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वारिस: एक शिक्षक की कहानी (लेखक: मोहन राकेश)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 3, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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Mohan-Rakesh_Kahani
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शिक्षक भले ही एक प्रतिष्ठित पेशा माना जाता हो, पर एक शिक्षक की ज़िंदगी इतनी आसान नहीं होती. मोहन राकेश की कहानी वारिश एक शिक्षक की ज़िंदगी की सूक्ष्म पड़ताल करती है.

घड़ी में तीन बजते ही सीढ़ियों पर लाठी की खट्‌-खट्‌ होने लगती और मास्टरजी अपने गेरुआ बाने में ऊपर आते दिखायी देते. खट्‌-खट्‌ आवाज़ सुनते ही हम भागकर बैठक में पहुंच जाते और अपनी कापियां और किताबें ठीक करते हुए ड्योढ़ी की तरफ़ देखने लगते, घड़ी तीन बजा न चुकी होती, तो उनके ऊपर पहुंचते-पहुंचते बजा देती. मैं बहन के कान के पास मुंह ले जाकर, कहता,“एक-दो-तीन…”
और मास्टरजी बैठक में पहुंच जाते. अगर घड़ी उनके वहां पहुंचने से दो-तीन मिनट पहले तीन बजा चुकी होती, तो वे उस पर शिकायत की एक नज़र डालते, भरकर रखे हुए गिलास में से दो घूंट पानी पीते और पढ़ाने बैठ जाते. मगर बैठकर भी दो-एक बार उनकी नज़र ऊपर हमारी दीवार-घड़ी की तरफ़ उठती, फिर अपने हाथ पर लगी हुई बड़े गोल डायल की पुरानी पीली-सी घड़ी पर पड़ती और वे ‘हूं’ या ‘त्वत्’ की आवाज़ से अपना असन्तोष प्रकट करते-जाने अपने प्रति, अपनी घड़ी के प्रति या हमारी घड़ी के प्रति.
हमें मैट्रिक की परीक्षा देनी थी और वे हमें पढ़ाने के लिए आते थे. बहन मुझसे एक साल बड़ी थी, मगर उसने उसी साल ए, बी, सी, से अंग्रेज़ी सीखी थी. मैं भी अंग्रेज़ी इतनी ही जानता था कि बिना हिचकिचाहट के ‘वण्डरफ़ुल’ के ये हिज्जे बता देता था-डब्लू ए एन्, डो ओ आर, एफ़ यू डबल एल-वण्डरफ़ुल. मास्टरजी कविता बहुत उत्साह के साथ पढ़ाते थे. वे टेनीसन, ब्राउनिंग और स्काट की पंक्तियों की व्याख्या करते हुए जैसे कहीं और ही पहुंच जाते थे. उनकी आंखें चमकने लगती थीं और दोनों हाथ हिलने लगते थे. भाषा उनके मुंह से ऐसी निकलती थी जैसे ख़ुद कविता कर रहे हों. मुझे कई बार कविता की पंक्ति तो समझ में आ जाती थी, उनकी व्याख्या समझ में नहीं आती. मैं मेज के नीचे से बहन के टखनों पर ठोकर मारने लगता. ऊपर से चेहरा गम्भीर बनाए रहता. ठोकर मारना इसलिए ज़रूरी था कि अगर मैं उसे ध्यान से पढ़ने देता, तो वह बीच में मास्टरजी से कोई सवाल पूछ लेती थी जिससे ज़ाहिर होता था कि बात उसकी समझ में आ रही है, और इस तरह अपनी हतक होती थी.
कविता पढ़ाकर मास्टरजी हमसे अनुवाद कराते. अनुवाद के ‘पैसेज’ वे किसी किताब में से नहीं देते थे, जबानी लिखाते थे. उनमें कई बड़े-बड़े शब्द होते जो अपनी समझ में ही न आते. वे लिखाते:
“भावना जीवन की हरियाली है. भावना-विहीन जीवन एक मरुस्थल है जहां कोई अंकुर नहीं फूटता.”
