कैडर आधारित अनुशासित पार्टी का दर्जा रखनेवाली भारतीय जनता पार्टी बेशक़ मौजूदा दौर की सबसे पॉप्युलर पार्टी है. पर ऐतिहासिक रूप से सबसे लोकप्रिय व सर्वमान्य पार्टी बनने की उसकी सनक उसके कोर समर्थकों की नाराज़गी का कारण बन सकती है.
कारण#1 आयातित नेताओं से दुखी समर्पित कैडर
‘अबकी बार 400 पार’वह नारा है, जो इन दिनों गति पकड़ता दिख रखा है. यह नारा बीजेपी द्वारा अपने कार्यकर्ताओं को मोबलाइज़ करने के लिए दिया गया है, ताकि वे प्रधानमंत्री मोदी को रेकॉर्ड सीटों के साथ लगातार तीसरी बार दिल्ली की गद्दी पर बैठाया जा सके. पिछले दिनों जितने भी चुनावी सर्वे हुए हैं, सभी में बीजेपी कम्फ़र्टेबल मार्जिन के साथ सरकार बनाती दिख रही है, पर पार्टी लगातार नए सहयोगियों को जोड़ने और अलग-अलग पार्टियों से नेता आयात करने में शिद्दत से लगी हुई है. जिस तरह इलेक्टोरल बॉन्ड का ज़्यादातर चंदा बीजेपी को मिला है, उसी तरह ज़्यादातर नेताओं का जमघट इसी पार्टी के मंच पर लगा है. पार्टी के पास पैसा है, नेता हैं और सबसे अहम् नेतृत्व है यानी वह सब कुछ है, जिसके आधार पर वह दूसरी पार्टियों से मीलों आगे दिख रही है. सरकार बनाने के लिए साधारण बहुमत का आंकड़ा 272 है, जो कि पार्टी अकेले अपने दम पर हासिल कर सकती है, फिर 400 का टार्गेट क्यों? और यह टार्गेट अचीव करने के लिए पार्टी साम, दाम, दंड, भेद का जिस तरह खुलेआम इस्तेमाल कर रही है, वह पॉलिटिकल पंडितों ही नहीं, आम जनता को भी दिख रहा है. पार्टी के नए नवेले सपोर्टर्स को पार्टी का हर मास्टरस्ट्रोक पसंद आ रहा है, पर गुमनामी के दिनों से ही पार्टी का समर्थन कर रहे कैडर में इस उठा-पटक को लेकर बहुत ज़्यादा उत्साह नहीं है. विरोधी पार्टियों के जो नेता लंबे समय से भाजपा की विचारधारा का मुखर विरोध कर रहे थे, अब सत्ता सुख भोगने के लिए भाजपा जॉइन कर रहे हैं, टिकट पा रहे हैं, समर्पित कार्यकर्ताओं और नेताओं पर तरजीह पा रहे हैं, इससे पार्टी के कोर समर्थकों में नाराज़गी तो है. उन्हें समझ नहीं रहा कि जब जनता पार्टी को सपोर्ट कर रही है तो उसे कथित रूप से भ्रष्टाचार में डूबे, पार्टी की विचारधारा से दूर नेताओं को पार्टी में लेने की ज़रूरत क्या है?
कारण#2 संघ की चुप्पी, यानी बलवान समय को दी जानेवाली सलामी
जब पार्टी अपना राजनैतिक वनवास झेल रही थी, यानी सत्ता से कोसों दूर थी, तब भी पार्टी की विचारधारा को ज़िंदा रखने, पोषित करने और प्रसारित करने में पूरी तन्मयता से कोई कार्यरत था तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के समर्पित कार्यकर्ता थे. बीजेपी में होनेवाले फेर बदल में संघ की सहमति और असहमति का बड़ा हाथ माना जाता रहा है. पर पिछले कुछ समय से पार्टी में जिस प्रकार संघ की विचारधारा से अलग नज़रिया रखनेवाले नेताओं को शामिल कराया गया है, उससे बेशक़ संघ बहुत सहज तो नहीं होगा. पर इस समय बीजेपी के टॉप नेतृत्व यानी मोदी-शाह का समय बलवान चल रहा है, सो संघ बिना मुखर विरोध किए सलामी की मुद्रा में दिख रहा है. उसे इस बात का अंदाज़ा है कि बीजेपी का सत्ता में रहना उसके लिए ज़्यादा अनुकूल है, बजाय विचारधारा के मुद्दे पर बाहरी नेताओं के आगमन को रोककर पार्टी से टकराव मोल लेने के. वैसे भी राम मंदिर प्राणप्रतिष्ठा के बाद जितने नेता भाजपा जॉइन कर रहे हैं, वे अपनी-अपनी पार्टियों के राम विरोधी होने का बहाना बना रहे हैं. अतीत के अपने बयानों को भूलकर ख़ुद को बड़ा हिंदुत्ववादी साबित करना चाहते हैं. देश में हिंदुत्व की इस लहर को संघ के नज़रिए से अच्छा ही समझा जाएगा.
संघ के समर्पित लोगों को समस्या बस इस बात से है कि हिंदुत्व की नाव पर बैठकर भ्रष्टाचार में डूबे नेता भाजपा की धारा में बह रहे हैं. चुनावों तक भले ही इसका ज़्यादा विरोध न देखने मिले, पर चुनावों के बाद अगर वांछित नतीजे नहीं आए तो पार्टी में स्वच्छता अभियान चलाए जाने की मांग ज़ोर पकड़ सकती है. बहरहाल, संघ भी 400 पार वाले नारे को मूक समर्थन दे रहा है.
कारण#3 फ़्लोटिंग वोटर्स कर सकते हैं, बेवफ़ाई
भाजपा को जिस तीसरे धड़े से फ़र्क़ पड़ सकता है, वह है फ़्लोटिंग वोटर्स. ऐसे वोटर किसी एक पार्टी के प्रतिबद्ध सपोर्टर नहीं होते, वे अच्छे दिनों की आस में हर उस पार्टी को वोट कर सकते हैं, जिनके वादे लुभावने लगते हैं, जिनके नेता उन्हें फ़ौरतौर पर पसंद आ जाते हैं. पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजना को उस जनता का अच्छा सहयोग मिला, जो न तो संघी है, न ही बीजेपी का कोर वोटर और न ही हार्डकोर विरोधी. भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम से प्रभावित होकर फ़्लोटिंग वोटर्स आम आदमी पार्टी और बीजेपी में बंट गए थे. पीएम मोदी की साफ-सुथरी छवि ने उन्हें बीजेपी से जुड़े रहने को प्रेरित किया था. पर 400 पार के नारे को सच्चाई में तब्दील करने की बीजेपी के प्रयासों के तहत कथित भ्रष्ट, ख़ासतौर पर ऐसे नेता, जिन्हें अब तक बीजेपी के नेता, ख़ासतौर पर पीएम मोदी पानी पी पीकर कोसते थे, अब भगवाधारी बन चुने हैं. फ़्लोटिंग वोटर्स के बीच इससे अच्छा संदेश नहीं जा रहा है. ऐसा लग रहा है कि जिस कांग्रेस या विपक्ष को अब तक भ्रष्टाचार का केंद्र बताया जा रहा था, वहां के भ्रष्टाचारी नेता थोक के भाव में बीजेपी ख़रीद रही है. यदि कांग्रेस सहित विपक्ष ने अच्छी छवि वाले उम्मीदवारों पर फ़ोकस किया और अपने चुनावी कैम्पेन में बीजेपी के कथित रूप से वॉशिंग मशीन में तब्दील होने की छवि को मज़बूती से प्रचारित किया तो, फ़्लोटिंग वोटर्स के अच्छे-ख़ासे धड़े को बीजेपी से अलग किया जा सकता है. हालांकि राममय माहौल में ऐसा हो पाना थोड़ा मुश्क़िल लग रहा है, पर कौन जाने, अच्छी, साफ़-सुथरी राजनीति के समर्थक ये फ़्लोटिंग वोटर्स कब बीजेपी से बिदक जाएं और बेवफ़ाई कर दें.
कुल मिलाकर यह दिख रहा है कि आसानी से चुनाव जीतती दिख रही बीजेती, अपने राह में ख़ुद ही कांटे बो रही है. फ़ौरी तौर पर भले ही कुनबा बड़ा करने का उसका महाअभियान उसे महाजीत दिला दे, पर उसके ख़ुद के भविष्य की राह कठिन हो जाएगी, ख़ासकर जब पार्टी की बागडोर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के जादुई हाथों से निकलकर दूसरी पंक्ति के नेताओं के हाथ में जाएगी. तब 400 पार की यह मौजूदा सनक, पार्टी का बंटाधार न कर दे.