कई बार हमें क्या करना चाहिए यह बात हमें हमारी आंतरिक प्रेरणा बता देती है और अक्सर इसके सुझाव बेहद मानवीय होते हैं. जब कभी हम अपने अंतर्मन की बात मानकर कोई काम करते हैं तो उसका अंत बहुत सुकूनदेह होता है. इसी बात की तस्दीक करती है यह कहानी.
रातभर न जाने क्यों उस लड़की का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूमता रहा. वह लड़की बार-बार ज्वेलरी शॉप में मेरे काउंटर पर आकर सामने पड़े कान के बूंदों का दाम पूछा करती थी. दाम सुनकर उसके मुंह से बस ‘ओह’ निकलता और फिर वह चली जाती थी. कभी आकर पूछती आज सोने का रेट क्या है? सोने का भाव जानकर, कुछ देर बैठकर कुछ जोड़-घटाव करती और फिर चली जाती थी. उसकी आंखों में एक अलग सी चाहत थी उन बूंदों को ख़रीदने की.
फिर उस दिन जब वह आई और उन बूंदों का दाम पूछा तो मैंने कहा, ‘‘मैडम, आप अपना नाम और नंबर दे दीजिए. मैं इन्हें आपके लिए अलग से रख दूंगी.”
उसने अपना नाम बताया ‘राशि’ और अपना फ़ोन नंबर भी दे दिया. कहा, “ पास ही कमरा है मेरा, पार्क के बग़ल वाले विमेन्स हॉस्टल में…“
लेकिन, उस दिन के बाद वह फिर क़रीब एक महीने तक दुकान पर नहीं आई. शायद सभी सेल्स गर्ल्स और मैनेजर की घूरती आंखों से वह झेंप सी गई थी. जब तक पर्स में क्रेडिट कार्ड हो या नोटों की गड्डी तभी तक तो आज के युग में दुकानदार ग्राहक को भगवान मानते हैं . लेकिन मैं राशि की आंखों में बसी उन बूंदों की चाहत को भूल नहीं पा रही थी . मेरी आंखें रोज़ उसका इंतज़ार करतीं. कितने ही ग्राहक आए लेकिन मैंने वह बूंदे किसी को नहीं दिखाए. उस लड़की की हसरत भरी नज़रें मेरा हाथ रोक लेती थीं. आख़िरकार, एक दिन एक महिला की नज़र उन बूंदों पर पड़ी और उसने मुझे उन्हें दिखाने को कहा. वैसे तो मैंने पहले कई ग्राहकों को टाला था, लेकिन उस दिन हमारा मैनेजर मेरे सामने था इसलिए मैं कुछ नहीं कर पाई. वह तो भगवान का शुक्र था कि वो बूंदे उसे पसंद नहीं आए. कहते हैं न हर चीज़ हर किसी के लिए बहुमूल्य नहीं होती. किसी वस्तु का मूल्य तो देखने वाले की नज़र ही तय करती है.
उस ग्राहक के जाने के बाद मैंने सोचा कि आज तो मैंने इन्हें बचा लिया लेकिन हर बार भगवान की कृपा थोड़े ही होती है इसलिए मैंने उस शाम राशि को कॉल किया और पूछा, “राशि जी, क्या आप ये कान के बूंदे लेंगीं? महीने से ऊपर हो गया. अब मुझे इन्हें निकालना पड़ेगा.”
कुछ रुआंसे स्वर में राशि ने कहा, “निकालना पड़ेगा…ओके.”
न जाने क्यों मुझे उसकी आवाज़ में एक दर्द सा महसूस हुआ, जैसे कोई क़ीमती चीज़ खोने का ग़म हो. कभी-कभी न चाहते हुए भी मन हमें उस दिशा में ले जाता है, जहां जाने की ज़रूरत ही नहीं होती. शायद इसलिए कि अंतर्मन की आवाज़ को दबाना मुश्किल होता है. और फिर राशि की आंखें मुझे अपनी बेटी की याद दिला जाती थीं, जो मुझसे मीलों दूर लंदन में पढ़ाई कर रही थी. मां तो आख़िर मां ही है. जिसमें अपने बच्चों की झलक भी दिख जाए, उसके लिए ही पिघल जाती है. राशि का घर मेरे घर के रास्ते में ही था. शायद राशि की आवाज़ की बेबसी ने मुझे उससे मिलने के लिए मजबूर कर दिया और घर लौटते समय मैं उसके घर उससे मिलने चली गई.
