एक अधेड़ व्यक्ति की पत्नी और पड़ोस में रहनेवाले एक युवक की अधूरी प्रेम कहानी. इंसानी स्वभाव और दुर्बलताओं का शानदार विश्लेषण करती रचना है,‘तुमने क्यों कहा था, मैं सुंदर हूं.’
लौटते समय डॉक्टर साहब माया के जेठ, उनके पड़ोसी निगम और निगम की मां ‘चाची’ सबसे अपील कर जाते,“आप लोग इन्हें समझाइए… कुछ खिलाइए, पिलाइए और हंसाइए.”
निगम साधारणतः स्वस्थ, परिश्रमी और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति है. वह चित्रकार है. पिछले वर्ष दिसम्बर में वह अमरीका में होने वाली एक प्रदर्शनी में भेजने के लिए कुछ चित्र बना रहा था. उसे इनफ़्लुएंजा हो गया. बीमारी में विश्राम न करने के कारण उसका बुख़ार टिक गया. डॉक्टरों के परामर्श से इलाज में जलवायु की सहायता लेने के लिए वह भुवाली चला गया. उसे तुरंत ही लाभ हुआ. स्वस्थ हो जाने पर वह जरा और मृत्यु पर जीवन की विजय’ का एक चित्र बनाना चाहता था. इसी भावना को वह अपने चारों ओर अनुभव कर रहा था.
स्वास्थ्य और जीवन के प्रति माया के निरुत्साह से उसके मन में दर्द-सा होता था. माया के गुम-सुम और चुप रहने पर भी निगम को ‘चाची’ से यह मालूम हो गया था कि माया आगरा के एक समृद्ध कायस्थ वक़ील की तीसरी पत्नी है. चौबीस-पच्चीस वर्ष की आयु में भी, उसकी गोद सूनी रहने पर भी वह क़ानूनन वक़ील साहब के पांच बच्चों की मां है. माया के विवाह से पहले वक़ील साहब की पहली पत्नी दो लड़कियां, एक लड़का और दूसरी पत्नी दो लड़कियां छोड़कर, बारी-बारी क्षय रोग से चल बसी थीं.
जब वक़ील साहब की आयु प्रायः छियालीस वर्ष की थी, तब उन्होंने गृहस्थी संभालने और अपना अकेलापन दूर करने के लिए माया को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया था. माया के बीस वर्ष की हो जाने तक भी उसके पिता को लड़की के लिए कोई अच्छा वर न मिला था. शायद वह वक़ील साहब की दूसरी पत्नी की मृत्यु की ही प्रतीक्षा कर रहे थे.
माया अपने जीवन का क्या भवितव्य समझ बैठी है, यह अनुमान कर लेना निगम के लिए कठिन न था. उसका मन सहानुभूति से माया की ओर झुक गया. एक भरे यौवन का यों बरबाद हो जाना, उसे अन्याय जान पड़ रहा था. माया के लिए ‘भरे यौवन’ शब्द का प्रयोग केवल सहानुभूति से ही किया जा सकता था. आयु चौबीस-पच्चीस की ही थी, शरीर भी छरहरा और ढांचा सुडौल था. सलोने चेहरे पर नमक भी था, परंतु आंसुओं की नमी से सीलकर बहा जा रहा था और आंखों के नीचे और गालों में गड्ढे पड़ गए थे, जैसे किसी अच्छे-ख़ासे बने चित्र पर पानी पड़ जाने से रंग बिगड़ जाए और केवल बाह्याकृति ही बची रहे.
निगम ने जिस नेकनीयती और मन की सफ़ाई से आत्मीयता का आक्रमण किया, उसकी उपेक्षा और विरोध दोनों ही सम्भव न थे. हाथ में ताश की गड्डी फरफराते हुए वह चाची से घर और चौके का काम छुड़वाकर उन्हें ज़बरदस्ती बरामदे में बुला लेता और फिर माया के जेठ को सम्बोधन करता,“आइए मुंशीजी, दो-दो हाथ हो जाएं.”
इसके साथ ही माया से भी खेल में शामिल होने का अनुरोध करता. बिरादरी के नाते वह माया को निधड़क ‘सक्सेना भाभी’ कहकर सम्बोधित करता. तुरप का ही खेल चलता. निगम बड़े जोश से ‘वो मारा पापड़वाले को’ चिल्लाकर ग़लत पत्ता चल देता और फिर अपनी भूल पर विस्मय में ‘अरे’ पुकारकर सबको हंसा देता. माया के रक्तहीन होंठ भी मुस्कराए बिना न रह सकते. निगम फिर चुनौती देता,“आप हंसती हैं? अच्छा, अब की लीजिए!… यह देखिए खरा खेल फ़रक्काबादी” और फिर वैसी ही भूल हो जाती.
ताश के खेल के अतिरिक्त निगम की आपबीती हंसोड़ कहानियों का अक्षय भंडार भी माया को विस्मय से सुनने के लिए विवश कर देता. माया की उदासी कुछ पल के लिए दूर हो जाती. वह कभी माया को कोई कहानी की पुस्तक, पत्रिका या चुने हुए चित्रों का अलबम भी दिल बहलाने के लिए दे देता. निगम ने उन चित्रों को अपने व्यवसाय में उपयोग के लिए चुना था. उनमें अनेक देशी-विदेशी अधढके और नग्न चित्र भी थे. इनका उपयोग निगम अपने चित्रों में अंगों के अनुपात ठीक रख सकने के लिए करता था. माया को अलबम देते समय शिष्टाचार के विचार से ऐसे चित्र निकाल लेता था.
निगम की सहृदयता के प्रभाव से माया की चुप्पी कुछ-कुछ हिलने लगी थी, पर वैसे ही, जैसे बहुत दिन से उपयोग में न आने वाले तालाब पर जमी मोटी काई वायु के झोंके से फट तो जाती है, परंतु तुरंत ही मिल भी जाती है.
माया पुस्तकों या पत्रिकाओं को कितना पढ़ती और समझती थी, इस विषय की कभी चर्चा न होती. हां, जब निगम बंगले के आंगन से दिखाई देने वाले दृश्यों के, माया के सामने खींचे हुए फ़ोटो माया को दिखाता, तो स्तुति की एक मुस्कराहट ज़रूर माया के होंठों पर आ जाती और वह दो-चार शब्दों में फ़ोटो की प्रशंसा भी कर देती. माया को उत्साहित करने के लिए निगम कहता,“आप भी सीख लीजिए न फ़ोटो बनाना.… बड़ा आसान है. कुछ करना थोड़े ही होता है. बस, कैमरा खोलना और बंद करना. तस्वीर तो आपसे आप बन जाती है.”
“क्या करूंगी… मुझे क्या करना है?” माया टाल देती.
निगम उसे जीवन के प्रति उदास न होने की नसीहत करने लगता. उस बात से जान बचाने के लिए माया कोई दूसरी बात करने लगती,“यह मेरा नौकर बाज़ार जाता है, तो वहीं सो रहता है. देखें, शायद आ गया हो.”
ऐसे ही एक दिन निगम माया को नए फ़ोटो दिखा रहा था और समझा रहा था,“जो आदमी कुछ करता रहता है, वह उदास नहीं रहता.”
माया कह बैठी,“अच्छा, हमारा एक फ़ोटो बना दीजिए.”
“जरूर!” निगम ने उत्साह से उत्तर दिया,“जब कहिए!”
“अरे! जब हो. चाहे अभी बना दीजिए.”
अवसर की बात, उस समय निगम के पास फ़िल्म समाप्त हो चुकी थी. फ़िल्म समाप्त हो जाने की बात बताकर उसने विश्वास दिलाया कि किसी दिन वह ख़ुद या उसका नौकर करमसिंह नैनीताल जाएगा, तो फ़िल्म लाकर सबसे पहले माया का फ़ोटो बना देगा. माया का फ़ोटो बना देने की बात होने के चौथे या पांचवें दिन करमसिंह कुछ सामान लेने नैनीताल गया था. लगभग दिन डूबने के समय लौटकर करमसिंह सामान और बचे हुए पैसे निगम को सहेज रहा था. माया ने आकर पूछ लिया,“भाई साहब, फ़िल्म मंगवा लिया है?”
“हां-हां, क्यों नहीं!” फ़िल्म की बाबत भूल जाने की बात निगम स्वीकार न कर सका. “क्यों, क्या फ़ोटो अभी खिंचवाइएगा?” उसने उत्साह प्रकट किया.
“अभी बना दीजिए?” माया को भी एतराज़ न था.
“मुंशी जी को बुला लें?” निगम ने सोचकर कहा.
“वह बाज़ार गए हैं, देर से लौटेंगे!”
“आप भी तो कपड़े बदलेंगी, तब तक रौशनी कम हो जाएगी.” निगम ने दूसरा बहाना सोचा.
“कपड़ों से क्या है?” उपेक्षा से माया ने उत्तर दिया,“कपड़ा दिखाकर क्या करना है? ठीक तो है?”
कोई और बहाना सोचते हुए निगम कैमरे में फ़िल्म लगा लाने के लिए भीतर चला गया. फ़ोटो के सामान की अलमारी के सामने खड़ा वह सोच रहा था, माया का मन रखने के लिए बोले हुए झूठ को वह कैसे निबाहे? उसकी उंगलियां उन चित्रों को पलट रही थीं, जिन्हें उसने अलबम में से माया को दिखाने से पहले निकाल लिया था. मन में एक बात कौंध कर उसके होठों पर मुस्कान आ गई. कैमरे में फ़िल्म की जगह पर समा सकने लायक़ एक फ़ोटो उसने चुन लिया. दो मिनट के बाद निगम कैमरे को तैयार हालत में लिए बाहर आया.
“लीजिए, कैमरा तो तैयार है.” उसने माया को सम्बोधित किया.
“अच्छा.” माया भी तैयार थी.
“साड़ी नहीं बदली आपने?” निगम ने पूछा.
“ठीक है. क्या ज़रूरत है?”
“आप कहती हैं न, साड़ी की तस्वीर थोड़े ही बनवानी है.” निगम मुस्कराया.
“हां, साड़ी से क्या होगा? जैसी हूं, वैसी ही रहूंगी.”
“आपके बैठने के लिए कुरसी लाऊं?”
“न, ऐसे ही ठीक है.”
“जैसे मैं कहूं, बैठ जाइए.”
“अच्छा.”
“बरामदे में सामने से रौशनी आ रही है. यहां फ़र्श पर बैठ जाइए.… दाईं बांह की टेक ले लीजिए.… बाईं बांह को सामने गोद में रहने दीजिए. …गरदन ज़रा ऊंची कीजिए… हां, सिर उधर कर लीजिए, जैसे उस पेड़ की चोटी पर देख रही हों …हां.”
माया निगम के निर्देशानुसार बैठ गई. निगम ने चेतावनी दी,“अब आधा मिनट बिल्कुल हिलिएगा नहीं.”
वह स्वयं दो गज़ परे, फ़र्श पर उकड़ू बैठकर कैमरे को माया की ओर साध रहा था. कैमरे की आंख खुलने का और बंद होने का ‘टिक’ शब्द हुआ.
“थैंक्यू, बस, हो गया.’’ निगम ने हंसकर कहा.
“जाने कैसी बनेगी?” माया फ़र्श से उठती हुई बोली.
“अभी मालूम हो जाएगा.” निगम ने तटस्थता से उत्तर दिया.
“अभी कैसे?” माया ने विस्मय प्रकट किया,“एक-दो मिनट तो लगते हैं. बनने में.”
“हां, ऐसे कैमरे और फ़िल्म भी होते हैं” निगम ने स्वीकार किया और बताया,“यह दूसरी तरह का कैमरा है.”
“यह कैसा है?” माया का विस्मय बढ़ा.
“इस कैमरे में फ़ोटो पांच मिनट में अपने आप तैयार हो जाती है” निगम ने समझाया और अपनी कलाई पर घड़ी की ओर देखकर बोला,“अभी दो मिनट ही हुए हैं.”
