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तुम कौन हो?: कहानी बरसात की एक रात की (लेखक: कमलेश्वर)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
August 6, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Barsat-ki-raat
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बरसात की रातें, अक्सर अपने साथ कहानियां ले आती हैं. बरसात की यह तूफ़ानी रात भी कुछ ऐसी ही है. एक भारतीय फ्रांस में एक तूफ़ानी रात में सफ़र कर रहा है. उसे ठहरने के लिए मोटल चाहिए. कमरे ख़ाली हैं, पर कुछ कारणों से मिल नहीं रहे. तब उसे मिलती है जूनिया नाम की एक लड़की. कौन है जूनिया और कैसी कटी उसकी तूफ़ानी रात. जानने के लिए पढ़ें, कमलेश्वर की रोमांचक कहानी ‘तुम कौन हो?’

रात तूफ़ानी थी. पहले बारिश, फिर बर्फ़ की बारिश और बेहद घना कोहरा. अगर हवा तेज़ न होती तो शायद इतनी मुसीबत न उठानी पड़ती. पर हवा और हवा में फ़र्क़ होता है. यह तो तूफ़ानी हवा थी जो तीर की तरह लगती थी. गाड़ी वह ख़ुद ही ड्राइव कर रहा था. उसका ब्लोअर ख़राब था, नहीं तो गाड़ी कुछ तो गर्म हो जाती. दूरी के हिसाब से वह शाम चार बजे तक जिनीवा पहुंच जाता, फिर कम्यून खोजने में आधा घण्टा लगता और हद से हद वह कम्यून के दोस्तों के साथ पांच बजे बैठा हुआ चाय पी रहा होता. लेकिन बर्फ़ के तूफ़ान ने उसे मुसीबत में डाल दिया था. दोस्तों ने बताया था कि रास्ता बहुत ख़ूबसूरत है. वह था भी, पर बेमौसम आए तूफ़ान ने सब चौपट कर दिया था. जिनीवा जाने वाली सड़क तो बहुत शानदार है. वैसे यूरोप के सभी देशों की सड़कें शानदार हैं पर तूफ़ान का कोई क्‍या करे. फॉग लाइट्स न होतीं, तब तो ड्राइव करना सम्भव ही न होता. दिन में ही घना अंधेरा छाया हुआ था. उसे लग रहा था कि ऐसे तूफ़ान में जिनीवा पहुंचना शायद मुमक़िन नहीं होगा, इसलिए ड्राइव करते-करते वह लगातार किसी मोटल की तलाश में भी था. पेट्रोल भी लेना ही था.
आख़िर एक मोटल-सा नज़दीक आता लगा. वह मोटल ही था. उसने गाड़ी रोकी. गैस पम्प पर रौशनी थी, पर आदमी कोई नहीं था. उसने कई बार हॉर्न बजाया, तो काफ़ी देर बाद एक आदमी निकलकर आया.
उसने चाबी दी और कहा,‘बीस लीटर पेट्रोल!’
‘गैस!’
‘हां! रात-भर के लिए यहां मोटल में कमरा मिल जाएगा?’
‘हां, औरत भी मिल जाएगी.’
‘औरत की ज़रूरत नहीं है!’
‘तो फिर उन्हें तुम्हारी ज़रूरत भी नहीं है!’
इस उत्तर से उसने अपमानित महसूस किया था, पर कर क्‍या सकता था? अपनी बेबसी और मजबूरी को देखते, उसने अपमान का वह घूंट पीते हुए भी पूछा था.
‘अगला मोटल कितने किलोमीटर पर मिल सकता है?’
‘यही कोई सत्तर किलोमीटर पर…लेकिन औरतों वाली बात वहां भी होगी…इस सर्द तूफ़ानी शाम में तुम औरतों से बचकर क्यों निकलना चाहते हो?’
वह चुप रहा. पेमेंट किया और गाड़ी स्टार्ट करके चल दिया. उसके जूते और मोजे पूरी तरह से भीग गए थे. पैर ठण्डे हो रहे थे. तूफ़ान बदस्तूर जारी था. रुकने की जगह का कोई अता-पता नहीं था. सर्दी एकाएक बढ़ रही थी और जिनीवा अभी डेढ़ सौ किलोमीटर दूर था. और फिर जिनीवा पहुंचकर भी तो कम्यून का पता करना था, जहां उसे ठहरना था. वह बहुत परेशान था, पर चलते जाने के अलावा कोई चारा नहीं था. सड़क ख़ाली थी. ट्रैफ़िक था ही नहीं. उससे गलती यह हुई थी कि उसने चलने से पहले मौसम का बुलेटिन नहीं सुना, इसलिए इस तूफ़ान में फंस गया था…
सत्तर किलोमीटर के बाद भी कोई मोटल नहीं आया, तो वह पस्त हो गया. आख़िर पार्किंग लेन में गाड़ी खड़ी करके वह सुस्ताने बैठ गया. और राहत की बात यह थी कि वहीं एक नीग्रो जोड़ा भी गाड़ी रोके खड़ा था.
सड़क के दोनों ओर चीड़ के जंगल थे. तूफ़ानी बारिश में वे जैसे हवा से बातें कर रहे थे…उनकी सरसराहर की तेज़ आवाज़ें और बर्फ़ में भीगने की मिली-जुली ठण्डी महक आ रही थी. महक तो उसे अच्छी लगी पर उस तेज़ हवा को बर्दाश्त करना मुश्क़िल था. उस नीग्रो जोड़े को एहसास था कि कोई गाड़ी पास आकर रुकी है. उसने क्रास करते हुए उन्हें देखा था. वे दोनों भी सिकुड़े हुए बैठे थे.
तभी सायरन बजाती ट्रैफ़िक पुलिस की एक गाड़ी उसकी और नीग्रो की गाड़ी के बीच में रुकी…उन्होंने गेस्टापों की तरह तेज़ लाइट डालकर तीनों को देखा और ऊपरी खिड़की का शीशा थोड़ा-सा उतारकर उसमें बैठे आदमी ने कहा,‘गो! गो!’
‘पर इस तूफ़ान में-हाऊ गो? हाऊ?’ नीग्रो चीखा था.
‘नो स्ते…गो…’ ट्रैफ़िक वाला और ज़ोर से चीखा था.
‘ओके… .ओके…पांच मिनट बाद!’ नीग्रो शान्त पड़ गया था. ट्रैफ़िक पुलिस की गाड़ी पांच मिनट की मोहलत देकर आगे चली गई थी. उस नीग्रो ने अपनी गाड़ी मेरी गाड़ी के बराबर में लगा दी थी और पूछा था,‘कहां?’
‘जिनीवा! ऐंड यू?’
‘लूजान…दीज़ बास्टर्ड्स…ये तुम्हारा पैसा तो निचोड़ लेते हैं लेकिन अपने देश में टिकने नहीं देते!’ उस नीग्रो ने अंग्रेज़ी में कहा था,‘सारी नफ़रत और कल्चर की बातें करते हुए ये हमें और तुम्हें बर्दाश्त नहीं करते. तुम एशिया से हो? शायद इंडियन या पाकिस्तानी…’
‘इंडियन!’
‘हम अमेरिकन हैं, पर ये हमें अमेरिकन नहीं मानते-ये हरामज़ादे हमें ज़बान दबाकर निगर्स पुकारते हैं और नीग्रो ही मानते हैं…मुझसे पूछ रहे थे, इस औरत को कहां से पकड़ लाए? पर यह औरत नहीं, मेरी बीवी है…ये हरामज़ादे औरत और बीवी में फ़र्क़ नहीं करते…औरत की इज़्ज़त नहीं करते. ये सिर्फ़ पैसे वाली औरतों और आर्मी की औरतों की थोड़ी-बहुत इज़्ज़त करते हैं…अच्छा है कि इन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती.’ वह बोला था और बहुत तेज़ी से अपनी गाड़ी सड़क पर लाकर कोहरे और बर्फ़ की बारिश में आगे चला गया था.
