चंद्रकांत देवताले की यह कविता सभ्यता के विकास की ख़तरनाक दिशा की ओर इशारा करती है. मां के समय जो ख़तरा केवल किसी एक दिशा में था, वह ख़तरा, वह भय अब चारों दिशाओं में फैल गया है. ऐसे में मां की उन समझाइशों का क्या वाक़ई कोई मतलब रह गया है? कविता ‘यमराज की दिशा’ यह सवाल छोड़ जाती है.
मां की ईश्वर से मुलाक़ात हुई या नहीं
कहना मुश्क़िल है
पर वह जताती थी जैसे
ईश्वर से उसकी बातचीत होती रहती है
और उससे प्राप्त सलाहों के अनुसार
ज़िंदगी जीने और दुख बरदाश्त करने के
रास्ते खोज लेती है
मां ने एक बार मुझसे कहा था
दक्षिण की तरफ़ पैर करके मत सोना
वह मृत्यु की दिशा है
और यमराज को क्रुद्ध करना
बुद्धिमानी की बात नहीं
तब मैं छोटा था
और मैंने यमराज के घर का पता पूछा था
उसने बताया था
तुम जहां भी हो वहां से हमेशा दक्षिण में
मां की समझाइश के बाद
दक्षिण दिशा में पैर करके मैं कभी नहीं सोया
और इससे इतना फ़ायदा ज़रूर हुआ
दक्षिण दिशा पहचानने में
मुझे कभी मुश्क़िल का सामना नहीं करना पड़ा
मैं दक्षिण में दूर-दूर तक गया
और मुझे हमेशा मां याद आई
दक्षिण को लांघ लेना सम्भव नहीं था
होता छोर तक पहुंच पाना तो यमराज का घर देख लेता
पर आज जिधर भी पैर करके सोओ
वही दक्षिण दिशा हो जाती है
सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं
और वे सभी में एक साथ
अपनी दहकती आंखों सहित विराजते हैं
मां अब नहीं है
और यमराज की दिशा भी वह नहीं रही
जो मां जानती थी
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