बेहतर इंसान बनने के लिए दुनिया को व्यापक नज़रिए से देखने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है. और दुनिया को व्यापक नज़रिए से हम तब देख सकेंगे, जब हम घर से निकलेंगे और दूर से अपने घर को देखेंगे. विनोद कुमार शुक्ल की यह कविता घर का हिसाब-किताब समझा रही है ताकि हम अपने नज़रिए को दुरुस्त कर सकें.
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुंदर पार चले जाना चाहिए
जाते-जाते पलटकर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न-जल होगा कि नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न-जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ़ लौटना
घर की तरफ़ लौटने जैसा।
घर का हिसाब-किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ़ लौटता हूं
जैसे पृथ्वी की तरफ़
पुस्तक साभार: कवि ने कहा
कवि: विनोद कुमार शुक्त
प्रकाशन: किताबघर
Illustration: Pinterest