“अरे आंटी… आप!” मुझे देखते ही राशि ने कहा और अंदर बुला लिया.
“बेटा, वैसे तो हमें कस्टमर्स से पूछने का अधिकार नहीं है, लेकिन मैंने महसूस किया कि तुम मेरी बात सुनकर दुखी हो गई. मैं सच में अब उन बूंदों को रोक कर रख नहीं सकती. उससे सस्ते और भी बूंदे हैं… आप उनमें से ले सकती हो!“ फिर एक सांस लेकर मैंने कहा, “आप बुरा मत मानना. आप मुझे मेरी बेटी जैसी लगी इसलिए यहां आ गई.”
कभी-कभी किसी की आंखों में, दिल में झांकने भर से अनायास ही कुछ रिश्ते बन जाया करते हैं. आत्मीयता का स्पर्श पा कर राशि कहने लगी,“ नहीं आंटी, मुझे कोई और चीज़ नहीं चाहिए. मैं तो बस वही बूंदों की जोड़ी लेना चाहती थी अपनी मां के लिए. लेकिन ठीक है…अभी नहीं तो फिर कभी, कहीं और… ऐसे ही बूंदों की जोड़ी मुझे मिल जाएगी. तब तक मैं कुछ पैसे भी जमा कर लूंगी.”
मेरी आंखों में कुछ अनुत्तरित प्रश्न देख राशि ने मुझे बैठने को कहा. फिर धीरे-धीरे बताया, “आंटी, दरअसल बात यह है कि जब मैं 12वीं में थी तब हमारे स्कूल का नैनीताल का ग्रुप टूर हुआ था. सबको पांच-पांच हज़ार रुपये देने थे. मैंने अपना भी नाम लिखा दिया. लेकिन जब मैं फ़ॉर्म लेकर घर पहुंची तो मकान मालिक को मां से कहते हुए सुना, “बहनजी, दो महीने हो गए आपने बिजली का बिल नहीं दिया. वो तो टाइम पर दे दिया कीजिए .” मैं भांप गई कि मां को पैसे की तंगी थी इसलिए मैंने चुपचाप टूर का फ़ॉर्म छिपाकर अलमारी में रख दिया. लेकिन एक हफ़्ते बाद मां ने वह फ़ॉर्म देख लिया और मुझसे पूछने लगी कि मैं नैनीताल क्यों नहीं जा रही हूं, जबकि मेरी सहेलियां जा रही थीं. मैंने कितना ही कहा कि मेरा मन नहीं है, फिर भी मां ने मेरी एक न सुनी और ख़ुद ही फ़ॉर्म को भरकर उसके साथ पांच हज़ार रुपए का चेक लगा दिया. कहा, “इस ट्रिप पर नहीं जाओगी तो इसका तुम्हें हमेशा अफ़सोस रहेगा.” मैं मां से लिपट गई. मां ही थी इसीलिए मेरे मन की बात समझ गई थी.’’
कुछ रुककर उसने आगे बताया, ‘‘पूरे ट्रिप में हमने खूब मौज-मस्ती की. लेकिन जब भी मैं नैनी झील को देखती, मुझे वहां भी मां की आंखें याद आती थीं. कितना कुछ अपने अंदर समेट कर रखतीं थीं. उन आंखों में समंदर का शोर नहीं था, बस गहराई थी. वैसे तो मेरे पापा मेरे बचपन में ही हमें छोड़कर चले गए थे, पर मां ने उन्हें कभी जाने नहीं दिया. हर अवसर-त्यौहार, बर्थ-डे पर हम सब पापा को याद करते और घंटों उनकी ही बातें करते. मां अपनी हर वेडिंग-एनिवर्सरी पर सजती-संवरतीं, सगे-संबंधियों को बुलाकर पार्टी करती. उन अवसरों पर मां हमेशा ऐसे ही कान के बूंदे पहना करती थीं. हर बार बताती कि वह उन्हें पापा का दिया हुआ पहला गिफ़्ट था. मैंने उन्हें मौसी से कहते सुना भी था कि वह उन्हें जब भी पहनती थीं, उन्हें शेखर के स्पर्श का अहसास होता था. मौसी ने मज़ाक़ भी किया था, “कहीं खो गया तो…?” पर मेरे नैनीताल ट्रिप के बाद की एनीवर्सरी पर मेरी मां के कान ख़ाली थे. जो मां हर साल कान के वह बूंदे पहन कर आईने में अपने को ऐसे निहारतीं, जैसे पापा ही उन्हें देख रहे हों, वह आज आईने से नज़रें चुरा रही थीं. मैंने जब उनसे पूछा तो कह दिया, “अरे बेटा.. मेरा यह कान थोड़ा पक गया है. नहीं पहन सकती..” लेकिन, फिर जब अगले त्यौहार में मां ने वह बूंदे नहीं पहने तो मैं समझ गई कि तंगी के कारण मां ने मेरी ख़ुशी के लिए उस ट्रिप के समय अपनी एक मीठी याद को मुझ पर न्यौछावर कर दिया था. पिछले महीने जब मुझे पहली सैलरी मिली तब से मैंने कितनी ही दुकानों में वैसे ही बूंदे ढूंढ़े, लेकिन जब आपके यहां मिले तो मेरे पास पचपन हज़ार रुपए नहीं थे. पता नहीं, ठीक ऐसे बूंदे मुझे मिलेंगे या नहीं इसीलिए मैं आपसे बार-बार आकर उन्हें अलग से रखने का आग्रह करती थी. क्या पता इस बार सोने का भाव गिर जाए या फिर कोई इन्स्टॉलमेंट की स्कीम आ जाए और मैं मां को उनकी वह मीठी याद लौटा सकूं.”
मेरी आंखें भर आईं. मैंने राशि से कहा, “ मैं देखती हूं बेटा… कल दुकान पर आ जाना.”
अगले दिन मैंने दुकान पर जाते-जाते अपने ट्रैवेल-एजेंट से वैष्णो देवी का ट्रिप कैंसिल करा दिया और रिफ़ंड के पैसों से सबसे पहले जाकर वह बूंदे ख़रीद लिए. पतिदेव ने जब फ़ोन कर ट्रिप कैंसिल करने का कारण पूछा तो मैंने कह दिया, “पीठ में दर्द है, इस बार मां के दरबार तक कैसे जा पाऊंगी! “ मैंने तय कर लिया था कि माता के दर्शन तो मैं अगले बरस भी कर लूंगी, इस साल एक मां की मीठी याद उसे लौटा देती हूं.
राशि के आने पर जब मैंने एक सुंदर से डब्बे में रखे वह बूंदे उसके हाथों में दिए तो मानो उसे अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. मैंने उससे कहा, “समझो तुम्हें इन्स्टॉलमेंट पर ही मिल रहे हैं. जो बन पड़े महीने-महीने मुझे वापस कर देना.“
उसकी आंखें छलक उठीं. कहा, “मेरी मां कहती हैं, अगर दिल से कोई इच्छा करो तो मां दुर्गा उसे ज़रूर पूरा करती हैं. आप मुझे उसी मां दुर्गा का रूप लग रही हैं.” राशि ख़ुशी से चमकती हुई, तेज़ कदमों से अपने घर चली गई.
उस शाम जब मैंने घर जाकर आरती का दीप जलाया तो वैष्णो माता की तस्वीर पर पड़ती दीप की रौशनी में मुझे एक पल को लगा जैसे माता ने वही बूंदे पहने हुए हैं.
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट