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बड़े भाई साहब: दो भाइयों की अनूठी कहानी (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
January 16, 2022
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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बड़े भाई साहब: दो भाइयों की अनूठी कहानी (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)
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हिंदी के उपन्यास सम्राट कहे जानेवाले मुंशी प्रेमचंद की कहानी बड़े भाई साहब कठोरता, स्नेह और ईमानदारी से अपनी ज़िम्मेदारी संभालनेवाले एक बड़े भाई की कहानी है. घर से दूर पढ़ने के लिए शहर आए दोनों भाइयों की उम्र में यूं तो पांच साल का फासला है, पर उनके दर्जे का फासला हर साल कम होता जा रहा है. बड़े भाई साहब ख़ूब दिल लगाकर दिन-रात पढ़ते हैं, पर हर कक्षा में दो-तीन साल बिताते हैं. वहीं छोटा भाई खेल-कूद और मस्ती-मज़ाक करने के बावजूद अव्वल दर्जे से पास होता है. क्या छोटे भाई पर बड़े का हुक़्म चलाना समय के साथ कम होनेवाला है? क्या छोटे की नज़रों में बड़े भाई की इज़्ज़त कम हो जाएगी?

मेरे भाई साहब मुझसे पांच साल बड़े थे, लेकिन तीन दरजे आगे. उन्होंने भी उसी उम्र में पढ़ना शुरू किया था, जब मैंने शुरू किया; लेकिन तालीम जैसे महत्‍व के मामले में वह जल्‍दीबाज़ी से काम लेना पसंद न करते थे. इस भवन कि बुनियाद ख़ूब मज़बूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके. एक साल का काम दो साल में करते थे. कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे. बुनियाद ही पुख़्ता न हो, तो मकान कैसे पाएदार बने.
मैं छोटा था, वह बड़े थे. मेरी उम्र नौ साल की, वह चौदह साल के थे. उन्‍हें मेरी तम्‍बीह और निगरानी का पूरा जन्‍मसिद्ध अधिकार था. और मेरी शालीनता इसी में थी कि उनके हुक्‍म को कानून समझूं.
वह स्‍वभाव से बड़े अध्ययनशील थे. हरदम किताब खोले बैठे रहते और शायद दिमाग़ को आराम देने के लिए कभी कापी पर, कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्‍तों, बल्लियों की तस्‍वीरें बनाया करते थे. कभी-कभी एक ही नाम या शब्‍द या वाक्‍य दस-बीस बार लिख डालते. कभी एक शेर को बार-बार सुन्‍दर अक्षर से नकल करते. कभी ऐसी शब्‍द-रचना करते, जिसमें न कोई अर्थ होता, न कोई सामंजस्‍य! मसलन एक बार उनकी कापी पर मैने यह इबारत देखी-स्‍पेशल, अमीना, भाइयों-भाइयों, दर-असल, भाई-भाई, राघेश्‍याम, श्रीयुत राघेश्‍याम, एक घंटे तक-इसके बाद एक आदमी का चेहरा बना हुआ था. मैंने चेष्‍टा की कि इस पहेली का कोई अर्थ निकालूं; लेकिन असफल रहा और उसने पूछने का साहस न हुआ. वह नवी जमात में थे, मैं पांचवी में. उनकि रचनाओं को समझना मेरे लिए छोटा मुंह बड़ी बात थी.
मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था. एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था. मौक़ा पाते ही होस्‍टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियां उछालता, कभी काग़ज़ कि तितलियां उड़ाता, और कहीं कोई साथी मिल गया तो पूछना ही क्‍या! कभी चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूद रहे हैं, कभी फाटक पर वार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे हैं. लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते. उनका पहला सवाल होता,‘कहां थे?’ हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था. न जाने मुंह से यह बात क्‍यों न निकलती कि ज़रा बाहर खेल रहा था. मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्‍वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि रोष से मिले हुए शब्‍दों में मेरा सत्‍कार करें.
‘इस तरह अंगरेज़ी पढ़ोगे, तो ज़िंदगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ़ न आएगा. अंगरेज़ी पढ़ना कोई हंसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ लें, नहीं, ऐरा-गैरा नत्‍थू-खैरा सभी अंगरेज़ी के विद्धान हो जाते. यहां रात-दिन आंखें फोड़नी पड़ती हैं और ख़ून जलाना पड़ता है, तब कहीं यह विधा आती है. और आती क्‍या है, हां, कहने को आ जाती है. बड़े-बड़े विद्धान भी शुद्ध अंगरेज़ी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा. और मैं कहता हूं, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते. मैं कितनी मेहनत करता हूं, तुम अपनी आंखों से देखते हो, अगर नहीं देखते, जो यह तुम्‍हारी आंखों का कसूर है, तुम्‍हारी बुद्धि का कसूर है. इतने मेले-तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज़ ही क्रिकेट और हॉकी मैच होते हैं. मैं पास नहीं फटकता. हमेशा पढ़ता रहा हूं, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूं फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कूद में वक़्त गंवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो-ही-तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे. अगर तुम्‍हें इस तरह उम्र गंवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मज़े से गुल्‍ली-डंडा खेलो. दादा की गाढ़ी कमाई के रुपए क्‍यों बरबाद करते हो?’
मैं यह लताड़ सुनकर आंसू बहाने लगता. जवाब ही क्‍या था. अपराध तो मैंने किया, लताड़ कौन सहे? भाई साहब उपदेश की कला में निपुण थे. ऐसी-ऐसी लगती बातें कहते, ऐसे-ऐसे सूक्‍ति-बाण चलाते कि मेरे जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते और हिम्‍मत छूट जाती. इस तरह जान तोड़कर मेहनत करने की शक्‍ति मैं अपने में न पाता था और उस निराशा में ज़रा देर के लिए मैं सोचने लगता-क्‍यों न घर चला जाऊं. जो काम मेरे बूते के बाहर है, उसमें हाथ डालकर क्‍यों अपनी ज़िंदगी ख़राब करूं. मुझे अपना मूर्ख रहना मंजूर था; लेकिन उतनी मेहनत से मुझे तो चक्‍कर आ जाता था. लेकिन घंटे-दो घंटे बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से ख़ूब जी लगाकर पढ़ूंगा. चटपट एक टाइम-टेबिल बना डालता. बिना पहले से नक्‍शा बनाए, बिना कोई स्‍कीम तैयार किए काम कैसे शुरू करूं? टाइम-टेबिल में, खेल-कूद की मद बिलकुल उड़ जाती. प्रात:काल उठना, छ: बजे मुंह-हाथ धो, नाश्‍ता कर पढ़ने बैठ जाना. छ: से आठ तक अंगरेज़ी, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, फिर भोजन और स्‍कूल. साढ़े तीन बजे स्‍कूल से वापस होकर आधा घण्‍टा आराम, चार से पांच तक भूगोल, पांच से छ: तक ग्रामर, आधा घंटा होस्‍टल के सामने टहलना, साढे छ: से सात तक अंगरेज़ी कम्‍पोजीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्‍दी, दस से ग्‍यारह तक विविध विषय, फिर विश्राम. मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात. पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती. मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हलके-हलके झोंके, फ़ुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दांव-घात, वाली-बाल की वह तेज़ी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहां जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता. वह जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह आंखफोड़ पुस्‍तकें किसी कि याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फ़जीहत का अवसर मिल जाता. मैं उनके साये से भागता, उनकी आंखों से दूर रहने कि चेष्‍टा करता. कमरे में इस तरह दबे पांव आता कि उन्‍हें ख़बर न हो. उनकी नज़र मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले. हमेशा सिर पर नंगी तलवार-सी लटकती मालूम होती. फिर भी जैसे मौत और विपत्‍ति के बीच में भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुड़कियां खाकर भी खेल-कूद का तिरस्‍कार न कर सकता.

