सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी गई एक प्रेम कहानी, जिसका अंत बेहद दुखद होता है. क्यों शादी के बाद प्यार, प्यार नहीं रह जाता?
छाया, प्रमोद की सहपाठिनी थी. प्रमोद, नगर के एक प्रतिष्ठित और कुलीन ब्राह्मण परिवार का लड़का था. और छाया? छाया थी नगर की एक प्रसिद्ध नर्तकी की इकलौती कन्या. नगर में एक बहुत बड़ा राधाकृष्ण का मंदिर था, जहां न जाने कितना सदाव्रत रोज़ बंट जाता था; सैकड़ों साधु-संत मंदिर में पड़े-पड़े भगवद्भजन करते, मनमाना भोजन करते और करते मनमाना अनाचार.
छाया की मां इसी मंदिर की प्रधान नर्तकी थी. मंदिर को छोड़कर दूसरी जगह वह गाने-बजाने कभी न जाती. मंदिर के प्रधान पुजारी की उस पर विशेष कृपा थी, इसीलिए उसे किसी बात की कमी न थी. गंगा के किनारे उसकी विशाल कोठी थी, जहां से सदा संगीत की मधुर ध्वनि आया करती. नगर के संगीत-प्रेमी जब स्वयं ही उसके यहां पहुंच जाते, तो राजरानी उन्हें निराश न करती; किंतु वह किसी के यहां बुलाने पर गाने के लिए नहीं जाती थी. छाया इसी राजरानी की इकलौती कन्या थी. राजरानी की सारी आशाएं इसी कन्या के ऊपर अवलंबित थीं. विद्याध्ययन की ओर छाया की अधिक रुचि देखकर राजरानी ने उसे स्कूल में भरती करवा दिया.
छाया नगर की कुछ पुरानी प्रथा के अनुयायियों के विरोध करने पर भी कुलीन घर की लड़कियों के साथ पढ़ते-पढ़ते कॉलेज तक पहुंच गई. और जिस दिन पहले-पहल वह कॉलेज पहुंची, प्रमोद से उसकी पहचान हो गई. यह पहचान, पहचान ही बनकर न रह सकी; धीरे-धीरे वह मित्रता में परिवर्तित हुई और अंत में उसने प्रणय का रूप धारण कर लिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि परिवार वालों का विरोध, तिरस्कार और प्रताड़ना न तो प्रमोद को ही उसके पथ से विचलित कर सका न छाया को. विवाह के लिए उन्हें कोर्ट का सहारा लेना पड़ा. कोर्ट में रजिस्ट्री होने के बाद आर्य-समाज मंदिर में उनका विवाह वैदिक रीति से संपन्न हुआ. अग्नि को साक्षी देकर वह दोनों पति-पत्नी के पवित्र बंधन में बंध गए.
बचपन से ही कुलीन घर की लड़कियों के साथ मिलते-जुलते रहने के कारण उनके रीति-रिवाजों को देखते-देखते छाया के हृदय में एक कुल-वधू का जीवन बिताने की प्रबल उत्कंठा जाग्रत हो उठी थी. प्रमोद के साथ विवाह-सूत्र में बंधकर छाया ने उसी सुख का अनुभव किया.
वह एक कुल-वधू की ही तरह प्रमोद के इशारों पर नाचना चाहती थी. प्रमोद के नहा चुकने पर अपने हाथ से ही वह प्रमोद के कपड़े धोती, अभ्यस्त न होने पर भी दोनों समय प्रमोद के लिए वह अपने ही हाथ से भोजन बनाती; और थाली परोसने के बाद जब तक प्रमोद भोजन करते, वह उन्हें पंखा झला करती. प्रमोद के भोजन कर चुकने के बाद उनकी जूठी थाली में भोजन करने में वह एक अकथनीय सुख का अनुभव करती.
इसके पहले इस प्रकार काम करने का उसके जीवन में कभी अवसर न आया था, किंतु धीरे-धीरे उसने अपने आपको ऐसा अभ्यस्त कर लिया कि उसे कोई काम करने में कठिनाई न पड़ती. राजरानी को पुत्री की परिस्थितियों का पता लगता ही रहता था. वह सोचती कि मेरे साथ रहकर छाया यहां रानियों की तरह हुकूमत कर सकती थी, बड़े-बड़े विद्वान, रईस तक यहां आकर, उसकी कदमबोसी कर जाया करते; किंतु उसकी तो मति ही पलट गई है. अपने आप ही उसने दासियों का-सा जीवन स्वीकार कर लिया है.
छाया को किसी प्रकार फिर से अपने चंगुल में फांस लेने के प्रयत्न में वह अब भी लगी रहती. वह सोचती ऐश-आराम में पली हुई लड़की कितने दिनों तक कष्ट का जीवन बिता सकेगी? कभी-न-कभी चेतेगी और आवेगी! किंतु छाया? छाया तो माता के घर के ऐश-आराम को घृणा की दृष्टि से देखती थी. यहां वह इस कष्ट में भी जिस सुख का अनुभव करती, उसकी आत्मा को जितनी शांति मिलती थी, उस रूप के हाट में, उस वैभव की चकाचौंध में उसके शतांश का भी स्वप्न देखना छाया के लिए दुराशा मात्र थी. छाया प्रमोद के विशुद्ध और पवित्र प्रेय के ऊपर संसार की सारी विभूतियों को निछावर कर सकती थी. प्रमोद के साथ यह छोटा-सा मकान उसे नंदन-वन से भी अधिक सुहावना जान पड़ता था. सारांश यह कि छाया को कोई इच्छा न थी. प्रमोद का प्यार और उनके चरणों की सेवा का अधिकार वह सब कुछ पा चुकी थी.
प्रमोद के विवाह के बाद, प्रमोद के माता-पिता ने उन्हें अपने परिवार में सम्मिलित नहीं किया. अपने इकलौते बेटे को त्याग देने में उन्हें कष्ट बहुत था, किंतु प्रमोद के इस कृत्य ने समाज में उनका सिर नीचा कर दिया था; अतएव वह प्रमोद को क्षमा न कर सके. स्वाभिमानी प्रमोद ने भी माता-पिता से क्षमा की याचना न की; अपनी समझ में उन्होंने कोई बुरा काम न किया था. इसलिए शहर में ही पिता ने कई मकानों के रहने पर भी वे किराए के मकान में रहने लगे. परिवार और समाज ने प्रमोद को त्याग दिया था; किंतु उनके कुछ अपने ऐसे मित्र थे जो उन्हें इस समय भी अपनाए हुए थे. अपने इस छोटे से, इने-गिने मित्रों के संसार में छाया के साथ रहकर प्रमोद को अब और किसी वस्तु की आवश्यकता न थी.
आर्थिक कठिनाइयां कभी बाधा बनकर उनके इस सुख के सामने खड़ी हो जाएंगी, प्रमोद को इसका ध्यान भी न था. कॉलेज के प्रोफेसरों और प्रिंसिपल की उनके साथ बड़ी सहानुभूति थी. उनका आचरण कॉलेज में बड़ा उज्ज्वल रहा था और वे परीक्षाओं में सदा पहले ही आए थे. इसलिए वह थोड़ा प्रयत्न करने पर वहां प्रोफेसर हो सकते थे. परंतु सुख की आत्मविस्मृति तक बाह्य आवश्यकताओं की पहुंच कहां?
कॉलेज में एक हिंदी के प्रोफेसर का स्थान खाली भी हुआ, किंतु प्रमोद अपने सुख में इतना भूल गए थे कि उन्हें और किसी बात का स्मरण ही न रहा. उनके मित्रों और छाया ने एक-दो बार उनसे इस पद के लिए प्रयत्न करने के लिए कहा भी; किंतु उनका यह उत्तर सुनकर ‘छाया, क्यों मुझे अपने पास से दूर भगा देना चाहती हो’ छाया चुप हो गई. उसे अधिक कहने का साहस न हुआ. वह प्रमोद के भावुक स्वभाव से भली-भाँति परिचित थी. छोटी-छोटी साधारण बातों का भी उनके हृदय पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता था.
यौवन-जनित उन्माद और लालसाएं चिरस्थायी नहीं होतीं. इस उन्माद के नशे में जिसे हम प्रेम का नाम दे डालते हैं वह वास्तव में प्रेम नहीं, किंतु वासनाओं की प्यास मात्र है. लगातार छह महीने तक छाया के साथ रहकर अब प्रमोद की आंखों में भी छाया के प्रेम और सौंदर्य का वह महत्व न रह गया था जो पहले था. अब वह नशा कहां था? उन्हें अपने कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान हुआ, उन्हें अब ऐसा जान पड़ता जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ी भूल कर डाली है. आर्थिक कठिनाइयां भी उन्हें पद-पद पर शूल की तरह कष्ट पहुंचा रही थीं.
इसके अतिरिक्त माता-पिता के स्नेह का अभाव उन्हें अब बहुत खटक रहा था. उनका चित्त व्याकुल-सा रहता, बार-बार उस स्नेह की शीतल छाया में दौड़कर शांति पाने के लिए उनका चित्त चंचल हो उठता. माता-पिता के स्नेह में जो शीतलता, ममता का मधुर दुलार और जो एक प्रकार की अनुपम शांति मिलती है, वह उन्हें छाया के पास न मिलती छाया के प्रेम में उन्हें सुख मिलता था, शांति नहीं; स्नेह मिलता, पर शीतलता नहीं; आनंद मिलता पर तृप्ति नहीं.
हां, प्यास और तीव्र होती जान पड़ती. आनंद और सुख के जलन की मात्रा अधिक मालूम होती. वे माता-पिता के स्नेह के लिए अत्यधिक विकल रहते; किंतु जब माता-पिता ने ही उन्हें अपने प्रेम के पलने से उतारकर अलग कर दिया, तब स्वयं उनके पास जाकर उनके प्रेम और दया की भिक्षा मांगना प्रमोद के स्वाभिमानी स्वभाव के विरुद्ध था. प्रमोद का स्वास्थ्य भी अब पहले जैसा न रह गया था. दुश्चिंताओं और आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे बहुत कृश और विक्षिप्त-से रहते.
समाज में भी अब वह मान-प्रतिष्ठा न थी. हर स्थान पर उनके इसी विवाह की चर्चा सुनाई पड़ती. प्रमोद के इस कार्य से ही नहीं, स्वयं प्रमोद से भी किसी को किसी प्रकार की कोई सहानुभूति न रह गई थी. सब लोग प्रायः यही कहते कि प्रमोद दो ही तीन साल के बाद अपने इस कृत्य पर पछताएगा ….यह विवाह प्रमोद-सरीखे विवेकी और विद्वान् युवक के अनुकूल नहीं हुआ…ठहरी तो आखिर वेश्या की ही लड़की न? कितने दिन तक साथ देगी? वेश्याएं भी किसी की होकर रही हैं, या यही रहेगी?…
इस प्रकार न जाने कितने तरह के आक्षेप प्रमोद के सुनने में आते. इन सब बातों को सुन-सुनकर प्रमोद की आत्मा विचलित-सी हो उठी. उन्हें इन सब बातों का मूल कारण छाया ही जान पड़ती. वे सोचते, कहां से मेरी छाया से पहचान हुई? न उससे मेरी पहचान होती और न विपत्तियों का समूह इस प्रकार मुझ पर टूट पड़ता.
वे अब छाया से कुछ खिंचे-खिंचे से रहने लगे. उनके प्रेम में अपने आप शिथलता आने लगी. छाया का मूल्य उनकी आंखों में घटने लगा, पर प्रमोद स्वयं ये सब चाहते न थे. छाया में वेश्या की लड़की होने के अतिरिक्त और कोई अवगुण मिलता न था. वे विवश थे. हृदय के ऊपर किसका वश चला है? वे अपने व्यवहार पर स्वयं ही कभी-कभी दुःखित हो जाते, फिर वही भूल करते. कभी-कभी औरों के सामने भी छाया से वह ऐसा व्यवहार कर बैठते जो अनुचित कहा जा सकता था.
छाया, सुख की छाया में ही पलकर बड़ी हुई थी. अपमान, अनादर और तिरस्कार के ज्वालामय संसार से वह परिचित न थी. अब पद-पद पर उसे प्रमोद से प्रेम के कुछ मीठे शब्दों के स्थान पर तिरस्कार से भरा हुआ अपमान ही मिलता था. प्रमोद के इस परिवर्तन के बाद भी छाया ने समझ लिया था कि प्रमोद के हृदय में उसने एक ऐसा स्थान बना लिया है जिस तक किसी और की पहुंच नहीं है, उसे इसी में संतोष था. एक कुल-वधू इसके अतिरिक्त और चाहती ही क्या है?
पत्नी के रूप में पहुंचकर छाया ने अपना अस्तित्व ही मिटा दिया था. प्रमोद के चरणों में उसके लिए थोड़ा-सा स्थान बना रहे, यही उसकी साधना थी, और इस साधना के बल पर ही वह प्रमोद का किया हुआ अपमान और तिरस्कार हंसकर सह सकती थी. उसके ऊपर उस अपमान और तिरस्कार का अधिक प्रभाव न पड़ता. प्रमोद के ज़रा हंसकर बोलने पर वह सब कुछ भूल जाती थी. उसे कुछ याद रहता तो केवल प्रमोद का मधुर व्यवहार.
प्रमोद के माता-पिता आखिर पुत्र को कितने दिनों तक छोड़कर रह सकते थे? और अब तो प्रमोद के साथ-साथ उन्हें छाया पर भी ममता हो गई थी. उनका क्रोध महीने, डेढ़ महीने से अधिक न ठहर सका. वह समाज के पीछे अपने प्यारे पुत्र को नहीं छोड़ सकते थे. हृदय कहता था, चलो मना लाओ, बेटा आत्माभिमानी है तो पिता को नम्र होना चाहिए, किंतु आत्माभिमान आकर उसी समय गला पकड़ लेता, पुत्र के दरवाज़े स्वयं उसे मनाने के लिए जाना, उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल न जान पड़ता. फिर पुत्र ही तो है, यदि वह पिता के पास तक आ जाए तो क्या उसकी शान में फ़र्क आ जाएगा?
सारांश यह कि चन्द्रभूषण और सुमित्रा अब बहू-बेटे के लिए व्याकुल होते हुए भी उन्हें बुला न सके. एक दिन एक व्यक्ति ने आकर कहा कि प्रमोद बहुत दुबला हो गया है और कुछ बीमार-सा है. माता का हृदय पानी-पानी हो गया. उसने उसी समय एक नौकर के हाथ कुछ रुपए भेजकर कहला भेजा कि प्रमोद आकर उनसे मिल जाए. रुपए तो प्रमोद ने ले लिए क्योंकि उन्हें आवश्यकता थी; परंतु वे घर न जा सके. उन्होंने समझा मां ने पिता की चोरी से घर में बुलवाया है, इसलिए जिस घर में वे पैदा हुए, जहां के जलवायु में पलकर इतने बड़े हुए, उसी घर में चोर की तरह जाना उन्हें भाया नहीं. वे नहीं गए; जाना अस्वीकार कर दिया.
इससे सुमित्रा को बड़ा दुःख हुआ. वे उठते-बैठते चन्द्रभूषण से इस बात का आग्रह करने लगी कि वे प्रमोद को स्वयं लेने जाएं, उसे मनाने में उनकी प्रतिष्ठा न कम पड़ेगी. दशरथ ने बेटे के लिए प्राण दे दिए थे. यहां तो ज़रा से सम्मान की ही बात है. पिता का हृदय तो स्वयं ही पुत्र के लिए विकल हो रहा था. वे तो स्वयं चाहते थे. अब सारी ज़िम्मेदारी सुमित्रा के सिर पर छोड़कर वे पुत्र को मनाने चले. कहीं छाया पैर छूने आई तो?… लाख वेश्या की लड़की है पर अब तो मेरी पुत्र-वधू है… क्या मैं ख़ाली हाथ ही पैर छुआ लूंगा?… सराफे की ओर घूम गए. वहां एक जोड़ी जड़ाऊ कंगन ख़रीदे और जेब में रखकर दस क़दम भी न चल पाए थे कि सामने से प्रमोद आते हुए दिखे.
चन्द्रभूषण के पैर रुक गए, प्रमोद भी ठिठके. झुककर उन्होंने पिता के पैर छू लिए. चन्द्रभूषण की आंखों से गंगा-जमुना बह निकली. प्रमोद के भी आंसू न रुक सके. दोनों कुछ देर तक इसी प्रकार आंसू बहाते रहे. कोई बातचीत न हुई? अंत में, गला साफ़ करते हुए चन्द्रभूषण ने कहा, घर चलो बेटा! तुम्हारी अम्मा रात-दिन तुम्हारे लिए रोया करती है.
प्रमोद ने कोई आपत्ति न की. चुपचाप पिता के साथ घर चले गए.
