मोहल्ले में चहल-पहल थी. मैं और मेरी सहेलियां पूरे साज-सिंगार के साथ चने और भोग की सामग्री लेकर बरगद की पूजा के लिए निकल रहे थे. घर में हमें तैयार होते और पकवान बनाते देख जेनेरेशन नेक्स्ट की प्रफुल्लित उंगलियां हमारे इस नवरूप को स्मार्टफ़ोन के कैमरे में क़ैद करके नवजोश का अनुभव कर रही थीं. बच्चे पूरी उमंग के साथ हमारे साथ जाना चाहते थे, पर जैसे ही हमने बाहर निकलने के लिए दरवाज़ा खोला, बाहर की तीखी धूप ने उन्हें याद दिलाया कि उन्हें तो पर्यावरण पर प्रोजेक्ट बनाना है. मैं भी कहां कम थी? मैंने कहा कि उन्हें चलना ही होगा क्योंकि वहां उन्हें अपने प्रोजेक्ट के लिए एक अमूल्य चीज़ मिलेगी.
हम सखियां अपने-अपने बच्चों के साथ हंसते-मुस्कुराते पूजा करके लौटे तो बरगद के नीचे उगे कुछ नन्हें बरगद के पौधे जड़ और मिट्टी समेत उखाड़ कर पुराने डब्बों में रखकर ले आए. घर पर पकवानों के चटखारों के साथ जनेरेशन नेक्स्ट के सवालों का अंबार लग गया- “आजकल के वैज्ञानिक युग में आपलोग सावित्री की कहानी पर विश्वास करते हो?”, “पेड़ की पूजा करने का क्या तुक है?”, “हमारे प्रोजेक्ट के लिए वहां क्या मिला?” आदि.
मुझे लगा कि इन प्रश्नों का उत्तर यदि हमने जानते हुए भी ठीक से आत्मसात किया होता तो हमारे समाज की दशा और दिशा कुछ और ही होती और शायद हमारा भारत विश्व में प्रदूषण की कमी में प्रथम स्थान पर होता. इसीलिए मैं बच्चों को विस्तार से बताना शुरू किया- जेठ मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला वट सावित्री का व्रत मनुष्य को बहुत कुछ सिखाता है. ये मनुष्य के शिक्षा के उच्चतम सोपानों तक पहुँचने की और कोमल समझी जाने वाली नारी के शक्ति पक्ष की गाथा है. सावित्री-सत्यवान की कथा मानव जीवन में आने वाली समस्याओं की तथा साहस, सूझबूझ और दृढ संकल्प शक्ति द्वारा उन्हें हल किए जाने की कथा है.
भारतीय संस्कृति में स्वयंवर का चलन स्त्री के निर्णय लेने के अधिकार को सुरक्षित रखने के लिए बनाया गया था. सावित्री के पिता ने भी अपनी एकमात्र पुत्री सावित्री को शिक्षा की शक्ति से समृद्ध कर वर के चुनाव का निर्णय उस पर छोड़ दिया. उसने बहुत सोच-विचार कर एक साधनहीन किन्तु शालीन और कर्मठ सत्पुरुष का चयन किया. सत्यवान एक राजकुमार था. उसका राज्य धोखे से छीन लिए जाने के बाद वो जंगल में लकड़ियाँ बीनकर बेचकर अपनी जीविका चलाता था तथा अपने माता-पिता का पालन करता था.
नारद मुनि ने कहा कि वो अल्पायु है, किंतु इससे सावित्री का निर्णय नहीं बदला. सावित्री ने अपनी सद्बुद्धि तथा कर्मठता से अपने जीवन को सुंदर बनाया और संप्रेषण कला अर्थात वाक-चातुर्य से यमराज पर भी विजय प्राप्त कर ली.
अब आते हैं इस कहानी के प्रतीकार्थ पर. आज धर्म के नाम पर स्त्री शिक्षा, प्रेम विवाह आदि को नकारने वाले आडंबररियों को हमारी पौराणिक कथाओं के प्रतीकार्थों को समझना चाहिए. ये कहानी बताती है की स्त्री को दी हुई शिक्षा और स्वतंत्रता कभी व्यर्थ नहीं जाती. इसके दीर्घकालीन परिणाम शुभ होते हैं. हां, समाज को शिक्षा का सही अर्थ समझना भी आवश्यक है. शिक्षा वही सार्थक है, जिससे व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास हो.
सावित्री सही मायने में शिक्षित व्यक्ति थी. क्योंकि शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है, सही तथा गलत के बीच चुनाव करने की योग्यता का विकास. सावित्री में सही ढंग से परखने और चुनाव करने की सामर्थ्य थी. उसे पता था कि दाम्पत्य जीवन का सुख एक सुलझे हुए साथी के साहचर्य में है, जो उसे समझ सके. तभी उसने चुनाव की स्वतंत्रता मिलने पर वैभव नहीं गुणों को देखकर वर का चुनाव किया. सत्यवान वो व्यक्ति था, जो जीवन की विसंगतियों का सामना मुस्कुराकर करते हैं और साहस व कर्मठता से समस्याओं का समाधान ढूंढ़ते हैं.