***

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सालाना इम्‍तहान हुआ. भाई साहब फ़ेल हो गए, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया. मेरे और उनके बीच केवल दो साल का अन्‍तर रह गया. जी में आया, भाई साहब को आड़े हाथो लूं-आपकी वह घोर तपस्‍या कहां गई? मुझे देखिए, मज़े से खेलता भी रहा और दरजे में अव्‍वल भी हूं. लेकिन वह इतने दु:खी और उदास थे कि मुझे उनसे दिल्‍ली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्‍जास्‍पद जान पड़ा. हां, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्‍माभिमान भी बढ़ा. भाई साहब का वह रोब मुझ पर न रहा. आज़ादी से खेल-कूद में शरीक होने लगा. दिल मज़बूत था. अगर उन्होंने फिर मेरी फ़जीहत की, तो साफ़ कह दूंगा-आपने अपना ख़ून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया. मैं तो खेलते-कूदते दरजे में अव्‍वल आ गया. जबाव से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे रंग-ढंग से साफ़ ज़ाहिर होता था कि भाई साहब का वह आतंक अब मुझ पर नहीं है. भाई साहब ने इसे भांप लिया-उनकी सहज बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्‍ली-डंडे को भेंट करके ठीक भोजन के समय लौटा, तो भाई साइब ने मानो तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े-देखता हूं, इस साल पास हो गए और दरजे में अव्‍वल आ गए, तो तुम्‍हारा दिमाग ख़राब हो गया है; मगर भाईजान, घमंड तो बड़े-बड़े का नहीं रहा, तुम्‍हारी क्‍या हस्‍ती है, इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा. उसके चरित्र से तुमने कौन-सा उपदेश लिया? या यों ही पढ़ गए? महज इम्‍तहान पास कर लेना कोई चीज़ नहीं, असल चीज़ है बुद्धि का विकास. जो कुछ पढ़ो, उसका अभिप्राय समझो. रावण भूमंडल का स्‍वामी था. ऐसे राजों को चक्रवर्ती कहते हैं. आजकल अंगरेज़ों के राज्‍य का विस्‍तार बहुत बढ़ा हुआ है, पर इन्‍हें चक्रवर्ती नहीं कह सकते. संसार में अनेकों राष्‍ट्र अंगरेज़ों का आधिपत्‍य स्‍वीकार नहीं करते. बिलकुल स्‍वाधीन हैं. रावण चक्रवर्ती राजा था. संसार के सभी महीप उसे कर देते थे. बड़े-बड़े देवता उसकी ग़ुलामी करते थे. आग और पानी के देवता भी उसके दास थे; मगर उसका अंत क्‍या हुआ, घमंड ने उसका नाम-निशान तक मिटा दिया, कोई उसे एक चिल्‍लू पानी देनेवाला भी न बचा. आदमी जो कुकर्म चाहे करें; पर अभिमान न करे, इतराए नहीं. अभिमान किया और दीन-दुनिया से गया.
शैतान का हाल भी पढ़ा ही होगा. उसे यह अनुमान हुआ था कि ईश्‍वर का उससे बढ़कर सच्‍चा भक्‍त कोई है ही नहीं. अन्‍त में यह हुआ कि स्‍वर्ग से नरक में ढकेल दिया गया. शाहेरूम ने भी एक बार अहंकार किया था. भीख मांग-मांगकर मर गया. तुमने तो अभी केवल एक दरजा पास किया है और अभी से तुम्‍हारा सिर फिर‍ गया, तब तो तुम आगे बढ़ चुके. यह समझ लो कि तुम अपनी मेहनत से नहीं पास हुए, अन्‍धे के हाथ बटेर लग गई. मगर बटेर केवल एक बार हाथ लग सकती है, बार-बार नहीं. कभी-कभी गुल्‍ली-डंडे में भी अंधा चोट निशाना पड़ जाता है. उससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता. सफल खिलाड़ी वह है, जिसका कोई निशान ख़ाली न जाए.
मेरे फ़ेल होने पर न जाओ. मेरे दरजे में आओगे, तो दांतों पसीना आएगा. जब अलजबरा और जॉमेंट्री के लोहे के चने चबाने पड़ेंगे और इंगलिस्‍तान का इतिहास पढ़ना पड़ेगा! बादशाहों के नाम याद रखना आसान नहीं. आठ-आठ हेनरी हो गुज़रे हैं कौन-सा कांड किस हेनरी के समय हुआ, क्‍या यह याद कर लेना आसान समझते हो? हेनरी सातवें की जगह हेनरी आठवां लिखा और सब नम्‍बर ग़ायब! सफाचट. सिर्फ़ भी न मिलेगा, सिफ़र भी! हो किस ख़्याल में! दरजनों तो जेम्‍स हुए हैं, दरजनों विलियम, कौड़ियों चार्ल्‍स. दिमाग़ चक्‍कर खाने लगता है. आंधी रोग हो जाता है. इन अभागों को नाम भी न जुड़ते थे. एक ही नाम के पीछे दोयम, तेयम, चहारम, पंचम लगाते चले गए. मुछसे पूछते, तो दस लाख नाम बता देता.
