आदमी के तेज़ी से आंकड़ों में बदलते जाने के विरोधाभास पर रौशनी डालती कुंवर नारायण की कविता, आम आदमी के दर्द का चिट्ठा है.
एक बार मुझे आंकड़ों की उल्टियां होने लगीं
गिनते गिनते जब संख्या
करोड़ों को पार करने लगी
मैं बेहोश हो गया
होश आया तो मैं अस्पताल में था
ख़ून चढ़ाया जा रहा था
ऑक्सीजन दी जा रही थी
कि मैं चिल्लाया
डॉक्टर मुझे बुरी तरह हंसी आ रही
यह हंसानेवाली गैस है शायद
प्राण बचानेवाली नहीं
तुम मुझे हंसने पर मजबूर नहीं कर सकते
इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
पैदाइशी हक़ है वरना
कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र
बोलिए नहीं-नर्स ने कहा-बेहद कमज़ोर हैं आप
बड़ी मुश्क़िल से क़ाबू में आया है रक्तचाप
डॉक्टर ने समझाया-आंकड़ों का वाइरस
बुरी तरह फैल रहा आजकल
सीधे दिमाग़ पर असर करता
भाग्यवान हैं आप कि बच गए
कुछ भी हो सकता था आपको
सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
आपका बोलना
मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
आंकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
शान्ति से काम लें
अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे…
अचानक मुझे लगा
ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में
बदल गई थी डॉक्टर की सूरत
और मैं आंकड़ों का काटा
चीख़ता चला जा रहा था
कि हम आंकड़े नहीं आदमी हैं
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