हम पहले उनसे भावना की अंग्रेज़ी पूछते, फिर अनुवाद करते:
“सेण्टीमेण्ट इज़ लाइफ़’स् वेजीटेबल. सेण्टीमेण्टलेस लाइफ़ इज़ ए डेज़र्ट व्हेयर ग्रास डज़ नाट ग्रो.”
बहन संशोधन करती कि ‘डज़ नाट ग्रो’ नहीं ‘डू नाट ग्रो’ होना चाहिए, ग्रास ‘सिंगुलर’ नहीं ‘प्लूरल’ है. मैं उसके हाथ पर मुक्का मार देता कि कल ए-बी-सी सीखनेवाली लड़की आज मेरी अंग्रेज़ी दुरुस्त करती है. वह मेरे बाल पकड़ लेती कि एक साल छोटा होकर यह लड़का बड़ी बहन के हाथ पर मुक्का मारता है! मगर जब मास्टरजी फ़ैसला कर देते कि ‘डू नाट ग्रो’ नहीं ‘डज़ नाट ग्रो” ठीक है, तो मैं अपने अंग्रेज़ी की शान पर फूल उठता और बहन का चेहरा लटक जाता हालांकि मारपीट के मामले में डांट मुझी को पड़ती.
मास्टरजी के आने का समय जितना निश्चित था, जाने का समय उतना ही अनिश्चित था. वे कभी डेढ़ घण्टा और कभी दो घण्टे पढ़ाते रहते थे. पढ़ते-पढ़ते पांच बजने को आ जाते तो मेरे लिए ‘नाउन’ और ‘एडजेक्टिव’ में फ़र्क करना मुश्क़िल हो जाता. मैं जम्हाइयां लेता और बार-बार ऊबकर घड़ी की तरफ़ देखता. मगर मास्टरजी उस समय ‘पास्ट पार्टीसिपल” और “परफेक्ट पार्टीसिपल’ जैसी चीजों के बारे में जाने क्या-क्या बता रहे होते. पढ़ाई हो चुकने के बाद वे दस मिनट हमें जीवन के सम्बन्ध में शिक्षा दिया करते थे. वे दस मिनट बिताना मुझे सबसे मुश्क़िल लगता था. वे पानी के छोटे-छोटे घूंट भरते और जोश में आकर सुन्दर और असुन्दर के विषय में जाने क्या कह रहे होते, और मैं अपनी कापी घुटनों पर रखे हुए उसमें लिखने लगता:
सुन्दर मुन्दरियो, हो!
तेरा कौन बिचारा, हो!
दुल्ला भट्टीवाला, हो!
बहन का ध्यान भी मेरी कापी पर होता क्योंकि वह आंख के इशारे से मुझे यह सब करने से मना करती. कभी वह इशारे से धमकी देती कि मास्टरजी से मेरी शिकायत कर देगी. मैं आंखों-ही-आंखों से उसकी खुशामद कर लेता. जब मास्टरजी का सबक ख़त्म होता ओर उनकी कुर्सी ‘च्यां’ की आवाज़ करती हुई पीछे को हटती, तो मेरा दिल ख़ुशी से उछलने लगता. सीढ़ियों पर खट्‌-खट्‌ की आवाज़ समाप्त होने से पहले ही मैं पतंग और डोर लिये हुए ऊपर कोठे पर पहुंच जाता और ‘आ बोऽऽ काटा काटाऽऽ ईऽऽबोऽऽ!’ का नारा लगा देता.
