कभी-कभी हम अपनों के बीच रहकर भी नितांत अकेले होते हैं. यदि इस अकेलेपन को समझने वाला कोई न हो और हम स्वयं भी संकोच के दायरे में सिमटे हों तो रिश्तों के बीच दूरियां आ जाती हैं. कई बार इन दूरियों से उपजी खाई बहुत गहरी हो जाती है. इतनी गहरी कि उसमें सबकुछ समा जाता है-ट्रेन भी और ट्रेन में बैठे मां-बाबूजी भी.
सब कुछ सुस्त था. सुबह भी. सूरज बादलों का लिहफ़ ओढ़े सोया था. एक ऊंघती हुई 534 नंबर की बस आई और वह उसमें सवार हो गया. उसने ज़ोर से धक्का दे कर बस की खिड़की का शीशा बंद किया और अपने हाथ सिकोड़ कर बगल में छुपा दिए. ‘ठंड आ गई,’ वह मन ही मन बुदबुदाया. दिल्ली की धुंध वाली सर्द सुबह में उसने आंखें बंद कीं और अम्मा-बाबूजी का चेहरा याद करने लगा. दोनों की शक्लें उसे बाहर के मौसम की तरह धुंध में कहीं खोई-खोई सी लग रही थीं. कितने साल हो गए होंगे उन्हें देखे? हिसाब लगाने के लिए उसने अपनी आदत के अनुसार हथेली फैला कर एक-एक उंगली मोड़नी शुरू की. उसे लगा सुलेखा बगल में बैठी फक्क से हंस दी है.
‘कैसे बच्चों जैसे गिनते हो, पूरी उंगलियों को फैला कर. ऐसे नहीं गिन सकते,’ और वह अपने अंगूठे को उंगलियों के पोरों पर धीमे-धीमे छुआती गिनती करने लगी. ‘एक-दो-तीन-चार-पांच-छह…. छह साल! बाप रे. छह साल हुए तुमने अपने मां-पापा को नहीं देखा. कैसे दुष्ट हो तुम.’
‘नहीं तो,’ वह कहना चाहता है लेकिन…. उसे दो शब्दों से सख़्त ऐतराज़ रहा करता था, काश और लेकिन. यह विडंबना ही है कि उसका जीवन अब इन दो शब्दों के बीच ही सिमट कर रह गया है, काश और लेकिन.
‘तुम घर क्यों नहीं जाते?’ बहुत अंतरंग किसी क्षण में सुलेखा ने उससे पूछा था. वह कोई जवाब नहीं दे पाया था. यदि उसके पास इसका कोई जवाब होता तो वह कब का घर जाने वाली ट्रेन में बैठ गया होता. घर. ऐसा घर जिसमें उसके लिए पहले जगह कम, फिर ख़त्म होती चली गई थी. पुरानी बातें सोच कर उसका मन कहीं-कहीं गीला हो आता था. इतना गीला कि अगर वह लड़की होता तो पक्के तौर पर रो लेता.
बीस मिनट के इंतज़ार के बाद इंजन धीरे-धीरे रेंगता प्लैटफ़ॉर्म की ओर बढ़ रहा था. वह बुत बना खड़ा रहा. ट्रेन रुकी और लोग डब्बों की तरफ़ दौड़ पड़े. वह अम्मा-बाबूजी को पहचानना, जितना कठिन समझ रहा था, उसे वह काम उतना कठिन नहीं लगा. बाबूजी के बाल पूरे सफ़ेद हो गए हैं और नीचे के दो दांत टूट गए हैं. अम्मा तो बिलकुल वैसी ही है. ख़ालीपन लिए हुए भूरी आंखों वालीं. गोल चेहरा, जिसे कभी अधिकार का भाव जाग ही न सका. दमकता गोरा रंग और निस्तेज व्यक्तित्व. उनके मुक़ाबले सुलेखा कितनी अलग है. जो करना है वही करना है, जो पसंद नहीं उसे वह बिलकुल नहीं ढोएगी. चाहे फिर वह ही क्यों न हो. अचानक उसे याद आया कि मिलने पर तो पैर छुए जाते हैं. वह हल्के से झुका तो बाबूजी ने उसकी दोनों बाहें थाम लीं. ‘
बस.’ उसने मन में कहा. उसे लगा था बाबूजी उसे भी वैसे ही गले लगा लेंगे जैसे भैया को लगा लेते हैं, जब वह पैर पड़ने झुकते हैं. बिना किसी औपचारिक वाक्य के बाबूजी का सीधा-सपाट वाक्य आया,’‘घर कितनी दूर है?’’
‘‘कुछ ख़ास दूर नहीं है.’’
‘‘बस जाती है वहां तक या फिर कैसे चलेंगे?’’
‘‘नहीं ऑटो ले लेंगे.’’
