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा,”तैनू भाग जगण चन्ना!” (ओ तेरे भाग्य जागें) दाऊद ख़ां ने हाथ का संकेत किया. कुछ बड़ी-बूढ़ियां शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी.
अन्न-जल उठ गया. वह हवेली, नई बैठक, ऊंचा चौबारा, बड़ा ‘पसार’ एक-एक करके घूम रहे हैं शाहनी की आंखों में! कुछ पता नहीं ट्रक चल दिया है या वह स्वयं चल रही है. आंखें बरस रही हैं. दाऊद ख़ां विचलित होकर देख रहा है इस बूढ़ी शाहनी को. कहां जाएगी अब वह?
”शाहनी मन में मैल न लाना. कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वक़्त ही ऐसा है. राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है…”
रात को शाहनी जब कैंप में पहुंचकर ज़मीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा ‘राज पलट गया है…सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आई….’
और शाहजी की शाहनी की आंखें और भी गीली हो गईं!
आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गांवों में रात ख़ून बरसा रही थी.
शायद राज पलटा भी खा रहा था और सिक्का बदल रहा था.
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