***
मास्टरजी के बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते थे-यहां तक कि उनके नाम का भी हमें नहीं पता था. एक दिन अचानक ही वे पिताजी के पास बैठक में आ पहुंचे थे. उन्होंने कहा था कि एक भी पैसा न होने से वे बहुत तंगी में हैं मगर वे किसी से खैरात नहीं लेना चाहते, काम करके रोटी खाना चाहते हैं. उन्होंने बताया कि उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से बी. एल. किया है और बच्चों को बंगला और पंजाबी पढ़ा सकते हैं. पिताजी हम दोनों की अंग्रेज़ी की योग्यता से पहले ही आतंकित थे, इसलिए उन्होंने उसी समय से उन्हें हमें पढ़ाने के लिए रख लिया. कुछ दिनों बाद वे उन्हें और ट्यूशन दिलाने लगे, तो मास्टरजी ने मना कर दिया. वे हमारे घर से थोड़ी दूर एक गन्दी-सी गली में चार रुपये महीने की एक कोठरी लेकर रहने लगे थे. यह वे पूछने पर भी नहीं बताते थे कि बी. एल. करने के बाद उन्होंने प्रैक्टिस क्‍यों नहीं की और घर-बार छोड़कर गेरुआ क्यों धारण कर लिया. वे बस उत्तेजित-से पढ़ाने आते, और उसी तरह उत्तेजित-से उठकर चले जाते.
एक दिन घड़ी ने तीन बजाये तो हम लोग रोज़ की तरह भागकर बैठक में पहुंच गये और दम साधकर अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठ गये. मगर काफ़ी समय गुज़र जाने पर भी सीढ़ियों पर खट्‌-अट्‌ की आवाज़ सुनायी नहीं दी. एक मिनट, दो मिनट, दस मिनट. हम लोगों को हैरानी हुई–मुझे ख़ुशी भी हुई. चार महीने में मास्टरजी ने पहली बार छुट्टी की थी. इस ख़ुशी में मैं अंग्रेज़ी की कापी में थोड़ी ड्राइंग करने लगा बहन से ‘बी’ और ‘एफ्‌’ हमेशा एक-से लिखे जाते थे-वह उनके अन्तर को पकाने लगी. मगर यह ख़ुशी ज़्यादा देर न रही. सहसा सीढ़ियों पर खट्‌-खट्‌ सुनायी देने लगी, जिससे हम चौंक गये और निराश भी हुए. मास्टरजी अपने रोज़ के कपड़ों के ऊपर एक मोटा गेरुआ कम्बल लिये बैठक में पहुंच गये. मैंने उन्हें देखते ही अपनी बनायी हुई ड्राइंग फाड़ दी. वे हांफते-से आकर आराम-कुर्सी पर बैठ बये और दो घूंट पानी पीने के बाद ‘पोयट्री’ की किताब खोलकर पढ़ाने लगे:
“टेल मी नाट इन मोर्नफ़ुल नंबर्ज
लाइफ़ इज़ बट ऐन एम्प्टी ड्रीम…”
मैंने देखा, उनका सारा चेहरा एक बार पसीने से भीग गया और वे सिर से पैर तक कांप गये. कुछ देर वे चुप रहे. फिर उन्होंने गिलास को छुआ, मगर उठाया नहीं. उनका सिर झुककर बांहों में आ गया और कुछ देर वहीं पड़ा रहा. उस समय मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे सामने सिर्फ कम्बल में लिपटी हुई एक गांठ ही पड़ी हो. जब उन्होंने चेहरा उठाया, तो मुझे उनकी नाक और आंखों के बीच की झुर्रियां बहुत गहरी लगीं. उनकी आंखें झपतीं और कुछ देर बन्द ही रहतीं, फिर जैसे प्रयत्न से खुलतीं. वे होंठों पर जबान फेरकर फिर पढ़ाने लगते:
“फ़ॉर द सोल इज़ डेड दैट स्लंबर्ज़ ,
एण्ड थिंग्ज़ आर नाट वाट दे सीम.”
मगर उसके साथ उनका सिर फिर झुक जाता. मैंने डरी हुई-सी नज़र से बहन की तरफ़ देखा.
“मास्टरजी, आज आपकी तबीयत ठीक नहीं है,’’ बहन ने कहा, “आज हम और नहीं पढ़ेंगे.”
नहीं पढ़ेंगे, यह सुनकर मेरे दिल में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी. मगर उस हिलती हुई गठरी को देखकर डर भी लग रहा था. मास्टरजी ने आंखें उठायीं और धीरे-से कुछ कहा. फिर उन्होंने पुस्तक की तरफ़ हाथ बढ़ाया, तो बहन ने पुस्तक खींच ली. कुछ देर मास्टरजी हम लोगों की तरफ़ देखते रहे-जैसे हम उनसे बहुत दूर बैठे हों और वे हमें ठीक से पहचान न पा रहे हों. फिर एक लम्बी सांस लेकर चलने के लिए उठ खड़े हुए.
पूरे चार सप्ताह वे टाइफ़ाइड में पड़े रहे.
***
उन दिनों मेरी ड्यूटी लगायी गयी कि मैं कोठरी में जाकर उन्हें सूप वगैरह दे आया करूं. वैद्यजी के पास जाकर उनकी दवाई-अवाई भी मुझे ही लानी होती थी. मेरा काफ़ी समय उनकी कोठरी में बीतता. वे अपने कम्बल में लिपटकर चारपाई पर लेटे हुए ‘हाय-हाय’ करते रहते और मैं ऊपर-नीचे होते हुए कम्बल के रोयों को देखता रहता. कभी मिट्टी के फ़र्श पर या स्याह पड़ी हुई दीवारों पर उंगली से तस्वीरें बनाने लगता. कोठरी निहायत बोसीदा थी और उसमें चारों तरफ़ से पुरानी सीलन की गन्ध आती थी. दीवारों का पलस्तर जगह-जगह से उखड़ गया था और कुछ जगह उखड़ने की तैयारी में इंटों से आगे को उभर आया था. मुझे उस पलस्तर में तरह-तरह के चेहरे नज़र आते. पलस्तर का कोई टुकड़ा झड़कर खप से नीचे आ गिरता, तो मैं ऐसे चौंक जाता जैसे मेरी आंखों के सामने किसी मुर्दा चीज़ में जान आ गयी हो. कभी मैं उठकर खिड़की के पास चला जाता. खिड़की में सलाखों की जगह बांस के टुकड़े लगे थे. गली से उठती हुई भयानक दुर्गन्ध से दिमाग़ फटने लगता. वह गली जैसे शहर का कूड़ा-घर थी. एक मुर्गा गली के कूड़े को अपने पैरों से बिखेरता रहता और हर आठ-दस मिनट के बाद जोर से बांग दे देता.
मास्टरजी के पास ज़्यादा सामान नहीं था, पर जो कुछ भी था उसे देखने को मेरे मन में बहुत उत्सुकता रहती थी. एक दिन जब थोड़ी देर के लिए मास्टरजी की आंख लगी, तो मैंने कोठरी के सारे सामान की जांच कर डाली. कपड़ों के नाम पर वही चन्द चीथड़े थे जो हम उनके शरीर पर देखा करते थे! डण्डे और कमण्डल के अतिरिक्त उनकी सम्पत्ति में कुछ पुरानी फटी हुई पुस्तकें थीं जिनमें से केवल भगवदगीता का शीर्षक ही मैं पढ़ सका. शेष पुस्तकें बंगला में थीं. एक पुस्तक के बीच में एक लिफाफा रखा था जिस पर सात साल पहले की हावड़ा और मिदनापुर की मोहरें लगी थीं. मैंने डरते-डरते लिफाफे में से पत्र निकाल लिया. यह भी बंगला में था. बीच में कोई-कोई शब्द अंग्रेज़ी का था–स्टैण्डर्ड ‘मीन्ज़… ओवरकान्फिडेंस…डिस्गस्टिंग ‘ हेल…. मैंने जल्दी से पत्र वापस लिफाफे में रख दिया. पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ पुराने और नये फुलस्केप कागज़ थे जिनपर बंगला और अंग्रेज़ी में बहुत कुछ लिखा हुआ था. वे कागज़ अभी मेरे हाथों में ही थे कि मास्टरजी की आंख खुल गयी और वे खांसते हुए उठकर बैठ गये. मैं कांपते हुए हाथों से कागज़ रखने लगा तो वे पहले मुस्कराये और फिर हंसने लगे.
“इन्हें इधर ले आओ,” वे बोले.
मैं अपराधी की तरह कागज़ लिये हुए उनके पास चला गया. उन्होंने कागज़ मुझसे ले लिये और मुझे पास बिठाकर मेरी पीठ पर हाथ फेरने लगे.
“जानते हो, इन कागज़ों में क्‍या है ?” उन्होंने बुखार के कारण कमज़ोर आवाज़ में पूछा.
“नहीं.” मैंने सिर हिलाया.
“यह मेरी सारी ज़िन्दगी की पूंजी है,” उन्होंने कहा ओर उन कागज़ों को छाती पर रखे हुए लेट गये. लेटे-लेटे कुछ देर उन्हें उथल-पुथलकर देखते रहे, फिर उन्होंने उन्हें अपनी दायीं ओर रख लिया. कुछ देर वे अपने में खोये रहे और जाने क्‍या सोचते रहे. फिर बोले, “बच्चे, जानते हो, मनुष्य जीवित क्यों रहना चाहता है?”
मैंने सिर हिला दिया कि नहीं जानता.
“अच्छा, मैं तुम्हें बताऊंगा कि मनुष्य क्यों जीवित रहना चाहता है और कैसे जीवित रहता है. मैं तुम्हें और भी बहुत कुछ बताना चाहता हूं, मगर अभी तुम छोटे हो. ज़रा बड़े होते तो…. ख़ैर…अब भी जो कुछ बता सकता हूं, जरूर बताऊंगा. तुम मेरे लिए मेरे अपने बच्चे की तरह हो …तुम दोनों… दोनों ही मेरे बच्चे हो.’’
उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया. मेरा दिल बैठने लगा कि वे जो कुछ बताना चाहते हैं, उसी समय न बताने लगें क्‍योंकि मैं जानता था कि वे जो कुछ भी बतायेंगे वह ऐसी मुश्क़िल बात होगी कि मेरी समझ में नहीं आयेगी. समझने की कोशिश करूंगा, तो कई मुश्क़िल शब्दों के अर्थ सीखने पड़ेंगे. मेरा अनुभव कहता था कि शब्द खुद जितना मुश्क़िल होता है, उसके हिज्जे उससे भी ज़्यादा मुश्क़िल होते हैं. हिज्जों से मैं बहुत घबराता था.
मगर उस समय उन्होंने कुछ नहीं कहा. सिर्फ मेरा हाथ पकड़कर लेटे रहे.
***
अच्छे होकर जब वे हमें फिर पढ़ाने आने लगे, तो उन्होंने कहा कि अब से वे अंग्रेज़ी के अतिरिक्त हमें थोड़ी-थोड़ी बंगला भी सिखायेंगे क्योंकि बंगला सीखकर ही हम उनके विचारों को ठीक से समझ सकेंगे. अब वे तीन बजे आते और साढ़े पांच-छः बजे तक बैठे रहते. मैं साढ़े तीन-चार बजे ही घड़ी की तरफ़ देखना आरम्भ कर देता और जाने किस मुश्क़िल से वह सारा वक़्त काटता. उसकी दो महीने की जी-तोड़ मेहनत से हम बहन-भाई इतनी बंगला सीख पाये कि एक-दूसरे को बजाय तुम के ‘तूमि” कहने लगे. वह कहती, “तूमि मेरी कापी का वरका मत फाड़ो.”
और मैं कहता, “तूमि बकवास मत करो.”