और जॉमेट्री तो बस ख़ुदा की पनाह! अ ब ज की जगह अ ज ब लिख दिया और सारे नम्‍बर कट गए. कोई इन निर्दयी मुमतहिनों से नहीं पूछता कि आखिर अ ब ज और अ ज ब में क्‍या फ़र्क़ है और व्‍यर्थ की बात के लिए क्‍यों छात्रों का ख़ून करते हो? दाल-भात-रोटी खायी या भात-दाल-रोटी खायी, इसमें क्‍या रखा है; मगर इन परीक्षकों को क्‍या परवाह! वह तो वही देखते हैं, जो पुस्‍तक में लिखा है. चाहते हैं कि लड़के अक्षर-अक्षर रट डालें. और इसी रटंत का नाम शिक्षा रख छोड़ा है और आख़िर इन बे-सिर-पैर की बातों के पढ़ने से क्‍या फ़ायदा?
इस रेखा पर वह लम्‍ब गिरा दो, तो आधार लम्‍ब से दुगना होगा. पूछिए, इससे प्रयोजन? दुगना नहीं, चौगुना हो जाए, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेगी. कह दिया,‘समय की पाबंदी’ पर एक निबन्‍ध लिखो, जो चार पन्‍नों से कम न हो. अब आप कापी सामने खोले, कलम हाथ में लिए, उसके नाम को रोइए.
कौन नहीं जानता कि समय की पाबन्‍दी बहुत अच्‍छी बात है. इससे आदमी के जीवन में संयम आ जाता है, दूसरों का उस पर स्‍नेह होने लगता है और उसके करोबार में उन्‍नति होती है; ज़रा-सी बात पर चार पन्‍ने कैसे लिखें? जो बात एक वाक्‍य में कही जा सके, उसे चार पन्‍ने में लिखने की ज़रूरत? मैं तो इसे हिमाकत समझता हूं. यह तो समय की किफायत नहीं, बल्‍कि उसका दुरुपयोग है कि व्‍यर्थ में किसी बात को ठूंस दिया. हम चाहते है, आदमी को जो कुछ कहना हो, चटपट कह दे और अपनी राह ले. मगर नहीं, आपको चार पन्‍ने रंगने पड़ेंगे, चाहे जैसे लिखिए और पन्‍ने भी पूरे फुल्‍सकेप आकार के. यह छात्रों पर अत्‍याचार नहीं तो और क्‍या है? अनर्थ तो यह है कि कहा जाता है, संक्षेप में लिखो. समय की पाबन्‍दी पर संक्षेप में एक निबन्‍ध लिखो, जो चार पन्‍नों से कम न हो. ठीक! संक्षेप में चार पन्‍ने हुए, नहीं शायद सौ-दो सौ पन्‍ने लिखवाते. तेज़ भी दौड़िए और धीरे-धीरे भी. है उल्‍टी बात या नहीं? बालक भी इतनी-सी बात समझ सकता है, लेकिन इन अध्‍यापकों को इतनी तमीज भी नहीं. उस पर दावा है कि हम अध्‍यापक हैं. मेरे दरजे में आओगे लाला, तो ये सारे पापड़ बेलने पड़ेंगे और तब आटे-दाल का भाव मालूम होगा. इस दरजे में अव्‍वल आ गए हो, वो ज़मीन पर पांव नहीं रखते इसलिए मेरा कहना मानिए. लाख फ़ेल हो गया हूं, लेकिन तुमसे बड़ा हूं, संसार का मुझे तुमसे ज़्यादा अनुभव है. जो कुछ कहता हूं, उसे गिरह बांधिए नहीं तो पछताएंगे.
स्‍कूल का समय निकट था, नहीं ईश्‍वर जाने, यह उपदेश-माला कब समाप्‍त होती. भोजन आज मुझे निस्‍स्‍वाद-सा लग रहा था. जब पास होने पर यह तिरस्‍कार हो रहा है, तो फ़ेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिए जाएं. भाई साहब ने अपने दरजे की पढ़ाई का जो भयंकर चित्र खींचा था; उसने मुझे भयभीत कर दिया. कैसे स्‍कूल छोड़कर घर नहीं भागा, यही ताज्‍जुब है; लेकिन इतने तिरस्‍कार पर भी पुस्‍तकों में मेरी अरुचि ज्‍यो-कि-त्‍यों बनी रही. खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता. पढ़ता भी था, मगर बहुत कम. बस, इतना कि रोज़ का टास्‍क पूरा हो जाए और दरजे में जलील न होना पड़े. अपने ऊपर जो विश्‍वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्‍त हो गया और फिर चोरों का-सा जीवन कटने लगा.

***

फिर सालाना इम्‍तहान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मैं इस बार भी‍ पास हुआ और भाई साहब फिर फ़ेल हो गए. मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने, कैसे दरजे में अव्‍वल आ गया. मुझे ख़ुद अचरज हुआ. भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था. कोर्स का एक-एक शब्‍द चाट गए थे; दस बजे रात तक इधर, चार बजे भोर से उभर, छ: से साढ़े नौ तक स्‍कूल जाने के पहले. मुद्रा कांतिहीन हो गई थी, मगर बेचारे फ़ेल हो गए. मुझे उन पर दया आ‍ती‍ थी. नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा. अपने पास होने वाली ख़ुशी आधी हो गई. मैं भी फ़ेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दु:ख न होता, लेकिन विधि की बात कौन टाले?
मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अन्‍तर और रह गया. मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कहीं भाई साहब एक साल और फ़ेल हो जाएं, तो मैं उनके बराबर हो जाऊं, फिर वह किस आधार पर मेरी फ़जीहत कर सकेंगे, लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल‍ से बलपूर्वक निकाल डाला. आख़िर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डांटते हैं. मुझे उस वक़्त अप्रिय लगता है अवश्‍य, मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो कि मैं दनानद पास होता जाता हूं और इतने अच्‍छे नम्‍बरों से.
अबकी भाई साहब बहुत-कुछ नर्म पड़ गए थे. कई बार मुझे डांटने का अवसर पाकर भी उन्‍होंने धीरज से काम लिया. शायद अब वह ख़ुद समझने लगे थे कि मुझे डांटने का अधिकार उन्‍हें नहीं रहा; या रहा तो बहुत कम. मेरी स्‍वच्‍छंदता भी बढ़ी. मैं उनकि सहिष्‍णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा. मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं तो पास ही हो जाऊंगा, पढ़ूं या न पढ़ूं मेरी तक़दीर बलवान् है, इसलिए भाई साहब के डर से जो थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करता था, वह भी बंद हुआ. मुझे कनकौए उड़ाने का नया शौक़ पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाज़ी ही की भेंट होता था, फिर भी मैं भाई साहब का अदब करता था, और उनकी नज़र बचाकर कनकौए उड़ाता था. मांझा देना, कन्‍ने बांधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियां आदि समस्‍याएं अब गुप्‍त रूप से हल की जाती थीं. भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि उनका सम्‍मान और लिहाज मेरी नज़रों में कम हो गया है.
एक दिन संध्‍या समय होस्‍टल से दूर मैं एक कनकौआ लूटने बेतहाशा दौड़ा जा रहा था. आंखें आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला जा रहा था, मानो कोई आत्‍मा स्‍वर्ग से निकलकर विरक्‍त मन से नए संस्‍कार ग्रहण करने जा रही हो. बालकों की एक पूरी सेना लग्‍गे और झड़दार बांस लिए उनका स्‍वागत करने को दौड़ी आ रही थी. किसी को अपने आगे-पीछे की ख़बर न थी. सभी मानो उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहां सब कुछ समतल है, न मोटरकारें हैं, न ट्राम, न गाड़ियां. सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड़ हो गई, जो शायद बाज़ार से लौट रहे थे. उन्होंने वहीं मेरा हाथ पकड़ लिया और उग्रभाव से बोले-इन बाज़ारी लौंडों के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्‍हें शर्म नहीं आती? तुम्‍हें इसका भी कुछ लिहाज़ नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गए हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो. आख़िर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख़्याल करना चाहिए. एक ज़माना था कि कि लोग आठवां दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे. मैं कितने ही मिडलचियों को जानता हूं, जो आज अव्‍वल दरजे के डिप्‍टी मजिस्‍ट्रेट या सुपरिटेंडेंट हैं. कितने ही आठवीं जमात वाले हमारे लीडर और समाचार-पत्रों के सम्‍पादक हैं. बड़े-बड़े विद्धान उनकी मातहती में काम करते हैं और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाज़ारी लौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो. मुझे तुम्‍हारी इस कमअकली पर दु:ख होता है. तुम ज़हीन हो, इसमें शक़ नहीं: लेकिन वह ज़ेहन किस काम का, जो हमारे आत्‍मगौरव की हत्‍या कर डाले? तुम अपने दिल में समझते होगे, मैं भाई साहब से महज़ एक दर्जा नीचे हूं और अब उन्‍हें मुझको कुछ कहने का हक़ नहीं है; लेकिन यह तुम्‍हारी ग़लती है. मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूं और चाहे आज तुम मेरी ही जमात में आ जाओ-और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्‍संदेह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओ-लेकिन मुझमें और जो पांच साल का अन्‍तर है, उसे तुम क्‍या, ख़ुदा भी नहीं मिटा सकता. मैं तुमसे पांच साल बड़ा हूं और हमेशा रहूंगा. मुझे दुनिया का और ज़िंदगी का जो तजरबा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एमए, डीफ़िल और डीलिट ही क्‍यों न हो जाओ. समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती है. हमारी अम्‍मा ने कोई दरजा पास नहीं किया, और दादा भी शायद पांचवीं जमात के आगे नहीं गए, लेकिन हम दोनों चाहे सारी दुनिया की विधा पढ़ लें, अम्‍मा और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा. केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्‍मदाता हैं, बल्कि इसलिए कि उन्‍हें दुनिया का हमसे ज़्यादा जतरबा है और रहेगा. अमेरिका में किस तरह कि राज्‍य-व्‍यवस्‍था है और आठवें हेनरी ने कितने विवाह किए और आकाश में कितने नक्षत्र हैं, यह बाते चाहे उन्‍हें न मालूम हो, लेकिन हज़ारों ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान उन्‍हें हमसे और तुमसे ज़्यादा है.
दैव न करें, आज मैं बीमार हो आऊं, तो तुम्‍हारे हाथ-पांव फूल जाएंगे. दादा को तार देने के सिवा तुम्‍हें और कुछ न सूझेगा; लेकिन तुम्‍हारी जगह पर दादा हो, तो किसी को तार न दें, न घबराएं, न बदहवास हों. पहले ख़ुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डॉक्‍टर को बुलाएगें. बीमारी तो ख़ैर बड़ी चीज़ है. हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने-भर का ख़र्च कैसे चले. जो कुछ दादा भेजते है, उसे हम बीस-बाईस तक ख़र्च कर डालते हैं और पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते हैं. नाश्‍ता बंद हो जाता है, धोबी और नाई से मुंह चुराने लगते हैं; लेकिन जितना आज हम और तुम ख़र्च कर रहे हैं, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज़्ज़त और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुम्‍ब का पालन किया है, जिसमें सब मिलाकर नौ आदमी थे. अपने हेडमास्‍टर साहब ही को देखो. एमए हैं कि नहीं, और यहां के एमए नहीं, ऑक्सफ़ोर्ड के. एक हज़ार रुपए पाते हैं, लेकिन उनके घर इंतज़ाम कौन करता है? उनकी बूढ़ी मां. हेडमास्‍टर साहब की डिग्री यहां बेकार हो गई. पहले ख़ुद घर का इंतज़ाम करते थे. ख़र्च पूरा न पड़ता था. करजदार रहते थे. जब से उनकी माताजी ने प्रबंध अपने हाथ में ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्‍मी आ गई है. तो भाईजान, यह ज़रूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गए हो और अब स्‍वतंत्र हो. मेरे देखते तुम बेराह नहीं चल पाओगे. अगर तुम यों न मानोगे, तो मैं (थप्‍पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूं. मैं जानता हूं, तुम्‍हें मेरी बातें ज़हर लग रही हैं.
मैं उनकी इस नई युक्‍ति से नतमस्‍तक हो गया. मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्‍पन्‍न हुईं. मैंने सजल आंखों से कहा-हरगिज नहीं. आप जो कुछ फरमा रहे हैं, वह बिलकुल सच है और आपको कहने का अधिकार है.
भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले-कनकौए उड़ाने का मना नहीं करता. मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन क्या करूं, ख़ुद बेराह चलूं तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूं? यह कर्तव्य भी तो मेरे सिर पर है.
संयोग से उसी वक़्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुज़रा. उसकी डोर लटक रही थी. लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था. भाई साहब लंबे हैं ही, उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होटल की तरफ़ दौड़े. मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था.

Illustrations: Pinterest

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