शेष तीन मिनट माया उत्सुकता से प्रतीक्षा करती रही. दो मिनट और गुज़र जाने पर निगम ने ठिठककर कहा,“आधा मिनट और ठहर जाना अच्छा है. जल्दी करने से फ़ोटो को कभी-कभी हवा लग जाती है.”
माया उत्सुकता से अपलक कैमरे की ओर देखती रही. निगम कैमरे को ऐसी बेबाकी से माया की आंखों के सामने खोलने लगा कि संदेह का कोई अवसर न रहे. जैसे जादूगर दर्शकों के सामने झाड़कर लपेटे रूमाल में से अद्भुत वस्तु निकालते समय आहिस्ते-आहिस्ते, दिखा-दिखाकर तह खोलता है. कैमरे का पिछला हिस्सा खुला. फ़ोटो की सफ़ेद पीठ दिखाई दी. निगम ने फ़ोटो को स्वयं देखे बिना माया की ओर बढ़ा दिया. माया का हाथ उत्सुकता से फ़ोटो की ओर बढ़ गया था, परंतु फ़ोटो आंखों के सामने आते ही हाथ से गिर गई, आंखें झपक गईं और शरीर में थोड़ा-बहुत जो भी रक्त था, पीले चेहरे पर खिंच आया.
“क्यों?” भोले स्वर में निगम ने विस्मय प्रकट किया.
“यह हमारा फ़ोटो है?” माया आंखें न उठा सकी, परंतु होंठों पर आई मुस्कान भी छिपी न रही.
निगम ने आरोप का विरोध किया,“आपके सामने ही तो फ़ोटो लेकर कैमरा खोला है.”
“इसमें हमारे कपड़े कहां हैं?” तनिक आंख उठाकर माया ने साहस किया.
फ़ोटो में माया की तरह छरहरे शरीर, परंतु बहुत सुंदर अनुपात के अवयव की निरावरण युवती, दाईं बांह का सहारा लिये एक चट्टान पर बैठी, कहीं दूर देख रही थी.
“आपने ही तो कहा था” निगम ने सफ़ाई दी,“कि कपड़ों की फ़ोटो थोड़े ही खिंचवानी है.”
“ऐसा भी कहीं होता है?” माया ने झेप से अविश्वास प्रकट किया और उसका चेहरा गम्भीर हो गया.
“ओहो!” निगम ने परेशानी प्रकट की,“आपने क्या एक्सरे नहीं देखा कभी? ऐसा भी कैमरा होता है, जिसमें शरीर के भीतर की हड्डियां और नसें आ जाती हैं?” अपना कैमरा दिखाकर वह कहता गया,“इस कैमरे से कपड़ों के भीतर से शरीर की फ़ोटो आ जाती है. यदि आप पूरे कपड़ों समेत चाहती हैं, तो मैं दूसरे कैमरे से वैसी ही खींच दूंगा.”
माया ने एक बार फिर फ़ोटो को देखने का प्रयत्न किया, परंतु देख न सकी. उसका चेहरा गम्भीर हो गया. वह उठकर अपने कमरे में चली गई. निगम भी कैमरा और चित्र लिए अपने कमरे में चला आया. कुछ देर बाद वह चिन्ता में सिर झुकाए पछताने लगा, यह क्या कर बैठा? माया हंसने की अपेक्षा चिढ़ गई. …नाराज़ हो गई. कहीं चाची से शिकायत न कर दे. …शिकायत कर सकती है या नहीं? रात में नींद आ जाने तक यही विचार निगम को विक्षिप्त किए रहा और इस परेशानी के कारण नींद भी जल्दी न आई.
अगले दिन निगम का पश्चात्ताप और चिन्ता बढ़ी. माया की नाराज़गी अब साफ़ ही थी. प्रातः सूर्योदय के समय माया कुछ क्षण के लिए धूप में आती थी और निगम से नमस्कार और कुशलक्षेम हो जाती थी. उस दिन माया दिखाई नहीं दी. निगम क्या करता? तीर कमान से निकल चुका था. वह केवल अपने को ही समझा सकता था कि उसकी नीयत ख़राब न थी. उसने केवल हंसी की थी. हंसी दूर तक चली गई. पश्चात्ताप के कारण निगम स्वयं ही चुप हो गया. उसकी चुप्पी चाची से छिपी न रह सकी. उन्होंने पूछा,“जी तो अच्छा है?”
निगम ने एक किताब में ध्यान लग जाने का बहाना कर चाची को टाल दिया, परंतु उदासी न मिटा सका. वह किताब पढ़ने का बहाना किए दस बजे तक अपने कमरे में लेटा रहा. कमरे के बाहर से आवाज़ सुनाई दी,“सुनिए!”
आवाज़ पहचानकर निगम तड़पकर उठा,“आइए.”
माया दरवाज़े में आ गई. कलफ़ की हुई ख़ूब सफ़ेद महीन धोती में से पीठ पर फैले गीले केश झलक रहे थे. लज्जा से आंखों की मुस्कान छिपाते हुए बोली,“भाई साहब, हमारा फ़ोटो दीजिए.”
निगम के मन से पश्चात्ताप और दुश्चिन्ता ऐसे उड़ गई, जैसे फूंक मारने से आईने पर पड़ी धूल साफ़ हो जाती है.
“कल वाला?” जैसे याद करने की चेष्टा करते हुए उसने पूछा.
“हां.” माया ने हामी भरी.
“वह तो हमने अपने पास रखने के लिए बनाया है.” निगम ने गम्भीरता से विचार प्रकट किया.
“वाह, तस्वीर तो हमारी है?” माया ने अधिकार प्रकट किया.
“आपकी है? कल आप कह रही थीं कि तस्वीर आपकी नहीं है.”
“दीजिए. आपने ही तो खींची है.” माया ने आग्रह किया. उसकी आंखों में चमक थी और स्वर में कुछ मचल.
“अच्छा, ले लीजिए!” निगम ने पराजय स्वीकार कर ली और तस्वीर मेज़ पर से उठाकर माया की ओर बढ़ा दी.
माया ने दो-तीन सेकेण्ड तक तस्वीर को तिरछी निगाहों से देखा और फिर लज्जा का विरोध किया,“हमारी नहीं है तस्वीर?”
“अभी आप मान रही थीं.” निगम ने उलझन प्रकट की,“क्यों?”
“यह तो बहुत अच्छी है. मैं ऐसी कहां हूं?” माया की आंखें झुक गईं और चेहरे पर लाली बढ़ गई. माया के नए धुले केशों से सुगंधित साबुन से सद्य:स्नान की सुवास आ रही थी. अपने रक्त में झनझनाहट अनुभव करके भी निगम ने कह दिया,“हैं तो!… नहीं तो तस्वीर कैसे सुंदर होती?”
“सच कहते हैं?” माया ने निगम की आंखों में सच्चाई भांपने के लिए देखा.
“हां, बिल्कुल सच.” निगम को माया की लज्जा और पुलक से अद्भुत रस मिल रहा था.
माया फिर फ़ोटो की ओर देखती रही. “इसे फाड़ दीजिए.” आंखें चुराए उसने कहा!
“मैं तो इसे संभालकर रखूगा” निगम ने उत्तर दिया,“लखनऊ जाने पर याद आने पर इसे देखूंगा.”
माया ने निगम की आंखों में देखना चाहा, पर देख न सकी. फ़ोटो उसने ले लिया,“आपको फिर दे दूंगी.” फ़ोटो को हाथ में और हाथ को धोती में छिपाए वह अपने कमरे में चली गई.
माया के चले जाने पर निगम फिर लेट गया और सोचने लगा. पांच-सात मिनट में बात कहां से कहां पहुंच गई, जीवन का बिल्कुल दूसरा दृश्य सामने आ गया. अब तक निगम और माया में जो भी बात होती, सभी के सामने और ख़ूब ऊंचे स्वर में होती थी, परंतु अब अकेले में करने लायक़ बात भी हो गई. असाधारण और विशेष में ही तो सुख होता है. जिसे पाने में कठिनाई हो, वही पाने की इच्छा होती है.
अकेले में और दूसरों की पहुंच से परे होने पर निगम कह उठता,“वो तस्वीर आपने लौटाई नहीं?”
“तस्वीर तो हमारी है, पर अच्छी थोड़े ही है.” माया होंठ बिचका देती.
“हमें तो अच्छी लगती है.”
“आप यों ही कहते हैं.”
“अच्छा, किसी और को दिखाकर पूछ लो.”
“धत्.”
“क्यों?”
“शरम नहीं आती, ऐसी तस्वीर?” माया प्यार का क्रोध दिखाती.
निगम की नस-नस में बिजली दौड़ जाती. उसे माया के व्यवहार में परिवर्तन दिखाई दे रहा था. अब माया की आंखें दूसरी आंखों से बचकर निगम को ढूंढतीं. अवसर की खोज के लिए एक चुस्ती-सी उसमें आ गई. यह परिवर्तन केवल निगम को ही नहीं, चाची और मुंशीजी को भी दिखाई दे रहा था और इस परिवर्तन का अकाट्य प्रमाण था डॉक्टर साहब का मरीज़ों को तोलने वाला तराज़ू. तराज़ू ने पहले सप्ताह माया के वज़न में आधा पौण्ड बढ़ती दिखाई और दूसरे सप्ताह एक पौण्ड.
अब माया चाची के साथ, निगम के साथ होते हुए भी, कुछ दूर घूमने जाने लगी. घूमते समय, ताश खेलते हुए अथवा बरामदे में चहलक़दमी करते समय निगम से एक बात कर सकने और आंखें चार कर सकने के अवसर की खोज के लिए माया के मस्तिष्क और शरीर में सदा रहस्य और तत्परता बनी रहती.
जुलाई का तीसरा सप्ताह आ गया था. भुवाली निरन्तर वर्षा से भीगी रहती. बादल, कोहरा और धुन्ध घरों में घुस आते. सीलन और सर्दी से चाची जोड़ों में दर्द की शिकायत करने लगीं. मुंशीजी को भी दमे के दौरे अधिक आने लगे. बहुत से बीमार वर्षा से घबराकर घर चले गए. निगम और माया के बंगले से प्रायः सौ गज़ ऊपर का बड़ा पीला बंगला और बाईं ओर के बंगले ख़ाली हो गए. डॉक्टर की राय थी कि निगम अभी लखनऊ की गरमी में न जाए, तो अच्छा ही है और माया को तो अभी रहना ही चाहिए था. उसकी अवस्था तो अभी सुधरने ही लगी थी.
आकाश में घटाटोप बादल बने रहने पर भी माया की आंखों में और चेहरे पर उत्साह के कारण स्वास्थ्य की किरणें फैली रहतीं. माया की आंखों का साहस बढ़ता जा रहा था. जब-तब निगम से ‘आंखें चार’ हो जातीं. वह भी उनकी सुखद उष्णता का अनुभव किए बिना न रहता. शरीर में एक वेग और शक्ति का सुखद अनुभव होता. अपने अस्तित्व और शक्ति के लिए माया का निमन्त्रण पाकर उसे ग्रहण करने, माया को पा लेने की अदमनीय इच्छा होती. निगम को माया से शायद रोग की छूत लग जाने की आशंका थी. अपने को यों रोके रहने में भी संतोष था. जैसे तेज़ दौड़ने के लिए उतावले घोड़े की रास खींचकर रोके रहने में शक्ति, सुख और गर्व अनुभव होता है, निगम और माया दोनों जीवन की शक्ति के उफान की अनुभूति से उत्साहित रहने लगे.
वर्षा के कारण घूमने का अवसर कम हो गया. निगम शरीर को कुछ स्फूर्ति देने के लिए छाता ले बाज़ार तक हो आता. माया उसकी आंखों में मुस्कराकर उलाहना देती,“आप तो अकेले ही घूम आते हैं, हमारा घूमना ही बंद हो गया है, चाची कहीं जा नहीं पाती.”
दिन-भर पानी बरसता रहा था. माया ने चाहा कि ताश की बैठक जमे, परंतु मुंशीजी के दमे के दौरे और चाची के दर्द के कारण जम न पाई. माया ने कई बार बरामदे के चक्कर लगाए. रहा न गया, तो निगम के कमरे के दरवाज़े पर जाकर पुकारा,“सुनिए!”
निगम ने स्वागत से मुस्कराकर कहा,“आइए.”
झुंझलाहट के स्वर में माया ने शिकायत की,“क्या करें भाई साहब! कोई किताब ही दे दीजिए. बैठे-बैठे दिन नहीं कटता है.”
निगम ने पूछा,“कैसी पुस्तक चाहिए? तस्वीरों वाली!”
“धत्, बड़े वैसे हैं आप!”
निगम ने पत्रिका उठाकर दे दी. उठती अंगड़ाई को दबाकर निगम की आंखों में मुस्कराती हुई माया पत्रिका ले, लौट गई. माया कुछ देर बाद पत्रिका लौटाने आई.
“पढ़ने में जी नहीं लगता भाई साहब!” मुस्कराकर उसने निगम की आंखों में देखा और फिर आंखें झुकाये दबे स्वर में बोली,“कहीं घूमने नहीं चलते?”
“चलो, कहां चलें?” निगम ने वैसे ही स्वर में योग दिया.
“ऊपर का पीला बंगला तो ख़ाली है”, माया के चेहरे पर सुर्खी दौड़ गई,“आप नीचे सड़क से घूमकर चले आइए.”
निगम के शरीर का रक्त बिजली का तार छू जाने से खौल उठा. इच्छा हुई, समीप खड़ी माया को बांहों में ले ले, परंतु मस्तिष्क में रोग की सम्भावना और औचित्य का भी ख़याल आ गया. वह ठिठक गया, परंतु स्त्री के सामने कायरता न दिखाने के लिए तत्परता से बोला,“अच्छा?”
इस लुका-छिपी में उसे भी रोमांच का अनुभव होता था. उसमें हरज क्या था? बादल घिरे हुए थे. निगम ने छतरी हाथ में ले ली और रसोई में बैठी चाची को पुकार कर कह दिया,“ज़रा बाज़ार तक घूम आऊं.”
निगम अपने बंगले से सड़क पर उतर गया और घूमकर ऊपर के पीले बंगले की ओर चढ़ गया. बंगले के अहाते में लिली के फूल ख़ूब खिले हुए थे. इससे कुछ दिन पहले बंगले में किराएदारों के रहते समय भी शाम को कुछ दूर घूमने जाकर लौटते समय निगम, चाची और माया इस ओर से होकर जा चुके थे. पड़ोसियों के स्वास्थ्य के लिए शुभकामना करके निगम यहां से फूल भी ले जाता था.
अब बंगला सूना था. बंगले के पिछवाड़े, ज़रा नीचे, माली और नौकरों के लिए बनी छोटी-छोटी झोंपड़ियों से धुआं उठ रहा था. माली सन्ध्या का खाना बना रहा होगा. चढ़ाई चढ़ते समय दम फूल जाने के कारण सांस लेने के लिए खड़े होकर निगम ने घूमकर पीछे की ओर देखा कि माया आती होगी. माया के साहस-भरे प्रस्ताव से उसका रोम-रोम सिहर रहा था. पगडण्डी पर कुछ दिखाई न दिया. भीगी घास पर बादल का एक टुकड़ा मचल कर बैठ गया था और नीचे कुछ दिखाई न दे रहा था. बरामदे में कुछ आहट-सी पाकर निगम ने देखा, माया सामने के बड़े कमरे के दरवाज़े में उससे पहले ही से खड़ी मुस्कराती हुई बांह उठा उसे आ जाने का संकेत कर रही थी.
वह आगे बढ़ कमरे में चला गया. एकान्त में, माया के इतने निकट होने से उसका रक्त तेज़ हो गया और चेहरे पर चिनचिनाहट अनुभव होने लगी. माया का सीना भी, चढ़ाई पर तेज़ी से आने के कारण, अभी तक लम्बे श्वासों से ऊपर-नीचे हो रहा था. उसके चेहरे पर ऐसी सुर्ख़ी और सलोनापन था कि निगम देखता रह गया.
घने बादलों और धुन्ध से छाये आकाश के कारण किवाड़ों और खिड़कियों के शीशे से केवल इतना प्रकाश आ रहा था कि शरीर की आकृति-भर दिखाई दे सकती थी. किराएदारों के चले जाने के बाद सफ़ेद निवाड़ से बुना ख़ाली पलंग अंधेरे में उजला दिखाई दे रहा था और वारनिश की हुई कुरसियां छाया-जैसी.
माया ने किवाड़ बंद कर दिए. निगम ने एक घबराहट-सी अनुभव की. वैसी ही, जैसे उत्साह में किसी ख़न्दक को मामूली समझकर कूद जाने के लिए किनारे पर आकर ख़न्दक की वास्तविकता देखकर होती है. माया उसके बिल्कुल समीप आ गई थी. माया ने हांफते हुए पूछा,“हमारा फ़ोटो अच्छा था? सच कहिए.”
और वह जैसे चढ़ाई की थकान से खड़ी न रह सकने के कारण धम से पलंग पर बैठ गई. अंधेरे में भी निगम को उसकी आंखों में चमक और चेहरे की आग्रहपूर्ण मुस्कान बिना देखे ही दिखाई दे रही थी. निगम का हृदय धक-धक कर रहा था. गले में उठ आए आवेग को निगलकर और समझने के लिए उसने उत्तर दिया,“है तो…”
“झूठ! अब देखिए!” पांव पलंग पर समेटते हुए और पलंग के बीच सरककर माया ने हांफते हुए रुंधे हुए स्वर में आग्रह किया. उसकी साड़ी का एक छोर कन्धे से पलंग पर गिर गया था. अपने हाथ में लिया ‘वह फ़ोटो’ पलंग पर निगम के सामने डालते हुए उसने आग्रह किया,“ऐसा कहां है? कब देखा आपने?”
निगम के सिर में रक्त के हथौड़े की चोटें-सी अनुभव हो रही थीं. उसके शरीर के सब स्नायु तन गए.
“यहां आओ!” व्याकुलता से मचलकर माया ने निगम को पुकारा.
माया अपनी कुरती को खोल देने के लिए खींच रही थी. काजों में फंसे बटन खिंचे जा रहे थे और उसके स्तन चोंच उठाए तीतरों की तरह कुरती को फाड़ देना चाहते थे. बहुत ज़ोर से दिए गए धक्के के विरुद्ध पांव जमाने का प्रयत्न कर निगम ने कड़े स्वर में उत्तर दिया,“पागल हो!… होश करो!”
माया का चेहरा तमतमा उठा. पिघली हुई आंखें पथरा गईं और गरदन क्रोध में तन गई. श्वास और भी गहरा और तेज़ हो गया. आधा क्षण स्तब्ध रहकर क्रोध से निगम को घूरकर कड़े स्वर में बोली,“तो तुमने क्यों कहा था, मैं सुंदर हूं?’’
आंचल को संभाले बिना झपाटे से फ़र्श पर खड़ी हो, दोनों हाथों की मुट्ठियां बांधे, आंसुओं से डबडबाई आंखों में चिनगारियां भर उसने होंठ चबाकर धमकाया,“जाओ! जाओ! हट जाओ!”
निगम के पांव तले से धरती निकल गई. एक कंपकंपी-सी आ गई. अवाक् रह गया. माया फिर पलंग पर गिर पड़ी. अपना सिर बांहों में छिपा औंधे मुंह लेट गई. उसकी पीठ बहुत ज़ोर से रुलाई से हिल रही थी. निगम एक क्षण उसकी ओर देखता खड़ा रहा और फिर किवाड़ खोलकर तेज़ क़दमों से चला गया.
निगम अगले दिन चाची के दर्द की चिन्ता से लखनऊ लौट गया.
माया का ज्वर बढ़ने लगा. डॉक्टर ने सप्ताह भर उसके स्वास्थ्य में सुधार हो सकने की प्रतीक्षा की और फिर फैसला दे दिया,“बरसात की सर्दी और सील आपको माफ़िक नहीं बैठ रही. आप आगरा लौट जाइए.”
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