उस दिन वे बहुत रात घर लौटे. उनकी बाट जोहते-जोहते छाया भूखी-प्यासी सो गई थी. जब प्रमोद अपने कमरे में पहुंचे तो बारह बज रहे थे. इस समय छाया को जगाना उन्होंने उचित नहीं समझा. विलंब से लौटने का दुःख था, जबकि वे भोजन कर चुके थे और छाया उनकी प्रतीक्षा में भूखी ही सो गई थी. उन्हें छाया के ऊपर दया आई, उसके सिर पर हाथ फेरते-फेरते वे नींद की प्रतीक्षा करने लगे. छाया गाढ़ी निद्रा में सोई थी. उसके चेहरे पर कभी हंसी और कभी विषाद की रेखा खिंच जाती थी. प्रमोद यह देख रहे थे. आज उन्हें अपने कटु व्यवहार तीर की तरह चुभने लगे. इसी सोच-विचार में वे सो गए. छाया की भी नींद खुली; घड़ी की ओर देखा डेढ़ बज रहे थे. पास ही प्रमोद सुख की नींद ले रहे थे. वह बड़ी व्याकुल हुई, उसने अपने आपको न जाने कितना घिक्कारा, ऐसी नींद भी भला किस काम की? वे आए और भूखे-प्यासे सो रहे और यह निगोड़ी आंखें न खुलीं! यह सदा के लिए बंद न हुई थीं न? कभी-न-कभी खुलने के ही लिए तो मुंदी थीं? फिर खुलने के समय पर क्यों न खुलीं?’…इसी प्रकार अनेक विचार उसके मस्तिष्क में आ-आकर उसे विकल करने लगे. छाया फिर सो न सकी. बाक़ी रात उसने करवट बदलते ही बिताई.
सवेरे उठकर उसने प्रमोद का कोट टटोला. उसकी जंजीर ज्यों-की-त्यों पड़ी थी. दूसरी जेब में पच्चीस रुपए भी थे, जंजीर बेची भी नहीं, गिरवी भी नहीं रखी; फिर ये रुपए कहां से आए? प्रयत्न करने पर भी छाया इस उलझन को न सुलझा सकी.
सवेरे प्रमोद सोकर उठे तब उनका चेहरा और दिनों की अपेक्षा अधिक प्रसन्न था. उठने पर उन्होंने छाया से पिता की मुलाक़ात, अपने घर जाने की बात और वहां के सब लोगों के व्यवहार और बर्ताव सभी बतलाए. छाया सुनकर प्रसन्न हुई, किंतु उस घर में छाया भी प्रवेश कर सकेगी या नहीं, न तो इसके विषय में प्रमोद ने कुछ कहा और न ही छाया को पूछने का साहस हुआ. अब प्रमोद की दिनचर्या बदल गई थी. वह सबेरे से उठते ही अपनी मां के पास चले जाते, वहीं हाथ-मुंह धोते, वहीं दूध पीते; फिर अख़बार पढ़ते-पढ़ाते; मित्रों से मिलते-जुलते वे क़रीब ग्यारह-बारह बजे घर लौटते. इस समय उन्हें घर आना ही पड़ता, क्योंकि छाया उन्हें भोजन कराए बिना खाना न खाती थी. छाया को अब प्रमोद के सहवास का अभाव बहुत खटकता था. किंतु वह प्रमोद से कुछ कह न सकती थी. वह कुछ ऐसा अनुभव करती थी जैसे प्रमोद के चरणों पर अपना सर्वस्व निछावर करके भी वह प्रमोद को उस अंश तक नहीं पा सकती है. जितना एक सहधर्मिणी का अधिकार होता है.
***
इसी प्रकार छह महीने और बीत गए. आज वही तिथि थी जिस दिन छाया और प्रमोद विवाह के पवित्र बंधन में बंधकर एक हुए थे. वह आज बड़ी प्रसन्न थी. सबेरे उठते ही उसने स्नान किया. एक गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी पहनी. जो कुछ आभूषण थे वह सब पहनकर, वह प्रमोद के उठने की प्रतीक्षा करने लगी. प्रमोद उठे और उठकर प्रतिदिन के नियम के अनुसार पिता के घर जाने लगे. छाया ने पहले तो उन्हें रोकना चाहा किंतु फिर कुछ सोचकर बोली,‘आज ज़रा जल्दी लौटना.’
‘क्यों कोई विशेष काम है?’ प्रमोद ने पूछा.
‘आज अपने विवाह की वर्षगांठ है.’ कुछ प्रसन्नता और कुछ संकोच के साथ छाया ने उत्तर दिया.
‘ऊंह, होगी! उपेक्षा से कहते हुए प्रमोद ने साइकिल उठाई और वे चल दिए.
छाया की आंखें डबडबा आईं. वह कातर दृष्टि से प्रमोद की ओर तब तक देखती रही जब तक वे आंखों से ओझल न हो गए. फिर भीतर आकर अन्यमनस्क भाव से घर के काम-काज में लग गई.
भोजन में आज उसने कई चीजें, जो प्रमोद को बहुत पसंद थीं, बनाईं; किंतु इधर भोजन का समय निकल जाने पर भी प्रमोद घर न लौटे तो वह चिंतित-सी हुई. उससे रहा न गया, उठकर वह प्रमोद के घर की तरफ चली. जहां न जाना चाहती थी वहीं गई, जो कुछ न करना चाहती थी, वही किया. घर के सामने पहुंचकर उसने देखा कि चन्द्रभूषण तख्त पर बैठे हैं. छाया को देखते ही वे कुछ स्तंभित से हुए; किंतु तुरंत ही आदर भाव प्रदर्शित करते हुए बोल उठे,‘आओ बेटी! कैसे आई हो; आओ बैठो.’
छाया को ससुर से इस सद्व्यवहार की आशा न थी. वह उनके इस व्यवहार पर बड़ी प्रसन्न हुई. उसकी समझ में न आता था कि वह प्रमोद के विषय में कैसे पूछे. इसी पसोपेश में वह कुछ देर चुपचाप खड़ी रही. अंत में अपने सारे साहस समेटकर उसने पूछा, वे कहां हैं?
‘किसे, प्रमोद को पूछती हो? वह तो इधर कल शाम से ही नहीं आया, पर हां, वह प्रायः मिस्टर अग्रवाल के यहां बैठा करता है. तुम ठहरो, मैं उसे बुलवाए देता हूं,’ चन्द्रभूषण ने उत्तर दिया.
उधर प्रमोद की मां दरवाज़े की आड़ से खड़ी-खड़ी छाया को निहार रही थी और मन-ही-मन सोच रही थी, कैसी चांद-सी है; चाल-ढाल से भी कुलीन घर की बहू-बेटियों से कुछ अधिक ही जंचेगी, कम नहीं. बातचीत का ढंग कितना अच्छा है. स्वर कितना कोमल और मधुर है. चूल्हे में जाए वह समाज जिसके कारण मैं इस हीरे के टुकड़े को अपने घर में अपनी आंखों के सामने नहीं रख सकती.
छाया फिर बोली, आप उन्हें न बुलवाकर मुझे ही वहां पहुंचवा दें?
अच्छी बात है, कहके चन्द्रभूषण अपने एक विश्वासपात्र नौकर के साथ छाया को मिस्टर अग्रवाल के घर भेजकर भीतर आए, पत्नी से कहा, ‘वह लड़की जिसके साथ तुम्हारे बेटे ने ब्याह किया है आज आई थी.’
पत्नी ने तिरस्कार के स्वर में कहा,‘वह बेचारी तो तुम्हारे दरवाज़े तक आई और तुमसे इतना भी न बन पड़ा कि उसे घर के भीतर तक लिवा लाएं?’
चन्द्रभूषण सिर खुजाने लगे,‘वाह! मैंने तो तुम्हारे ही डर के मारे नहीं बुलाया; नहीं तो बुलाने को क्या हुआ था, अपनी ही तो बहू है.’
फिर वे उठकर भीतर गए आलमारी से वही कंगन की जोड़ी, जो उस दिन उन्होंने ख़रीदी थी, लाकर पत्नी के सामने धर दी; बोले,‘लो, अब जब आवे तो उसे यह कंगन पहना देना.’
सुमित्रा ने चकित दृष्टि से एक बार कंगन और एक बार पति की ओर देखा, फिर प्यार किंतु तिरस्कार-स्वर में बोली,‘मेरे लिए तो ऐसा कंगन कभी न लाए थे; अपनी बहू के लिए कैसे चुपचाप ख़रीद लाए, किसी को मालूम भी न होने पाया!’
‘अरे तो ऐसे कंगनों के लिए कलाई भी तो वैसी ही चाहिए,’ कहते-कहते चन्द्रभूषण बाहर चले गए. कंगन उठाकर सुमित्रा ने रख लिए और उसी दिन से फिर छाया की बाट जोहने लगी.
छाया ने मिस्टर अग्रवाल के घर पहुंचकर देखा, प्रमोद ताश के खेल में तल्लीन है. वहां पर कई युवक और युवतियां थीं. प्रमोद सबसे हंस-हंसकर बातें कर रहे थे. वहां पर मिस्टर अग्रवाल की कन्या शान्ता को छोड़कर छाया किसी को पहचानती न थी. शान्ता से छाया का परिचय भी प्रमोद ने ही करवाया था. शान्ता प्रमोद की बाल-सहेली थी और वे उसका बहुत आदर करते थे, किंतु आज प्रमोद का शान्ता के पास इस तरह बैठे रह जाना और छाया की उपेक्षा करना छाया को बड़ा कष्टकर जान पड़ा. वह सोचने लगी यहां न आती तो अच्छा होता.
वह बैठ न सकी. दस मिनट तक चुपचाप खड़ी देखती रही. अंत में शान्ता की नजर उस पर पड़ी. उसने उठकर छाया को आदर के साथ बैठाया. प्रमोद को छाया का इस प्रकार, उसकी खोज में ही सही, उसके मित्रों के घर तक पहुंचना अच्छा न लगा. उन्होंने वहीं सबके सामने उसे डांट दिया. वे सिर से पैर तक जल उठे. कुछ देर वहां बैठकर फिर वे अपने घर आए. घर पहुंचकर उन्होंने छाया को ख़ूब आड़े हाथों लिया. जो कुछ जी में आया, क्रोधावेश में कहते गए.
क्रोध में न मनुष्य में बुद्धि रह जाती है, न विवेक. प्रमोद ने जो कुछ कहना था वह भी कहा और जो कुछ न कहना था वह भी कहा. अंत में उन्होंने यहां तक कह डाला कि तुम अपने परिवार की चाल क्यों छोड़ सकोगी, गली-गली घूमोगी नहीं तो काम कैसे चलेगा? तुम तो मालूम होता है, वही करोगी जो तुम्हारी मां आज तक कर रही है.
छाया कट-सी गई. अपमान उसके चेहरे पर तड़प उठा. किंतु वह कुछ नहीं बोली. वह जानती थी कि कुछ बोलकर अपना अहित छोड़कर वह हित नहीं कर सकती. अंत तक अपने इस कार्य के लिए वह विनम्र भाव से प्रमोद से क्षमा मांगती रही और इस बात का आश्वासन देती रही अब उससे ऐसी भूल कभी न होगी.
किंतु प्रमोद अपने को शांत न कर सके, वे उन्मत्त की तरह कभी टहलते और कभी चुपचाप लेट जाते. अंत में कुछ देर तक इधर-उधर टहलकर वे छाया से बोले,‘छाया, मैं तो मिस्टर अग्रवाल के घर जा रहा हूं; वहां मुझे कुछ शान्ति मिलती है. शान्ता के पास पहुंचकर मैं एक प्रकार के सुख और शीतलता का अनुभव करता हूं. वहां मैं सारी दु्श्चिंताओं से क्षण भर के लिए अपने आपको मुक्त पाता हूं. वहां मैं जितना अधिक रहूं, रहने दिया करो. तुम्हारे पास मुझे सिवा ग्लानि और क्षोभ के कुछ नहीं मिलता. तुम्हारे पास मैं शांति नहीं किंतु अशांति ही अधिक पाता हूं, शीतलता नहीं, मुझे जलन होती है. और यह सच तो है छाया, कि अब मैं तुमसे घृणा करने लगा हूं. तुम्हारी मां के घर की दासी का आना-जाना मैं संदेह की दृष्टि से देखता हूं. मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं रह गया है. अब तुम मेरे पीछे मत पड़ो. तुम्हें स्वतंत्र किए देता हूं. तुम चाहो तो अपनी मां के पास जाकर सुख से रह सकती हो. मैंने तो तुम्हारे साथ इतने दिनों तक रहकर भर पाया; बस अब और अधिक मुझे अपने साथ रहने के लिए विवश मत करो. रोने-धोने का मुझ पर कोई असर नहीं होगा. जहां मैं थोड़ी शांति पाता हूं, वहां जाने दो’ कहते हुए प्रमोद बाहर चले गए.
छाया वहीं धरती पर लोटकर फूट-फूटकर रोने लगी. आज उसे मालूम हुआ कि वह कितनी असहाय, कितनी विवश, और कितनी दुर्बल है. संसार उसे शून्य-सा होता हुआ जान पड़ा. उसे ऐसा लगता था, जैसे उसका सर्वस्व, कोई बरबस उससे छीने लिए जाता है. वह चीख पड़ी और रोते-रोते बेहोश हो गई. पड़ोस की कुछ स्त्रियों ने आकर उसके मुंह पर पानी के छींटे दिए. छाया उठ बैठी. उस दिन वह भोजन न कर सकी. इस प्रकार विवाह की पहली वर्षगांठ संपन्न हुई.
प्रमोद बहुत रात गए घर लौटे, छाया तब तक सोई न थी. वह अब भी रो रही थी. छाया की अवस्था पर प्रमोद को दया आ गई, उन्हीं की ओर से इस संग्राम की संधि का प्रस्ताव पेश हुआ. सुलह हुई और दोनों ने साथ भोजन किया. रात अच्छी कटी किंतु सबेरे से फिर वही रफ्तार बेढंगी, जो पहले थी सो अब भी है आरंभ हो गई. प्रमोद फिर कुछ तेज़ बातें कह के चल पड़े और छाया रोती रह गई.