हमारी इस प्रगति से मास्टरजी बहुत निराश हुए और कुछ दिनों बाद उन्होंने हमें बंगला सिखाने का विचार छोड़ दिया. अनुवाद के लिए अब वे पहले से भी मुश्क़िल ‘पैसेज’ लिखाने लगे, मगर इससे सारा अनुवाद उन्हें ख़ुद ही करना पड़ता. उस माध्यम से भी हमें बड़ी-बड़ी बातें सिखाने का प्रयत्न करके जब वे हार गये, तो उन्होंने एक और उपाय सोचा. वे फुल-स्केप कागज़ बीच में से आधे-आधे फाड़कर उन पर दोनों ओर पेंसिल से अंग्रेज़ी में बहुत कुछ लिखकर लाने लगे. बहन के लिए वे अलग कागज़ लाते और मेरे लिए अलग. उनका कहना था कि वे रोज़ उन कागज़ों में हमको एक-एक नया विचार देते हैं, जिसे हम अभी चाहे न समझें, बड़े होने पर ज़रूर समझ सकेंगे, इसलिए हम उन कागज़ों को अपने पास संभालकर रखते जाएं. पहले छ -आठ दिन तो हमने कागज़ों की बहुत संभाल रखी, मगर बाद मे उन्हें संभालकर रखना मुश्क़िल होने लगा. अक्सर बहन मेरे कागज़ कहीं से गिरे हुए उठा लाती और कहती कि कल वह मास्टरजी से शिकायत करेगी. मैं मुंह बिचका देता. एक दिन मैंने देखा, अलमारी में सिर्फ़ बहन के कागज़ ही तह किए रखे हैं, मेरा कोई कागज़ नहीं है. चारों तरफ़ खोज करने पर भी जब मुझे अपने कागज़ नहीं मिले, तो मैंने बहन के सब पुलिंदे उठाकर फाड़ दिए. इस पर बहन ने मेरे बाल नोच लिए. मैंने उसके बाल नोच लिए. उस दिन से हम दोनों इस ताक में रहने लगे कि कल मास्टरजी के दिए हुए एक के कागज़ दूसरे के हाथ में लगें कि वह उन्हें फाड़ दे. मास्टरजी से कागज़ लेते हुए हम चोर आंख से एक-दूसरे की तरफ़ देखते और मुश्क़िल से अपनी मुस्कराहट दबाते. मास्टरजी किसी किसी दिन अपने पुराने कागज़ों के पुलिंदे साथ ले आते थे और वहीं बैठकर उनमें से हमारे लिए कुछ हिस्‍से नकल करने लगते थे. हम दोनों उतनी देर कापियों पर इधर-उधर के रिमार्क लिखकर आपस में कापियां तबदील करते रहते. इधर मास्टरजी ये पुलिंदे हमारे हाथों में देकर सीढ़ियों से उतरते, उधर हमारी आपस में छीना-झपटी आरम्भ हो जाती और हम एक-दूसरे के कागज़ को मसलने और मोचने लगते. अक्सर इस बात पर हमारी लड़ाई हो जाती कि मास्टरजी एक को अठारह और दूसरे को चौदह पन्ने क्यों दे गए हैं.
परीक्षा में अब थोड़े ही दिन रह गए थे. पिताजी ने एक दिन हमसे कहा कि हम मास्टरजी को अभी से सूचित कर दें कि जिस दिन हमारा अंग्रेज़ी का ‘बी’ पेपर होगा उस दिन तक तो हम उनसे पढ़ते रहेंगे मगर उसके बाद…. उस दिन मास्टरजी के आने तक हम आपस में झगड़ते रहे कि हममें से कौन उनसे यह बात कहेगा. आाखिर तीन बज गए और मास्टरजी आ गए. उन्होंने हमेशा की तरह घड़ी की तरफ़ देखा, ‘त्‌चत्‌ च्चत्‌’ की आवाज़ के साथ सिर को झटका दिया और पानी का एक घूँट पीकर ‘पोयट्री’ की किताब खोल ली. हम दोनों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा और आंखें झुका ली. “मास्टरजी! ” बहन ने धीरे से कहा.
उन्होंने आंखें उठाकर उसकी तरफ़ देखा और पृछा कि क्या बात है-उसकी तबीयत तो ठीक है?
बहन ने एक बार मेरी तरफ़ देखा, मगर मेरी आंखें ज़मीन में धसी रहीं.
“मास्टरजी, पिताजी ने कहा है”… और उसने रुकते-रुकते बात उन्हें बता दी.
“क्या मैं नहीं जानता?” माथे पर त्यौरियां डालकर सहसा उन्होंने कड़े शब्दों में कहा, ‘‘मुझे यह बताने की क्या ज़रूरत थी?’’ और वे जल्दी जल्दी कविता की पंक्ति पढ़ने लगे:
शेड्स आफ़ नाइट वर फ़ालिंग फ़ास्ट.
व्हेन थ्रू, ऐन एल्पाइन विलेज पास्ट.
ए यूथ…
सहसा उनका गला भर्रा गया. उन्होंने जल्दी से दो घूंट पानी पिया और फिर से पढ़ने लगे:
शेड्स आफ नाइट वर फ़लिंग फ़ास्ट…
***
उस दिन पहली बार उन्होंने जाने का समय जानने के लिए भी घड़ी की तरफ़ देखा. पूरे चार बजते ही वे कागज़ समेटते हुए उठ खड़े हुए. अगले दिन आए, तो आते ही उन्होंने हमारी परीक्षा की ‘डेट शीट’ देखी और बताया कि जिस दिन हमारा ‘बी’ पेपर होगा उसी दिन वे यहां से चले जाएंगे. उन्होंने निश्चय किया था कि वे कुछ दिन जाकर गरुड़चट्टी में रहेंगे, फिर उससे आगे घने पहाड़ों में चले जाएंगे, जहां से फिर कभी लौटकर नही आएंगे. उस दिन उनसे पढ़ते हुए न जाने क्यों मुझे उनके चेहरे से डर लगता रहा.
हमारा ‘बी’ पेपर हो गया. मास्टरजी मे कांपते हाथों से हमारा पर्चा देखा. उन्होंने जो-जो कुछ पूछा, मैंने उसका सही जवाब बता दिया. मैं हाल से निकलकर हर सवाल के सही जवाब का पता कर आया था. बहन जवाब देने से अटकती रही. मास्टरजी ने मेरी पीठ थपथपाई, पानी पिया और चले गए. मगर शाम को वे फिर आए. पिताजी से उन्होंने कहा कि वे जाने से पहले एक बार बच्चों से मिलने आए हैं. हम दोनों को अन्दर से बुलाया गया. मास्टरजी ने हमसे कोई बात नहीं की, सिर्फ़ हमारे सिर पर हाथ फेरा और “अच्छा” कहकर चल दिए. हम लोग उनके साथ-साथ ड्योढ़ी तक आए. वहां रुककर उन्होंने मेरी ठोड़ी को छूआ और कहा, “अच्छा, मेरे बच्चे!” और कांपते हाथ से उन्होंने किसी तरह अपना भूरा-सा फ़ाउंटेन पेन जेब से निकाला और मेरे हाथ में दिया.
“रख लो, रख लो,” उन्होंने ऐसे कहा जैसे मैंने उसे लेने से इन्कार किया हो.
“बहुत अच्छा तो नहीं है, मगर काम करता है. मुझ को अब इसकी ज़रूरत नहीं पड़ेगी. तुम अपने पास रख छोड़ना…या फेंक देना….”
उनकी आंखें भर आई थीं इसलिए उन्होंने मुस्कराने का प्रयत्न किया और मेरा कंधा थपथपाकर खट्‌-खट्‌ सीढ़ियां उत्तर गए. बहन स्पर्द्धा की दृष्टि से मेरे हाथ में उस फ़ाउंटेन पेन को देख रही थी. मैंने उसे अंगूठा दिखाया और पेन खोलकर उसके निब की जांच करने लगा.
मगर उसके कुछ ही दिन बाद वह निब मुझसे टूट गया-और फ़िर वह पेन भी जाने कहां खो गया!

Illustration: Pinterest

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