बेकसूर किशोरवय बच्चे का पुलिसिया पूछताछ के बाद ग़ायब हो जाना लोगों के लिए ख़बर हो सकती है, लेकिन जिस माता-पिता पर यह गुज़रे, उनका पूरा जीवन केवल और केवल इंतज़ार में तब्दील हो जाता है. और जब कानाफूसी यह होने लगे कि पूछताछ के दौरान, जबरन दबाव बनाकर किसी केस को सॉल्व करने के लिए उसकी ‘बलि’ दे दी गई तो फिर माता-पिता करते रह जाते हैं अंतहीन इंतज़ार…
इन दिनों पखांजूर के मिसिर मंडल के घर, भूरी ऊदी लकड़ी-सी उदासी का स्थाई डेरा है. दूर तक पसरे सन्नाटे में बरसात का झिर-झिर करता पानी, यादों के सैलाब में ख़लल पैदा कर रहा है. मिसिर मंडल बेहद आहत हैं. उनके आहत होने का कारण क़स्बे में जगह-जगह लगे वो पोस्टर्स हैं, जहां पुलिस ने माओवादी होने की आशंका में बस्तर के कई लड़कों की तस्वीरें लगाई हैं, जिसमें उनके इकलौते बेटे राजन मंडल की भी तस्वीर है. हालांकि मिसिर मंडल को अच्छी तरह पता है कि इन लड़कों का इस तरह की किन्हीं संगठनों से कोई लेना-देना ही नहीं है.
पचपन साल के मिसिर मंडल पैंतालीस साल पहले ही अपने भाई-भाभी और विधवा मां के साथ बांग्लादेश से भागकर छत्तीसगढ़ के कांकेर आए थे. आज भी उनकी धुंधली यादों में दुख और ग़रीबी के सिवा कुछ न था.
उन दिनों बड़ी मुश्क़िल से छत नसीब हुई थी. स्थानीय निवासियों ने तो खुलेआम विरोध किया था सभी विस्थापित परिवारों का, पर सरकार ने इन विरोधों के बावजूद विस्थापित लोगों को परलकोट विलेज में बसाया था.
वैसे तो विरोधी आज भी हैं और बस्तर को बंगलादेशियों से मुक्त करने पर ज़ोर भी देते हैं पर मिसिर मंडल के पूरे परिवार का गांव के लोगों के साथ अच्छा व्यवहार और लोगों के दुख में हमेशा जी जान से खड़ा होने की वजह से गांववाले हमेशा उनका साथ दिया करते हैं.
धुरविरोधियों में, सर्वआदिवासी समाज के नेता मणिकांत धुर्वा का नाम सर्वोपरि है. उन्हें तो ये विस्थापित लोग तनिक नहीं सुहाते.
अभी हाल की ही की बात है, बड़का गांव के मयूरी मैदान में सभा बुलाई धुर्वा ने और अपने ज़ोरदार भाषण में कहा,‘‘भाईयों, समस्याएं तो बहुत हैं परन्तु आज की हमारी प्रमुख समस्या- हमारे गांव में बसे विस्थापित लोग हैं. आप ही बताइए, जिन शरणार्थियों को बसाया गया. गांव में शरण दी गई, वही लोग आज हमारे हक़ छीनने में लगे हैं, हमारे आरक्षण में भागीदारी मांग रहे हैं. हम चाहते हैं कि इन लोगों का सरकार कहीं और इंतज़ाम करे. धुर्वा के ऐसे भड़काऊ भाषण सुन कर दो गुट आपस में गिटपिट करने लगे.
पूरी सभा में हलचल थी. सब एक-दूसरे का मुंह ताक रहे थे.
तभी मिसिर मंडल उठा और बोला,‘‘हमने जबसे होश संभाला है बस्तर को ही अपनी मातृभूमि समझा है. हम भी परेशान हैं. तीन पीढ़ियों के बाद भी हमारे सामने सवाल खड़ा है कि आख़िर हमारी धरती कहां है?‘‘
मिसिर आगे कुछ बोलता कि धुर्वा के चमचों ने मिसिर को धकिया कर बैठा दिया. मणिकांत भी उसकी बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए गांव की समस्याओं पर भाषण देता रहा.
भाषण के बाद मिसिर की तरफ़दारी करनेवालों और मणिकांत धुर्वा के लौंडों के बीच अच्छी-ख़ासी झड़प भी हुई. पर भला हो मुर्मु और पूर्ति दद्दा का, जिन्होंने शांतिपूर्ण ढंग से बीच-बचाव किया और समझ-बूझकर बात करने की हिदायत दी.
इस घटना के बाद मिसिर मंडल गुटबंदी से दूर ही रहते. मिसिर मंडल का छोटा-सा परिवार था. पत्नी, बूढ़ी मां और इकलौता बेटा राजन का छोटा-सा संसार. पत्नी घर- बार, जानवरों में व्यस्त रहती और मिसिर मंडल अपने छोटे से खेत में. बेटे राजन मंडल को रायपुर के हॉस्टल में रख कर ही पढ़ाया, क्योंकि गांव में वैसे भी न तो अच्छे स्कूल थे, ना ही संगति अच्छी थी. बस छुट्टियों में ही बेटा घर आता. राजन को भी अपने गांव से लगाव था. अभी कुछ दिनों पहले ही पंखाजुर की कुटनी नदी पर सौ मीटर का पुल बनाने में जब पूरा गांव जुटा था, तब मिसिर मंडल के साथ राजन ने भी श्रम दान दिया था. इस दौरान पूरे गांव की एकजुटता देखते ही बनती थी. लकड़ी का पुल पूरा होते ही गांव में ख़ुशी की लहर दौड़ गई.
‘‘बाबा अब हम सब को उस पार तैरकर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी,’’ राजन ने हुलस कर मिसिर मंडल से कहा.
‘‘हां बेटा, बहुत बड़ा योगदान रहा सबका,’’ मिसिर बोला.
तभी सामने से आता विद्युत दिखा. सामने पड़ते ही पूछा,‘‘की मिसिर दादा, की हाल? भालो तो?’’
‘‘हें… शोब किछु भालो ई आचे,’’ मिसिर ने जबाब दिया
फिर तीनों लोग बोलते-बतियाते घर की ओर रवाना हो गए. रास्ते भर विद्युत अपनी लगाई नई फसल पिताया (ड्रैगन-फ़्रूट) की खेती के बारे बताता रहा और साथ ही यह भी कि कैसे बैंकाक से बांग्लादेश का सफ़र करता पिताया (ड्रैगन-फ़्रूट) हमारे प्रदेश तक पहुंचता है. उसने यह भी बताया कि थोड़ा महंगा बीज तो है, पर मुनाफ़ा भी अच्छा है.
मिसिर मंडल सुनता रहा, पर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्योंकि उसे रुपए-पैसों की क़िल्लत ही रहती. अब बेटे की पढ़ाई पर ख़र्च करें कि नए मुनाफ़े की सोचे?
घर पहुंचते ही मिसिर ने पहले बकरियों को चारा खिलाया और गाय की नाद में कुट्टी डाली.
राजन भीतर की कोठरी में जा कर अपना सामान ठीक करने लगा. कल भिनसारे रायपुर हॉस्टल जाना है.
उस दिन सब बाहर दालान में बैठे बात विचार कर रहे थे, तभी अर्जुन मुंडा दौड़ा-दौड़ा आया. हांफते-हांफते थोड़ा रुका और कहने लगा,‘‘दादा, पंखाजूर इलाक़े में सर्चिंग के लिए निकली बीएसएफ़ जवानों की टीम के साथ नक्सलियों की मुठभेड़ हुई, जिसमें कई नक्सली मारे गए पर कुछ जवानों को गहरी चोट आई है और दो जवान शहीद हो गए हैं. भारी फ़ायरिंग हुई है दोनों तरफ़ से.’’
सुनते ही सब चौकन्ने हो गए. आनन-फ़ानन में पूरा गांव ख़ाली हो गया. सारे मर्द जहां-तहां जंगल-झाड़ में जा छुपे रहे. पीछे रह गईं औरतें, बच्चे और पालतू जानवर.
दूसरे दिन गांव में पुलिस की टीम खोजबीन के लिए पहुंची तो देखा कि घर झोपड़ियों के अलावा कुछ जनानियां दिख रही हैं और सारे मर्द नदारद हैं. गांव में दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था. बड़ा ही डरावना मंज़र था.
‘‘आख़िर कहां गए सब लोग?’’ इंस्पेक्टर दहाड़ा.
कोई उत्तर ना पा कर पुलिस पूरे गांव में राई के दाने-सी बिखरकर तलाशी लेने लगी.
तभी पैदल आती एक आदिवासी वृद्धा दिखी, पर वो कुछ सुन नहीं पाती थी. बस लाठी टेकती झुक-झुककर अपने रास्ते चली जा रही थी.
पत्रकारों का दल भी मौजूद था. इधर-उधर ढूंढ़े जाने पर उनकी भेंट सुनीता मुक्के नाम की महिला से हुई, जिसने बताया कि गांव में कई बार पुलिस के छापे पड़ चुके हैं. पुलिस ने हमें धमकाया है और कहा कि तुम लोग नक्सलियों से मिले हुए हो. हमें मालूम है कि यहां माओवादियों को शरण दी जाती है इसलिए नाम बताओ वरना सबको जेल की हवा खानी पड़ेगी.
मर्द लोग तो गांव में मिले नहीं तो उन्होंने कई औरतों को ही पीट-पीट कर पूछा कि बताओ तुम्हारा मरद कहां छुपा है?
पुलिस और सुरक्षा बलों के जवानों के जाने के बाद माओवादी भी आ धमके और उन्होंने हमें अलग धमकाया और गांव से चले जाने का फ़रमान जारी किया.
