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वरना हम भी आदमी थे काम के: एक शायर के इश्क़ की चटपटी कहानी (लेखक: भगवतीचरण वर्मा)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 13, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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bhagwaticharan-Verma_Kahani
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इश्क़ किसी भी उम्र में और किसी से भी हो सकता है. पर उसका परिणाम हर उम्र के लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है. क्या होता है, जब एक अधेड़ उम्र के शायर अपनी ज़िम्मेदारियां छोड़, इश्क़ में पड़ते हैं.

लोग मुझे कवि कहते हैं, और ग़लती करते हैं; मैं अपने को कवि समझता था और ग़लती करता था. मुझे अपनी ग़लती मालूम हुई मियां राहत से मिलकर, और लोगों को उनकी ग़लती बतलाने के लिए मैंने मियां राहत को अपने यहां रख छोड़ा है.
मियां राहत वास्तव में कवि हैं. वह नामी आदमी नहीं हैं. उनका कोई दीवान अभी तक नहीं छपा, और शायद कभी छपेगा भी नहीं. मुशायरों में वह नहीं जाते, या यों कहिए कि मुशायरों में वह नहीं पढ़ते. एक बार मुशायरे में उन्होंने अपनी ग़ज़ल पढ़ी, तो उनको इतनी दाद मिली कि बेचारे घबरा गए, और उस दिन से मुशायरों में न पढ़ने की कसम खा ली. और, दूर की नहीं हांकते, पर फिर भी वह कवि हैं, इतने बड़े कि आजकल के नामी-नामी शायर सब एक साथ उन पर न्यौछावर किए जा सकते हैं.
यदि आप चालीस-पचास साल के एक ऐसे आदमी को मेरे बंगले के बरामदे में देखें, जो लम्बा-सा और किसी हद तक मोटा-सा कहा जा सके, जिसका चेहरा गोल, भरा हुआ और उस पर चेचक के दाग, मूंछ नदारद, लेकिन दाढ़ी तोंद तक पहुंचती हुई, सिर पर पट्टे और बाल बीच से खिंचे हुए, आंखें बड़ी-बड़ी, ऊपर उभरी हुई और उनमें सुरमा लगा हुआ, चिकन का कुरता और लंकलाट का गरारेदार पाजामा पहने हुए हों तो आप समझ लें कि यही मियां राहत हैं. वह आपसे झुककर सलाम करेंगे, अदब के साथ आपका नाम पूछेंगे, आपको कुर्सी पर बिठालकर मुझे आपकी इत्तिला देंगे, और फिर धीरे से वहां से खिसक जाएंगे. आप उनको मेरा नौकर किसी हालत में नहीं समझ सकते, और मैं उनसे मालिक का बर्ताव करता भी नहीं हूं. मैं उनकी इज्जत करता हूं, बुजुर्ग की तरह उन्हें मानता हूं.
मियां राहत से मेरी मुलाकात तीन साल पहले हुई थी. यों तो इसके पहले से मैं उन्हें देखता आता था, पर उस समय मुझे उनके नाम और उनकी ख़ूबियों का पता न था. इलाहाबाद के स्टेनली रोड और कैनिंग रोड के चौराहे पर, खाकी वर्दी पहने और लाल पगड़ी बांधे हुए मियां राहत को मैंने सवारियों को रास्ता बतलाते हुए देखा था. इक्केवाले झुककर मियां राहत को सलाम करते थे और उनकी कुशल-क्षेम पूछते थे, और मियां राहत मुस्कुराकर उन सबको जवाब देते थे. साथ ही इक्के और तांगेवाले, उलटे-सीधे, दाएं-बाएं जहां से तबीयत होती थी, इक्का-तांगा ले जाते थे.
मुझे शक था कि मियां राहत शायर अवश्य होंगे. कभी-कभी सवारियों को अपने भाग्य पर छोड़कर मियां राहत एक नोटबुक और एक पेंसिल लिए हुए चौराहे के एक कोने में नज़र आते थे. कभी-कभी वह अपनी पेंसिल से नोटबुक में कुछ दर्ज भी कर लेते थे. पहले तो मैंने समझा, मियां राहत किसी का चालान कर रहे हैं, लेकिन जब मैंने उनका गुनगुनाना सुना, तो बात समझ में आ गई.
उस दिन मैं सिविल लाइंस में घूमने जा रहा था. शाम का समय था, इलाहाबाद के शौक़ीन रईस अपनी-अपनी मोटरें लेकर घूमने को निकल पड़े थे. स्टेनली रोड और कैनिंग रोड के चौराहे पर जब मैं पहुंचा, तब पैर आप-ही-आप रुक गए. आंखों ने मियां राहत को ढूंढ़ ही तो निकाला. एक किनारे खड़े हुए मियां राहत कागज पर अपनी पेंसिल चला रहे थे. रुककर मैं मियां राहत को देखने लगा. इसी समय चौक की तरफ़ से एक कार तेज़ी के साथ आई और अपनी दाहिनी ओर आई मियां राहत पर चढ़ती हुई. कार की स्पीड साठ मील प्रति घंटे से कम न रही होगी.
मियां राहत अपनी नोटबुक और पेंसिल के साथ इतने मशगूल थे कि उन्हें कार के आने की ज़रा भी ख़बर न थी. मैंने ख़तरे को देखा और ज़ोर से चिल्ला उठा-मियां भागो, नहीं तो जान गई.
मियां राहत उछले लेकिन कार इस तेज़ी के साथ चल रही थी कि उनके हटते-हटते उसके अगले मडगार्ड का झोंका मियां राहत के लग ही तो गया, और राहत ‘लाहौल विलाकूबत’ कहते हुए ज़मीन पर आ गए. मैं दौड़ा और कार भी थोड़ी दूर चलकर रुक गई. मैंने मियां राहत को उठाया, चोट न आई थी, सिर्फ़ घुटने और कोहनी कुछ छिल गए थे. उठते ही मियां राहत ने अपनी पगड़ी दुरुस्त की और वर्दी से धूल झाड़ी. उस समय कार से एक चौबीस-पच्चीस वर्ष की युवती उतरकर मियां राहत के पास आई. बहुत सुन्दर, गोरी और यौवन-भार से लदी हुई. मुस्कुराते हुए उसने मियां राहत से पूछा,“चोट तो नहीं लगी?”
मियां राहत ने प्रायः दस सेकेंड तक बड़ी गम्भीरतापूर्वक उस युवती को देखा, इसके बाद वह भी मुस्कुराए,“नहीं, चोट तो कोई ऐसी नहीं लगी, लेकिन ज़रा देख-भालकर मोटर चलाया कीजिए.”
युवती ने पांच रुपए का नोट मियां राहत को देते हुए कहा,“हां, अभी हाल में ही मोटर चलानी सीखी है. लो, अपने बचने की खैरात बांट देना.”
अपने हाथ हटाकर जेब में डालते हुए मियां राहत ने अपना मुंह फेर लिया,“मिस साहब, मेरी क्या? मैं तो आप लोगों का ग़ुलाम हूं, आप लोगों पर अपनी जान न्यौछावर करने में भी मैं फ़ख्र समझूंगा. आप ही, अपनी इस ख़ुशकिस्मती पर कि इस चौराहे पर मैं था, यह खैरात बांट दीजिएगा.”
वह युवती मुस्कुराती हुई चल दी. मियां राहत ने उसे झुककर सलाम किया, इसके बाद उन्होंने अपनी नोटबुक और पेंसिल उठाई. मैंने पूछा,“मियां, तुमने इनका चालान क्‍यों नहीं किया ?”
मियां राहत बोले,“क्या करूं बाबू साहब, दिल गवाही नहीं देता. इन परीजादों की तो परस्तिश करनी चाहिए, और आप चालान करने की बात कहते हैं,” इतना कहकर मियां राहत और कोने में खिसल गए, और नोट-बुक तथा पेंसिल का झगड़ा सुलझाने लगे. मैं वहां से चल दिया, पर चलते-चलते मुझे ये दो पंक्तियां सुनाई पड़ीं, जो शायद मियां राहत ने उसी समय बनाकर नोटबुक में दर्ज की थी:
किसी हसीन की मोटर से दब के मर जाना
ये लुत्फ यार, हमारे नसीब ही में न था.
न जाने क्‍यों उस दिन के बाद से मेरे हृदय में मियां राहत के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई. मियां राहत मेरे यहां प्रायः आया करते थे और घंटों मुझे अपनी कविता सुनाते थे. मैं उनकी कविता समझता भी था, और उनकी काफ़ी दाद देता था.
इस घटना को हुए दो मास हो गए थे. सत्याग्रह-संग्राम ज़ोर से चल रहा था. कई दिनों से मियां राहत मेरे यहां न आए थे. एक दिन शाम के वक़्त मैं बरामदे में बैठा हुआ एक किताब पढ़ रहा था कि मियां राहत आए. उनकी मुद्रा देखकर मैं घबरा गया-आंखें डबडबाई हुईं, चेहरा पीला और पैर लड़खड़ा रहे थे. मैंने पूछा,“मियां राहत! खैरियत तो है? यह तुम्हारी क्या हालत, क्या बीमार तो नहीं रहे?”
कुर्सी पर बैठते हुए उन्होंने कहा,“बाबू साहब! उफ्‌ बाबू साहब!” इसके बाद वह लगातार ठंडी सांस भरने लगे.
मैं वास्तव में घबरा गया. मैंने पूछा,“क्या कुछ तबीयत खराब है ?”
“नहीं,” मियां राहत ने एक ठंडी सांस ली.
“तुम्हारे बीवी-बच्चे तो अच्छी तरह हैं?”
“हां,” मियां राहत ने फिर एक ठंडी सांस ली.
“अरे भाई, बतलाते क्यों नहीं कि क्या हुआ ?”
मियां राहत ने बहुत करुण स्वर में आरम्भ किया,“बाबू साहब, उस दिन की बात तो आपको याद है, जिस दिन मैं मोटर से दबते-दबते बचा था.”
“हां-हां. भला, उस दिन की बात मैं भूल सकता हूं!”
“बाबू साहब, उस दिन जो मिस साहब मोटर चला रही थीं, वह कांग्रेस में काम करती हैं!”
“हां, यह तो मैं जानता हूं. उनका नाम सुशीलादेवी है न?”
‘‘हैं बाबू साहब! यही नाम है. आज वह गिरफ़्तार हो गईं.”
“तो फिर इससे क्‍या?”
“क्या बतलाऊं बाबू साहब! मुझे भी दारोगा साहब के साथ उन्हें गिरफ़्तार करने के लिए जाना पड़ा था,” मुझे ऐसा मालूम पड़ा कि मियां राहत रोनेवाले हैं.
थोड़ी देर तक चुप रहने के याद मियां राहत ने फिर कहा,“बाबू साहब! यह सरकारी नौकरी बड़ी खराब है. इसमें अपनी रूह को चांदी के चन्द टुकड़ों पर बेच देना पड़ता है. जानते हैं बाबू साहब, आज मैंने अपनी रूह का गला घोंटकर कितना बड़ा गुनाह किया?”
मैंने कहा-“मियां राहत ! इस सोच-विचार से कुछ फायदा नहीं. तुम नौकर हो, तुमने अपना फ़र्ज़ अदा किया. इसी के लिए तो तुम तनख़्वाह पाते हो!”
मियां राहत चिल्ला उठे,“मैं यह तनख़्वाह नहीं चाहता, इस ग़ुलामी से मैं आजिज आ गया हूं.”
मैंने देखा, मियां राहत की भावुकता ज़ोरों के साथ उमड़ी हुई है, और रंग बिगड़ा हुआ है.
मैंने कहा,“मियां, तुम्हारी बीवी है, बच्चे हैं. उनका पेट भरना तुम्हारा फ़र्ज़ है. उनसे भी कभी पूछा है कि वे तनख़्वाह चाहते हैं या नहीं. जाओ, अपना काम करो.”
बीवी और बच्चों का नाम सुनते ही मियां राहत की उमड़ती हुई भावुकता पर ब्रेक लग गया. “क्या करूं बाबू साहब, कुछ समझ में नहीं आता.” इस बार उन्होंने एक बहुत गहरी सांस ली, और उनकी आंख से दो आंसू टपक पड़े.
दूसरे दिन शाम के समय जब मैं काम से लौट रहा था, तो मियां राहत के मकान के सामने से निकला. वहां जो दृश्य देखा वह जीवन-भर कभी न भूलूंगा. मियां राहत ज़मीन पर सिर झुकाए बैठे थे और उनकी बीवी उनके सिर पर बिना गिने हुए तड़ातड़ चप्पलें लगा रही थी. बीवी रो-रोकर कह रही थी,“निगोड़ा, कलमुंहा कहीं का. नौकरी छोड़ आया, हम लोगों को भूखा मारने के लिए. ले, नौकरी छोड़ने का मज़ा ले!”
मियां राहत की आंखों से टप-टप आंसू गिर रहे थे, और वह यह शेर बेर-बेर गा-गाकर पढ़ रहे थे:
इश्क़ ने हमको निकम्मा कर दिया;
वरना हम भी आदमी थे काम के.

Illustration: Pinterest

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