उर्दू के महान लेखक मंटो विभाजन पर आधारित कहानियों के लिए जाने जाते थे. कहानी वह लड़की हिंदू-मुस्लिम दंगों की पृष्ठभूमि पर लिखी गई है. सड़क के किनारे पेड़ के नीचे बैठी एक लड़की को अपने कमरे में बुलाने के बाद क्या सुरेंद्र के साथ वही सबकुछ होता है, जिसके बारे में उसने सोच रखा था?
सवा-चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी. उसने बालकनी में आकर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक साया-दार दरख़्त की छांव में आलती पालती मारे बैठी थी.
उसका रंग गहरा सांवला था. इतना सांवला कि वो दरख़्त की छाओं का एक हिस्सा मालूम होता था. सुरेंद्र ने जब उस को देखा तो उसने महसूस किया कि वो उसकी क़ुरबत चाहता है, हालांकि वो इस मौसम में किसी की क़ुरबत की भी ख़्वाहिश न कर सकता था.
मौसम बहुत वाहियात क़िस्म का था. सवा-चार बज चुके थे. सूरज ग़ुरूब होने की तैयारियां कर रहा था. लेकिन मौसम निहायत ज़लील था. पसीना था कि छूटा जा रहा था. ख़ुदा मालूम कहां से मसामों के ज़रिए इतना पानी निकल रहा था.
सुरेंद्र ने कई मर्तबा ग़ौर किया था कि पानी उसने ज़्यादा से ज़्यादा चार घंटों में सिर्फ़ एक गिलास पिया होगा, मगर पसीना बिला-मुबालग़ा चार गिलास निकला होगा. आख़िर ये कहां से आया!
जब उस ने लड़की को दरख़्त की छांव में आलती पालती मारे देखा तो उस ने सोचा कि दुनिया में सब से ख़ुश यही है जिसे धूप की परवाह है न मौसम की.
सुरेंद्र पसीने में लत-पत था. उसकी बनियान उसके जिस्म के साथ बहुत बुरी तरह चिम्टी हुई थी. वो कुछ इस तरह महसूस कर रहा था जैसे उसके बदन पर किसी ने मोबिल ऑयल मिल दिया है. लेकिन इस के बावजूद जब उस ने दरख़्त की छांव में बैठी हुई लड़की को देखा तो उसके जिस्म में ये ख़्वाहिश पैदा हुई कि वो उसके पसीने के साथ घुल मिल जाए, उसके मसामों के अंदर दाख़िल हो जाए.
आसमान ख़ाकस्तरी था. कोई भी वसूक़ से नहीं कह सकता था कि बादल हैं या महेज़ गर्द-ओ-ग़ुबार. बहर-हाल, उस गर्द-ओ-ग़ुबार या बादलों के बावजूद धूप की झलक मौजूद थी और वो लड़की बड़े इत्मिनान से पीपल की छांव में बैठी सुस्ता रही थी.
सुरेंद्र ने अबकी ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा. उसका रंग गहरा सांवला मगर नक़्श बहुत तीखे कि वो सुरेंद्र की आंखों में कई मर्तबा चुभे.
मज़दूर पेशा लड़की मालूम होती थी. ये भी मुम्किन था कि भिकारन हो. लेकिन सुरेंद्र उसके मुतअल्लिक़ कोई फ़ैसला नहीं कर सका था. असल में वो ये फ़ैसला कर रहा था कि आया उस लड़की को इशारा करना चाहिए या नहीं.
घर में वो बिलकुल अकेला था. उसकी बहन मसूरी में थी. मां उसके साथ थी. बाप मर चुका था. एक भाई, उससे छोटा, वो बोर्डिंग में रहता था. सुरेंद्र की उम्र सत्ताइस अट्ठाइस साल के क़रीब थी. उससे क़ब्ल वो अपनी दो अधेड़ उम्र की नौकरानियों से दो तीन मर्तबा सिलसिला लड़ा चुका था.
मालूम नहीं क्यूं, लेकिन मौसम की ख़राबी के बावजूद सुरेंद्र के दिल में ये ख़्वाहिश हो रही थी कि वो पीपल की छांव में बैठी हुई लड़की के पास जाए या उसे ऊपर ही से इशारा करे ताकि वो उसके पास आ जाए, और वो दोनों एक दूसरे के पसीने में ग़ोता लगाएं और किसी ना-मालूम जज़ीरे में पहुंच जाएं.
सुरेंद्र ने बालकनी के कटहरे के पास खड़े हो कर ज़ोर से खंकारा मगर लड़की मुतवज्जे न हुई. सुरेंद्र ने जब कई मर्तबा ऐसा किया और कोई नतीजा बरामद न हुआ तो उस ने आवाज़ दी. “अरे भई……. ज़रा इधर देखो!”
मगर लड़की ने फिर भी उसकी तरफ़ न देखा. वो अपनी पिंडली खुजलाती रही.
सुरेंद्र को बहुत उलझन हुई. अगर लड़की की बजाए कोई कुत्ता होता तो वो यक़ीनन उसकी आवाज़ सुन कर उसकी तरफ़ देखता. अगर उसे उसकी ये आवाज़ ना-पसंद होती तो भौंकता मगर उस लड़की ने जैसे उसकी आवाज़ सुनी ही नहीं थी. अगर सुनी थी तो अनसुनी कर दी थी.
सुरेंद्र दिल ही दिल में बहुत ख़फ़ीफ़ हो रहा था. उसने एक बार बुलंद आवाज़ में उस लड़की को पुकारा. ए लड़की!
लड़की ने फिर भी उसकी तरफ़ न देखा. झुंझलाकर उसने अपना मलमल का कुर्ता पहना और नीचे उतरा. जब उस लड़की के पास पहुंचा तो वो उसी तरह अपनी नंगी पिंडली खुजला रही थी.
सुरेंद्र उसके पास खड़ा हो गया. लड़की ने एक नज़र उसकी तरफ़ देखा और सलवार नीची करके अपनी पिंडली ढांप ली.
सुरेंद्र ने उस से पूछा. “तुम यहां क्या कर रही हो?”
लड़की ने जवाब दिया. “बैठी हूं.”
“क्यों बैठी हो?”
लड़की उठ खड़ी हुई. “लो, अब खड़ी हो गई हूं!”
सुरेंद्र बौखला गया. “इससे क्या होता है. सवाल तो ये है कि तुम इतनी देर से यहां बैठी क्या कर रही थीं?”
लड़की का चेहरा और ज़्यादा सांवला हो गया. “तुम चाहते क्या हो?”
सुरेंद्र ने थोड़ी देर अपने दिल को टिटोला. “मैं क्या चाहता हूं… मैं कुछ नहीं चाहता… मैं घर में अकेला हूं. अगर तुम मेरे साथ चलो तो बड़ी मेहरबानी होगी.”
लड़की के गहरे सांवले होंठों पर अजीब-ओ-ग़रीब किस्म की मुस्कुराहट नुमूदार हुई. “मेहरबानी… काहे की मेहरबानी… चलो!”
और दोनों चल दिए.
जब ऊपर पहुंचे तो लड़की सोफ़े की बजाय फ़र्श पर बैठ गई और अपनी पिंडली खुजलाने लगी. सुरेंद्र उसके पास खड़ा सोचता रहा कि अब उसे क्या करना चाहिए.
उसने उसे ग़ौर से देखा. वो ख़ूबसूरत नहीं थी. लेकिन उस में वो तमाम कौसें और वो तमाम ख़ुतूत मौजूद थे जो एक जवान लड़की में मौजूद होते हैं. उसके कपड़े मैले थे, लेकिन इस के बावजूद उसका मज़बूत जिस्म उसके बाहर झांक रहा था.
सुरेंद्र ने उस से कहा. “यहां क्यूं बैठी हो……. इधर सोफ़े पर बैठ जाओ!”
लड़की ने जवाब में सिर्फ़ इस क़द्र कहा. “नहीं!”
सुरेंद्र उसके पास फ़र्श पर बैठ गया. “तुम्हारी मर्ज़ी… लो अब ये बताओ कि तुम कौन हो और दरख़्त के नीचे तुम इतनी देर से क्यूं बैठी थीं?”
“मैं कौन हूं और दरख़्त के नीचे मैं क्यूं बैठी थी… इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं.” लड़की ने ये कहकर अपनी सलवार का पाइंचा नीचे कर लिया और पिंडली खुजलाना बंद कर दी.
सुरेंद्र उस वक़्त उस लड़की की जवानी के मुतअल्लिक़ सोच रहा था. वो उसका और उन दो उधेड़ उम्र की नौकरानियों का मुक़ाबला कर रहा था, जिनसे उसका दो-तीन मर्तबा सिलसिला हो चुका था. वो महसूस कर रहा था कि वो उस लड़की के मुक़ाबले में ढीली ढाली थीं, जैसे बरसों की इस्तेमाल की हुई साइकिलें. लेकिन इसका हर पुर्ज़ा अपनी जगह पर कसा हुआ था.
सुरेंद्र ने उन अधेड़ उम्र की नौकरानियों से अपनी तरफ़ से कोई कोशिश नहीं की थी. वो ख़ुद उस को खींच कर अपनी कोठरियों में ले जाती थीं. मगर सुरेंद्र अब महसूस करता था कि ये सिलसिला उसको अब ख़ुद करना पड़ेगा, हालांकि उसकी तकनीक से क़तआत नावाक़िफ़ था. बहरहाल. उसने अपने एक बाज़ा को तैयार किया और उसे लड़की की उम्र में हमायल कर दिया.
लड़की ने एक ज़ोर का झटका दिया. “ये क्या कर रहे हो तुम?”
सुरेंद्र एक बार फिर बौखला गया. “मैं… मैं… कुछ भी नहीं.”
लड़की के गहरे सांवले होंठों पर अजीब क़िस्म की मुस्कुराहट नुमूदार हुई. “आराम से बैठे रहो!”
सुरेंद्र आराम से बैठ गया. मगर उसके सीने में हल-चल और ज़्यादा बढ़ गई. चुनांचे उसने हिम्मत से काम लेकर लड़की को पकड़ कर अपने सीने के साथ भींच लिया.
लड़की ने बहुत हाथ पांव मारे, मगर सुरेंद्र की गिरफ़्त मज़बूत थी. वो फ़र्श पर चित्त गिर पड़ी. सुरेंद्र उसके ऊपर था. उस ने धड़ा-धड़ उसके गहरे सांवले होंठ चूमने शुरू कर दिए.
लड़की बेबस थी. सुरेंद्र का बोझ इतना था कि वो उसे उठा कर फेंक नहीं सकती थी. ब-वजह मजबूरी वो उसके गीले बोसे बर्दाश्त करती रही.
सुरेंद्र ने समझा कि वो राम हो गई है, चुनांचे उस ने मज़ीद दराज़ दस्ती शुरू की. उसकी क़मीज़ के अंदर हाथ डाला. वो ख़ामोश रही. उसने हाथ पांव चलाने बंद कर दिए. ऐसा मालूम होता था कि उस ने मदाफ़िअत को अब फ़ुज़ूल समझा है.
सुरेंद्र को अब यक़ीन हो गया कि मैदान उसी के हाथ रहेगा, चुनांचे उस ने दराज़ दस्ती छोड़ दी और उस से कहा. “चलो आओ, पलंग पर लेटते हैं.”
लड़की उठी और उसके साथ चल दी. दोनों पलंग पर लेट गए. साथ ही तिपाई पर एक तश्तरी में चंद माल्टे और एक तेज़ छुरी पड़ी थी. लड़की ने एक मालटा उठाया और सुरेंद्र से पूछा. “मैं खा लूं?”
“हां हां… एक नहीं सब खा लो!”
सुरेंद्र ने छुरी उठाई और मालटा छीलने लगा, मगर लड़की ने उससे दोनों चीज़ें ले लीं.
“मैं ख़ुद छीलूंगी!”
उसने बड़ी नफ़ासत से मालटा छीला. उसके छिलके उतारे. फांकों पर से सफ़ेद सफ़ेद झिल्ली हटाई. फिर फांकें अलाहदा कीं. एक फांक सुरेंद्र को दी, दूसरी अपने मुंह में डाली और मज़ा लेते हुए पूछा. “तुम्हारे पास पिस्तौल है?”
सुरेंद्र ने जवाब दिया. “हां… तुम्हें क्या करना है?”
लड़की के गहरे सांवले होंठों पर फिर वही अजीब-ओ-ग़रीब मुस्कुराहट नुमूदार हुई “मैं ने ऐसे ही पूछा था… तुम जानते होना कि आज-कल हिंदू मुस्लिम फ़साद हो रहे हैं.”
सुरेंद्र ने दूसरा मालटा तश्तरी में से उठाया. “आज से हो रहे हैं… बहुत दिनों से हो रहे हैं… मैं अपने पिस्तौल से चार मुस्लमान मार चुका हूं… बड़े ख़ूनी क़िस्म के!”
“सच्च?” ये कह कर लड़की उठ खड़ी हुई. “मुझे ज़रा वो पिस्तौल तो दिखाना!”
सुरेंद्र उठा. दूसरे कमरे में जाकर उसने अपने मेज़ का दराज़ खोला और पिस्तौल लेकर बाहर आया. “ये लो… लेकिन ठहरो!” और उस ने पिस्तौल का सेफ़्टी कैच ठीक कर दिया क्यूं कि उसमें गोलियां भरी थीं.
लड़की ने पिस्तौल पकड़ा और सुरेंद्र से कहा. “मैं भी आज एक मुस्लमान मारूंगी” ये कह कर उस ने सेफ़्टी कैच को एक तरफ़ किया और सुरेंद्र पर पिस्तौल दाग़ दिया…वो फ़र्श पर गिर पड़ा और जान कुनी की हालत में कराहने लगा. “ये तुमने क्या किया?”
लड़की के गहरे सांवले होंठों पर मुस्कुराहट नुमूदार हुई. “वो चार मुसलमान जो तुमने मारे थे, उनमें मेरा बाप भी था!”
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