उधर मिसिर मंडल के घर पुलिस दहशत फैला कर गई थी सो अलग. पूरा घर तहस-नहस करके गई, घर के सारे काग़ज़-पत्तरों को उठा-पटककर जाने क्या ढूंढ़ती रही और फिर सबको रौंदती बाहर की ओर निकल गई.
दो दिनों बाद कुछ घरों के मर्द दबे पांव अपने-अपने घरों में घुसे. मिसिर मंडल घर का हाल देख माथा पकड़ कर बैठ गए. जाने कौन मुसीबत आनेवाली है ये सोच-सोचकर हलकान होते रहे.
दो दिनों बाद ख़बर आई कि पुलिस रायपुर के हॉस्टल से दो लड़कों को उठाकर पूछताछ के लिए थाने ले गई है.
दरअसल, पुलिस पूरी मुस्तैदी से अपराधियों को ढूंढ़ रही थी. सूत्रों से पता चला था कि राजा नाम के नौजवान की शागिर्दी में यह हमला हुआ. यही कारण था कि चारों ओर से इस नाम से मिलते-जुलते नामों के नौजवानों की भी धड़रपकड़ हो रही थी और इसी चक्कर में सादे लिबास में पुलिसवाले आए और हॉस्टल से राजन मंडल और एस राज को अपने साथ ले गए.
दो दिनों बाद एस राज तो वापस हॉस्टल आ गया, पर राजन मंडल का अता-पता नहीं था. देखते-देखते एक हफ़्ता होने को आया. मिसिर मंडल रायपुर के पुलिस स्टेशन का चक्कर काटने लगे, पर उसे कोई कुछ नहीं बताता.
बात छात्रों तक पहुंची. पूरे कॉलेज में धरना प्रदर्शन हुए. पुलिस-प्रशासन के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी हुई. राजन के मित्र भूख हड़ताल पर बैठे पर प्रशासनिक अधिकारियों के कानों जूं नहीं रेंगी. कैंडल मार्च हुए पर सब बेअसर.
गांव तक ख़बर पहुंची. यह सब सुनकर राजन की मां पछाड़ खाकर गिर पड़ी. घर का चूल्हा उदास रहा. दादी ने खटिया पकड़ ली.
पुलिसवालों के रवैये से थककर मिसिर मंडल राजन के कॉलेज के प्रिंसिपल के पास गए. हाथ जोड़कर मदद मांगी.
‘‘सर, भगवान के लिए मेरे इकलौते बेटे राजन की खोज करवाइए. मेरे बेटे से माओवादियों का कोई सरोकार ही नहीं. आप तो जानते हैं सर, राजन होनहार विद्यार्थियों में से एक था. गीत-संगीत का चितेरा, उसका रिकॉर्ड निकलवाया जाए सर. हम आपके हाथ जोड़ते हैं.’’
प्रिंसिपल साहब अपनी कुर्सी से उठते हुए बोले,‘‘घबराने की ज़रूरत नहीं, हम तहक़ीक़ात में जुटे हैं. पुलिस ने सिर्फ़ पूछताछ के लिए उसे बुलाया है. जल्दी ही, वह वापस हॉस्टल आ जाएगा,’’ और ऑफ़िस से निकलकर बाहर चले गए .
मिसिर मंडल बुत बना खड़ा रहा.
इधर राजन की मां ने एक ही रट लगाई हुई थी,‘‘मेरे राजन को बुलाओ…’’
दिन बीत रहे थे पर ना पुलिस कुछ बता रही थी, ना राजन की कोई ख़बर मिल रही थी. राजन के इंतज़ार में उसकी दादी की आंखें पथरा गईं. वह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकीं और चल बसी.
पर मां को बड़ा भरोसा था कि उसका राजन ज़रूर लौट आएगा. सो हर रोज़ उसके नाम की थाली लगाती कि उसका लाड़ला भूखा होगा. आकर खाना खाएगा, पर राजन नहीं लौटा.
पर धीरे-धीरे कानाफूसी शुरू हो गई. लोग-बाग कहने लगे कि पुलिस कस्टडी में राजन को पूछताछ के दौरान थर्ड डिग्री टार्चर दे कर क़बूलवाने की कोशिश की गई कि वह नक्सलियों से मिला हुआ है, पर राजन के लगातार नकारने का नतीजा हुआ कि लगातार मार खाता रहा. अत्याचार सहता रहा और आख़िर टूट गया, हार गया ज़िन्दगी से.
लाश घर वालों को नहीं सौंपी गई. मिसिर मंडल को कोई ऑफ़िशल जानकारी नहीं दी गई.
मिसिर मंडल आज भी इंतज़ार करता है अपने बेटे का अपनी पत्नी के साथ. हर रोज़ एक थाली उसके नाम लगती है, लीपी हुए ज़मीन पर बिछे पीढे़ के साथ. इस इंतज़ार में कि उनका बेटा राजन ज़रूर लौटेगा घर.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट