देवी पूजा के अलग-अलग तरीक़ों के बीच कई बार पुरानी और नई सोच का टकराव हो ही जाता है, लेकिन परिवार को बांधे रखनेवाला कितनी सहजता से इस टकराव को रोक सकता है और उसके लिए क्या कुछ करता है. और वह ख़ुद कहां देखता है देवी को. एक मीठी-सी कहानी जो नवरात्रि के त्यौहार के मौक़े पर तो आपको ज़रूर पढ़नी चाहिए…
देवांश हर साल की तरह क्रिसमस की छुट्टियों पर पत्नी विभा और पांच वर्षीया बेटी पिहु के साथ मुंबई से गृहनगर कानपुर आया था. साल में यही एक समय था जब उसे कंपनी से पूरे दो सप्ताह की छुट्टियां मिलती थी, जिसे वह अपने माता-पिता के साथ गुज़ारना पसंद करता था. उसकी मां शोभारानी, देवी मां की परमभक्त थीं. सो सालभर में बोले गए जागरण, कीर्तन, पाठ आदि का आयोजन उन्हीं दो सप्ताह में रख लिया करती थीं, ताकि बेटे-बहू पर भी देवी मां का की कुछ कृपा हो सके और उनकी पोती कुछ संस्कार सीख सके. उन्हें लगता था उनकी बहू विभा तो उसे कुछ सिखाएगी नहीं. अब वह पूजा-पाठ और धार्मिक आयोजनों को ढकोसला समझनेवाली आजकल की आधुनिक नारी जो ठहरी!
विभा एक सामाजिक कायर्कर्ता थी, जो ग़रीब और बेसहारा लड़कियों के लिए बनी एक संस्था से जुड़ी थी. उसे अक्सर सामाजिक कार्यों के लिए घर से बाहर जाना पड़ता. ऐसे समय में बेटी को संभालना देवांश की ज़िम्मेदारी होती, जिसे वह ख़ुशी-ख़ुशी निभाता, मगर शोभा को यह सब बड़ा बुरा लगता. जब भी वीडियो कॉल पर ऐसा कुछ पता चलता तो उनकी बड़बड़ शुरु हो जाती,‘कोई बात है भला! घर पर पति-बच्चें अकेले रहें और बाहर जाकर दूसरों की सेवा करो! अरे पहले अपनी गृहस्थी संभालो, घर देखो… औरतों के लिए तो यही सबसे बड़ी सेवा है. सब जानती हूं, ये सब घर छोड़कर बाहर घूमने-फिरने के बहाने हैं, ताकि जिम्मेदारियों से बचा जा सके.’
वहीं दूसरी ओर छुट्टियों में रिलैक्स होने के मूड से आई विभा सासू मां के आयोजनों की लिस्ट और उस कारण बढ़े हुए काम देखकर हमेशा की तरह जलभुन गई,“देखो देव! आगे से यहां तुम ही अकेले आ जाया करो. मैं सीधे अपनी मम्मी के घर चली जाऊंगी. एक तो वैसे ही मुझे इन सब में कोई श्रद्धा नहीं है और कीर्तन-जागरण के नाम पर गेट-टुगेदर करने से अच्छा है कि वह समय और पैसा समाज की सेवा में लगाया जाए. समाज में कितने लाचार, ग़रीब, उपेक्षित लोग हैं जो बेहद नारकीय जीवन जी रहे हैं, मगर उन लोगों के लिए मम्मी जी से 100 रुपए भी नहीं छूटते और पूजापाठ के नाम पर हज़ारों ख़र्च कर देती हैं. पिछले साल मैंने उनकी बाई की बेटी को पिहु के कुछ कपड़े दे दिए थे तो कितना भड़क गई थीं. कहने लगी थी घर लुटाने की ठानी है क्या? एक आदमी मेहनत से कमा रहा है और दूसरा यूं ही उड़ा रहा है,” विभा मुंह चढ़ाते हुए बोली.
देवांश हंस पड़ा,“छोड़ो ना यार, हर किसी की अपनी सोच है और वह उसी के हिसाब से जीता है. उनकी अपनी सोच है और तुम्हारी अपनी. ना वे तुम्हें बदल सकती हैं और ना तुम उन्हें. और वैसे भी मैंने तो तुम्हें किसी ख़र्चें को कभी नहीं टोका है, जो चाहे करो. मेरी कमाई सिर्फ़ मेरी ही नहीं, तुम्हारी भी है. तो अब जितने दिन हम यहां हैं, उनकी ख़ुशी के लिए उनके हिसाब से जी लो, फिर बाक़ी पूरे साल तो अपने मन की ही करनी है.”
देवांश की बात सुनकर विभा शांत हो गई.
दिसंबर के अंत में ख़ून जमानेवाली ठंड पड़ रही थी. शोभा ने घर में माता की चौकी लगाई थी. मेहमान जुटने वाले थे. विभा काम में लगी हुई थी. तभी शोभा भागते हुए बेटे के पास आईं और बोलीं,“सुन बेटा, दो दिन से सर्दी बहुत बढ़ गई है. मैंने मेन बाज़ार वाले गुप्ताजी को तीनों माता की मूर्तियों के लिए ऊनी वस्त्र बनाने को दिए थे. ज़रा तू जल्दी से जाकर ले आ, कीर्तन शुरू होने से पहले उनके वस्त्र बदल दूंगी.”
“ठीक है मां,” कहकर देवांश जाने लगा तो बाहर ही विभा ने उसे रोक लिया.
“सुनो ज़रा, आज ज़्यादा काम होने के कारण ये बाई कमला अपनी तीनों बेटियों को साथ ले आई, मगर देखो तो उनके तन पर ऊनी कपड़े तक नहीं. पता नहीं बेचारे बच्चे कैसे इतनी ठंड झेल रहे हैं. अरे मूर्तियां तो बेजान हैं, गर्म कपड़े पहनाने ही हैं तो इन्हें पहनाओं, जिंदा देवी तो ये ही हैं, मगर मम्मी जी को तो कुछ दिखता नहीं… ख़ैर तुम बाज़ार जा ही रहे तो इनके लिए कुछ गरम शॉल, स्वेटर वगैरह ले आओ मैं इन्हें चुपके से दे दूंगी.”
देवांश ने मुस्कुराते हुए हामी भरी और आगे बढ़ गया.
तभी बाहर लॉन में उसे उसकी बेटी पिहु ने रोक लिया,“पप्पा, पप्पा! सुनो! मैंने आपके लिए टी बनाई है पीकर बताओ कैसी बनी है?”
देवांश चुपचाप नन्ही पिहु के पास बैठ गया और उसके छोटे से टी सेट के कप से चाय पीने की ऐक्टिंग करने लगा.
“वॉव! सो यम्मी, क्या आप मुझे रोज़ ऐसी चाय पिलाओगी?” देवांश बड़े प्यार से बोला.
“यस, वाय नॉट, यू आर माय डार्लिंग डैड…” बेटी की खिलखिलाती हंसी सुनकर देवांश गदगद हो उठा और मन ही मन सोचने लगा,‘मां को मूर्तियों में देवी दिखती है और विभा को ग़रीब, बेसहारा लड़कियों में. लेकिन मेरे लिए तो ये तीनों ही देवी मां का साक्षात् स्वरूप हैं. मां, पत्नी और बेटी… मुझसे इनकी ख़ुशी के लिए जो बन पड़ेगा मैं करूंगा. मेरी भक्ति तो इन तीनों की ही ख़ुशी है.’ एक देवी को प्रसन्न कर देवांश बाक़ी दोनों देवियों की ख़ुशी के लिए ख़ुशी-ख़ुशी बाज़ार चला गया.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट, behance.net