जीवन की वास्तविकता से वाक़िफ़ होने के बावजूद सकारात्मक बने रहने की प्रेरणा देती दुष्यंत कुमार की यह ग़ज़ल पढ़िए या गुनगुनाइए, अच्छा लगेगा.
मालूम था मुझको कि हर धारा नदी होती नहीं
हर वृक्ष की हर शाख फूलों से लदी होती नहीं
फिर भी लगा जब तक क़दम आगे बढ़ाऊंगा नहीं
कैसे कटेगा रास्ता यदि गुनगुनाऊंगा नहीं
यह सोचकर सारा सफ़र, मैं इस क़दर धीरे चला
लेकिन तुम्हारे साथ फिर रफ़्तार दूनी हो गई!
तुमसे नहीं कोई गिला, हां, मन बहुत संतप्त है
हर एक आंचल प्यार देने को नहीं अभिशप्त है
हर एक की करुणा यहां पर काव्य की थाती नहीं
हर एक की पीड़ा यहां संगीत बन पाती नहीं
मैंने बहुत चाहा कि अपने आंसुओं को सोख लूं
तड़पन मगर उस बार से इस बार दूनी हो गई
जाने यहां, इस राह के, इस मोड़ पर है क्या वजह
हर स्वप्न टूटा इस जगह, हर साथ छूटा इस जगह
इस बार मेरी कल्पना ने फिर वही सपने बुने
इस बार भी मैंने वही कलियां चुनी, कांटे चुने
मैंने तो बड़ी उम्मीद से तेरी तरफ़ देखा मगर
जो लग रही थी ज़िन्दगी दुश्वार दूनी हो गई!
इस मोड़ से तुम मुड़ गई, फिर राह सूनी हो गई!
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