राजरानी अपनी पुत्री की दुरवस्था के विषय में प्रतिदिन सुना करती थी. उसने फिर अंतिम शस्त्र फेंका, दासी से कहला भेजा, अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है. छाया चाहे तो आकर मेरे साथ सुख से रह सकती है; यह इतनी बड़ी कोठी और लाखों की संपत्ति उसी की है. वह इतना कष्ट क्यों झेल रही है; अभी उसकी मां तो जीवित है, इतना तो सोचे.
छाया ने उसके उत्तर में मां को कहला भेजा,‘मेरी नसों में सीता और सावित्री का खून दौड़ रहा है. मैं आर्य महिला हूं, मैं अपने पति के चरणों को छोड़कर नहीं जा सकती. सीता और सावित्री का महान् आदर्श मुझसे कहता है कि पति ही मेरा परमेश्वर है, पति को छोड़कर स्त्री की कहीं दूसरी जगह गति नहीं हो सकती. उनसे कहना कि मेरी मां तो मर चुकी है. मैं उन्हें अपनी मां नहीं समझती; मेरी मां होती तो मेरी ही तरह पवित्र जीवन बिताती.’
इस उत्तर से राजरानी के स्वाभिमान को धक्का-सा लगा. उसने सोचा अभी और ठोकरें खाने के बाद उसकी अक्ल ठिकाने आवेगी, तब अपने आप चली आवेगी.
जैसे ही दासी घर से बाहर निकली, प्रमोद ने घर में प्रवेश किया. वह सिर से पैर तक जल उठे. घर के अंदर जाते ही उन्होंने बेकसूर ही सारा क्रोध छाया पर उतार दिया. छाया के हर छोटे-छोटे कार्य को अब वे संदेह की दृष्टि से देखते थे.
उन्हें उसके ऊपर विश्वास न रह गया था. उसकी हर एक भावभंगी में उन्हें कुछ छल, कुछ धोखा दृष्टिगोचर होता था. उन्होंने दासी के आने का कारण पूछा और छाया के सच-सच कह देने पर भी वे विश्वास न कर सके. क्रोध में उन्मत्त-से, हो रहे थे, क्रोध के साथ बोले,‘छाया तुम जाओ, जाओ अपनी मां के साथ रहो; मेरा पिंड छोड़ दो, तुम्हारे साथ रहने से मुझे कष्ट भर होता है, और कुछ नहीं. मैं अपने आप तो तुम्हें छोड़ नहीं सकता. तुम अपने आप ही अपनी मां के पास चल जाओ तो मेरे ऊपर किसी प्रकार की ज़िम्मेदारी न रह जाएगी. मेरा कहना मानो, मुझे इस बंधन से मुक्त कर दो छाया! तुम भी सुख से रह सकोगी; मैं भी सुख से रहूंगा.’
छाया ये बातें चुपचाप सुन रही थी. उसकी आंखों से आंसू बहते जाते थे. उसने हिचकियों के साथ कहा,‘प्रमोद तुम, बंधन से मुक्त होना चाहते हो तो मैं कर दूंगी.’
व्यंग्य और उपेक्षा की हंसी के साथ प्रमोद ने कहा,‘हां यही चाहता हूं छाया! मुझे बंधन से मुक्त कर दो. जिस दिन तुम मेरी इतनी बात मान लोगी मुझे बड़ी शांति मिलेगी.’
शाम को घर लौटकर प्रमोद ने देखा, छाया अपने जीवन की अंतिम सांसें ले रही थी. उसकी आंखें कदाचित् एक बार प्रमोद को देख लेने की प्रतीक्षा में खुली थीं. प्रमोद के आते ही एक हिचकी के साथ उसकी आंखें सदा के लिए बंद हो गईं. प्रमोद पागलों की तरह छाया की लाश पर गिर पड़े.
आज भी प्रमोद नन्हीं-सी पोटली, जिसमें छाया का चित्र और उसका अंतिम पत्र है, बड़ी सावधानी से हृदय से लगाए हुए नगर के सुनसान स्थानों में या खंडहरों में देखे जाते हैं. वे न कभी किसी से बोलते हैं और न किसी की बात का उत्तर देते हैं. हां, अपने आप ही वे कभी-कभी एक विचित्र प्रकार की आवाज़ से कुछ कहते हैं जिसको बस वे ही समझते हैं और कोई नहीं.
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