‘‘ऑटो महंगा नहीं पड़ेगा.’’
‘‘नहीं कुछ ख़ास नहीं.’’
‘‘मैंने इसलिए पूछा कि दिल्ली, मुंबई में ऑटो के किराए बहुत होते हैं. पिछली दफ़ा जब अनुज के पास मुंबई गए थे तो उसने बताया था. ख़ैर, वह तो हमें अपनी कार में लेने आ गया था,’’ उसने महसूस किया बाबूजी ने अनुज और कार को थोड़े गर्व में कहा और मां ने उस पर सिर्फ़ एक गहरी नज़र डाल दी है. उसने चेहरा फेर लिया और ऑटो वाले को आवाज़ दे दी.
बर्फ़ीली रात में उसने धीमे-से दरवाजा खोला और पीछे के वरांडे में आ गया. जाली से घिरे वरांडे के एक कोने में पुराने अख़बार बेतरतीब से, मीनार-सी बनाए हुए थे. रंग उड़ी नायलोन की रस्सी पर बाबूजी की चौखाने की लुंगी और पीली पड़ गई बनियान और मां की साड़ी सूख रही थी. उसने हौले से साड़ी को छुआ. कपड़ा कितना हल्का है. उसने फौरन साड़ी का किनारा छोड़ दिया. मां इतनी सस्ती साड़ियां पहनने लगी हैं. कब से? भैया कार में लेने आ सकता है तो क्या मां-बाबूजी को ढंग के चार कपड़े नहीं दिला सकता. बचपन का आक्रोश ने फिर सिर उठा लिया. हल्के खुले दरवाज़े से बाहर की रोशनी अंदर झांक रही थी. बाबूजी तख़त पर चित गहरी नींद में थे. अपनी चिरपरिचित मुद्रा में. उनके दोनों हाथ उनके सीने पर रखे हुए थे. पैरों के बीच हल्की-सी दूरी थी. उनकी छाती के ऊपर-नीचे होने से ही कोई जान सकता था कि वह जिंदा हैं. वरना जीवन जैसा उनके पास कुछ बचा नहीं था. उनके खुले मुंह से नीचे के टूटे दांत झांक रहे थे. नीचे गद्दे पर मां सोई थीं, गुड़ीमुड़ी उसकी मटमैली चादर को खुद पर लपेटे. उसने जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाल कर एक सिगरेट मुंह में रखी ही थी कि मां कुनमुनाईं. उसने घबराकर सिगरेट को फुर्ती से जेब में रखा और दरवाज़े को बंद करने के लिए हाथ बढ़ा दिया.
‘’वह किस वजह से यह घर छोड़ कर चली गई?’’ तीन दिन बाद स्पष्ट रूप से पूछा जाने वाला मां का यह पहला वाक्य था. मां की आवाज़ में अधिकार था. उनकी आवाज़ की तेज़ी सुनकर ही वह समझ गया पिताजी निश्चित रूप से बाहर गए हैं.
पहले उसका मन किया सब सच-सच कह दे. फिर उसने गला साफ़ किया और बस इतना ही कह सका,‘’हमारा स्वभाव नहीं मिलता था.’’
‘’स्वभाव? स्वभाव क्या होता है रे रूनू? मेरा और तेरे पिताजी का स्वभाव मिलता है क्या? क्या तेरे भैया और भाभी क्या एक जैसे हैं? तेरी बहन क्या तेरे जीजा-सी लगती है तुझे? स्वभाव नहीं मिलता. वाह. क्या कारण ढूंढा रे रूनू अलग होने का. रिश्ते निभाना तो सीखना पड़ता है. पर तुझे रिश्तों की परवाह रही ही कब?’’
उसका मन किया पलट कर तीखा-सा जवाब दे कि वह रिश्ते ही निभाता रह गया. जो चीज़ उसे मिली नहीं, वही चीज़ उसने सुलेखा को देने की कोशिश की. भरपूर कोशिश. वह प्यार से इतना ख़ाली था कि उसने सोचा सिर्फ़ प्यार करने भर से रिश्ते चल जाते हैं. सिर्फ़ प्यार करने भर से कोई हमेशा के लिए किसी का हो कर रह सकता है. लेकिन… ऐसा नहीं हुआ. काश…उसने इसके अलावा भी सोचा होता. काश.
‘भैया ठीक हैं?’’ उसने बात का रुख़ पलटना चाहा.
‘’हां सब अपनी जगह ठीक हैं. मुझे तो तुम्हारी फ़िक्र सताती है. यूं अकेले जीवन नहीं कटता. अब क्या करोगे कुछ सोचा है? दूसरी शादी?’’
उसने महसूस किया शादी शब्द तक आते-आते मां की आवाज़ का स्वर बिलकुल धीमा हो गया था. वैसा धीमा जैसे बाबूजी से बात करते वक़्त हो जाया करता है.
वह कहना चाहता था अकेलापन तो उसकी नियति है. इतने सालों से भी तो अकेला था. सुलेखा तो मात्र डेढ़ साल रही उसके जीवन में.
‘’वह कहती क्या थी? क्या पसंद नहीं था उसको तेरे स्वभाव में?’’
‘फिर आरोप?’ उसने अपने मन में सोचा. मां इस सवाल को ऐसे भी पूछ सकती थीं, ‘क्या दिक़्क़त थी तुम दोनों के स्वभाव में.’ लेकिन उन्होंने मान लिया कि उसके स्वभाव में ही दिक़्क़त रही होगी. आहट बता रही थी, बाबूजी सीढ़ियां चढ़ रहे हैं. उसने मां की तरफ़ देखा और निगाहों में पूछा,’इस बात का जवाब अभी चाहिए?’
मां धीमे से उठीं और वचन निभाने में पक्के, रिश्ते निभाने में कच्चे श्रीराम की कथा में खो गईं. यही तो वह हमेशा से करतीं आईं हैं. परिस्थितियों से भागना और रामचरितमानस की ओट में दुबक जाना. उसका अंदाज़ा सही निकला. दरवाज़े पर बाबूजी खड़े थे.
‘‘सतीश भी तो दिल्ली रहता है न?’’ बाबूजी का प्रश्न तीर की तरह घुसा उसके दिल में. सतीश का नाम कितने दिनों बाद सुन रहा है.
‘’हं…हां.’’
‘‘बुलाओ उसे किसी दिन घर पर. शादी-वादी की या नहीं उसने?’’
‘’हां’’
‘‘मर्ज़ी से की या…’’ बाबूजी ने जानबूझ कर शायद वाक्य अधूरा छोड़ दिया.
किसी को शर्मिंदा करने के लिए क्या ज़रूरी है कि पूरी बातें बोली ही जाएं. कई बार अधूरी चीज़ें, पूरी चीज़ों के मुक़ाबले ज़्यादा स्पष्ट संकेत देती हैं. घर की कई अधूरी चीज़ें उसे भी तो संकेत दे रही थीं कि कुछ तो है जो उसे अधूरा छोड़ अपनी पूर्णता की ओर बढ़ रहा है. सुलेखा की अधूरी इच्छाएं, उसके अधूरे सपने. उसे लगता था वह सुलेखा के सूने गले को अपनी बाहों के हार से भर देगा, सुलेखा के जागने से पहले बढ़िया खाना बनाएगा और बाहर खाना खाने की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी. मकान नहीं ख़रीद पा रहा तो क्या वह सुलेखा को घर देगा. घर. जहां छह साल से वह नहीं गया. वह अपना ख़ुद का घर बनाएगा. लेकिन…. काश… उसने कुछ और भी सोचा होता. काश… उसने सोचा होता जो आपको नहीं मिलता, वह कोई कैसे बांट सकता है.
‘‘जब तुम अलग हुए तब समझाया नहीं उसने तुम्हें. बड़ा समझदार लड़का है वह. तुम्हें कुछ सीखना चाहिए उससे.’’
उसका मन किया बाबूजी को बताए कि सच में वह बहुत समझदार है. वह जल्द ही समझ गया कि लड़कियों के दिल कैसे जीते जाते हैं. फिर चाहे वह दोस्त की पत्नी ही क्यों न हो. समझाया भी था उसने कि यदि वह आसानी से न समझा और तलाक़ के काग़ज़ात पर साइन नहीं किए तो वह फिर उसे ठीक से ‘समझाएगा’. सीखना तो उससे सच में चाहिए.
हल्की में खड़े मां-बाबूजी सुनहरे रंग के दिख रहे थे. प्लैटफ़ॉर्म पर आज उतनी भीड़ नहीं थी. उसने बाबूजी के हाथ में लौटने का टिकट थमाया. वह जानता था उन दोनों को दोबारा देखने के लिए अब उसे ही उनके पास जाना होगा. घर उसने छोड़ा था इसलिए उसे ही एक बार आना पड़ेगा की ज़िद पता नहीं कितने साल चलती यदि नींद की गोलियां खा कर वह अस्पताल न पहुंच गया होता. लेकिन उसके पास कोई चारा नहीं था. काश… उसने अपनी निराशा पर क़ाबू पाना सीख लिया होता. उसने झुक कर बाबूजी के पैर छुए. उन्होंने उसके कंधे थपथपाए और गाड़ी में चढ़ गए. उसका सीना बाबूजी के सीने से टकराने का इंतज़ार ही करता रह गया. इंतज़ार ने उसके सीने में बहुत बड़ा गड्ढा कर दिया. इतना बड़ा कि पूरी ट्रेन उसमें समा गई. ट्रेन में बैठे मां-बाबूजी भी.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट