पत्रकार, लेखिका सोनम गुप्ता की यह कविता उस सच्चाई को हर्फ़ दर हर्फ़ बयां करती है, जिससे मध्यमवर्ग की युवतियों और महिलाओं को रोज़ाना रूबरू होना पड़ता है. महिला उत्थान और सशक्तिकरण के नाम पर किस तरह उनका शोषण हो रहा है कविता ‘ज़िम्मेदारियां, ब्रा की तरह हैं’ बिना किसी लाग-लपेट के बताती है.
ज़िम्मेदारियां, ब्रा की तरह हैं
नए ज़माने के हिसाब से
यह ब्रा और भी कसती जा रही है
हमें और आकर्षक दिखाने
व सुरक्षा देने के बहाने
हमारे ऊपर लदती जा रही हैं
ज़िम्मेदारियां, ब्रा की तरह
उतारों तो ज़माना बेशर्म कहता है
संस्कारों व मर्यादाओं की दुहाई देने लगता है
और पहनो तो घुटन होने लगती है
सालों से ढोते-ढोते
कंधों पर, स्तनों के नीचे भूरे-लाल निशान पड़ जाते हैं
पीठ में दर्द उठने लगता है
और हाथ बोझिल महसूस करने लगते हैं
क्योंकि…ज़िम्मेदारियां ब्रा की तरह हैं
वे अलग-अलग रंग में ब्रा बनाते हैं
कभी किचन की रानी हो
घर की महारानी हो
करियर तो तुम्हारी पहचान है
जैसे कई रंग व डिज़ाइन से हमारी लालसा जगाते हैं
और फिर
जैसे ही हमारे आंखों में उम्मीद की चमक दिखती है
स्ट्रैप को कस कर
झट से हुक लगा देते हैं,
टांग देते हैं ज़िम्मेदारियां
हम इसे अपना प्रोटेक्शन मानकर
हंसते-हंसते पहन लेती हैं
अपने स्तनों की तरह
आंखों के आंसुओं को भी छिपा लेती हैं
घर की, बाहर की, फ़ाइनैंस की
हर तरह से लदी-फदी ज़िम्मेदारियों
उर्फ़ ब्रा को
वह नई-नवेली किशोरी
पहले तो उत्सुकता से पहनती है
लेकिन फिर वही उसकी मजबूरी बन जाती है
ताउम्र उसके सीने पर लद जाती है
चाहकर भी नहीं उतार पाती वह ब्रा
समय-समय पर उसे याद दिलाया जाता है,
कैसे ब्रा पर टिकी है उसकी इज़्ज़त, उसकी ख़ुशियां, उसका सम्मान
अब तो ब्रा से मुक्ति पाने के
ढेरों आंदोलन भी होते हैं
रात के न्यूज़ में आस भरी निगाहों से
ब्रा मुक्ति की ख़बर देखती है वह
और फिर
सुबह उठकर अल्मारी से निकालकर
एक मिडल क्लास औरत लाद लेती है ब्रा
ज़िम्मेदारियों की तरह
Illustration: Pinterest
लंबे समय तक टाइम्स ऑफ़ इंडिया की पत्रिका फ़ेमिना हिंदी से संलग्न रहीं सोनम गुप्ता, फ़िलहाल एक ऑटोमोबाइल वेबसाइट कार वाले डॉट काम में कार्यरत हैं. ड्राइविंग, घुमक्कड़ी, बागवानी, रीडिंग और कुकिंग इन्हें बेइंतहा पसंद है.