आज जो अभिभावक बच्चों को सही संस्कार एवं योग्यता देकर चुनाव की स्वतंत्रता देते हैं, उन्हें कभी पछताना नहीं पड़ता. साथ ही जो व्यक्ति ऊपरी चमक दमक नहीं, गुण तथा योग्यता देखकर जीवनसाथी चुनते हैं वे सुखी रहते हैं.
शिक्षा का दूसरा उद्देश्य है ज्ञान को प्रायोगिक, व्यवहारिक स्वरूप देना. गृहिणी घर की नींव होती है. सही मायने में शिक्षित स्त्री खानपान एवं दिनचर्या को सेहत के नियमों के अनुसार निर्धारित करती है. जिसका आयु एवं स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ता है. आज कई परिवारों में सदस्यों की नित्य की बीमारियों या अल्पायु का कारण अशिक्षा या ग़लत शिक्षा है. हमारा पारंपरिक शिक्षा का ढांचा पूरी तरह अंक केंद्रित है. किताबी ज्ञान तथा ज़्यादा से ज़्यादा रोजगार के अवसर मुहैया करने की क्षमता विकसित करने में बच्चे का बचपन निकल जाता है. संतुलित भोजन, व्यायाम तथा थोड़ा सा ध्यान-प्राणायाम आदि, जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए सर्वाधिक आवश्यक हैं, उनकी सही आदत बनाने की ओर शिक्षा प्रणाली बिल्कुल ध्यान नहीं देती. ये कहानी प्रकारांतर से बताती है कि थोड़ी सी नियमित तपश्चर्या, शुचिता तथा सात्विक आहार से जीवन में आरोग्य तथा आयुष बसते हैं.
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में सही तार्किक क्षमता का विकास करना भी है. सत्यवान साधनहीन सत्यनिष्ठ व्यक्ति का प्रतीक है जिनके जीवन को सदा ही दमनकारियों तथा सत्ता के पुजारियों से संकट रहा हैं. समाज में फैली विसंगतियों से बचने का एकमात्र उपाय अपनी आत्मशक्ति के विकास द्वारा निर्भय होना ही है. सत्यवान और सावित्री ऐसे ही निर्भय दम्पत्ति का प्रतीक हैं. आत्मविश्वास के साथ विनम्रता पूर्वक किये गए तर्क निर्दयी तथा आक्रामक व्यक्ति का भी ह्रदय परिवर्तन कर सकते हैं. जैसे बुद्ध ने अंगुलिमाल तथा बाबा भारती ने डाकू खड्ग सिंह का किया था. उसके लिए अपने पूर्ण आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता होती है जो सावित्री द्वारा पायी गई सही शिक्षा द्वारा संभव हुआ. हम अपनी पौराणिक कथाओं में छिपे प्रतीकार्थो को समझे बिना ही उन्हें अवैज्ञानिक कह देते हैं इसीलिए उनके द्वारा दी गई शिक्षाओं से वंचित रह जाते हैं.
अब आई बरगद और प्रोजेक्ट की बात… तो हमारी संस्कृति में हमारी भावनाओं को पर्यावरण के साथ जोड़ने का मक़सद उसकी सुरक्षा था. हमारे ॠषि जानते थे कि हमारा लालच एक दिन पर्यावरण के लिए संकट उपस्थित करेगा. यही सोचकर ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के लिए अनिवार्य वृक्षों – बरगाद तथा पीपल को गृहिणी के जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति, उसके पति के जीवन के साथ जोड़ा ताकि इन वृक्षों के प्रति हमारा भावनात्मक लगाव इनकी सुरक्षा बन सके. हम जिसकी पूजा करेंगे उसे कभी नष्ट नहीं होने देंगे. ये वृक्ष औषधीय गुणों के कारण भी अनमोल हैं. इसीलिए चार्ट पेपर पर पर्यावरण का कोई क्राफ़्ट प्रोजेक्ट बनाने के बजाए बरगद के नीचे उग आए बरगदों और यहां-वहां उग आए पीपलों को सहेज कर गमले में रोप दिया जाए और थोड़ा बड़ा होने पर बरसात में सड़क किनारे लगा दिया जाए तो ये हमारी संस्कृति ही नहीं पर्यावरण की रक्षा का भी सच्चा प्रयत्न होगा. ये जो हम लेखों में पढ़ते हैं कि हर साल प्रदूषण से इतने लाख मौतें हुईं तो जिन लाखों लोगों को यमराज हर साल असमय लिए जा रहे हैं वे किसी सावित्री के सत्यवान, किसी मां-बाप की आंखों के तारे तो होंगे ही. उन्हें हम बरगद की पूजा अर्थात् प्राकृतिक संसाधनों के अनुचित दोहन को रोककर और अपनी सूझ-बूझ द्वारा प्रकृति के संवर्धन के वैज्ञानिक रास्ते खोजकर ही रोक सकते हैं.
तो हमारी जेनेरेशन नेक्स्ट कहानी सुनते-सुनते पीपल और बरगद के पौधों को पुराने डब्बों में रोप चुकी थी और अगले साल उन्हें ज़मीन में लगाने के लिए उत्साहित होकर जगहों पर विचार कर रही थी. और मैं सपनों में खोई थी कि काश! हम सब मिलकर इस प्रयत्न को बढ़ा पाते…