अपनी कविताओं के माध्यम से चुटीले अंदाज़ में समाज को संदेश देनेवाले कुंवर बेचैन की यह कविता सबकुछ जानते समझते चुप्पी साधे रहनेवालों को आगाह करती है.
आवाज़ को / आवाज़ दे
ये मौन-व्रत /अच्छा नहीं
जलते हैं घर
जलते नगर
जलने लगे / चिड़यों के पर,
तू ख़्वाब में
डूबा रहा
तेरी नज़र / थी बेख़बर
आंख़ों के ख़त / पर नींद का
यह दस्तख़त / अच्छा नहीं
जिस पेड़ को
खाते हैं घुन
उस पेड़ की / आवाज़ सुन,
उसके तले
बैठे हुए
तू फूल की / रस्सी न बुन
जर्जर तनों / में रीढ़ का
यह अल्पमत / अच्छा नहीं
है भाल यह
ऊंचा गगन
हैं स्वेदकन / नक्षत्र-गन,
दीपक जला
उस द्वार पर
जिस द्वार पर / है तम सघन
अब स्वर्ण की / दहलीज़ पर
यह शिर विनत / अच्छा नहीं
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