लेखक-शायर गौतम राजऋषि अपनी ग़ज़लनुमा कविताओं के माध्यम से विसंगतियों को रेखांकित करने के लिए जाने जाते हैं. उनके ग़ज़ल-संग्रह ‘पाल ले इक रोग नादां’ की इस ग़ज़ल में भी ऐसा ही कुछ आपको पढ़ने मिलेगा.
उन होंठों की बात न पूछो, कैसे वो तरसाते हैं
इंग्लिश गाना गाते हैं और हिंदी में शरमाते हैं
इस घर की खिड़की है छोटी, उस घर की ऊंची है मुंडेर
पार गली के दोनों लेकिन छुप-छुप नैन लड़ाते हैं
बिस्तर की सिलवट के क़िस्से सुनती हैं सूनी रातें
तन्हा तकिए को दरवाज़े आहट से भरमाते हैं
चांद उछलकर आ जाता है कमरे में जब रात गए
दीवारों पर यादों के कितने जंग उग आते हैं
सुलगती चाहत, तपती ख़्वाहिश, जलते अरमानों की टीस
एक बदन दरिया में मिल कर सब तूफ़ान उठाते हैं
घर-घर में तो आ पहुंचा है मोबाइल बेशक, लेकिन
बस्ती के कुछ छज्जे अब भी आईने चमकाते हैं
कितनी आवारा मिसरे बिखरे हैं मेरी कॉपी में
शेरों में ढलने से लेकिन सब-के-सब कतराते हैं
कवि: गौतम राजऋषि
ग़ज़ल संग्रह: पाल ले इक रोग नादां
प्रकाशक: हिंद युग्म