उसकी हिम्मत पस्त थी. बर्फ़, कोहरे और सर्दी ने उसे लगभग लाचार सा कर दिया था. वह उस नीग्रो जोड़े के साथ निकल जाना चाहता था, पर गाड़ी के इंजन ने धोखा दे दिया था. वह स्टार्ट ही नहीं हुआ. शीशे चढ़ाकर बैठे रहने के अलावा अब कोई चारा नहीं था…यहां तो एक-सी परेशानी में पड़े आदमी की जान-पहचान का भी कोई मतलब नहीं था, वह नीग्रो जोड़ा भी उसी उलझन में था, जिसमें वह ख़ुद फंसा हुआ था, पर यह जोड़ा अमरीकन था, इसलिए वह समान अपमान सहते हुए भी उससे अलग हो गया था. देश के हिसाब से अपमान का दंश और अपमान को सहने का अनुपात भी अलग-अलग था, यही उसे लगा था. वह अमेरिकन नीग्रो तो गाली भी दे सकता था. वह तो ख़ुद को और भी गया-गुज़रा पा रहा था…उसे लगा कि वह दूसरा तूफ़ान तो इस बर्फ़ीले तूफ़ान से भी ज़्यादा भयानक है! और तब उसे पेरिस के सोबोर्न इलाके का वह रेस्टोरेंट याद आया था, जहां वह इंडियन रेस्टोरेंट नाम सुनकर अपने लोगों से मिलने, अपनी पहचान पाने के लिए गया था. ‘रेस्टोरेंट इंडियन’ के सभी कर्मचारी हिन्दुस्तानी ही थे और म्यूजिक सिस्टम पर रविशंकर का सितार बज रहा था. उसने राहत की सांस ली थी. मछली की करी के साथ उसने भात खाया, पर जब उसने भारतीय बेयरे से हिंदी में बात करनी चाही थी, पता चला था कि वे भारतीय तो हैं पर पाण्डिचेरी के हैं, इसलिए फ्रेंच बोलते हैं…वह कसमसा के रह गया था. उसने रेस्टारेण्ट के मैनेजर से भी मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी पर मैनेजर भी उससे बिना मिले भाग गया था…
लेकिन क्‍यों ?…वह क्‍यों एक भारतीय से मिलना नहीं चाहता था? तब एक बेयरे ने बड़ी शालीनता से बताया था,‘कि साहब! हम पाकिस्तानी हैं…पर हमारे पास पाकिस्तानी म्यूज़िक और पाकिस्तानी फ़ूड के रूप में परोसने के लिए कुछ भी नहीं है, इससीलिए हम हिन्दुस्तानी म्यूज़िक और फ़ूड के नाम पर अपना कारोबार चलाते और अपना पेट भरते हैं…इसी मजबूरी को छिपाने के लिए मैनेजर साहब आपसे बिना मिले भाग गए हैं…!’
उसने तब आदमी की जड़ों के उस सांस्कृतिक संकट को पहचाना था, और उससे सहानुभूति महसूस की थी. वह ख़ुद इसी बात का जगह-जगह शिकार था. उसे लग रहा था कि आगे भी शायद लगातार उसे इसी संकट से गुज़रना है…पहचान और मानवीय सम्मान की तलाश में!
उसने यों ही गाड़ी स्टार्ट की तो इंजन चालू हो गया. यह भी आश्चर्य की बात थी. नहीं तो इतनी ठण्डक में बन्द पड़ी गाड़ी कब स्टार्ट होनेवाली थी!
तूफ़ान अभी भी जारी था, पर वह जैसे-तैसे एक मोटल से आ लगा था.
