जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है या ब्रह्म मिथ्या और जगत सत्य. ये विवाद सदैव से चलता आया है और चलता रहेगा. किंतु इसका उत्तर जानने के लिए अगर हम पुराणो की ओर जाएं और उनका सिर्फ़ पठन ही नहीं मनन भी करें तो पाएंगे कि हमारे व्रत, उपवासों में कोई तो वैज्ञानिक आधार छिपा है, जिन्हें यदि हम समझ लें तो इन्हें बनाने के उद्देश्य से परिचित हो सकेंगे. हो सकता है हमारे द्वंद्वग्रस्त मन को पूजा की सही विधि भी मिल जाए और अपने स्तर पर कुछ सार्थक करने का संतोष भी. यहां नवरात्र के तीसरे दिन की पूज्य देवी चंद्रघंटा की पूजा की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रही हैं भावना प्रकाश.
नवरात्रि की तृतीय देवी हैं, मां चंद्रघंटा. इनके बारे में यदि आप परम्परागत मान्यताएं गूगल आंटी से पूछेंगे तो पर्याप्त असमंजस मिलेगा. कहीं ये अस्त्र-शस्त्र से सुशोभित, सिंह पर सवार, राक्षसों का संहार करने को उद्यत दिखाई पड़ेंगी. तो कहीं चंन्द्र को शीतलता का प्रतीक बताकर इन्हें कोमलता शांति और सुंगंधि की देवी बताया जाएगा.
अब प्रतीकार्थ एवं प्रासंगिकता की ओर बढ़ें तो एक रोचक तथ्य उजागर होगा. चंद्रमा सदा से काव्य-शात्र में शीतलता का प्रतीक रहा है और घंटा अडिग रहने वाली दृढ़ता से निश्चित हुए कार्य के उद्घोष का. इसीलिए मंदिर में घंटा बजाने का रिवाज जन्मा कि हम जो भी करने जा रहें हैं, उसके सत्य और समाजोपयोगी होने का हमें इतना विश्वास है कि उसे उद्घोषणा करके शुरू कर रहे हैं.
जब हम कोई भी समाजोपयोगी कार्य करने की शुरुआत करते हैं तो आत्मीयजनों और साथ के साथ दमनकारी शक्तियों का विरोध लगभग तय होता है. ध्यान से सोचें तो पाएंगे किसी भी व्यक्ति के लोभ का नज़र आने वाला सुपरिणाम भी पूरे परिवार को मिलता है और त्याग का दुष्परिणाम भी. उदाहरण के लिए रिश्वत लेने वाले कर्मचारी का कलंकित धन परिवार भी उपयोग करता है और जब राम गृह त्यागकर वन गए थे तो उसका दुख उनके माता-पिता तथा उनसे प्रम करने वाले व्यक्तियों ने भी अपरिहार्य रूप से झेला था.
तो ऐसा कोई भी कार्य, जिसमें संघर्ष अनिवार्य है, करने के लिए हमें भीतर बाहर लड़ाई लड़नी पड़ती है. इस लड़ाई के लिए हमें कैसा व्यक्तित्व चाहिए होता है? वैसा ही जैसा विरोधाभास मां चंद्रघंटा के रूप और नाम में है. ऐसा व्यक्तित्व जो विनम्रता और कठोरता के विरोधाभास से पूर्ण हो. सत्य कहने का साहस भी रखता हो और प्रतिवाद सुनकर उग्रता से उसका दमन करने पर उतारू न हो जाने का विवेक भी.
हम किसी भी युग प्रवर्तक, जैसे- गांधी जी के उदाहरण से इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं. उनके व्यक्तित्व की यही तो ख़ासियत थी. उनमें अपनी बात पर अडिग रहने की कठोरता भी थी, निरंतर बात कहते जाने का सख़्त धैर्य भी और प्रतिवाद से उग्र न होकर विनम्रता और अहिंसक ढंग से तर्कों के साथ बात कहते रहने की प्रतिभा अर्थात शांतिप्रियता भी. ‘छोड़ो जाने दो’ की कमज़ोरी और खीझ और ग़ुस्से से उपजी ‘आक्रामकता’ को ख़ुद पर हावी न होने देने वाले व्यक्तिव निर्माण के लिए जो साधना करनी पड़ती है, उसी का नाम है देवी चंद्रघंटा की पूजा.
अस्त्र-शस्त्र प्रतीक हैं, आवश्यक तर्कों और जानकारियों का, युद्ध के लिए सन्नद्धता प्रतीक है अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित होकर कार्य को तत्पर रहने का, चंद्र मतलब शांति और विनम्रता के साथ, लेकिन घंटा मतलब सख़्ती और अडिगता से बात कहते जाना. ऐसे कि उससे प्रतिध्वनियां उत्पन्न होती रहें.
अब मनोवैज्ञानिकों के लेखों पर ध्यान दें यह स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि ऐसा व्यक्तित्व कैसे मिलेगा. सात्विक आहार, व्यायाम, ध्यान, प्राणायाम हमारे भीतर ख़ुशी और धैर्य विकसित करने वाले हॉर्मोंस बढ़ाते हैं. और ज्ञानार्जन से तर्क शक्ति का विकास होता है. बस, यही है मां चंद्रघंटा की पूजा.
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