महानगरों में रहनेवालों के लिए जातिप्रथा भले ही बीते कल की बात लगे, पर हमारे गांवों के सिलैबस में जातिवाद अब भी एक बेहद महत्वपूर्ण विषय है. दलित साहित्य के सबसे प्रतिष्ठित नामों में एक रहे ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘तब तुम क्या करोगे’ हम शहरी लोगों से बस कुछ छोटे-छोटे सवाल कर रही है. ग्रामीण भारत से निकले ये सवाल हर संवेदनशील शहरी को बेचैन कर देते हैं.
यदि तुम्हें,
धकेलकर गांव से बाहर कर दिया जाए
पानी तक न लेने दिया जाए कुएं से
दुत्कारा फटकारा जाए चिल-चिलाती दोपहर में
कहा जाए तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाए खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
मरे जानवर को खींचकर
ले जाने के लिए कहा जाए
और
कहा जाए ढोने को
पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाए उतरन
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
पुस्तकों से दूर रखा जाए
जाने नहीं दिया जाए
विद्या मंदिर की चौखट तक
ढिबरी की मंद रोशनी में
काली पुती दीवारों पर
ईसा की तरह टांग दिया जाए
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
रहने को दिया जाए
फूस का कच्चा घर
वक़्त-बे-वक़्त फूंक कर जिसे
स्वाहा कर दिया जाए
बर्षा की रातों में
घुटने-घुटने पानी में
सोने को कहा जाए
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
नदी के तेज़ बहाव में
उल्टा बहना पड़े
दर्द का दरवाज़ा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नई नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
अपने ही देश में नकार दिया जाए
मानकर बंधुआ
छीन लिए जाएं अधिकार सभी
जला दी जाए समूची सभ्यता तुम्हारी
नोच-नोच कर
फेंक दिए जाएं
गौरव में इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
वोट डालने से रोका जाए
कर दिया जाए लहू-लुहान
पीट-पीट कर लोकतंत्र के नाम पर
याद दिलाया जाए जाति का ओछापन
दुर्गन्ध भरा हो जीवन
हाथ में पड़ गए हों छाले
फिर भी कहा जाए
खोदो नदी नाले
तब तुम क्या करोगे?
यदि तुम्हें,
सरे आम बेइज़्ज़त किया जाए
छीन ली जाए संपत्ति तुम्हारी
धर्म के नाम पर
कहा जाए बनने को देवदासी
तुम्हारी स्त्रियों को
कराई जाए उनसे वेश्यावृत्ति
तब तुम क्या करोगे?
साफ सुथरा रंग तुम्हारा
झुलस कर सांवला पड़ जाएगा
खो जाएगा आंखों का सलोनापन
तब तुम काग़ज़ पर
नहीं लिख पाओगे
सत्यम, शिवम, सुन्दरम!
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले लंगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाए युगों-युगों तक
मेरी तरह?
तब तुम क्या करोगे?
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