‘गैस? कितनी?’ पम्प के आदमी ने आकर पूछा था.
‘नहीं, गैस नहीं, मोटल में रुकने के लिए एक कमरा मिल सकता है?”
‘पूछता हूं!’ कहते हुए वह भला आदमी भीतर चला गया और एक मिनट बाद ही फ़ोन पर बात करके ख़ुशख़बरी लाया,‘यस…रूम फ़ॉर यू! कमरे ख़ाली हैं तुम्हें जगह मिल जाएगी…गो…!’
वह मोटल के रिसेप्शन पर पहुंचा. बर्फ़ीले तूफ़ान से राहत देनेवाली गर्म हवा का झोंका लगा तो वह लगभग उनींदा हो गया.
‘पासपोर्ट!’ उसे लगभग न देखते हुए रिसेप्शन वाले ने पासपोर्ट तलब किया.
उसने पासपोर्ट देकर राहत की सांस ली, पर तभी रिसेप्शनिस्ट ने कहा,‘सॉरी…नो रूम!’
‘पर अभी तो आपने पम्प स्टेशन वाले को…’
‘नो आर्गुमेंट…नो रूम…’
‘मुझे मालूम है…रूम तो बहुत-से ख़ाली पड़े हैं!’
‘सॉरी, नो आर्गुमेंट…नो रूम…!’
‘क्या यह रंगभेद है?’ वह चीखा था…
‘डोंट शाउट…नो रूम!’
और वह बेहद-बेहद अपमानित होकर बाहर निकल आया था. बाहर बर्फ़ीली हवा के तीर उसे भेद रहे थे…जूते और मोज़े ज़्यादा भीग चुके थे. उसने जो ओवरकोट निकालकर पहना था, वह भी अब तक काफ़ी गीला हो चुका था, ख़ून का घूंट पीते हुए वह अपनी गाड़ी तक आया था. गाड़ी ने साथ दिया, स्टार्ट हो गई.
और तब वह सुबह तीन बजे जिनीवा पहुंचा था. अब वह कहां जाए? इस आड़े और बेहूदे वक़्त में. सोचा स्टेशन पर रुक जाए, फिर सुबह सात-आठ बजे कम्यून को फ़ोन करके वह अपना ठिकाना खोज लेगा.
जिनीवा के रेलवे वेटिंग रूम में वह जाकर लेट गया था. थका और पस्‍त. गाड़ी उसने पार्किंग आइलैंड में खड़ी कर दी थी. वेटिंग रूम में बर्फ़ीली बारिश की ठण्डक के कोई आसार नहीं थे. वह मां की गोद की तरह गर्म था…वह लेटा तो लेटते ही नींद आ गई.
पर पांच बजे सुबह ही सफ़ाई कर्मचारी ने उसकी कमर में डंडा ठोंकते हुए कहा,‘यू निगर…गेट अप! गेट अप…’
और तब उसे उठना पड़ा था. और क्या करता! रात वाला तूफ़ान अब थम चुका था. वह वेटिंग रूम की घटना सहकर भी अब वीतराग था. उसे पता था कि उसके साथ यही होना था…यह तूफ़ान तो लगातार जारी रहेगा…
वह इधर-उधर घूमता रहा और जब सात बज गए तो उसने कम्यून में फ़ोन किया. बहुत मुश्क़िल हुई यह बताने में कि वह कहां है, क्योंकि फ़ोन रिसीव करनेवाली जूनिया को अंग्रेज़ी नहीं आती थी. बहुत मुश्क़िल से वह उसकी बात समझा. वह सिर्फ़ तीन शब्द बोली, ‘इन्डियन…स्तेशन…इआह!’
और जूनिया करीब आधे घंटे बाद उसे खोजते हुए आई थी. इन्दियन को पहचानना उसके लिए मुश्क़िल नहीं था. उसने भी जूनिया की तलाशती आंखों को तत्काल पहचान लिया था. जूनिया ने उससे हाथ मिलाया और बोली-गो…यानी आओ.
उसने अपनी गाड़ी के बारे में बताया तो वह कुछ समझी नहीं. वह अपनी सित्रों कार लेकर आई थी, फिर इशारे से उसने उसे समझाया कि उसके पास भी गाड़ी है और वह ट्रेन से नहीं, बाई रोड आया है. उसे वहीं रोककर वह कुछ देर के लिए कहीं चली गई. लौटी तो उसके हाथ में एक पर्ची थी. वह पर्ची स्टेशन पर कार पार्किंग की थी.
जूनिया ने अपनी छोटी सित्रों गाड़ी में उसे बैठाया और चल पड़ी. कुछ ही देर बाद वे ठहरने के स्थान पर पहुंच गए. उसे तो मेरियाने एन्किल के कम्यून में ठहरना था, पर यह जगह तो उसे कम्यून जैसी नहीं लग रही थी. पर मुश्क़िल यह कि वह जूनिया से ज़्यादा बातचीत भी नहीं कर सकता था, क्योंकि वह अंग्रेज़ी नहीं समझतो थी. वह फ्रेंचभाषी थी और थोड़ी इटालियन और जर्मन बोल-समझ लेती थी.
सीढ़ियां चढ़कर जब वह ऊपर पहुंचा तो दरवाजे का ताला खोलते हुए जूनिया इतना ही बोली,‘स्तूदियो…माई…’
और वह पेरिस के दो-चार दिनों के अनुभव से समझ गया था कि यह जूनिया का अपना कमरा था…यही उसने बताया भी था. कुछ देर के लिए वह कुछ भी समझ नहीं पाया था…कि कम्यून में पहुंचने के बजाय वह जूनिया के कमरे में क्‍यों और कैसे पहुंच गया है…फ़ोन तो उसने सही नम्बर पर किया था.
स्टूडियो यानी कमरे के एक कोने में फ़ोन भी रखा हुआ था…लेकिन उस पर फ़ोन नम्बर नहीं लिखा था. कमरे के दूसरे कोने में छोटे-से पार्टीशन से सटा हुआ जूनिया का एक चूल्हे वाला किचन था.
वह वहां खड़ी शायद चाय बना रही थी. पर वह हर गुजरते पल के साथ और भी गहरे रहस्य में फंसता जा रहा था…आख़िर…ये जूनिया…ये उसका कमरा…फ़ोन… उसका स्टेशन आकर उसे ले आना…
तब तक जूनिया ने चाय के मग्गे सामने रख दिए. वह चाय पीने लगा. चाय पीते-पीते ही उसने फ़ोन नम्बर का रहस्य जानना चाहा. जूनिया ने नम्बर बताया…वह फ्रेंच गिनती नहीं समझ पाया तो जूनिया ने रोमन गिनती में, एक काग़ज़ पर अपना फ़ोन नम्बर लिखकर बताया और इशारे से उसे आश्वस्त किया कि वह ठीक जगह आया है…चिन्ता की कोई बात नहीं है.
किचन की तरफ से तभी कुछ चिट-चिट की आवाज़ आई तो जूनिया उठी उसने एक प्लेट में भुने हुए सॉसेज लाकर रख दिए…और इशारा किया…खाओ! एक सॉसेज उसने भी उठा लिया था.
यानी अब उसका चाय-नाश्ता समाप्त हो गया था. वह समझ ही नहीं पा रही थी कि अब वह क्या कहे या क्‍या करे…काम तो कई थे और फिर उसे आगे भी जाना था. लूजान जाकर उसे ‘त्रिब्यू द लूजान’ के रिपोर्टर पियरे कोल्ब से भी मिलना था. साथ ही उसे जिनीवा में भी एक-दो काम थे, पर भाषा की परेशानी के कारण सब कुछ जैसे अटका हुआ था. पर इन कार्यों से ज़्यादा उसे थकान सता रही थी और सबसे पहले पिछली रात के तमाम जलते और सुलगते अपमानों को भूलकर वह सोना चाहता था.
चाय-नाश्ते के बाद जूनिया ने टूथपेस्ट, एक नया ब्रश और छोटा टॉवल उसके सामने बढ़ा दिया और दरवाज़े के बाहर गैलरी में बने बाथरूम की ओर इशारा किया और इशारों से यह भी जाहिर किया कि उसे मालूम है कि उसका सामान स्टेशन पर खड़ी कार में बन्द है..और यह भी कि वह ओवरकोट, जूते- मोजे उतारकर ब्रश आदि कर ले और चाहे तो कुछ देर आराम भी कर ले. तब तक वह एक काम से कहीं जाएगी और तीन-चार घंटे बाद लौट आएगी.
दोनों चाबियां थमाकर जूनिया अपने काम से चली गई.
वह लौटी तब वह गहरी नींद में सो रहा था. उसी ने उसे कन्धे से हिलाकर जगाया और घड़ी दिखाते हुए बताया कि अब लंच का समय हो गया है इसलिए-गो! यानी चलो!
वह अपनी उसी सित्रों कार में उसे जिनीवा लेक पर ले गई. वहीं एक बेहद ख़ूबसूरत रेस्तरां में उसने खाना खिलाया…फिर उसने झील में तैरते काले हंस दिखाये…और शैले-शैले कहा. उसने अन्दाज़ा लगा लिया कि वह अंग्रेज़ी कवि शैली की बात बताना चाहती थी, जो इसी झील में एक तूफ़ानी दिन अपने प्राण खो बैठा था. उसने आत्महत्या कर ली थी.
फिर वह उसे पतझड़ से भरे सुनसान जंगलों को दिखाने ले गई थी…पतझड़ का दृश्य देखकर वह विमुग्ध रह गया था…शायद छुट्टी के कारण बहुत से सैलानी झील पर और जंगलों में भी मौजूद थे. पर वहां भीड़ के बावजूद एकान्त भी था.
वह जूनिया को लेकर भी विमुग्ध था. कैसी लड़की है यह…कितनी विचित्र और कितनी अलग. जूनिया जैसे उसकी जन्म-जन्मान्तर की बन्धु बनी उसके साथ उन्मुक्त भाव से पेश आ रही थी…
और तभी जूनिया एक आज़ाद-उन्मुक्त पंछी की तरह पतझड़ के सफ़ेद कालीन पर दौड़ती चली गई और कोहरे में अदृश्य हो गई…उसके जैसे पंख लग गए थे.
कुछ पुकारने जैसी आवाज़ तो आई थी, पर उसे यहां पुकारने वाला कौन था…लेकिन उसके मन में अनुगूंज उठी थी कि कहीं जूनिया ने तो उसे नहीं पुकारा था…उसने मन ही मन उस आवाज का उत्तर दिया था-जूनिया! जूनिया!!
लेकिन उसके उत्तर में कोई आवाज लौटकर नहीं आई.
पतझड़ से भरा वह सफ़ेद जंगल अब उसे एक तिलिस्म-सा दिखाई दे रहा था…अगर जूनिया उस कोहरे से लौटकर न आए तो, वह क्या करेगा? चारों तरफ़ तो जंगल ही जंगल है.
तभी एकदम अंधेरा छा गया. सफ़ेद जंगल सुरमई हो गया और बारिश होने लगी. बारिश की सर्द-सुइयां बदन के खुले हिस्सों पर चुभने लगीं…धीरे-धीरे उसका ओवरकोट भी भीग गया…और पतझड़ के सूखे पत्तों के नीचे जमा बर्फ़ीले कीचड़ ने ठसके सूखे हुए जूतों और मोज़ों को फिर भिगो दिया. कि तभी एकाएक भीगी तितली की तरह जूनिया उस कोहरे की दुनिया से निकलकर उसके पास आई थी. कपड़े भीगकर उसके बदन से चिपक गए थे. और तब उसने उसे भर आंख देखा था, वह संगमरमर की नंगी मूर्ति की तरह लग रही थी. एकाएक वह समझ ही नहीं पाया था कि जूनिया किसी मोटल की औरत थी या संगमरमर की कोई कलामूर्ति!…
और उस सर्द और अंधेरे मौसम में उसका हाथ पकड़कर जूनिया उसे अपनी सित्रों कार तक घसीटती ले गई थी और स्तूदियो की तरफ़ चल दी थी. बारिश और तेज़ हो गई थी पर अभी तक बर्फ़ की बारिश में नहीं बदली थी. वह स्टेशन तक जाकर अपने कपड़े लाना चाहता था, पर कुछ संकोच, अड़चन और जूनिया की उन्मुक्त लय को तोड़ देने का साहस वह नहीं कर पाया था.
एकाएक सर्द हवा चलने लगी थी. उसने अपना भीगा हुआ ओवरकोट उतार कर जूनिया को देना चाहा था, पर कार में जगह की कमी और संगमरमरी जूनिया को लगातार देख सकने की इच्छा ने उसे रोक दिया था…
घर पहुंचते ही जूनिया ने इशारे से पूछा कि पहले तुम नहाओगे या मैं ?…नहाना क्या ज़रूरी था? पर जूनिया के प्रति एक अजीब-सी आसक्त के आकर्षण ने उसे ख़ुद पहले नहाने को तैयार कर दिया था. पर कपड़े उसके पास कहां थे? उसकी उलझन को समझकर जूनिया ने अपना एक गाउन उसे दिया था और समझाकर बताया था कि आज इसे पहनकर ही सो जाओ…कौन देखनेवाला है कि तुम एक लड़की का गाउन पहनकर सो रहे हो…सुबह तक तुम्हारे कपड़े सूख जाएंगे…तब तुम उन्हें पहन लेना.
और जब तक गैलरी के बाथरूम के गर्म पानी से नहाकर वह वापस आया था, तब तक जूनिया उस सर्दी में उसी संगमरमर की नंगी मूर्ति की तरह बैठी हुई चाय पी रही थी. वह जूनिया के गाउन में बहुत अटपटा महसूस कर रहा था.
फिर वह नहाने चली गई. और जब वह लौटकर आई, तब तक एक चूल्हे वाले किचन में दलिया और पोर्क की खिचड़ी पककर तैयार हो गई थी.
खिचड़ी खाने के बाद अब उसके सामने सोने का सवाल था. बिस्तर तो एक ही था और सर्दी हद से ज़्यादा बढ़ गई थी. दोपहर में तो वह अकेला था, इसलिए शान्ति से सो तो गया था, लेकिन अब इस रात में?…इस रात में…?
तब तक जूनिया अपना गाउन उतारकर बिलकुल एक उजागर संगमरमरी मूर्ति के रूप में उसके सामने थी. उसने उसी एक बिस्तर पर ‘इलेक्ट्रिक क्विल्ट’ लगाकर उसे पुकारा था-गो! यानी आओ…
बिजली की यह रजाई गर्म हो रही थी और सारे संकोच के बावजूद वह अब आराम से सोना चाहता था-पर जूनिया का उजागर संगमरमरी शरीर उसे पुकार रहा था…पता नहीं यह पुकार ख़ुद उसके मन की थी या जूनिया के मन की…
बिजली की उसी एक रजाई में आख़िर वह भी जूनिया के साथ घुस गया था और करवट लेकर उसने उसके लिए तीन चौथाई जगह छोड़ दी थी…वह आधी से अधिक जगह पार करके भी जूनिया की तरफ़ नहीं खिसक पाया था और न जूनिया ने आधे बिस्तर की यह लक्ष्मण रेखा पार की थी.
सुबह आंख खुली तो चाय तैयार थी. साथ में उबले अंडों का नाश्ता था. उसके बाद जूनिया ने पिछले दिन की तरह पेस्ट और ब्रश उसके सामने रख दिया था…आज उसे इशारा करके कुछ बताने की ज़रूरत नहीं थी. उसे पता था कि बाथरूम की चाबी कहां लटकी हुई है.
बाथरूम से वह लौटा तो जूनिया तैयार होकर अब एक ख़ूबसूरत पेंटिंग की तरह उसके सामने मौजूद थी. उसने भर आंख उसे देखा. जूनिया मुस्कराई और बोली-गो! यानी चलें!
और तब उसे स्टेशन पर खड़ी गाड़ी तक पहुंचाने के लिए वह जिनीवा की स्विस बैंकों वाली स्ट्रीट से होती हुई पहले एक बहुत बड़े डिपार्टमेंट स्टोर में पहुंची थी. उसने अपनी गाड़ी पेवमेंट पर चढ़ा कर पार्क की और उसे डिपार्टमेंट स्टोर के लाऊंज में बैठाकर वह ख़ुद भीतर चली गई थी. उसने समझा जूनिया को कुछ ख़रीदना होगा.
काफ़ी देर बाद जब वह लौटी तो उसके साथ एक बहुत ख़ूबसूरत नौजवान था. उसने हैलो किया और पास बैठ गया. जूनिया उसके उस पार बैठी हुई थी. और तब बहुत शालीनता से उस नौजवान ने अंग्रेज़ी में बात शुरू की थी…
‘मेरा नाम फ़िलिप है…मैं इस डिपार्टमेंट स्टोर में नौकर हूं, जूनिया मेरी मंगेतर है…हम जल्दी ही शादी कर लेंगे. इसने मुझे बताया कि तुम कल सुबह आए थे…तुम बहुत थके हुए थे.’
जूनिया का मंगेतर अंग्रेज़ी में बात कर रहा था, इसलिए उसने सोचा कि एक अजनबी की तरह इस तरह आने और ठहर जाने का रहस्य साफ कर दे. उसने कहा,‘जी हां, मैं बर्फ़ का तूफ़ान पार करता हुआ आया था…और असल में मुझे मेरीयाने कम्यून में ठहरना था…मैंने वहीं फ़ोन किया था…’
‘हां, तुमने ठीक ही फ़ोन किया था…हां…क्या…हां, और देखो जूनिया कह रही है कि वह कम्यून अब वहां नहीं है, पर वह फ़ोन तो अब भी वहीं है…क्या यह एक ख़ूबसूरत बात नहीं है?’
और जूनिया की बहुत ख़ूबसूरत हंसी उसे फ़िलिप के कन्धे के उस पार से सुनाई दी थी…
‘कल मेरी छुट्टी थी इसलिए जूनिया तुम्हें मुझसे मिलवा नहीं पाई…आज लेकर आई है…’ फिलिप बोला.
‘मैं…मैं जूनिया को बहुत…बहुत धन्यवाद देना चाहता हूं…बहुत-बहुत!’ उसके मुंह से अनायास निकला था.
‘अरे, इसमें धन्यवाद की क्‍या बात है…हां क्या…हां…हां…जूनिया कह रही है, कल रात भी तेज़ तूफ़ान आया था…शायद तुम उसमें कहीं भटक जाते…इसलिए उसने सुबह तक का इन्तज़ार किया…हां…हां…एक और बात, जूनिया जानना चाहती है कि तुम कौन हो?’
‘तुम कौन हो! तुम कौन हो!…’ जूनिया का यह सवाल एक आदिम सवाल की तरह उसकी पूरी चेतना में कौंधने और गूंजने लगा था.

Illustrations: Pinterest

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बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता
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बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता

August 12, 2024
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हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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